५. वर्षा किसानों के
वर्षा-विज्ञान को हि निम्नलिखित योग
या युतियों में वर्गीकृत करके समझ
सकते हैं।
५.१. वायु
योग
'ईसान'
हवा चले तो वर्षा एवं गरकी
होगी। 'उत्तरा' हवा खूब वर्षा लानेवाली
है। ठण्डी पुरवइया तथा सावन के
महीने की पहली 'पुरवइया'
वर्षा का लक्षण है-
भुइयाँ
लोट चलै पुरबाई, तो जानों बरसा
रित आई।
नेॠत्य
कोण की हवा से वर्षा नहीं होती
। ठंडी हवा चलती है तब या तो सूखा
पड़ता है अथवा अत्यंत वर्षा होती
है। 'पछइयाँ' हवा बादलों को उड़ा
ले जाती है। अग्निकोण की हवा से अकाल
की संभावना है, दक्षिणी हवा कुलक्षणी
मानी गयी है, क्योंकि इससे अकाल
का योग बनता है किंतु माघ पौष
की दक्षिणी हवा वर्षा लाती है।
५.२. वायुमास
युति
जनपदीयजन
ने इस तथ्य को भी लक्षित किया है
कि कौन-से महीने में कौन-सी
हवा चलती है और उसका आगे क्या असर
होता है। चैत में पछइयाँ हवा चले
तो भादों में वर्षा होगी। जेठ में
जितने दिन पुरवइया हवा चलेगी,
माघ में इतने ही दिन पाला पड़ेगा।
पौष माघ में दक्षिण हवा चले तो भादों
में अच्छी वर्षा होगी, सावन में पुरवइया
चले तो वर्षा कम है। भादों में 'पुरवइया'
न चले और मेघ न आवे तो खेती पतली
हो जाती है। सावन में दो-चार
दिन 'पछुआ' चल जावे तो खेती अच्छी
होती है। धरती और बीज के संबंध
को 'वायुमास युति' और वर्षा
किस प्रकार प्रभावित करती है, इसे
इन लोकोक्तियों और लोकानुभवों
में समझा जा सकता है।
५.३. तिथि वायु
युति
यदि
पौष-अमावस को मूल नक्षत्र हो और
चौवाई हवा चले दो सवाई
वर्षा होगी। माघ शुक्ला पंचमी
को उत्तरा हवा चले तो भादों में
वर्षा का योग नहीं है।
५.४. मेघ रंग
युति
तीतर पंखों
के रंगोंवाला बादल अवश्य बरसता
है। काला बादल केवल डराता है,
जबकि भूरा बादल खेत भरनेवाला
होता है। पीला बादल फीकी वर्षा
का लक्षण होता है तथा लाल बादल
तुरंत वर्षा होने का लक्षण है। माघ
में यदि लाल बादल हों तो ओले
बरसेंगे।
५.५. दिशा मेघ
युति
पश्चिम दिशा
से पछइयाँ हवा के साथ उठा बादल
नहीं बरसता जबकि पुरवइया
हवा के साथ पश्चिम से उठा बादल
अवश्य बरसता है। ईसान कोण का
बादल गरजता है तो खेत भर
देता है। सूर्य पश्चिम में हो और
पूरब से बादल उठे तो शीघ्र वर्षा
होगी। इसी प्रकार पूरब से पश्चिम
दिशा को जानेवाला बादल भी बरसता
है।
५.६. तिथि मेघ
युति
गाँवों में
आजकल भी 'तिथि-गणना' प्रचलित है,
क्योंकि बीज बोने से फसल काटने
तक का कार्यक्रम तिथियों के परंपरागत
ज्ञान से जुड़ा हुआ है। किसानों के लोकशास्र
में यह तथ्य रेखांकित किया गया
है कि किस तिथि का बादल क्या असर
करता है। चैत्र-दशमी को वर्षा न
हो तो चौमासों में वर्षा
होगी। जेठ कृष्णा पंचमी आधी रता
बादल गरते तो सूखा पड़ेगा।
आषाढ़-कृष्णा अष्ठमी को चंदा बादलों
को बिना और स्वच्छ दीखे तो सूखा
पड़ेगा परंतु आषाढ़ी पूर्णिमा को
चंद्रमा बादलों से घिरा हुआ हो
तो वर्षा अनुकूल होगी। सावन
कृष्णा परवा को प्रात:काल पंचमी
को उगते सूर्य के दर्शन न हों तो
देवगन एकादशी तक वर्षा होगी।
प्रकृति की सम्पूर्ण
प्रक्रियाएँ उसी प्रकार से जुड़ी हैं
जैसे जल की एक लहर से दूसरी
लहर। इस तथ्य को हम प्रकृति के सम्पूर्ण
व्यापार मे लक्षित कर सकते हैं। माघ
कृष्णा सप्तमी को बादल हों, बिजली
चमके तो आषाढ़ में खूब वर्षा
होगी। इस प्रकार की सैकड़ों
कहावतें हैं जो गाँवों में प्रचलित
हैं और लोगों का इनमें विश्वास भी
है। इन कहावतों का आधार परंपरागत
अनुभव है। हो सकता है कि इनके आधार
पर की गयी भविष्यवाणी कभी सच
न निकले परंतु इससे इस 'सत्य' पर
कोई अंतर नहीं पड़ता कि सम्पूर्ण प्रकृति
एक है और अविच्छिन्न है तथा धरती और
बीज का संबंध उस 'सम्पूर्णता' से
जुड़ा हुआ है।
५.७. वर्षा
मास योग
यदि चैत में
वर्षा की एक बूँद पड़ जाय तो समझना
चाहिए कि सावन की हजार बूँद कम
हो गईं। जेठ की वर्षा अच्छी नहीं
होती क्योंकि 'तपा' का तपना श्रेयस्कर
है। आषाढ़ की वर्षा खेती के लिए अत्यंत
आवश्यक है। सावन में वर्षा न हो
तो खरीफ की फसल नष्ट हो जाएगी
तथा भादों में वर्षा न हो तो रवी
की फसल पर दुष्प्रभाव पड़ेगा।
पौष मास में वर्षा हो तो आधा
गेहूँ और आधा भूसा होगा भले
ही उसका बीज कितनी ही अच्छी तरह से
बोया गया हो।
५.८. तपन
वर्षा योग
ज्येष्ठ मास
शुक्ल पक्ष के आर्द्रा, पनर्वस, पुष्य,
आश्लेषा, मघा, पूर्वा, उत्तरा, हस्त,
चित्रा, स्वाति नक्षत्रों में निरंतर
कड़ी धूप और गर्मी पड़े तथा लू चले
तो चौमासों में अच्छी वर्षा होगी
तथा यदि इन नक्षत्रों में वर्षा हो
जाय तो चौमासों में सूखा पड़ेगा।
यदि जेठ में पड़वा (प्रतिपदा) तप
जाय, रोहिणी तथा मूल नक्षत्र तप
जायँ तो सातों अनाज खूब उपजेंगे।
५.९. तिथि
नक्षत्र युति
सत्ताईस
नक्षत्र होते हैं। नक्षत्र गणना भी सौर
गणना और चंद्र गणना पद्धति की भाँति
एक गणना पद्धति है; जैसे
आजकल दिनांक तथा वार का योग प्रचलन
में है। २६ मार्च, १९९५ रविवार यह सूर्य
गणना है। तिथि चैत्र कृष्णा दशमी
है, आज दिन में छह बजकर छत्तीस
मिनट तक उत्तराषाढा है, यह नक्षत्र
है। चैत्र कृष्णा दशमी को उत्तराषाढ़
नक्षत्र है। इसे हम तिथि नक्षत्र युति
कहेंगे। तिथि नक्षत्र युति के आधार पर
वर्षा और बीज का विचार गाँवों
में प्रचलित रहा है; जैसे-
कुइया
मावस मूल बिन बिन रोहिन अखजीत।
सावन
में सरवन नहीं कंता बोऔ बीज।
कुइया मावस
अर्थात् पौष मास की अमावस्या को
मूल नक्षत्र न हो तो तथा साव शु. पूर्णिमा
श्रवण न हो और 'अखतीज' अर्थात् शु.
तुतीया को रोहिणी न हो तो
धान में हानि होगी।
५.१०. तिथि वासर
योग
सम्पूर्ण प्रकृति
की गतिविधियाँ कालचक्र में चल
रही हैं, इसलिए इस सत्य में लोक
मानस की दृढ़ निष्ठा है कि कालचक्र से
धरती और बीज की प्रक्रिया का भी संबंध
है और काल की पहचान ग्रह, नक्षत्र, राशि,
तिथि, वार, घड़ी, पल, ॠतु, वर्ष, अयन
के आधार पर की गयी है। तिथि और
वार के योग के आधार पर कृषि-उत्पादन
और वर्षा की संभावना को भी लोकोक्तियों
ने अंकित किया है, जैसे जेठ कृष्णा
दशमी को शनिवार हो तो सूखा पड़ेगा,
जेठ शुक्ल तीज को गुरुवार हो
तो अनाज खूब होगा। पौष और फाल्गुन
को पाँच शनिवार पड़ें तो अकाल का
योग है।
५.११. ग्रह योग
आषाढ़ मास
में आगे मंगल और पीछे सूर्य
हो, तो वर्षा कम है और आगे सूर्य
और पीछे मंगल हो तो वर्षा
तथा फसल अच्छी है। सावन में सूर्य
कर्क राशि पर हो तो वर्षा कम
है तथा सिंह राशि पर हो तो
वर्षा का योग नहीं है।
५.१२. वर्षा
नक्षत्र योग
रोहिणी
नक्षत्र में वर्षा हो, मृगशिरा तपे और
आर्द्रा में कुछ वर्षा हो तो खूब अन्न
पैदा होगा। मृगशिरा में गर्मी पड़े
तो पानी खूब बरसेगा। यदि स्वाति
नक्षत्र में वर्षा हो, तो जौ, चना,
गेहूँ की खूब फसल होगी किंतु यदि
क्वार में स्वाति नक्षत्र की वर्षा हो
तो कपास में हानि तथा गन्ना मे
कानापन आ जायेगा।
५.१३. बासर
मेघ युति
शुक्रवार
की 'घटा' यदि शनिवार तक रहे
तो बिना बरसे नहीं आती-
सुक्कुर
बारी बादरी रही सनीचर छाय।
तो
भाखै यों भड्डरी बिन बरसे
नहिं जाय।
५.१४. आकाश
लक्षण योग
अगस्त्य नाम
के सितारे का उदय होने पर
वर्षा समाप्त हो जाती है-उदित अगस्त
पंथ महि सोखा। यदि तारों का
कुआँ ठीक ऊपर आ जाय तो भी
वर्षा का योग है। तारे अधिक
टिमटिमा रहे हों, तो आँधी और
वर्षा की संभावना होती है। यदि
आकाश में चंदा (बादलों के) पार्श्व (पास्स)
से घिर हो, तो भी वर्षा का योग
है-चंदा पै बैठी जलहली मेघा बरसें
खेती फली। यदि आकाश का रंग पीला
हो जाय तो वर्षा की आशा नहीं
है।
५.१५. निशा-दिवस
लक्षण योग
यो योग प्राय:
वर्षा ॠतु के हैं। यदि दिन में बादल
हों और रात साफ हो, तारे उगें
तो वर्षा नहीं होगी। यदि दिन को
बादल हों, रुक-रुककर पुरवइया
चले तो वर्षा होगी। यदि प्रात:काल
ही वर्षा हो तो वह सायं तक
रहेगी, उसी प्रकार जैसे कि शाम का
मेहमान रात तक रहता है। दिन में
गर्मी हो और रता को ओस हो
तो मानो वर्षा का अंत हो गया।
वर्षा ॠतु में कभी धूप, कभी छाया
(धूपछाही) हो, तो वर्षा नहीं है।
चौमासों (वर्षा के चार महीनों)
में यदि उमस और बादलों का 'घमसा'
हो, तो पानी बरसने का योग है।
५.१६.
इन्द्रधनुष एवं तड़ित योग
सायंकाल
इन्द्रधनुष दीखे तो सुबह वर्षा
होगी। यदि उत्तर दिशा में बिजली
चमके और पूर्वी हवा बह रही
हो तो वर्षा होगी। यदि पश्चिम-उत्तर
में बिजली चमके तो वर्षा का योग
है-
उत्तर
चमके बीजुरी पूरब बहनो बाउ।
घाघ
कहें भड्डर से बरसा भीतर लाउ।
चमकें
पश्चिम उत्तर ओर।
तब
जानों पानी है जोर।
फलवाले
वृक्षों पर बिजली की चमक का प्रतिकूल
प्रभाव पड़ता है। आम के बौरों के
लिए चैत की चमक अनुकूल नहीं
है-'चमकी भली न चैत की।' मेघ-गर्जना
के आधार पर वर्षा का अनुभव किया
जाता है-
सामन
तड़क्यौं झर करै भादों तड़क्यौ
जाय।
५.१७.
ग्रीष्म-शीत योग
माघ में
गर्मी और ज्येष्ठ में जाड़ा पड़े तो
वर्षा का योग नहीं है। वर्षा के आने
से पूर्व ही वर्षा के लक्षण प्रकट
हो जाते हैं, हवा और भूमि में
नमी आ जाती है।
५.१८. पशु-पक्षी,
कृमि, सरीसृप योग
यदि
पपीहा निरंतर बोले, यदि प्रात:काल
मोर बोलें, सारस-युगल ऊँचे
आकाश में उड़कर आवाज दःैं, तो वर्षा
होगी। सफेद बादल और सफेद बगुलों
का आना शरद-ॠतु का लक्षण है। यदि 'गौरैया'
धूल में नहाए तो वर्षा, और पानी
में नहाए तो अकाल की संभावना है।
लोमड़ी बोलने लगे तो मानो
वर्षा गयी। यदि गिरगिट, सिर हिलाए
तो वर्षा की संभावना है, साँप
बबूल पर चढ़े तो वर्षा की संभावना
है। यदि ज्येष्ठ के अंत में मेंढक बोलें
तो वर्षा होगी। घास पर गिजाई
चढ़े तो वर्षा होगी।
५.१९. वृक्ष-वनस्पति
योग
यदि झाऊ
का पेड़ लाल पड़ जाय तो वर्षा का योग
है तथा काँस का फूलना शरद ॠतु
का।
५.२० मेघ :
ज्योतिषशास्र में-९
जहाँ शासत्र
है वहाँ लोक की सत्ता अनुपस्थित
नहीं है, अप्रत्यक्ष रुप से उपस्थित है
तद्वत् जहाँ लोक की सत्ता है, वहाँ
परोक्ष रुप से शास्र उपस्थित रहता
है। शास्र को भी लोक की चिंता है,
इसका एक उदाहरण ज्योतिषशास्र
है। ज्योतिषशास्र में चंद्रमा का वर्ण
आँककर तथा वायु के लक्षणों के
द्वारा शकुन विचारने के विधान
है। 'रोहिणी' नक्षत्र में यदि चंद्रमा
हो, उस दिन सूर्योदय से सूर्यास्त
तक पताका फहराकर वायुपरीक्षा
की जाती है। इसी प्रकार 'बीजांकुर-शकुन'
का विधान है। चंद्रमा रोहिणी
नक्षत्र पर हो, उस समय घड़े में सभी
प्रकार के बीज बो दिए जाते हैं, जो
बीज जितने अंश के अंकुरित हों,
विश्वास किया जाता है कि उस वर्ष
उन बीजों की फसल अधिक होगी।
'बृहत्संहिता'
के अनुसार मेघाच्छन्न आकाश में
रोहिणीयोग में चंद्रमा दिखाई
न दे, तो धान्य अधिक होता है।
चंद्रमा 'स्वाति नक्षत्र' में हो और रात्रि
के प्रथम भाग में वर्षा हो, तो सभी
धान्यों में वृद्धि होती है, तीसरे
भाग में वर्षा हो तो वैशाखी फसल
अच्छी होती है। आषाढ़ी पूर्णिमा के
दिन पूर्व दिशा से हवा चले तो शरदीय
धान्यों की वृद्धि होती है और वसंत
के धान्य भी खूब आते हैं। आषाढ़ी पूर्णिमा
को सूर्यास्त के समय आग्नेयकोण
की हवा चले तो अल्पवृष्टि होती
है। इसी समय उत्तर की हवा चले,
तो खूब जल बरसता है।
'बृहत्संहिता'
के अनुसार यदि जल स्वाद-रहित
हो जाय, नमक में पानी आने लगे और
मेंढक बार-बार शब्द करने लगे,
तो वर्षा का लक्षण है। बिल्ली बार-बार
नाखून से भूमि कुरेदे और
चीटियाँ बिल में से अंडे निकालें,
सूर्य वृक्ष पर चढ़े, करकेंटा वृक्ष पक
चढ़कर आकाश की ओर देखे तो भी
वर्षा होती है। सूर्योदय या सूर्यास्त
के समय आकाश का रंग तीतर के पंख
जैसा हो और पक्षी कोलाहल करें,
तो भी वर्षा होती है।
ज्योतिषशास्र
में उल्लेख है कि यदि अनावृष्टि के समय
इंद्रधनुष पूर्व दिशा में दिखाई
दे तो वृष्टि और वृष्टि के समय
दिखाई दे, तो अनावृष्टि का योग
है। पश्चिम-दिशा में स्थित
इंद्रधनुष सदा वर्षा करता है। वृश्चिक
राशि में सूर्य, कुंभ में गुरु और
सिंह राशि में चंद्रमा हो अथवा
सिंह में गुरु, कुंभ में चंद्रमा हो
तो ग्रीष्म-धान्यों की वृद्धि होती
है। ज्योतिषशास्र में मेष राशि मसूड़,
गेहूँ, जौ तथा जल से रहित भूमि
में उत्पन्न औषधियों की स्वामी है।
'वृष राशि' भी गेहूँ की स्वामी
है। धान्य, कपास और लता का स्वामी
'मिथुन' है। रस और गुड़ का स्वामी
'सिंह' है।
६. बीज और अंकुर
से लेकर पुष्प और फल पर्यंत वृक्ष
की सभी अवस्थाओं में 'काल' तत्त्व
विद्यमान है। समय की गति के साथ प्रकृति
की सम्पूर्ण गतियाँ जुड़ी हुई हैं।
सृष्टि और प्रलय दोनों में काल
विद्यमान है। बीज का अंकुरण धरती में
होता है परंतु धरती में गिरते
ही बीज अंकुरित नहीं हो जाता, बीज
बोने और अंकुरित होने में समय
का अंतराल है। यही काल तत्त्व है। अंकुरण
से लेकर फल आने तक यह काल तत्त्व
सक्रिय है। गतिशील है। सूर्य, चंद्र,
नक्षत्र, दिन, रात, मास, तिथि, अयन, संक्रांति
वर्ष आदि के आधार पर समय कि
पहचाना की जाती है। बिना ॠतु के बीज
अंकुरित नहीं होगा, बिना ॠतु के वृक्ष
फल नहीं देगा। विभिन्न ॠतुओं में
विभिन्न बीज अंकुरित होंगे, विभिन्न
फूल खिलेंगे। उचित समय पर बोया
गया बीज ही उचित समय पर उगता
है। इसीलिए 'काल' को 'बली' कहा
जाता है-'कालबली'।
६.१. क्षण
जीवन
मनुष्य का हो या वृक्ष-वनस्पति का,
दोनों जगह क्षण का महत्त्व
अपरिहार्य है-'का बरसा जब कृषि
सुखाने।' जो क्षण के महत्त्व को नहीं
समझता उसके भाग्य के खेत को
चिड़िया जुग जाती हैं। इसलिए क्षण
को पहचानना आवश्यक है। क्षण चूक
जाने पर केवल पश्चात्ताप ही हाथ
रह जाता है-'अब पछताये होत क्या,
जब चिड़ियाँ चुग गयीं खेत।' अवसर
निकल जाने पर काम करनेवाल
निष्फल होता है, क्योंकि वह समय
और कार्य के संबंध को नहीं
जानता-'बोला पठयौ बीज कूँ बाल
पकें घर आयौ।'
६.२. ॠतुचक्र
धरती और
बीज का ॠतुचक्र से घनिष्ठ संबंध
है। वसंत ॠतु (चैत्र-वैशाख) में 'फरफेंदुआ'
की बेल उग आती है तथा अरई, खीरा
और खली बो दी जाती है। वसंत फुलवारी
के लिए बहुत अनुकूल है। वसंत ॠतु
द्वारा प्रवर्तित रस में ही लताएँ
पुष्प-पल्लव से समृद्ध होती हैं।
इस ॠतु में कचनार, चैती गुलाब,
दोंना-मरुआ, करील, अमलतास,
खजूर, सिर्स (शिरीष), अशोक, नीम,
सहजना, सेंमर (शाल्मलि), पाकर,
केवड़ा, आँवला, करौंदा और चंपा
के फूल खिलते हैं। इस ॠतु में गूलर,
बड़हर, कीकर, बरगद, महुआ, सीसम,
अनार पर फल लगते हैं। गेहूँ, जौ,
जना, मटर, सरसों आदि की वैशाखी
फसल पककर काट ली जाती है।
ज्येष्ठ-आषाढ़
ग्रीष्म ॠतु के महीने हैं। इनमें
खुत्ती, मूँग, कपास, अरहर, लौका, मक्का,
अलसी, बाजरा आदि को बोया जाता
है। गोभी, चावल की पौध और शकरकंद
की लत्ती लगाई जाती है। देशी
अरहर भी आषाढ़ में बोयी जाती
है, जो ज्येष्ठ में तैयार होती
है। आषाढ़ में अरईं, उड़द, ककड़ी, काशीफल,
खरबूजा, तोरई, खीरा, आक,
कटहल, खजूर, आम, टिंडे, जंगलजलेबी,
नीम, पीपल, जामुन और खिरनी भी
फल देने लगता है। गर्मी में आक,
जवासा और सत्यानाशी भी फूलते
हैं।
सावन-भादों
वर्षा ॠतु के महीने हैं और इन
महीनों में बाजरा, सरसों,
ट्माट्र,
मूली लगा दी जाती है।
सैकड़ों अनाम
कुलगोत्र वनस्पतियाँ तथा 'पतरचटा',
'लजवंती', 'सुखदेई' तथा 'निगुर्ंडी'
आदि अपने-आप उग जाती हैं। मक्का और
ज्वार के खेत में 'लहसुआ' और 'सेंद'
भी उग आती है, क्योंकि इन वनस्पतियों
के बीज अलक्षित रुप से धरती में
विद्यमान रहते हैं। इस ॠतु में
दोपहरिया, गुड़हल, गुंजा, मौलिश्री
पर फूल आता है तथा करोंदा, अमलतास,
खीरा, लौका, टिंडा और खुत्ती की फली
उग आती है।
क्वार-कार्तिक
शहद ॠतु के महीन हैं। इनमें
गेहूँ, जौ, चना, मूली, सरसों,
धनिया, आलू और समा बोया जाता
है। इस ॠतु में कास फूलता है,
हरसिंगार पर फूल आता है तथा शकरकंद,
मूली, बाजरा, तिल, गोभी, रमास,
अरहर, धान, ईख, कपास, मक्का,
ज्वार और मूँगफली की फसल
तैयार हो जाती है।
अगहन और
पौष हेमंत ॠतु के महीने हैं। इनमें
आलू बोया जाता है। अंडी, रातरानी,
कटहल, सूरजमुखी पर फूल आता
है। बाकला की फली और अंडी
तैयार हो जाती है। अमरुद की फसल
भी आती है।
माघ और फाल्गुन
शिशिर ॠतु के महीने हैं। इस ॠतु
में अरई, ईख, उड़द, टिंडा, खरबूज,
तरबूज, तोरई बोई जाती है। आम
पर बौर आता है। बेर फलता
है।-१०
७. एक वनस्पति
से दूसरी वनस्पति का अंत:संबंध
आँकते हुए गाँवों में अनुमान किया
जाता है कि यदि आक पर अधिक फल आवें
तो अगले वर्ष कोदों तथा गेहूँ अधिक
होंगे। नीम पर अधिक आवें तो जौ
तथा तिल अधिक होंगे। सेमर पर
फल अधिक आने से कपास अधिक होगा।
फरास पर फूल अधिक होने से
ज्वार, बाजरा में अधिकता का अनुमान
लगाया जाता है। कहावत है-'आकर
कोदों नीम जबा, गाडर गेहूँ बेर
चना'। अर्थात् आक एवं कोदों से जौ और
नीम तथा गाडर से गेहूँ और बेर
से चना का अनुमान लगाया जाता है।
'बृहत्संहिता'
में भी शालवृक्ष पर फल-फूलों की वृद्धि
से जड़धन धान्य, वट-वृक्ष पर अधिक
फल आने से साठी चावल, पीपल पर अधिक
फल से सभी धान्य, जामुन से तिल,
महुए से गेहूँ, कुंद से कपास,
करंज से मूँग, पलाश से कोदों
तथा दूब-कुश के फूलों से ईख की
वृद्धि का अनुमान किया जाता है।
८. की
प्रक्रिया
बीज, वृक्ष, वनस्पति,
शाखा, प्रशाखा, फल, फूल, पत्तों को प्रकृति
और जीवन-संबंधी ज्ञान का आदिग्रंथ
कहा जाये तो असंगत न होगा,
क्योंकि इनके निरंतर निरीक्षण से
मनुष्य प्रकृति के नियमों को जान सका
था। बीज-वृक्ष के जीवन में धरती, पानी,
धूप, हवा और समय के प्रभाव को
देखते हुए हमारा ध्यान कीट प्रक्रिया
की ओर भी आकर्षित होता है। प्रकृति
में जहाँ भी जीवन की गति है, वहाँ
एक से अनेक होने की प्रक्रिया भी है।
जिस प्रकार बीज एक से अनेक होता
है, वैसे ही कीट भी अपनी वंशवृद्धि
करता है। धरती के कई हाथ नीचे से
लेकर वायुमंडल तक जहाँ
जीवाणु विद्यमान है, इसे विज्ञान की
भाषा में जैवमंडल कहा जाता है।
एक कीट दूसरे कीट को भी अपना भोजन
बनाता है, कीट अवसर और अनुकूलता
पाकर जड़, तना, फल, फूल, पत्ती तथा
दानों में अपना स्थान बना लेते हैं।
मिट्टी के अंदर भी कीट रहते हैं।
जब किसान खेत जोतता है, तो उसके
पीछे कीटों को खानेवाले पक्षी चलते
देखे जा सकते हैं।
ज्वार के पौध
के 'कोथ' में कीड़ा लग जाता है,
जिससे उसे खानेवाला पशु मर
जाता है। ककड़ी के फल में गिराड़ पड़
जाती है, जो बीजों को खाकर फल
को अंदर से पोला बना देती है।
दीमक जिस पेड़ में लग जाती है, उसे
बरबाद कर देती है। टिड्डी तो पेड़-पत्तियों
को चाट जाती है, इसे ईति कहते
हैं-'ईतय: शलभा: शुका:।'
हर ॠतु में
अलग-अलग प्रकार के कीट पैदी होते
हैं, कीट प्रक्रिया का हवा, वर्षा तथा ठंड
से इतना गहरा संबंध है कि उसके
आधार पर कीटों के जीवन का चक्र और
वर्गीकरण किया जा सकता है।
मसूड़ के
खेत में यदि पानी न लगे और
'महौट' भी न हो, तो मसूड़ की पत्तियों
को 'सूड़ी' नाम की गिराड़ खा जाती
है। यदि वर्षा न हो, तो ज्वार के भुट्टे
को 'गभरा' नाम की गिराड़ खा जाती
है।
अधिकांश
कीट 'पुरवा' हवा से ही लगते हैं।
मक्का की गाँठ फूटती हो और 'पुरवा'
चलने लगे तो उसमें 'जीमनी' गिराड़
पड़ जाती है। पुरवा से ही अरहर में
'कलरिया' कीड़ा लगता है और
कपास का फल काना हो जाता है। माघ
में चलनेवाली पुरवा से सरसों में,
'माँऊ कीट' तथा फागुन में चलनेवाली
पुरवइया से गेहूँ में 'गेरुई'
कीट लग जाता है।
पानी में
हवा लगने से कीड़ा उत्पन्न होता है।
कुछ कीड़े मिट्टी में होते हैं और
कुछ वायुमंजल में। कीट केवल
हानिप्रद ही होता है, ऐसी बात
नहीं है। कीट वनस्पति का जीवन भी
है। पुष्पों में सुगंधि का आकर्षण
है और जब वे सुगंधि बिखेरते
हैं तो भौरें मधुमक्खी जैसे कीट उनके
पास आते हैं। कीट प्रक्रिया से वनस्पितयों
में प्रजनन क्रिया होती है। यदि ये
कीट न आवें तो वनस्पति पर फल न आवें।
यदि कीटों को पुष्पों की, मधु की, पराग
की आवश्यकता है तो वनस्पतियों
को भी प्रजनन की आवश्यकता है। इस प्रकार
हम प्रकृति में परस्पर-पूरकता
देखते हैं।
इस प्रकार
हम देखते हैं कि प्रकृति में सबकुछ
गतिशील है तथा सबकुछ का सबकुछ
से अंत:संबंध है- सवर्ं सर्वेन भावितम्।
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भारत
की लोक और शास्रपरंपरा ने
जीवन को पंचमहाभूतों की प्रक्रिया
के रुप में देखा है, भले ही वह बीज
का जीवन हो या मनुष्य का।