जिस
प्रकार कपड़ा
सूक्ष्म धागों
से बुना होता
है, उसी प्रकार
लोककथा जिन
तंतुओं से बुनी
हुई संरचना
है, उन तंतुओं
को लोकवार्ताविज्ञान
में मोटिफ
अथवा अभिप्राय
कहा जाता है।
अभिप्राय लोकमानस
की उत्पत्ति होते
हैं। जिस प्रकार
नदियों में
बाढ़ आती है
और बालू
की एक परत बिछा
जाती है, फिर
दूसरी बाढ़
आती है, तीसरी
बाढ़ आती है
तथा एक परत
के ऊपर दूसरी
परत बिछती
चली जाती है,
वही स्थिति
लोकमानस
की है, लोकमानस
पर युगों का
प्रतिबिम्ब
उसी प्रकार अंकित
होता चला
जाता है। जिस
प्रकार पुरातत्त्वविद्
धरती के गर्भ
में समाए हुए
मिट्टी के
बर्तनों, खँडहरों,
भग्नावोषों,
सिक्कों, मूर्तियों
तथा दूसरी
सामग्री को
खोज कर युगों-युगों
की मानव-संस्कृति
का अनुसंधान
करता है, उसी
प्रकार लोकवार्ताविद्
कथा-अभिप्रायों
के सूत्र को
ग्रहण करके
लोकमानस
की गहराइयों
में उतर सकता
है तथा मानव
और प्रकृति
के संबंधों
के इतिहास
को समझ सकता
है।
लोककथा
और पुराकथाओं
में अभिप्रायों
का वर्गीकरण
धरती
और बीज से
संबंधी ब्रज
की लोककथाओं
और पुराण
कथाओं में प्राप्त
मोटिफों
(अभिप्रायों)
का वर्गीकरण
निम्नलिखित
छह भागों
में किया जा
सकता है (रेखाचित्र-९)-
१. जीवन
की पृष्ठभूमि
रुप
२. जीव-योनि
रुप
३. मानव देवता
रुप
४. देव रुप
५. परा प्राकृतिक
श् ाक्ति रुप
६. भौतिक
उपयोगितावादी
दृष्टि
रेखाचित्र-९
: लोककथाओं
और पुराकथाओं
में अभिचार्यों
का वर्गीकरण
वृक्ष-वनस्पति
मानव-जीवन
की पृष्ठभूमि
हैं। जहाँ आज
नगर हैं, कल
वहाँ जंगल
थे और मनुष्य
उन जंगलों में
रहता था। इसलिए
विभिन्न कथाओं
में पेड़ के नीचे
रहने-१, पेड़
की छाया में
तपस्या करने-२,
पेड़ की छाया
में विश्राम
करने के अभिप्राय
लोककथाओं
और पुराकथाओं
में व्यापक रुप
से बिखरे
हुए हैं। इस प्रसंग
में यहाँ केवल
दो सूत्रों
की चर्चा की
जा रही है-पूर्वज
संबंधसूत्र
तथा वृक्ष-वनस्पतियों
के आधार पर
स्थान अभिधान।
१.१. पूर्वज
संबंधसूत्र
लोककथाओं
और पुराकथाओं
के ऐसे अभिप्राय,
जिनमें वृक्ष-वनस्पतियों
का पूर्वजों
के जीवन से
कोई संबंध
व्यक्त किया
गया हो, इस
वर्ग के अंतर्गत
रखे जा सकते
हैं। यहाँ
यह बात भी
उल्लेखनीय
है कि पूर्वज
संबंधसूत्र
धरती को तीर्थ
बना देता है।
वे वृक्ष-वनस्पति,
कुंड-सरोवर,
नदी, पहाड़
हमारे लिए
पूर्वज तुल्य
श्रध्देय बन
जाते हैं, जिनका
संबंध पूर्वजों
से था। जैसे
ब्रज में कहावत
है-"व श्ंाीवट
सौ वट नहीं।"
वं शीवट जैसा
महिमामय
कोई दूसरा
बरगद का पेड़
नहीं है, क्योंकि
भगवान श्रीकृष्ण
ने व श्ंाीवट
के नीचे रास
किया था।-३ यही
बात कदंब
वृक्ष के संबंध
में है। भगवान
श्रीकृष्ण कदंब
वृक्ष पर चढ़कर
गायों को
पुकारते थे,
व श्ंाी बजाते
थे-४ इसलिए भक्तों
के मन में भी
कदंब की महिमा
अत्यधिक है। भक्त
कवि रसखान
कहते हैं-
जो खग
हौं तौ बसेरौ
करौं मिलि
कालिन्दी कूल
कदंब की डारन।
ब्रज की
करील कुंज
भी भक्तों के
सोने के महलों
से बढ़कर
हैं।-५ इसी प्रकार
द्वारका का वह
पीपल-वृक्ष
जिसके नीचे
श्रीकृष्ण ने
'परमधाम गमन'
किया था-६, तीर्थ
तुल्य है। बोधिवृक्ष
की महिमा
तो भारतवर्ष
के बाहर
भी लोगों
के मन में प्रतिष्ठित
है। इसकी डाली
को लेकर
बौद्धधर्म
के तत्त्वचिंतक
श्रीलंका आदि
दे शों में गए
थे।
ब्रज में
एक 'दोंनावर'
का पेड़ होता
है, इसके पत्तों
का आकार 'दोना'
जैसा होता
है। किंवदंती
है कि भगवान
श्रीकृष्ण इन्हीं
पत्तों पर मक्खन
खाते थे। सूरदास
से भी एक पद
में है-'दुहि
पय पियत पतूखी।'
१.२. वृक्ष-वनस्पतियों
के आधार पर
स्थान-अभिधान
पुराकथाओं
के द्वीपों के
नाम वृक्ष-वनस्पतियों
के नाम पर
उपलब्ध होते
हैं-यवद्वीप,
शाकद्वीप, जंबूद्वीप,
शाल्मलिद्वीप,
प्लक्षद्वीप और
कु शद्वीप आदि।-७
'चम्पाद्वीप' भी
इसका उदाहरण
है।
वृंदावन,
कदमखंडी, कदलीवन,
पलाावन, बदरीवन
और आम्रवन
तथा कु शावर्त
भी भौगोलिक
संज्ञाएँ हैं।
यह भी प्रसिद्धि
है कि सरस्वती
नदी प्लक्ष (पाकर)
की जड़ से तथा
जमुना नदी
जामुन वृक्ष
से प्रकट हुई।
२.
जीव-योनि
रुप : चकिंरदर,
पकिंरदर, मानुष
और दरख्त
प्राणियों
का वर्गीकरण
शास्र में अंडज,
स्वेदज, जरायुज
और उद्विज-इन
चार रुपों में
किया गया
है। 'जिकरी-भजनों'
में भी इस वर्गीकरण
का उल्लेख इस
रुप में मिलता
है-
अंडज पिंडज
और जरायुज
चार खान पैदा
सी।
स्वेदज सहित
परम पद पावें
जो बैकुंठ
बिलासी।-८
अं से
जन्म लेनेवाले
पक्षी, जरायु
के साथ जनमनेवाले
प शु और मनुष्य,
स्वदेज कीट
आदि एवं उद्विज
अर्थात् वृक्ष-वनस्पति।
लोकवार्ता
में प्राणियों
का एक और वर्गीकरण
मिलता है
चकिंरदर, पकिंरदर,
मानुष और
दरख्त। चकिंरदर
अर्थात् चरने
वाला प शु,
पकिंरदर अर्थात्
पंखवाले
पक्षी, मनुष्य
एवं वृक्ष-वनस्पति।
इस प्रकार शास्रमानस
तथा लोकमानस
दोनों में ही
प्राण के स्तर
पर प शु-पक्षी,
मनुष्य और
वृक्ष-वनस्पति
समान है।
२.१. वृक्ष-वनस्पति
: जीव-योनियाँ
लोकमानस
का विश्वास
है कि मनुष्य,
प शु, पक्षी, कीट-पतंग
से लेकर वृक्ष-वनस्पति
तक चौरासी
लाख योनियाँ
हैं, जिनमें
'कर्म' के कारण
जीव को बार-बार
जन्म लेना पड़ता
है। मनुष्य
में भी जीव
है और वृक्ष-वनस्पति
में भी जीव है।
'अनंत चतुर्द शी'
की कहानी
में कौण्डिन्य
जब अनन्त की खोज
में निकल पड़ा
तो 'मार्ग' में
जंगल में उसे
आम का फलों
से लदा वृक्ष
मिला, पर
फल सभी
कीड़ों से गिजगिजा
रहे थे, एक गाय
मिली, जिसके
पीछे बछड़ा
घूम रहा
था। तब अनंत
ने बताया
कि वह आम
का पेड़ एक वेदाभ्यासी
ब्राह्मण था। वह
अपने शिष्यों
को ठीक तरह
से नहीं पढ़ाता
था, इसलिए आम
का वृक्ष हो
गया। गाय स्वयं
पृथ्वी थी, जिसने
औषध के पदार्थों
के बीज निगल
लिए, इसलिए
प शु हो गयी।"-९
'अनंत
चौदस' की
ही एक अन्य कहानी
में पति को
एक बेरिया
का वृक्ष मिलता
है। बेरिया
कहती है कि
"मेरे ऊपर
इतने बेर लदे
हैं और सब
सड़ जाते है;
कोई खाता
नहीं। 'अन्तर्यामी'
बेरिया के
संबंध में
बतलाता है
कि-वह बेरिया
जो थी, वह
बड़ी 'कुटाँट'
(ढीट) थी और
अपनी कुछ भी
चीज किसी को
भी नहीं देती
थी और सबको
गाली देती
थी कि मेरी
जो चीज खाए
वह कीड़े खाए,
इसलिए उसके
मरने के प श् चात्
मैंने उसका
बेरिया बनाया,
उसकी बुरी
आदतों की वजह
से उसके बेर
में कीड़े पड़ते
हैं।"-१०
'फूलनदेई
: कौलनदेई'
कहानी में
कौलनदेई
की माँ 'बम्बे
पै बेरिया
के रुप में' जन्म
लेती है।-११
जीवनयोनि
से संबंधित
अभिप्रायों
में दो प्रकार
के अभिप्रायों
पर हमारा
ध्यान वि शेष
रुप से आकर्षित
होता है-एक
अभिप्राय शापग्रस्त
वृक्ष है, इसके
अंतर्गत एक कथासूत्र
व्यापक रुप
से उपलब्ध होता
है, जिसमें
कोई देवता
या ॠषि किसी
मनुष्य को
वृक्ष होने
का शाप दे देता
है। शापग्रस्त
वृक्ष के अंतर्गत
ही हम ऐसे
कथासूत्रों
का उल्लेख भी
कर सकते हैं;
जिन वृक्ष-वनस्पतियों
को किसी कारण
कोई शाप दिया
गया। शाप की
तरह कुछ ऐसे
वृक्ष भी हैं,
जिन्हें देवता
से कोई वरदान
प्राप्त हुआ था।
जीवनयोनि
से संबंधित
अभिप्रायों
में एक दूसरा
स शक्त अभिप्राय
है-स्थावर
और जंगम
प्राणियों की
उत्पत्ति का मूल
ाोत एक होना।
इस अभिप्राय
में यह तथ्य
बार-बार
स्थापित किया
गया है कि
मानव, देवता,
यक्ष, गंधर्व
से लेकर वृक्ष-वनस्पति
तक सभी एक ही
पूर्वज की
संतति हैं।
२.२. शापग्रस्त
वृक्ष
पौराणिक
कथा के अनुसार
वृंदा शंखचूड
की पतिव्रता
पत्नी थी। जब
उसने श्री हरि
को शिला ( शालिग्राम)
हो जाने का शाप
दिया तब शिव
ने वृंदा को
शाप दिया कि
वह जड़ हो
जाय। तदनुसार
तुलसी को
वनस्पति बनना
पड़ा।-१२ इसी प्रकार
एक पौराणिक
कथा है कि
नल और कूबर
नाम के यक्ष
सरोवर
में नग्न होकर
स्नान कर रहे
थे। नारद उधर
से निकले
किंतु वे निर्लज्जतापूर्वक
विहार करते
रहे। देवर्षि
ने कहा-तुम
लोग जड़वत् व्यवहार
कर रहे हो,
इसलिए जड़ हो
जाओ। नारद
के शाप से वे
य शोदा के
आँगन में यमालर्जुन
बने और श्रीकृष्ण
ने उनका उद्धार
किया।-१३
२.३. शापग्रस्त
पुष्प
एक कथा
के अनुसार
जब शिवलिंग
का आदि और
अंत खोजने के
लिए ब्रह्मा और
विष्णु में
शर्त
लगी तो केतकी
ने ब्रह्मा की ओर
से झूठी गवाही
दी कि उन्होंने
शिवलिंग का
आदि और अंत
खोज लिया
है। इस पर शिव
ने उसे
शाप दिया,
तदनुसार
केतकी का फूल
शिव पर नहीं
चढ़ाया जाता।-४
२.४. वरदान
प्राप्त वृक्ष
'ढाक के
तीन पात' कहावत
प्रसिद्ध है। ये
तीन पात शिव
के तीन नेत्रों
के प्रतीक हैं।
जब कामदेव
ने शिव पर
फूलों का
बाण चलाया
था, उस समय
कामदेव ढाक
के वृक्ष पर
ही बैठा हुआ
था। जब शिव
का तीसरा
नेत्र खुला और
कामदेव भ
हुआ तो पलाा
(ढाक) भी जलने
लगा। तब पला श
ने भगवान
शिव से विनय
की कि 'महाराज,
आपने हमें
क्यों जलाया,
हमारा क्या
अपराध है ?'
शिव को दया
आयी और उन्होंने
उस पर लगी
लपटों को
फूल होने
का वरदान
दे दिया कि-तुझ
पर जो पत्ते
आवेंगे, वे
मेरे नेत्र जैसे
ही होंगे।
तभी से ढाक के फूल
अग्नि जैसे होते
हैं।-१५
२.५. स्थावर
और जंगम
प्राणियों की
उत्पत्ति का मूल
"ाोत एक
पुराकथाओं
और लोककथाओं
में यह अभिप्राय
व्यापक रुप
से स्वीकृत
है कि समस्त
स्थावर और
जंगम प्राणी
ब्रह्मा और प्रजापति
की व श्ंा-परंपरा
में हैं और
सबकी उत्पत्ति
का मूल "ाोत
एक है।
महाभारत
(आदिपर्व : संभवपर्व,
अध्याय ६६) में प्रजापति
दक्ष की पुत्रियों
की संतति-परंपरा
का वर्णन है।
सम्पूर्ण प्राणी
उस संतति-परंपरा
में आते हैं।
दक्ष प्रजापति
की पुत्री 'क्रोधव शा'
और महर्षि
क श् यप की पुत्रियों
में 'सुरभि'
और 'सुरसा'
भी हैं। 'सुरभि'
की पुत्री 'रोहिणी'
है तथा 'रोहिणी'
की पुत्री 'अनला'
है। 'अनला' ने
उन सात प्रकार
के वृक्षों को
उत्पन्न किया जिनमें
पिंडाकार फल
लगते हैं-खजूर,
ताल, हिन्ताल,
ताली, छोटा
खजूर, सुपाड़ी
और नारियल।
इसी प्रकार 'सुरसा'
ने सर्पों को
जन्म दिया, वहीं
उसकी तीन पुत्रियाँ
भी हैं-अनला,
रुहा और
वीरुधा। जो
वृक्ष बिना
फूल के ही
फल ग्रहण करते
हैं, वे 'अनला'
के पुत्र 'वनस्पति'
हैं। जो फूल
से फल ग्रहण
करते हैं, वे
'रुहा' की संतान
हैं तथा लता,
गुल्म, बल्ली,
बाँस और
तिनकों की
जितनी जातियाँ
हैं, उन सबकी
उत्पत्ति 'वीरुधा'
से हुई है।
मत्स्य-पुराण
में भी समस्त
तृण, लता, झाड़ी
आदि की उत्पत्ति
'इरा' से मानी
गयी है।-१६
३. मानव
चेतना रुप
लोककथा
और पुराकथाओं
में वृक्ष-वनस्पति
मनुष्यों के
प्रति संवेदनाील
हैं। वह संवाद
करता है तथा
मानव की कल्याण
कामना करता
है। कन्या गुरुकुल
सासनी के
समीप वैष्णवी
चामुं मंदिर
में स्वामी
दुर्गानंद ने
वृक्षों को
मनुष्य के समान
बतलाते हुए
का कि वृक्ष अचर
मनुष्य है
और मनुष्य
चलने-फिरनेवाला
वृक्ष है। वृक्षों
में नीचे से
ऊपर की ओर
संचार होता
है तथा मनुष्य
में यह संचार
ऊपर से नीचे
की ओर होता
है।
३.१. सहानुभूति
से संपन्न
लोककथाओं
का विश्वास
है कि सम्पूर्ण
प्रकृति के समान
वृक्ष-वनस्पति
भी मानव
के प्रति सऋदय
और सहानुभूति
से युक्त हैं।
एक कहानी में
सूरजमुखी
को सूरज
की बेटी बताया
गया है, जो
स्वर्ग में रहती
थी। मनुष्यों
को जाड़े के
कारण काँपता
देखकर वह
स्वर्ग से अग्नि
चुराकर धरती
पर ले आयी
थी, इस कारण
जब सूरज नाराज
हुआ तो वह
पेड़ बनकर
हमेाा के लिए
धरती पर रहने
लगी।
३.२. वृक्ष
: स्वजन-संबंध
वृक्षों
के प्रति कृतज्ञ-भाव
तथा स्वजन-भाव
के कारण ही
गाँवों में
जब शादी होती
है, तब स्रियाँ
गीत गाती हुई
वृक्षों को
'नोंतने' के लिए
जाती हैं। कालिदास
ने तो 'अभिज्ञान
शाकुंतल' में
वृक्षों का करुणा
भाव अभिव्यक्ति
किया है। जब
शकुंतला कण्वाश्रम
से विदा होती
है तब वृक्ष
उसे अनेक प्रकार
के आभरणों
का उपहार प्रदान
करते हैं।
लोककथाओं
में ऐसे अनेक
प्रसंग आते हैं
कि जब कन्या
की 'विदा' हुई,
तो 'रुख-बमूर
सब उसके साथ
चलने लगे',
जब माँ ने
बेटी से पीछे
मुड़कर देखने
को कहा तब
रुख-बमूर
रुक सके।-१७
'भाईदोज'
की कथा है
कि भाई पोटली
लेकर चला
तो गाँव की
'परली पोखर'
की पार पर
पीपल के नीचे
से गया, पोटली
पीपल से बाँध
दी। बहिन जब
भाई के पास
पहुँची तो
उसे मृत देखकर
रोने लगी।
तब पीपल
ने कहा-'री
बहिन, रो
मत, मेरे ये
जो फूल हैं,
तू उन्हें लगा
दे, ते भाई
जीवित हो
जाएगा।'-१८
३.३. कथाओं
के पात्र रुप में
शाल्मलि
(सैमर) का
वृक्ष पौराणिक
वृक्ष है। एक
पुराण कथा
है कि ब्रह्मा
ने सृष्टि-रचना
के समय सैमर
के पेड़ के नीचे
विश्राम किया
था। एक बार
हिमालय
की उपत्यका में
एक सैमर का
वि शाल पेड़
था, नारद ने
उकसी वि शालता
की प्र शंसा की,
तब उसने कहा
कि पवन देव
मेरा कुछ भी
नहीं बिगाड़
सकते। यह
गर्वोक्ति नारद
ने वायु से
कही किंतु जब
वायु देवता
सैमर का गर्व
हरण करने
तले तो उसने
स्वयं ही अपने
प्राणों की रक्षा
के लिए फूल-पत्ती
और शाखा गिरा
दी।-१९ इसके फूल
की सुंदरता
का उल्लेख ब्रजकाव्य
में प्राप्त होता
है।
३.४. वियोगद शा
में प्रियतम
का पता पूछना
भागवत
में जब श्रीकृष्ण
अंतर्धान हो
जाते हैं तब
गोपियाँ
विरह-कातर
होकर वनस्पतियों
से उनका पता
पूछती हैं-हे
पीपल, पाकर
और बरगद!
नंदनंदन यामसुंदर
अपनी प्रेम भरी
मुस्कान और
चितबन से
हमारा मन
चुराकर ले
गए हैं। क्या तुम
लोगों ने
उन्हें देखा है?
कुरवक, अ शोक,
नागकेार, पुन्नाग
और चम्पा, बलराम
के छोटे भाईं,
जिनकी मुसकान-मात्र
से बड़ी-बड़ी
मानिनियों
का मान-मर्दन
हो जाता है,
इधर आए थे क्या?
बहिन तुलसी,
तुम्हारा ऋदय
तो बड़ा कोमल
है, तुम तो
सभी का कल्याण
चाहती हो,
क्या तुमने
अपने परम प्रियतम
यामसुंदर
को देखा है?
प्यारी मालती,
मल्लिके, जाती
और जूही,
तुम लोगों
ने कदाचित्
हमारे प्यारे
माधव को
देखा होगा।
क्या वे अपने
कोमल करों
के स्प र्श से
तुम्हें आनंदित
करते हुए इधर
से गए हैं? रसाल,
प्रियाल, कटहल,
कचनार, जामुन,
आक, बेल, मौलसिरी,
आम, कदंब और
नीम तथा अन्यान्य
यमुनातट
पर विराजमानी
सुखी वृक्षो,
तुम्हारा जीवन
केवल परोपकार
के लिए है, तुम
हमें श्रीकृष्ण
के पाने का मार्ग
बता दो। गोपियाँ
परस्पर संबोधन
करके कहती
हैं-अरी सखी,
इन लताओं से
पूछो। ये अपने
पति वृक्षों
को भुजपाा
में बाँधकर
आलिंगन किए
हुए हैं, इससे
क्या हुआ : इनके
शरीर में जो
पुलक-रोमांच
है, वह तो
भगवान के
नखों के स्प र्श
से ही है।-२०
३.५. अपनी
चेतना का प्रतिबिम्ब
लोककथाओं
में वृक्ष-वनस्पतियों
के मानव संबंधी
अभिप्रायों
के प्रसंग में
लोकमानस
के इस सिद्धांत
की चर्चा अप्रासंगिक
नहीं है, जिसके
अनुसार मनुष्य
अपने को केंद्र
में रखकर प्रकृति
की व्याख्या
करता है। कहावत
है-'आप जैसा
जग।' जैसे मैं
अनुभव करता
हूँ, वैसा
ही अनुभव
पूरी प्रकृति
कर रही है।
लोकमानस,
चंदा, सूरज,
मेघ, वृक्ष-वनस्पति
सबमें अपने
को देखता है,
अपने मन के प्रतिबिम्ब
को देखता है।
और अपने मन
की बातें सुनता
है। वह मानता
है कि प्रकृति
में ऐसा कुछ
भी नहीं, जो
संवेदन- शून्य
हो और लोक
के सुख-दु:ख
का जिससे
सरोकार
न हो।
३.६. वृक्ष-वनस्पति
: मानवी संवेदना
लोकमानस
वृक्ष-वनस्पतियों
को पूर्ण संवेदना
के साथ देखता
है। संध्या
के समय वृक्ष
से फल, फूल,
पत्ते नहीं तोड़े जाते
क्योंकि उस समय
वृक्ष सोते
हैं। वृक्ष प्रात:
जगते हैं-'जाग
परे सब वृक्ष
विचारे।' ज्येष्ठ
मास की कड़कती
धूप में जब
नीम-पीपल
आदि वृक्षों
से गोंद निकलता
है तब माना
जाता है कि
वृक्ष रो रहा
है, वृक्ष को
सताना अपराध
है, यह लोकमानस
का पक्का विश्वास
है। इस अभिप्राय
से संबंधित
लोकगीत मिलते
हैं कि मेरे
आँगन की नीम
को भला किसने
सताया है-"मरे
आँगन में नीबरिया
कौ पेड़, कौनें
सताई हरियल
नीबरी जी
महाराज।"
वृक्ष-वनस्पति
का पारमार्थिक
जीवन है, वे
अपनी छाया और
फल से मानव
के उपकारक हैं,
इसलिए लोकमानस
में उसके प्रति
कृतज्ञता की
भावना है।
वृंदावन
में तो वृक्षों
को ॠषि और
मुनि का स्वरुप
समझा जाता
है एवं हरे
वृक्ष में नाखून
चुभोना भी
वहाँ अपराध
हैं।
३.७. मानवीकरण
पहेलियों
में तो सर्वत्र
ही वृक्ष-वनस्पति
मानवीकृत
रुप में ग्रहण
किए गए हैं, अनेक
गीतों में वनस्पतियों
का चित्रण आत्मीय
तथा परिवार
के सदस्य के
रुप में प्राप्त
होता है-
आलू
ढालू मेरे
ससुर लगत
हैं, घुइयाँ
लगै सासुलिया।
लंबे से लौका
मेरे देवर
लगत हैं, तोरई
लगै दौरनिया।
कारे से बैंगन
मेरे जेठ लगत
हैं किंभडी लगै
जेठनिया।
लाल टमाटर
नन्देऊ लगत
हैं लाल मिर्च
ननदुलिया।
इसी प्रकार
के अन्य अनेक उदाहरण
हैं-
केले
की भई सगाई
सकरकंदी
नाचन को आई
चना चधौरी
मटर गुलाम,
ठाड़ी सरसों
करै सलाम।
कोई कली
हरिनाम जपत
है, कोई जपै
सिव हरी
हरी।
४. देवरुप
वृक्ष-वनस्पतियों
को दिव्य शक्ति
के रुप में देखना
लोकमानस
और लोककथाओं
का बहुत साक्त
अभिप्राय है।
'लोक अनुष्ठानों
में वृक्ष-वनस्पित'
शीर्षक अध्याय
में इस पर विस्तार
से विचार
किया गया
है। फिर भी
यहाँ एक महत्त्वपूर्ण
अभिप्राय की
चर्चा करना
उचित होगा
जिसके अंतर्गत
वृक्ष-वनस्पतियों
को सृष्टि और
प्रलय का साक्षी
माना गया
है।
४.१. वृक्ष
: सृष्टि और
प्रलय के साक्षी
जहाँ
विष्णु की नाभि
में से उत्पन्न 'सृष्टि
कमल' सृष्टि
का साक्षी है-२१,
वहीं अक्षय वट
प्रलय का साक्षी
है। मार्कण्डेय
माया के रुप
में जब प्रलय
को देखते हैं
तो-'उनके सामने
ही प्रलय समुद्र
में भयंकर
लहरें उठ रही
थीं, समुद्र ने
द्वीप, वर्ष और
पर्वतों के
साथ पृथ्वी
को डुंबो
दिया। पृथ्वी,
अंतरिक्ष, स्वर्ग,
ज्योतिमर्ंडल
के साथ तीनों
लोक जल में
डूब गए।' वहीं
मार्कंडेय
ने समुद्र के
बीच में पृथ्वी
के एक टीले पर
बरगद का पेड़
देखा। उसमें
हरे-हरे
पत्ते और लाल-लाल
फल
शोभायमान
हो रहे थे।
बरगद के पेड़
ई शानकोण
पर एक जाल
थी, उसमें एक पत्तों
का दोना-सा
बन गया था।
उसी पर अपने
पैर का अँगूठा
दोनों हाथों
से पकड़ कर
मुख में डालकर
चूसता हुआ
एक अत्यंत सुंदर
शि शु (बाल
मुकुंद) उन्होंने
देखा।-२२
लोकमानस
का मन 'अलौकिक'
तत्त्व की ओर
आकर्षित होता
है, इसलिए लोकवार्ता
में अलौकिक
तत्त्वों का समावे श
बहुत व्यापक
और बहुत
गहरे स्तरों
तक विद्यमान
है। परा प्राकृतिक
या परामानवीय
तत्त्व लोकमानस
का ही अलौकिक
तत्त्व है, जो
वृक्ष-वनस्पतियों
में भी देखा
गया है और
नदी, पहाड़ों
तथा अन्य जीव-जंतुओं
में भी। परा प्राकृतिक
शक्ति संबंधी
अभिप्रायों
के अंतर्गत यहाँ
वृक्षों, फलों
और फूलों
में चमत्कार
की शक्ति तथा
वृक्षों की उत्पत्ति
एवं रुप-परिवर्तन
संबंधी अभिप्रायों
की चर्चा की
जा रही है।
५.१. फूल
: परा प्राकृतिक
तत्त्व
एक लोककहानी
शिववरदानी
में दानव-कन्या
के पास दो
फूल हैं; एक
सफेद और
दूसरा लाल।
जब दानव-कन्या
राजकुमार
को लाल फूल
सुँघाती है
तो वह सोलह
साल का बन
जाता है और
जब सफेद
फूल सुँघाती
है, तब वह
वृद्ध व्यक्ति
बन जाता है।
५.२. फल
से गर्भ
अनेक कथा-कहानियों
में फल खाने
से गर्भ होने
का अभिप्राय
प्राप्त होता
है। बृहद्रथ
को चंडकौाकि
मुनि ने आम्र
का फल दिया
था, जिससे
जरासंघ का
जन्म हुआ था।-२३
इसी प्रकार गोकर्ण
की कथा में आत्मदेव
को महात्मा
ने एक फल देकर
कहा था कि
इसे तुम अपनी
पत्नी को खिला
देना, इससे
इसके पुत्र उत्पन्न
होगा।-२४
५.३. फल
से कन्या का
जन्म
एक कहानी
में अनार से
राजकन्या का
जन्म होता
है और दूसरी
कहानी में
बेंगन से राजकुमारी
का जन्म होता
है।
५.४. अखैबर
के पेड़ पर प्राण
दानव-संबंधी
कथाओं में एक
अभिप्राय बहुत
व्यापक है
कि दानव के
प्राण 'अखैबर'
के पेड़ पर लटके
पिंजड़े में विद्यमान
हैं।-२५ अक्षयवट
का कभी क्षय
नहीं होता,
यह लोकविश्वास
है।
५.५. अमृत
बिंदु से वृक्ष
उत्पत्ति
वृक्ष
की उत्पत्ति-संबंधी
अभिप्रायों
में तुलसी
की उत्पत्ति अमृत
की बूँद से
होती है।
समुद्र के मंथन
के समय अमृत-कला
से जो बूँद
छलककर गिरी,
वहाँ तुलसी
का पौधा उत्पन्न
हुआ और भगवान
शिव ने वह
विष्णु को
दे दिया।-२६ इसी
प्रकार तिल
की उत्पत्ति विष्णु
के पसीने से
बतायी जाती
है।-२७ जालंधर
के मरने पर
जहाँ तुलसी
सती हुई वहाँ
लक्ष्मी, पार्वती
और स्वरा
भी आयीं और
तीनों के तेज
से क्रम श: तुलसी,
आँवला व
मालती की
उत्पत्ति हुई।-२८ देवराज
ने जब अमृत
पिया था तो
उसकी जो बूँदें
धरती पर गिरीं;
उनसे सात प्रकार
की हरड़ें उत्पन्न
हुईं-२९, इसी प्रकार
गरुड़ ने जब
अमृत कला का
अपहरण किया
तब छीनाझपटी
से जो बूँदें
गिरीं, उससे
लहसुन पैदा
हुआ।-३० देवासुर
संग्राम में
पृथीमाली
दैत्य मारा
गया, उसे रुधिर
से कालकूट
वृक्ष पैदा हुआ।-३१
५.६. शव
से वृक्षोत्पत्ति
'रायमला'
शीर्षक कहानी
में भाई ने
बहन के जंगल
में ले जाकर
मार दिया
तथा उसके खून
से अपनी बहू
की साड़ी रँग
ली। जिस स्थान
पर भाई ने
बहन के शव
को दबा दिया
था, वहाँ गेंदा
के पौधे उग
आए। जब माँ और
श्वसुर वहाँ
आकर फूल
तोड़ने के लिए
हाथ बढ़ाते
हैं तो फूलों
से आवाज आती
है-'मइया री
मइया फूल
मत तोरै,
डार मत मोरै,
मैं हूँ बेटी
रायमला।'-३२
एक अन्य
कहानी में
सौतेली
रानी दूसरी
रानी के बच्चों
को जन्म लेते
ही मरवाकर
जंगल में जहाँ
गड़वा देती
है, वहाँ
चंपा के दो
पौधे उग आते
हैं। राजा जब
फूल तोड़ने
को आते हैं
तो एक पौधे
से आवाज आती
है-'चम्पा भैया,
राजा फूल
लेने आए हैं।'
दूसरे पौधे
से आवाज आती
है-'चम्पी बहन,
लेने दे।'-३३
५.७. रुप-परिवर्तन
इसी प्रकार
का अभिप्राय
'पुरिया की
रानी और
भंगिन' कहानी
में है। जिस
कुआँ में 'महतरानी'
ने 'पुरिया
की रानी' को
धक्का दिया था।
'एक दिन ग्वे दोऊ
भैया सिकार
खेलिबे गए
तौ म्वाँ गुनें
प्यास लगी
और ग्वे ग्वाई
कूआँ पै पौंचि
गए जामें रानी
गिरी काई
और जब छोटे
छोरा ने अपनौ
लोटा कूआँ
में फाँसी
तो ग्वामें
एक भौतु बढिया
गेंदा कौ फूल
आयौ, फूल
ऐ छोरा घर
कूँ लै आयौ।
ग्वा भंगिन
नें फूल तोरि
कें घूरे पै
फेंकि दयौ
तौ घूरे पै
फूल में एक
बेरिया और
एक आम उपजौ।
जब ग्वे पेड़
फल दैबे
लाक भए तौ
सबु उनपै ते
आम और बेर
खाऔ करें। परि
ग्वा भंगिन
के हात बेर
और आम न आऔ
करें। भंगिन
ने रिस हैं
कें राजा ते
कहि के गवे
दोनों पेड़
बढ़ई पै कटवाय
दए। जब बढ़ई
नें आम काटौ
तौ ग्वा पै
ते गुअ आम तोर
कें घर कूँ लै
गयौ, जब बढ़ई
की बऊ गुन
आमन ऐ छीलि
रही, तब एक
आम में ते आवाज
आई कै अम्मा
हौलें हौलें
काटि। बऊ ने
आम हौले-हौले
ई काटौ तौ
ग्वामें ते एक
भौतु मलूक
क्न्या निकरी।"-३४
६. भौतिक
उपयोगितावादी
दृष्टि
लोकमानस
ने वृक्ष को
जीवों की योनि
माना, मनुष्य
माना, देवता
माना, चैतन्या
माना परंतु
इस सबके साथ
इस बात को
झुठलाया नहीं
जा सकता कि
मनुष्य के पास
भौतिक उपयोगितावादी
दृष्टि भी हमेाा
से रही। वृक्ष-वनस्पतियों
से मनुष्य
ने भोजन प्राप्त
किए। उसने वृक्षों
को जलाया
भी और काटा
भी, इसी के साथ
उनसे अपने रोगों
की चिकित्सा
भी की। वृक्षों
को एक जगह से
ले जाकर दूसरी
जगह उगाने के
अभिप्राय कथा-कहानियों
में विद्यमान
है। नीचे कुछ
कथा-अभिप्रायों
को प्रस्तुत किया
जा रहा है,
जिनमें भौतिक
उपयोगितावादी
दृष्टि बड़े प्रखर
रुप में अभिव्यक्त
होती है।
६.१. वृक्ष
दहन
भागवत
में एक कथा है
कि "राजा प्राचीनबर्हि
के दस लड़के-जिनका
नाम प्रचेता
था, जब समुद्र
से बाहर
निकले तब
उन्होंने देखा
कि सारी पृथ्वी
पेड़ों से घिर
गयी है। उन्हें
वृक्षों पर
बड़ा क्रोध आया।
उन्होंने वृक्षों
को जला डालने
के लिए अपने मुख
से वायु और
अग्नि की सृष्टि
की। जब अग्नि और
वायु वृक्षों
को जलाने
लगी तब वृक्षों
के राजाधिराज
चंद्रमा ने कहा-प्रचेताओ,
ये वृक्ष बड़े
दीन हैं, आप
इनसे द्रोह
मत कीजिए। भगवान
ने सम्पूर्ण
वनस्पतियों
और औषधियों
को प्रजा के हितार्थ
उनके खान-पान
के लिए बनाया
है। मनुष्य
अन्न खाते हैं,
प शु चारा खाते
हैं तथा पक्षी
फल-पुष्प आदि
से भोजन
ग्रहण करते
हैं। ऐसे वृक्षों
को जलाना
कदापि उचित
नहीं है। हे
प्रचेताओ, आत्मा
के रुप में भगवान
समस्त प्राणियों
के ऋदय में
विराजमान
हैं। इन वृक्षों
की आप रक्षा
कीजिए। इस प्रकार
कहकर वृक्षों
के द्वारा पालित
कन्या (प्रम्लोचा
अप्सरा की पुत्री)
चंद्रमा ने प्रचेताओं
को प्रदान की।"-३५
महाभारत
की कथा के अनुसार
खांडववन
में नाग, राक्षस,
पिााच, दानव
और विद्याधर
जातियों के
लोग रहते
थे और नगरों
पर आक्रमण करते
थे। तक्षक नाग
वहाँ का राजा
था। अर्जुन और
कृष्ण की प्रेरणा
तथा संरक्षण
में अग्नि ने खांडववन
को जलाया
था।-३६
अनेक लोककथाओं
में कारे गाँ
के जंगल और
बबूलवन
कटाने का अभिप्राय
है। जो राज्य
इन जंगलों
की सीमा के
पास थे, वहाँ
के राजा इन
जातियों से
संत्रस्त थे, इसलिए
वह अपनी कन्या
के विवाह
के लिए शर्त रखते
थे कि जो कारे
गाँ के जंगल
कटवा दे और
दानवों का
समूल नष्ट
कर दे, उन्हीं के
साथ कन्या कि
विवाह किया
जाएगा-बबरी
वन को देय
कटवाय कें
रे सुन प्यारी
मेरी।
दानेन कौ
देय रे नाम
मिटाई (हीर राँझा)
६.२. राजाओं
के युद्ध का कारण
: बाग उजाड़ना
अनेक कहानियों-कथाओं
में राजाओं
के युद्ध का कारण
बागों तो
तहस-नहस
करना एवं केसर-क्यारी
खूँदना बतलाया
गया है। रामकथा
में हनुमान
अ शोक वाटिका
उजाड़ते हैं,
इसी प्रकार आल्हा
की गाथा में
किसी राजा
को युद्ध के
लिए उत्तेजित करने
के लिए केसर-क्यारी
खूँदने का अभिप्राय
विद्यमान है।
६.३. बबूलवन
जहाँ
लोककथाओं
में बबूलवन
कटवाने का
अभिप्राय है,
वहीं 'आल्हा'
में शत्रु के गाँव
उजाड़कर बबूल
के बीज बिखेरकर
वहाँ जंगल
खड़े करने का
अभिप्राय भी
विद्यमान है।
६.४. दूसरे
द्वीपों और
राज्यों से
फल-फूल
और वृक्ष लाना
दूर
द्वीपों से, स्वर्ग
से एवं दूसरे
राज्यों से
फल-फूल
और पौधे
मँगवाने का
अभिप्राय अनेक
कथाओं में प्राप्त
होता है।
स्वर्ग से पारिजात
वृक्ष लाने
के लिए इंद्र और
कृष्ण का युद्ध
पुराण-प्रसिद्ध
है।-३७ कहानियों
की राजकुमारी
प्राय: ऐसा फल
या फूल लाने
की ार्त करती
है, जो राक्षस
द्वारा संरक्षित
जंगल या दूर
द्वीप में है।
द्रौपदी के
कहने से भीम
गंधमादन पर्वत
पर फूल लेने
गए थे।-३८ अनेक कहानियों
में फल-फूल
चुराने तथा
चोर को पकड़ने
के लिए पुरस्कार
के भी प्रसंग
हैं। कहीं परी
रात को आती
है और बाग
में से फल
चुरा ले जाती
है और राजकुमार
बाग का पहरा
देता है। 'सोन
चिरइया'-३९ की
कहानी में
चिड़िया फल
चुरा लेती
है।
६.५. रोग
उपचार : अमर
फल
लोकमानस
का जड़ी-बूटियों
मे बहुत गहरा
विश्वास है।
अनेक कहानियाँ
हैं, जिनमें
पक्षी बतलाता
है कि पीपल
की जड़ पिला
देने से राजकुमारी
स्वस्थ हो जायेगी।-४०
जड़ी-बूटी
के लिए जंगलों
में जाना साहसिकता
और पराक्रम
का प्रतीक है।
राम-कथा में
हनुमान संजीवनी
बूटी लेने
जाते हैं। 'अमरौती'
और 'इमरत
फल' कहानियों
का बहुत व्यापक
अभिप्राय है।
देवताओं की
कथाओं में सोमलता
और सोमरस
के अभिप्राय
हैं।
६.६. संजीवनी
एक लोककथा
है कि शबरी
के जूठे बेर
राम ने तो
खा लिए थे किंतु
लक्ष्मण ने जूठा
होने के कारण
उसे चुपचाप
फेंक दिया।-४१
वही बेर
की गुठली संजीवनी
बूटी बनी
जो लक्ष्मण को
मूर्च्छा के समय
सुषेण नाम
के वैद्य ने दी
थी। 'जड़ी-बूटियों'
में लोकमानस
का बड़ा विश्वास
हैं।
६.७. संतान
बूटी
अनेक लोकगीतों
में पुत्रहीन
पत्नी पति से
आग्रह करती
है कि वह
पुत्र होनेवाला
फूल ले आवे,
कोई बूटी
ले आवे जिससे
मेरे पुत्र उत्पन्न
हो-
उनई बागन
तुम जाउ फूल
जौ कहिये
पूत कौ
म्वाँ बूटी
बिकत्यै लाल
की
जो कोई बूँटी
ऐ लाय खबावै,
आधौ राज उँगरिया
की अँगूठी।
मनुष्य
के चिंतन की प्रक्रिया
समान
अपने देा
की लोककथाओं-पुराकथाओं
के अभिप्रायों
के साथ जब
हम ग्रीस पुरा-कथाओं
का अध्ययन करते
हैं तब एक तथ्य
यह भी हमारे
सामने प्रकट
होता है
कि मनुष्य के
चिंतन की प्रक्रिया
में अद्भुत
समानता है।
आज विश्व-समाज
के पास संवाद
और सम्पर्क
के बहुत से
साधन हैं परंतु
जब ऐसे साधन
नहीं थे तो
उस जमाने में
भी अपने प्राकृतिक
परिवे श के
प्रति मानव
की एक जैसी प्रतिक्रिया,
एक जैसी भावना
और विश्वास
के ये सूत्र मानव
मात्र की आंतरिक
संरचना और
चिंतन प्रक्रिया
की एकता और
समानता को
प्रमाणित करते
हैं। इन अभिप्रायों
में ऐसे अनेकानेक
संकेत हैं
जो यह स्थापित
करते हैं कि
भौगोलिक-सामाजिक
परिवेा की
भिन्नता के बावजूद
काल के प्रवाह
की एकसूत्रता
ने मानव-मात्र
को प्रभावित
किया है और
विश्वमानव
की युगयात्रा
काल की एक ही
छाया में से
होकर गुजरी
है।-४२
इस प्रकार
कथा-अभिप्रायों
के अध्ययन से
हम इस निष्कर्ष
पर सहज ही
पहुँच सकते
हैं कि लोकमानस
ने सम्पूर्ण
चराचर में
व्याप्त 'एक' तत्त्व
की पहचान की
है तथा सभी
को चेतनासम्पन्न
माना है। लोक
और
शास्र दोनों
में ये बातें
बहुत गहराई
में रसी-बसी
हैं।
शास्रों
में मनुष्य
के पूर्णचेतन,
पाुपक्षी को
चेतन, वनस्पति
को सुप्तचेतन
एवं
शेष जड़
पदार्थों को
अप्रकट चेतन मान
गया है।-४३ इसी
प्रकार लोककथाओं
में प्राकृतिक
शक्तियों को
तीन रुपों में
स्वीकार किया
गया है-आधिदैविक,
आधिभौतिक
और आधिदैहिक।
पीपल वृक्ष
के रुप में आधिभौतिक
है परंतु जहाँ
उसकी पूजा दिव्य शक्ति
के रुप में की
जाती है वहाँ
उसका आधिदैविक
रुप है, तीसरे
रुप में वह
कहानियों
का पात्र है,
उसके साथ मनुष्य
का संवाद
होता है
तथा वह मानवीय
संवेदना से
परिपूर्ण है।
प्राकृतिक परिवे श
में अपना जैसा
भाव देखना
आत्मर्दान है-'आत्मवत्
सर्वभूतेषु
य: पयति स
पंडित:।' आत्मर्दान
का सिद्धांत
एक दिन में नहीं
बन गया, उसकी
पृष्ठभूमि
में वह लोकदृष्टि
और लोक-अनुभव
विद्यमान हैं,
जिसका अध्ययन
हम वृक्ष-वनस्पति
संबंधी अभिप्रायों
में कर सकते
हैं। ठीक इसी
प्रकार से चराचर
में सर्वत्र चेतना
का र्दान आत्मवाद
के सिद्धांत
की आधारभूमि
है।
संदर्भ
१.
प्राचीन काल
में यक्ष-गंधर्व
बरगद आदि
के पेड़ों पर
घर बनाकर
रहते थे, इसलिए
बरगद को
यक्ष तरु, यक्षवासक
तथा यक्षवास
कहा गया है।
(यक्षों की भारत
को देन, पृ. १७४)
२. भागवत
४,६,३२-३३
वह वट-वृक्ष
सौ योजन
ऊँचा था तथा
उसकी शाखाएँ
पचहत्तर योजन
तक फैली हुई
थीं। उसके चारों
ओर सर्वदा
अविचल छाया
बनी रहती
थी, उस महायोगमय
और मुमुक्षुओं
के आश्रयभूत
वृक्ष के नीचे
देवताओं ने
भगवान शंकर
को विराजमान
देखा।
३. वृंदावन
में यह वं शीवट
प्रसिद्ध तीर्थ
है।
४. इसे 'टेर
कदम' नाम से
जाना जाता
है। कदम चढि
कान्ह बुलावत
गैया।
५. कोटिक
हू कलधौत
के धाम करील
की कुंजन ऊपर
वारों। (रसखान)
६. भागवत
स्कंद ११ अ. ३० लो.
२७। जहाँ श्रीकृष्ण
ने पीपल के
पेड़ की जड़ों
पर सिर टेके
जरा का तीर
झेला और
अपनी लीला
समेटी, वहाँ
पीपल का पेड़
बना रहा
जो एक बाढ़ में
ढह गया। उसी
स्थान पर वृंदावन
से पीपल का
पौधा ले जाकर
स्व. अज्ञेयजी
ने भागवतभूमियात्र
के अवसर पर
लगाया था।
७. शाल्मलि,
म.भा. भीष्मपर्व
११.३ कु शावर्त अनु.
२५.१३ पुष्कर आदि
२.२० सातद्वीप : म.भा.
भीष्म १२, जंबूद्वीप
सभा २८/६
८. ग्राम गढ़राना
(अलीगढ़) के श्री
मुरली सिंहजी
से प्राप्त गीत।
ऐसे गीतों
को रसियाई
अथवा फूलडोल
के गीत एवं जिकरी-भजन
कहते हैं। ये
फूलडोल
के मेलों में
गाए जाते हैं।
९. भारतीय
साहित्य (डॉक्टर,
सत्येंद्र), वर्ष
५, अक्टूबर १९६०, पृ.
१४३
१०. वही,
१४४-४५
११. ब्रज लोक
कहानियाँ
(डॉ सत्येंद्र),
पृ. ४५
१२. शिवपुराण,
रुद्र संहिता,
अ. ४१। इसके अतिरिक्त
एक अन्य प्रसंग की
कथा है कि एक
बार ावि-पार्वती
के रतिसुख
में अग्नि ने बाधा
डाली। पार्वती
ने इस बात पर
सब देवताओं
को वृक्ष बन
जाने का ााप
दिया। ब्रह्मा
को पीपल बनना
पड़ा तथा विष्णु
वट बने।
१३. भागवत
स्कंद १० अ. १०
१४. स्कंद १.१.६
नाक्षतैरर्चयेद्
विष्णुं न केतक्या
महेश्वरम्।
१५. श्री हरिहराास्री
मथुरा से
सुनी।
इसी प्रकार एक
कथा दमनक पौधे
के संबंध
में है। कामदेव
को भ करने
के लिए शिव
के तीसरे नेत्र
से जो अग्नि निकली
उसे पार्वती
ने दमनक पौधा
बन जाने का
वरदान दिया
था।
१६. मत्स्य. ६
१७. भारतीय
साहित्य (डॉ
सत्येंद्र), अक्टूबर
१९६०, पृ. २३७
१८. वही २३९
तथा जनपदीय
अंक प्रेरणा ७२
१९. म. भा. शांति. १५६-१५७
२०. भागवत
स्कंद १० अ. ३०। गोपी
विरह वर्णन-प्रसंग
में सूरसागर
में गोपियाँ
वृक्षों को
धिक्कारती हैं-मधुवन,
तुम कत रहत
हरे। तुम निरलज्ज
लाज नहिं तुमकों
फिर-फिर
पुहुप धरे।
२१. भागवत
३.९
२२. म. भा.
वन १८८/९२ तथा भागवत
३.३३.४
२३. प्राचीन
चरित्रको श,
पृ. ५१६
२४. भागवत
महात्म्य अ. ४ लो.
४१
२५. नि. सं.
२६. पद्म पुराण
२७. मत्स्य ८७/४
यस्मान्मधुवधेर्विष्णोर्देह
स्वेदसमुद्भव:।
तिला: कु शाच
माषाच तस्माच्छान्त्यै
भवत्विह।
२८. पद्म ६१
२९. भावप्रका श
१३५, वेंकटेश्वर
प्रेस, संवत्
१९७८
३०. वही.
३१. भावप्रका श
३०३, वेंकटेश्वर
वि. १९७८
३२. प्रेरणा
जनपदीय अंक
सासनी, पृ.
९७
३३. नि. सं.
३४. सासनी
सर्वेक्षण (राजेंद्र
रंजन) १३७
३५. भागवत
स्कंद ६ अ. ४
३६. खांजववन
दाह प्रसंग
म. भा. आदि २२३.२२५
३७. भागवत
३.३.५
३८. म. भा.
वन. १४६.१९
३९. नि. सं.
४०. कहानी
: सेर सिरकटा
और मूसटा
४१. फेंकौ
बेर गिरौ
धरती पै सरजीवन
बन गयौ बेर
४२. देखिए परिाष्टि
७
४३. सातवलेकर
: गीताभाष्य
८१९
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