धरती और बीज

राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी

वृक्ष-वनस्पति : सौंदर्यबोध में


लोकमानस की चिंतनप्रणाली और अभिव्यक्तिप्रणाली में ही बीज-वृक्ष के बिम्ब नहीं हैं, लोकमानस के सौंदर्यबोध को वृक्ष-वनस्पतियों ने विकसित किया है-बिम्बा फल जैसे ओठ और अनार के बीजों जैसे दाँत, चंपा जैसा रंग, आम की खाँप जैसी आँखें, रमास की फली जैसी उँगली और पीपल की डाल जैसी भुजा-१

              नारिअरे की मूँड़ आँखें आम कै सी खाँप।

              दाँत दरों के से बीज जिभिया कमल कैसौ फूल।

       लोकमानस में नागरपान की बेल, केसर क्यारी, मरुआ, रायचमेला, कदंब, केवड़ा, श्यामतमाल, हजारीगेंदा, हारसिंगार, चंपा, बेला, चमेली, मोतिया, केला, हरे बाँस, जामुन, नीबू और बरुए की दूब सजी है। फल और पान से आच्छादित मंडप, करील की कुंज, खस का बंगला, दरवाजे पर केला और पीपल, आँगन में नीम और घर के पिछवारे बरगद, मार्ग में उपजी हुई हरी दूब, आम और चंपा की डाल, मारुअरे का खंभ, केसर का रंग, केबड़ा, महुआ, बेला, चमेली और हरसिंगार की महक, नीम की निबौरी तथा लोगों के 'झुर्रा' लोकगीतों के मन में बसे हैं।

       आम की डाल पर बैठी कोयलिया का पंचम स्वर, भौंरों की गुंजार तथा तोता, पपीहा और मोरों की कुहुक सुनकर यही कहते बनता है कि-

              देखो पखेरु तरु डालियों में गाते सुहाते मधुरे स्वरों में

       नीम, पीपल, बरगद, इमली और कदंब की छाँह कितनी सुखद है-

              बिछन में इमली बड़ी रे ग्वाकी सीतल छाँह।  

       गाँव की बेटियाँ नीम, इमली और कदंब पर झूला जालती हैं, तो एक उत्सव बन जाता है-

              पोखरिया पै लंबी खजूर झिलमिल झूला परे।

       पैरों में सुशोभित महावर (लाक्षारस), हाथों में रची मेहँदी और मुख में रचा पान, कानों में शिरीष और कदंब के पुष्प तथा वेणी में बेला का श्रृंगार, बाँहों में बाजूबंद, गले में वनमाला और पुष्पों का अंगराग पद्मिनी-नायिका का श्रृंगार है।   लोकगीतों में 'राधा' को फूलों की अँगिया तथा फूलों से गुही 'बेनी' के साथ देखा है।

       लतापता, कदंब की छाँह और कुंजें कृष्ण की रासलीलाओं की साक्षी हैं।   फुलवाभरी सेज, फूल बिखेरे मार्ग लोकमानस की सुकुमार कल्पना के प्रतीक हैं।   बेला फूलता है तो 'गोरी' का मन मादक प्रसन्नता से भर जाता है-

              बेला फूल्यौ आधी रात गजरा कौन गले में डार्रूँ।

       मेहँदी रस-चेतना की प्रतीक है।   देवर के 'पिछवार' रचनी मेहँदी तोड़ती हुई भाभी के बिछुओं की धुन सुनकर देवर के मन में प्यार अंकुरित हो जाता है।   यों बबूल काँटेदार वृक्ष है परंतु जब वह संकेत-थल बन जाता है, तो-'बबूर की सीतल छाँह रसभौंरा एक पुरिस द्वेै नार।'   या 'ठोड़ौ रहियो रे बबूरिया की ओट जियरवा तोई ते लग्यौ।'

       गाँव के पछाँह में जो पीपल है, उसकी छाया कैसी शीतल है-'गाम पछाँही पीपर बाकी सीतल छाँह।' छाया के लिए सबसे अधिक प्रसिद्धि वट की है।   लाँगुरिया-गीतों में इसी वृक्ष की छाया में रस की प्याऊ है-'चरखी चल रही बर के नीचें रस पी जा लाँगुरिया।'   कन्या की माँ कहती है कि बरात के गाँव तक आने के मार्ग में हरी-हरी दूब उपजी हो और बरगद के वृक्षों की पंक्ति हो।

       वसंत अपने आगमन के साथ ही सुगंधि और सौंदर्य की निधि लुटा देता है-'पकि गए पकि गए रे रसीले मीठे बेर बसंती रित आय गयी।'   चैत्र में चारों ओर कदंब फूलने लगा तो वासुकि नाम भी महक लेने का लोभ संवृत नहीं कर सेक-

              चैत चहुँ दिस कदम फूल्यौ मँहक वासुकि नें लयी।

              बेला चमेली पौहौप माला हार गूँथ मालिन लाइयै।

       बागों में केतकी, खेतों में सुहागिन सरसों और वन-वन में पलाश फूले हैं, अरे रस के लोभी भौंरा, सिदौसी लौटकर आना-

       बागन फूली रे भँवरा केतकी। अरे भँवरा वन-वन फूले हैं पलाश।

       सरसों सुहागिन भँवरा खिल रही जी, अरे भँवरा आई बसंत बहार।

       सिदौसी अइयो लौट के।

       यह मादकता ही तो वसंतोत्सव और मदनोत्सव में अभिव्यक्त होती है।   एक संथाली गीत का भाव है, स्री गाती है-'गुलाब खिल गया है, चंपा खिल गयी है, पवन मतवाला हो उठा है परंतु तू कौन-सी सुगंधि से मतवाला हुआ है रे?'   तब पुरुष गाता है-'जिसके सुगंध-सागर में मेरा जीवन तैरने लगा है, वह मेरी 'रात की रानी' पूछती है कि यह गंध किसकी है ?   यह सोचकर मन काँप उठता है कि आधी रात के बाद रात की रानी की तरह झर तो नहीं जाओगी ?'   स्री उत्तर देती है-'प्रीत-प्रीत करके बावरे न बनो, प्रीत नागफनी की सेज है।'

       वृक्ष-वनस्पतियों ने लोकमानस को सौंदर्य का प्रतिमान दिया है।   वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला, संगीत एवं कविता में वानस्पतिक सौंदर्य बसा हुआ है।   लोकवार्ता का सौंदर्यशास्रीय अध्ययन स्वतंत्र अनुसंधान का विषय है।   नीचे लोकगीतों की कुछ पंक्तियाँ उदाहरण के रुप में प्रस्तुत की जा रही हैं-

                      आम की डारन बैठी कोयलिया करत निराले सोर।

                             आम पके महुआ गदराने फूली फूलबगिया।

                                    आम मौरि झुक आये।

              तोता बैठौ आम तेरी डार पै जी, अमियाँ तेरी आस।

              अमियाँ चुइ धरती पै गिर परी जी, तोता भयौ ऐ उदास।

                      बागन बारौ मेरौ ठौर एरी बागन के अंब सुहावने।

                                    झूला पर्यौ कदम की डार।

       कदुआ के लंबे-चौड़े पात जाली तौ कहियै लचपची जी महाराज।

       बटियाँ रे बटियाँ उपजी है दूब, सोहिल अधबिच उपज्यौ है केबरौ।

              माता के आँगन केबरौ जै जै के गुन हरियल होय।

              बागन फूली रे भँवरा केतकी वन-वन फूल हैं पलास।

                      एक बाग नौलखा जामें रौस बँधी केरन की।

                             अरे मलिया सरवर पेड़ खजूर री।

                      नगर कोट की गैल में माँ लंबौ पेड़ खजूर।

                      ग्वा पै चढ़कें देखती मैरो जाती कितनी दूर।

                      पोखरिया पै लंबी खजूर झिलमिल झूला परै।

                             गा गजरे ते प्यारी हरे-हरे।

                      मैं तौ ठाड़ी गूलरिया की ओट गैलाऊ ठाड़ौ है गयौ।

                      गेंदा हजारी रोसन खिल रह्यौ चंपा खिले हैं अपार।

                             बेला चमेली फूलौ मोतिया फूली हार सिंगार।

                                    गोभी के चिकने-चिकने पात।

                                बल जाऊँ चंपे कौ बिरुला झालरौ।

                             दाँतुन तोरी ऐ चोखे दाख की जी महाराज।

                            लपट आबै निबुअन की रस बगिया कितनी दूर।

                             कच्चे नीम की निबौरी सामन बेग अइयो रे।

                      नीम कौ जोबन नीम निबौरी, आम कौ जोबन सूआ।

                      मर्द कौ जोबन पान फूल, पनिहारिन कौ जोबन कूआ।

              मेरे आँगन नीबरिया कौ पेड़ रतनारे झोका लै रही जी महाराज।

                             झूला मति डारै छोरी नरम डार पीपर की।

                                    डूँड़ी पीपर झुकझालरी।

                                        पीपर मरे द्वार पै।

              माता के द्वारे एक हरौ हरौ पीपर हहर हहर हरसाय रे।

                      पानन छबाई अमरोहरी फूलन छबाई दरगाह।

                      पान छबाई रचि रही, फूल रहे महकाय।

                                  छाय रही नागर बेल रे।

                      बबूर की सीतल छाँह रसभोंरा एक पुरिस द्वेै नार।

                             हालै-हालै रे बबूरिया पवन बिना।

                      चरखी चल रही बर के नीचें रस पी जा लाँगुरिया।

                          मेरे पिछवारे रे घनी बँसवरिया कोइल बैठी लुकाय।

                           हरे हरे बाँस की छबरिया हो दौनामरुआ के फूल।

                      पकि जा पकि जा रे पैमदी बेर जच्चा कौ मन बेरन पै।

           पकि गए पकि गए रे रसीले मीठे बेर बगिया में बसंती रितु आय गयी।

                             सासुल लाई खट्टे ननदुलि काने काने।

                             देवरिया मेरौ मीठे लायौ देय परौसिन ताने।

                      बेला फूल्यौ आधी रात गजरा कौन गले में डार्रूँ।

              जो मैं होती राज बेला चमेली, महक रहती राजा तोरे बंगले पै।

                      मालिनियाँ तैनें गैल मारुऔ काहे कूँ लगायौ।

                           मेंहदी के लंबे लंबे पात पपइया बोलौ।

                      माता के पिछवार अहो लाल, राचनी मेहँदी किन बई।

                      लौंग लटक फल आयौ, बधायौ मेरे अँगना में आयौ।

                                    लोंगन बिरुला झालरौ।

                          सरसों छविदार करै भमर विहार रित वसंत छाई।


 

संदर्भ

१. देखें परिशिष्ट ६.१ तथा ७.२

 

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७

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