७.४.१. वनसम्पदा
: (अ) दरख्त और रुख - बहुत लंबे-चौड़े
और गहन छायावाले वृक्ष दरख्त
कह जाते हैं; जैसे-पीपल, सेमर,
गूलर, बरगद, इमली और नीम आदि।
जिन पेड़ों के फल-फूल उपयोगी
नहीं समझे जाते और छाया भी
विरल होती है, वे रुख कहे
जाते हैं; जैसे-बबूल, बकाइन, फरास,
पीलू, गाँदी और जंगलजलेबी आदि।
(आ) झाड़ी :
जिन काँटेदार पेड़ों की टहनियाँ
आपस में मिली होती हैं, वे झाड़ी
कहलाते हैं; जैसे-हींस की झाड़ी और
करील की झाड़ी। भरबेरी और अकोला
की गिनती भी झाड़ी के अंतर्गत ही
होती है।
(इ) झूँड :
झूकटी : घास के जिन पौधों की जड़ें
एक होती हैं परंतु तना नहीं
होता, बहुत-सी पत्तियाँ एक साथ
निकल पड़ती हैं, वे झुंडदार घास
झूँड या झूकटी कहलाती हैं;
जैसे-गाँडर, दाम, मोंथ, कुश, मूँज,
भाभर, काँस इत्यादि। ये पौधे
जमीन में से पत्तियों के रुप में
ही निकलते हैं। इन पत्तियों के
समूह को झुरमुट कहते हैं। सुदर्शन
और केवड़ा भी झुंड के रुप में उत्पन्न
होते हैं।
(ई) जड़ी-बूटी
: रुखड़ी : वे जंगली वनस्पतियाँ
जो औषधि के रुप में काम आती हैं,
उन्हें जड़ी-बूटी और रुखड़ी कहते
हैं। जेंती, असगन्ध, ऊँटकटेरा भटकइया
की गिनती रुखड़ियों में की जाती
है।
(उ) पौधे और
बेल : छोटे पौधे को बिरवा या
बिरुला कहते हैं। तुलसी का बिरवा
होता है, जिसे थामरे में उगाया
जाता है।
एक से दो
फुट तक की ऊँचाईवाले वनस्पति
भी पौधे कहलाते हैं; जैसे-ओंगा,
उसीड़, चिरचिटा, अकसन, धतूरा, पतरचटा
आदि। लगभग तीन हाथ ऊँचा पौधा
क्षुप कहलाता है, इसकी जनपदीय
संज्ञा है बोझा। सोंफ, धनिया, अजवायन
के पौधे क्षुप हैं।
बेल वृक्षों
का सहारा लेकर ऊपर चढ़ती हैं
तथा वृक्षों पर फैल जाती हैं;
जैसे-सेंम, अमरबेल, बनकचरिया,
कुँदरु (बिंबाफल), गिलोय आदि।
चढ़नेवाली बेलों के अतिरिक्त रेंगनेवाली
बेल भी होती हैं, ये जमीन में फैलती
हैं, जैसे-काशीफल, खरबूज, लौकी
आदि।
(ऊ) घास
की प्रजातियाँ : घास सैकड़ों प्रकार
की होती हैं। कुछ घास के पौधे
होते है; जैसे-लजमंती, मौरैला,
मकरकरा, भाँगरा, बीछूफल, बाबरी
घास आदि। कई घासें बेल के रुप में
धरती पर चलती हैं; जैसे-लजमंती,
मौरैला, मकरकरा, भाँगरा, बीछूफल,
बाबरी घास आदि। कई घासें बेल
के रुप में धरती पर चलती हैं;
जैसे-ऐंठफरी, हिन्नखुरी,
हंसराज, दूब, गोखरु, सितावर,
बिसखपरा आदि। जिन घासों की पत्तियाँ
चारों ओर फैलाती हैं, वे
छत्तादार घास (छतीली घास) कहलाती
हैं; जैसे-संखाहोली,
बारहमासी, गोभी, सिबलिंग आदि।
७.४.२.
कृषि-सम्पदा : (ए) अनाज : कातिकी और
वैशाखी फसल : श्रावण मास में बोकर
कार्तिक महीने में काटी जानेवाली
फसल को कतिकी (खरीफ) कहते
हैं। इसके अंतर्गत कपास, मक्का,
ज्वार, बाजरा, उड़द, मूँग, सन, ईख,
तिल, धान और अंडी आदि की गिनती
की जा सकती है। वैशाख मास में पककर
तैयार होनेवाली फसल को रवी
की फसल या वैशाखी कहते हैं।
इसके अंतर्गत गेहूँ, जौ, चना, मटर,
सरसों और मसूड़ का समावेश
है।
(ऐ) साग-सब्जी
: बारी और पालेज : आलू, गाजर, मूली,
प्याज, पालक, मेंथी, गोभी, करेला
और बेंगन आदि सब्जियों की खेती
को 'पालेज' कहा जाता है। लौका,
तोरई, काशीफल, ककड़ी, खरबूज,
और पेठा आदि 'बारी' की फसल
हैं। गंगा-यमुना की रेती में बारी
की फसल अधिक अच्छी होती है।
७.४.३. उद्यान सम्पदा
: (ओ) बाग : फलूचे : बागों में फल
और फूलों के पेड़ उगाये जाते
हैं। फलवाले पेड़ों को फलूचे
के पेड़ कहते हैं। आम, अमरुद, केला,
खिरनी, जामुन, बेल, पपीता आदि
की गिनती ऐसे ही वृक्षों में की
जाती है।
खट्टे फलों
को तुरसावर कहते हैं। ये
हैं-आँवला, इमली, करोंदा,
कमरख, खट्टा, जम्हीरी नीबू, फालसा,
शहतूत, लुकाठ आदि।
अमरुद और
नीबू वर्ष में दो बार फल देते
हैं। इसलिए इन्हें दुबरेजी कहते
हैं।
(औ) उपवन
और वाटिका : फुलवार : माली बागों
में फुलवार उगाते हैं। गुड़हल, अर्जुन,
कचनार, कनेर, कुंद, कदंब, कमल,
गुलमोर, गुलाब, गेंदा, चंपा,
चमेली, जूही, बेला, टगर, मौलसिरी,
रातरानी, हारसिंगार, शिरीष, फुलवार
के पेड़ हैं। पत्तों की शोभा के लिए
मोरपंखी लगाया जाता है।
गृहवाटिकाओं में भी मेहँदी,
गुड़हल, गेंदा, गुलाब, बेला और
चमेली को लगाया जाता है।
(अं) रानी फसल
: खेतों में बिना उगाए ही पैदा हो
जानेवाली वनस्पति को रानी फसल
कहते रहैं। जौ और गेहूँ के
खेतों में अकरकरा, चटरी, चंदन, बथुआ,
मोथा, पोला, खरतुआ, सीतामाता
तथा बथुआ अपने-आप उग आते हैं। मक्का,
ज्वार और बाजरा के खेतों में
खिरकिटी, कनकौआ, ढराइन,
निरगुंडी और ल्हैसुआ आदि उत्पन्न
हो जाते हैं। अरहर के साथ झोझरु,
मेंथी के खेतों में तरातेज तथा
कपास और ईख में बनहल्दी पैदा
हो जाती है। रेतवाली जमीन में
फरफेंदुआ अपने-आप उग आता है।
(अ:) अरण्य
धान्य : मुनिधान्य : समा, पसाई,
चावल, नीवार (तिन्नी), कोदों तथा
त्यौरादाल की गिनती क्षुद्रधान्य या
अरण्य धान्य के रुप में की जाती है। ये
घास की तरह उपज आती हैं। नीवार और
समा को मुनिधान्य कहा जाता है
तथा ॠषि पंचमी जैसे (प्राचीन परम्परा
से जुड़े हुए), व्रतों में 'समा' खीर
खाई जाती है।
७.४.४. जलीय
वनस्पति : सिंगाड़ा, कमल और
कुमुद पोखर या तालाब में उगाए
जाते हैं। जलकुंभी, मुलहटी (मधूलिका)
सिवार और जंगली कासिनी भी जलाशयों
में उत्पन्न होनेवाली वनस्पतियाँ
हैं। लड़सी, फफूला, प्यार आदि पानी
के पौधे हैं तथा पगुला पानी की बेल
हैं।
अलसी, ब्राह्मी,
नागर, मोथ, नरसल, गंगालहरी,
कपूस आदि वनस्पतियाँ पानी के
सहारे उगती हैं।
८. बीज-वृक्ष
: पेड़ की जड़
की शाखा तक के हिस्से को तना
कहते हैं। संस्कृत में इसका नाम स्कंध
या प्रकांड है। बड़ी शाखा भी स्कंध
कहलाती है, इसका जनपदीय नाम
गुद्दी है। जहाँ से डाली निकले, उसे
अवरोह कहते हैं।
जिस स्थान से
दो शाखा निकलें, उसे हरियाणवी में
दोसाँगा, तीन शाखा निकलें उसे
तिसाँगा कहते हैं। शाखाओं के निकलने
की जगह इतनी मोटी हो कि आदमी बैठ
भी सके तो उसे पंजाड़ा कहते हैं। बड़े-बूढ़े
कहते हैं कि एक जगह से अधिक से अधिक
पाँच शाखाएँ निकलती हैं।
डाल से
निकलनेवाली डाली कहलाती है। वृक्ष
के सर्वोपरि हिस्से को फुनगी
कहते हैं। पेड़ की चोटी 'टुलकी' है,
यह तरुशिखा है-'तरुशिखा पर थी अब
राजती कमनीकुलवल्लभ की प्रभा।' पेड़
के सीधे तने को गाँव में सल्ला
कहते हैं। आँवले की नयी शाखाओं
को सुरा कहा जाता है। पेड़ के तने
में जो पोल होती है, लकड़ी में
गड्ढा होने के कारण उसमें खोंतर,
कोटर या खौलर बन जाता है। धर्मबुद्धि,
पापबुद्धि की कथा में पापबुद्धि के
पिता ने इसी खोंतर में बैठकर साक्ष्य
दिया था। शाखाओं में जो गड्ढे हो
जाते हैं, उनमें पक्षी अपना घोंसला बना
लेते हैं। गुद्दी पर मौहार की मक्खियों
के छत्ते लग जाते हैं। बबूल, नीम इत्यादि
के तने में से गर्मी में एक चिपचिपा
द्रव पदार्थ निकलता है, जिसे गोंद
कहते हैं। पीपल के गोंद से लाख बनाया
जाता है। वृक्ष की छाल को विल्कल या
बक्कल कहते हैं।
केले के
तने संस्कृत में कदली-स्तंभ कहते
हैं, इसका जनपदीय नाम पींड़ है। केले
के तने के ऊपर परत होती हैं जो
गाभा कहलाती हैं। नीम और बबूल
के कटे हुए तनों को भी पींड़ कहते
हैं।
८.१. बाली
बाजरा,
ज्वार, गेहूँ, जौ आदि अनाजों तथा
चिरचिटा एवं अन्य कई प्रकार की
घासों में फूल की जगह बाली उगती
हैं। गेहूँ में जिस स्थान से बाली
निकलती है, उसे कोथ कहते हैं। जब
बाल निकलने को होती है तब
कोथ फूल जाता है, इसलिए इसे फूला
भी कहते हैं। बालों में दाना पड़ने
को अंडा पड़ना कहा जाता है। मेरठ
की ओर इसे मक्खनफूल कहते हैं।
जब बालों में दाने भर जाते
हैं,तब उसका रंग सुनहरी हो
जाता है। गेहूँ के सख्त और बड़े बालों
को तीकुरिया कहते हैं।
८.२. नरई
गेहूँ का
दाना जिस खोल में रहता है, वह
'अकौआ' कहलाता है। अकौए सहित
गेहूँ के दाने को 'दोरई' कहते
हैं। गेहूँ की आंतरिक मींग 'कनिक'
कहलाती है। गेहूँ जब उगकर
हाथ-डेढ़ हाथ का हो जाता है, तो
उसे 'खूँद' कहते हैं। गेहूँ बड़ा
होता है, तब 'नलई' कहलाता है।
८.३. छोलका
: छोला
दो या
तीन चने के दाने जिस आवरण में
होते हैं, उसे छोलका, छोकला या
चोकला कहते हैं। चने के दाने का
घर घेगरा है, जिसमें दो द्यौल (चने
की दाल) होते हैं। छिलका सहित
चने का दाना बूट कहलाता है और
जब इसे होली की आग में भून लिया
जाता है, तब होला कहते हैं।
८.४. भुटिया
मक्के के बड़े
पौधे में गाँठ फूटती है और लाल-पीले
रंग के रेशे-सूत-निकलते हैं। सूत
के नीचे हरी परत में
मक्के की भुटिया
रहती है। यह हरी परत पगुला
कहलाती है। पगुलों में गड़ेली पर
दूध से भरे दाने लग जाते हैं, तो
उसे दुद्धर भुटिया कहते हैं। भुटिया-भुट्टा
को अंड़िया और कूकड़ी भी कहते
हैं। भुट्टे में मोती की तरह
दाने जड़े रहते हैं। यदि मक्का पर
भुटिया न आवे, तो उस पौधे को 'बधिया'
कहते हैं।
८.५. डंठल और
फटेरौ
अरहर की पतली
और नरम लकड़ी को 'लौद, काँठर'
या 'कैना' कहते हैं। इनसे डलिया
बनाई जाती है। मक्का, ज्वार तथा बाजरे
के तने को 'फटेरौ' कहते हैं। धान
के पौधे का तना और पत्तियाँ मिलकर
'पयार' कही जाती हैं। कमल के तने
के संस्कृत नाम 'मृणाल' है। गाँव
में इसे नाल कहते हैं। मूली और
सरसों के मोटे डंठलों को 'डाँठरे'
कहते हैं, इनका साग बनता है। पत्तियों
सहित गा के डाँठरे को 'गजरा'
कहते हैं। नीम की कोमल टहनी
'लहर्रा' कहलाती है। नीम की मजबूत
टहनी से दातुन बनाई जाती है।
८.६. सींक
नीम की पत्तियाँ
जिस पिच्छास से जुड़ी रहती हैं उसे
नीम की सींक कहते हैं। गाँडर में पीली
सींक होती है। नारियल की भी सींक
होती है।
८.७. तुर्रा
मटर का
तना जब बेल की भाँति आगे बढ़ता
है, तब उसके सिरे पा एक सूत-सा
निकलता है, उसे तुर्रा कहते हैं। लौकी
पर भी तुर्रा होता है। मूँज के
तने के ऊपरी भाग को तीर कहते
हैं।
८.८. बीज और
गुठली
कपास के बीज
को बिनौला कहते हैं। बोने से
पहले इसे गोबर-पानी-मिट्टी में
डाल कर ओला किया जाता है। अरबी
के बीज का नाम बड़ौखा है। अंडी
तथा इमली के बीज चीआँ कहे जाते
हैं। रीठा के फल के अंदर एक काले रंग
की गोली (बीज) होती है, इस काले
आवरण को फोड़ने पर गिरी निकलती
है। कमल का बीज कमलकोश के भीतर
होता, इसे कमलगट्टा कहते हैं।
भाड़ में भुनने पर ये मखाने बन
जाते हैं। पियार के बीज की गिरी
चिरोंजी कहलाती है। वह दाना
जो खेत में झड़कर अपने-आप बीज बन
कर उगता है, लमेर कहलाता है।
खरबूज के बीज का छिलका बहुत
हल्का होता है। छिलके के अंदर
मिंगी होती है। खीरा, काशीफल और
तरबूज के बीज भी खरबूज के बीजों
की तरह छीलकर व्रत-उपवास में
तथा श्रीकृष्ण जन्मअष्टमी पर पाग
जमाकर खाए जाते हैं।
कुछ फलों
के बीज कठोर आवरण में होते
हैं, उन्हें गुठली कहते हैं। आम की
गुठली बो देने पर उसमें नीचे से
जड़ तथा ऊपर से अंकुर का हिस्सा
निकलने पर गुठली का कठोर
हिस्सा खोखला हो जाता है, इस पपैया
कहते हैं तथा बच्चे इसकी पीपनी बजाते
हैं। आम की गुठली के भीतर सफेद
हिस्से का पाउडर सफूक कहलाता
है।
८.९. जड़
अरहर मूँग,
अंडी, उड़द, चना और मटर की जड़ें मूसला
जड़ कहलाती हैं। इसके बीज दो परतवाले
होते हैं। गेहूँ, बाजरा आदि की
जड़ें झखड़ा जड़ कहलाती हैं, इसके बीज
में जो परत नहीं होती।
कमल की जड़
को भसीड़ा कहते हैं तथा उसका साग
बनता है। पिप्पली की जड़ को पीपरामूर
कहते हैं। बाँसुरई की जड़ की
गिनती दस मूलों में की जाती है,
जिनका काढ़ा बनाकर प्रसूता स्रियों
को पिलाया जाता है। बच, कुलंजन
और असगंध की जड़ें भी औषधि के रुप
में काम आती हैं। अदरक की जड़ को
गाँठ कहते हैं। गा और मूली
कड़ी हों, तो उन्हें नर्री कहते हैं। फालसे
की जड़दार पौध को जरोंदा कहते
हैं। जो छोटा पौधा अन्यत्र जमाने के
लिए फावड़े से उठाया जाता है, वह
थापी कहलाता है।
८.१०. अंकुर
खेत में उगनेवाले
नए अंकुर को कुल्हा, कुल्ला या किल्ला
कहते हैं। गेहूँ और जौ के अंकुर
जब धरती से फूटते हैं तब उन्हें सुई
फूटना कहते हैं। मक्का, ज्वार-बाजरे
के अंकुर भी सुई कहलाते हैं। ईख
की गाँठ को घुंडी या आँख कहते
हैं, इसी में से कुल्ला फूटता है,
इसे कल्ले निकलना या आँख फूटना
कहते हैं। बाजरा के अंकुरण को फुटेर
कहते हैं। शकरकंद की जड़ में से
जो अंकुर निकलते हैं, वे चपा कहलाते
हैं। केला और बाँस की जड़ों में से
चारों ओर जो कुल्ली फूटती हैं, वे
गुड़िया कहलाती हैं, और वे
गुड़िया गाढ़कर ही केले और बाँस
के पेड़ उगाए जाते हैं।
गेहूँ आदि
पौधों में सुई फूटने के बाद सुई
से जो अन्य किल्ले निकलते हैं, वृद्धि
होती है, उसे ब्याँत कहते हैं।
सामान्यतया
वृक्ष-वनस्पतियों के कुल्ला जब कुछ
बढ़ते हैं, तो उस पर दो पत्ते आते
हैं, जिन्हें दुपता या दुपती कहते
हैं। दुपती के बाद फिर चौपता
होता है, फिर छोटी-छोटी कोंपल-किलसियाँ
उपजती हैं।
जौ के अंकुर
कुछ बड़े हो जाते हैं, तो उन्हें
घूँघा, जवारे-आदि नामों से जाना
जाता है। सरसों का अंकुर जब एक अंगुल
मोटा तथा एक हाथ ऊँचा हो जाता
है, तो उसे गाँडर कहते हैं, इसकी
सब्जी भी बनती हैं।
८.११. फल
फल का आवरण
छिलका होता है। छिलके के नीचे कई
फलों में फाँकें जुड़ी हुई होती
हैं, जैसे संतरा या मौसमी में।
खीरा में भी अंदर चार फाँक होती
हैं। जामुन और अमरुद का छिलका
बहुता हल्का होता है इसलिए उसे
छिलका सहित खा लेते हैं, जामुन
की गुठली थूक देते हैं। आम और केला
का छिलका अलग कर दिया जाता है।
छिलके के नीचे सार तत्त्व गूदा कहलाता
है। आम में गूदे के नीचे गुठली
होती है, देशी आम की गुठली में
छूँछ भी होती है। आम के फल को
डाली से जोड़नेवाली जगह पर
जो काला निशान होता है, इसे टोपी
कहते हैं। टोपी के हटाने पर जो
तीखा-सा रस निकलता है, वह चेंप
कहलाता है। यह शरीर के किसी
हिस्से पर लग जाय तो फोड़े-फुंसी
निकल आते हैं। टोपी बैंगन तथा
किंभडी के फल पर भी होती है।
नारियल
के आवरण को जटा कहते हैं। जटा
के नीचे का कड़ा आवरण खोपरा
कहलाता है। खोपरे के नीचे गिरी
होती है। जो पका और सूखा
नारियल का फल होता है, वह
गोला कहलाता है। ककड़ी, बैंगन आदि
में यदि कीड़ा लग जाता है तो फल
काना हो जाता है। केला की कच्ची फलियों
को गहर कहते हैं। गहर का साग बनता
है। केला केवल एक ही बार फल
देता है। काशीफल इत्यादि के सूखने
पर वह तूंबा या तोमरा बन
जाता है। तूमरा का वाद्ययंत्र भी बनाया
जाता है तथा कमंडल भी। लबेड़े
के फल में एक चिपकना द्रव-सा निकलता
है, इस कारण उसे रेंहटा कहते
हैं। नीबू में रस से भरे हुए
जीरे होते हैं।
महुआ के
फल को गिलोंटे तथा करील के
फल को टेंटी कहते हैं। सुपारी
को पूगीफल कहते हैं। आम के फल
को बोंडी कहते हैं तथा इसमें
जो रेशे होते हैं, उन्हें बाव, बूवड़ा
या हउआ कहते हैं। काशीफल को कौला
तथा तरबूज को मतीरा भी कहते
हैं। छोटे आकार के खरबूजे की एक
कि को बटिया कहते हैं। सन के पौधे
पर जो काँटेदार फल आता है उसे
ढैमना या झुँझनू कहते हैं। आलू
के पौधे को आल तथा उसके फल को
टैमना कहते हैं। इमली के फल
को कतारा और पीलू के फल को लाललिलरी
कहते हैं। खरबूज, तरबूज, घीया,
तोरई की बेलों पर लगनेवाले
नए कच्चे फल 'जई' कहलाते हैं, इनके
सिरे पर फूल भी लगा रहता है।
नीबू के नए फल को जो अभी-अभी लग
रहा है, चोइया कहते हैं। कपास
का फल गूला या डोडी कहलाता
है, जो पककर फूल जाता है और उसके
अंदर सफेद रुई चमकने लगती है।
एक गूला में तीन-चार पंखियाँ
होती हैं। छोटा अंगूर सूखने के बाद
किशमिश तथा बड़ा अंगूर सूखने पर
मुनक्का कहलाता है। खजूर का फल
सूखने पर छुआरा हो जाता है।
नीम के फल को निबौरी तथा पीपल
के फल को गोदी कहते हैं। बरगद
का फल बरगुदा कहलाता है।
तोरई
का फल सूख जाता है तो फल की शिराएँ
कड़ी होकर सूख जाती हैं, वह झमा
कहलाता है। कच्चे आम को अमियाँ या
आमी कहते हैं। पक जाने पर आम
कहलाता है। आम की कई जिन्स
होती हैं-दशहरी, तोतिया, लंगड़ा,
चौसा और बंबई। देशी आम टपका
कहलाता है। जो पाल से पकाया
जाता है वह पाल का पका कहलाता
है तथा जो डाल का पका होता है,
वह बहुत मीठा होता है। बेर भी
कई प्रकार का होता है, जैसे-कलमी,
पोंड़ा, पेंमदी गोला और तसींगा।
८.१२. फली
सहजना,
अमलतास, सेंम, छोंकरा, बाकला,
जंगलजलेबी, उर्द, मूँग, मटर, मोठ
पर जो फलियाँ आती हैं, उनमें बीज
की लड़ियाँ होती हैं। मटर की वह
नई फली जिसमें दाने नहीं पड़े, पेपना
कहलाता हैं। मटर की कच्ची फलियों
को सुखाकर जब साग के लिए निकालते
हैं तो उसे मकोना कहते हैं। मूरी
की फलियों को सेंगरी कहते हैं।
८.१३. पुष्प और
मंजरी
बाजरा का
पुष्प 'बुर' कहलाता है। आक का फूल
'अकौनी' कहलाता है। कपास के पौधे
पर प्रारंभ में बंद मुँह का लंबा-सा
फूल आता है, वह 'पुरी' कहलाता
है, वही बाद में फूल बनता है। सरसों
के फूलों को बसंती-फूल कहा
जाता है। तुलसी का फूल मंजरी
कहलाता है। मंजरी में ही बहुत
छोटे-छोटे दाने होते हैं, वे तुलसी
के बीज होते हैं। आम की मंजरी
को 'बौर' कहा जाता है।
८.१४. फूल
के अंग
फल या फूल
की जड़ को वृंत कहते हैं, इसी को
गाँवों में डाँड़ी या डंठल कहते
हैं। फूलों में अनेक पंखुड़ी होती
हैं, उन्हें दल कहते हैं। गुलाब की पंखुड़ियों
का गुलकंद बनता है। पंखुड़ी के पीछे
फूल में जो हरी पत्ती होती है,
वह अंखुरी कहलाती है तथा जिस उभरे
हुए भाग पर अंखुरी होती है, वह
टुमना कहलाता है। फूलों का रस
पराग या मकरंद है, फूल के मध्य
में जो सूक्ष्म बाल होते हैं, वे
केसर कहलाते हैं। कालिदास ने लिखा
है-लोध्र पुष्प का पराग (अंगराग) अलका
की स्रियाँ मुख पर लगाती थीं।
सरसों के
फूलों के नीचे जीरे के आकार की
हरे रंग की गोलियों सहित
झुग्गी लटकी रहती है।
८.१५. पत्ते
कमल के पत्तों
को पुरैन या पद्मपत्र कहते हैं।
कमल के पत्ते सदैव जल के ऊपर
होते हैं। गीता में भगवान
श्रीकृष्ण ने अनासक्त के उदाहरण के रुप
में कमल के पत्ते का बिम्ब प्रस्तुत
किया है-'पद्मपत्रमिवांभसा'।
खजूर का पत्ता पलिंगा कहलाता है,
इससे पंखा और बोइया बनाए
जाते हैं। ढाक के नए पत्तों को पेंपना
कहते हैं। दोंना के आकारवाले पत्ते
दोंनाबर कहलाते हैं, पीपल के पत्ते
पीपरिया कहे जाते हैं। गेहूँ के
नरम पत्ते लपस कहलाते हैं। ईख
की पत्ती को आग कहते हैं, इसे
चारे के रुप में पशु खाते हैं, तो उनका
दूध बढ़ता है। गन्ने पर लिपटे पत्तों
को पताई कहते हैं।
अरबी के पत्तों
का साग बनता है तथा
धनियाँ-पोदीना की पत्तियों की
चटनी बनती है। वृक्ष की नयी मुलायम
पत्ती पल्लव कहलाती है, लाल
चिकना नया कोंपल किसलय कहा
जाता है। पात, पतउआ, पत्ता, पत्ती, पत्र
के पर्यायवाची हैं, एक पत्ते का पात्र पतूखी
कहलाता है। सूखे पत्तों को पतावर
कहते हैं।
८.१६.
झाँखर; करब और डाँफरे
बबूल की पत्ते
रहित सूखी काँटेदार शाखा को
झरकटा या झाँखर कहते हैं। कपास
के पौधों की पकी सूखी लकड़ी बनकटी
या बनौट कहलाती है। ज्वार-बाजरे
के काटे हुए पौधे करब कहलाते
हैं-'करब बिकाय मोय लाय देउ लटकन।'
करब की कुटी काटी जाती है। सरसों
की सूखी लकड़ियों को डाँफरे
कहते हैं। गेहूँ और जौ के पौधों
का सूखा तना नरई कहलाता है।
इसका भुस पशुओं का भोजन है।
लाहा का भूसा दूरी कहलाता है।
गेहूँ-जौ के रेत जैसे महीन भूसे
को रैनी कहते हैं।
८.१७. नरुआ और
फाँस
पोला बाँस
नरुआ कहलाता है। बाँस के फटे टुकड़े
को खपंच, फच्चट या खपच्ची कहते
हैं। सूखे बाँस की फाँस भी उँगली
में लग जाती है। किसी-किसी बाँस
में बंसलोचन निकलता है।
८.१८. कलम
कलम लगाने
के लिए देशी आम के तने की गर्दन (चाँद)
काट देते हैं तथा उसे चीरकर अन्य वृक्ष
की टहनी
(कोंपल) लगाकर
सन के बंध देते हैं, इसे पैबंद लगाना
कहते हैं। बेर पर मई-जून में छल्ला
चढ़ाया जाता है।
८.१९. झालरौ
और डूँड़ौ
बहुत पत्तेवाले
वृक्षों को झालरे कहते हैं। गूलरिया
झुकझालरी म्वाँ सैयद कौ थान।
जिस वृक्ष में किसी कारण से कम पत्ते
होते हैं, अथवा डालियों का
विकास अवरुद्ध हो जाता है उसे
डूँड़ौ कहते हैं।
८.२०. गुच्छा
फूलों के
गुच्छे को संस्कृत में स्तवक कहते
हैं। अंडी ते गुच्छों को गाँवों में
गवा कहते हैं। अंगूर का भी गुच्छा
होता है। केला की फलियों के
गुच्छे को चरख कहते हैं।
८.२१. दूध :
काँटे
आक,
सेंहुड, सिहोरा, थूहड़, बड़ आदि
के वृक्षों में दूध जैसा सफेद रस
निकलता है। बबूल (कीकर) बेरिया,
सेंहुड़, गुलाब, करील, हींस, बेल,
झरबेरी, करोंदा, जवासा आदि में
काँटे होते हैं। सिंगाड़े के फल पर
काँटा होता है।
८.२२. गन्ना : पोई
गन्ने में
दो गाँठों के बीच के रसीले
हिस्से को पंगुली या पोई
कहते हैं। गन्ने को छीलकर टुकड़े
करके गड़ेली बनाई जाती है। गन्ने
के रस का गुड़ बनता है, गन्ने का ऊपरी
भाग अंगोला कहलाता है। गन्ने की
एक अच्छी जिन्स को पोंड़ा कहते हैं।
८.२३. रस
आम, अंगूर,
गन्ना, संतरा, मौसमी, नीबू एवं अन्य
अनेक फलों का सार तत्त्व रस कहलाता
है। खैर की लकड़ियों के सत्त को
कत्था कहते हैं।
इस प्रकार
जनपदीय जीवन में बीज-वृक्ष की प्रक्रिया,
आनुवंशिकता, रुप-गुण की
विविधता और उनके अंगप्रत्यंग की रचना
और उनकी पहचान के संबंध में
गहरी अन्वेषणा की गयी है तथा बीज
की प्रक्रिया में प्रकृति के संविधान
को ढूँढ़ने का प्रयास किया गया
है। वृक्ष-वनस्पति की विविधता,
विचित्रता तथा समपूर्ण जीवन-चक्र
की पृष्ठभूमि में अदृश्य विवेक की सत्ता
को स्वीकारा गया है।
संदर्भ
१. नवभारत
टाइम्स, अगस्त १९९४ : एक बेमिसाल
दोस्ती का अंत : के. आर. शर्मा
२.
क्रोमोसोम : गुणसूत्र : विधाता की
इस रासायनिक भाषा के आधार पर
ही आम का बीज आम बनता है और
बबूल का बीज बबूल। यही भाषा पेड़-पौधों
और जीव-जंतुओं में सक्रिय है।
धर्मयुग १६.२.१९९४
३. उत्तर अमेरिका
के मेसबार्डे पार्क में चीड़ जाति का
सबसे पुराना पेड़ है, इसकी उम्र वनस्पति
विज्ञान ने ४५०० वर्ष मानी है। अमेरिका
के ही सिकोमा जाइगेंटिया की उम्र
३२०० वर्ष कूती गयी है। जोशीमठ में
शहतूत वंश के उस वृक्ष की आयु १२००
वर्ष बतायी जाती है, जिसके नीचे आदि
शंकराचार्य समाधिस्थ हुए थे। गया
का बोधिवृक्ष (पीपल) ९०० वर्ष पुराना
है तथा कलकत्ता के वनस्पति उद्यान का वट
वृक्ष २००० वर्ष का है। एटा जिले मे जलेसर
के साथ 'बरीकौ नाम' प्रसिद्ध है
जिसमें १६ बीघे जमीन में फैला वटवृक्ष
है। यह वृक्ष एक हजार साल का बताया
जाता है।
४. भागवत
३.१०.१९
५. दे. भाव पुराण
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