लोक
अनुष्ठानों की
परंपरा बहुत
प्राचीन है। इसलिए
इनमें प्राचीन
संस्कृति के
अवोष विद्यमान
हैं और प्राय:
सभी अनुष्ठानों
में वृक्ष-वनस्पति
किसी न किसी
रुप में उपस्थित
है। अनुष्ठान
जीवन के प्रत्येक
सन्दर्भ से
जुड़े हुए हैं-सुख
हो या दुख
हो, धन सम्पत्ति
का अभाव हो,
संतान का अभाव
हो, रोग हो,
शोक हो अथवा
जन्म से लेकर
मृत्यु तक कोई
संस्कार हो,
मांगलिक
अनुष्ठान हो।
व्रत, उपवास,
तीर्थ, यज्ञ, श्राद्ध,
दिन, तिथि, महीना
और ॠतु, पर्व
और त्यौहार-प्रत्येक
अवसर का एक
विाष्टि विधि-विधान
है और प्रत्येक
विधि-विधान
के साथ लोकमानस
की इच्छा, आकांक्षा
और कामनाएँ
अनुस्यूत हैं।
प्रत्येक अनुष्ठान
की कुछ विाष्टि
रहस्यात्मक
क्रियाएँ हैं।
प्रत्येक अनुष्ठान
का कोई न कोई
देवता है
और विशिष्ट
सामग्री है।
लोकानुष्ठानों
में वृक्ष-वनस्पति
का अध्ययन करने
के लिए इन्हें दो
भागों में
वर्गीकृत किया
जा सकता है
(रेखाचित्र-१०)-
१. देवतत्त्व
के रुप में
२. आनुष्ठानिक
सामग्री के
रुप में
वृक्ष-वनस्पतियों
को आदि-देव
कहा जा सकता
है। लोक अनुष्ठानों
में अनेक वृक्ष-वनस्पितयों
को देवतत्त्व
रुप में ग्रहण
किया जाता
है। इन्हें हम
तीन भागों
में वर्गीकृत
कर सकते हैं-
१.१ देवरुप
१.२. देव प्रतीक
रुप
१.३. देव निवास
रुप
रेखाचित्र-१०
: लोकअनुष्ठानों
के वृक्ष वनस्पति
का वर्गीकरण
१.१. देव
रुप
जो वृक्ष-वनस्पति
प्रत्यक्ष देवरुप
में स्वीकार
किए गए हैं, उनके
भी तीन वर्ग
किए जा सकते
हैं-
१.१.१. नित्य
पूज्य
१.१.२. तिथि वासरीय
१.१.३. निमित्त पूज्य
१.१.१. नित्य
पूज्य : ब्रज क्षेत्र
में तुलसी
गणना नित्यपूज्य
वृक्ष-देव के
रुप में की जा
सकती है,
क्योंकि वह
हरिप्रिया-१
है। सम्पूर्ण
मंगलों का
निमित्त और
अमंगलों का
निवारण करनेवाली
है। जहाँ तुलसी
का बिरवा
रहता है,
वहाँ यमदूत
तथा दुष्ठ शक्तियाँ
प्रवे श नहीं
करतीं। कहीं-कहीं
पीपल की पूजा
भी नित्यप्रति
की जाती है।
१.१.२. तिथि
वासरीय
: अनेक वृक्ष देवता
ऐसे हैं, जिनकी
पूजा विशिष्ट
तिथि और वार
को होती
है। जैसे अक्षय
वनमी पर
आँवले की
पूजा, दूबरी
सातें को दूब
की पूजा, अकौआ-छट
को आक की पूजा
होती है।
बृहस्पतिवार
को केला तथा
शनिवार को
पीपल की पूजा
होती है।
१.१.३. निमित्त
पूज्य : लोकजीवन
के निमित्त भी
दो प्रकार के
हैं-मंगलनिमित्त
और अमंगल
का निवारण।
मंगल निमित्त
भी संतान,
सम्पत्ति और
सौभाग्य
हेतु तीन प्रकार
के होते हैं।
'आोक' की पूजा
संतान की
कामना से
की जाती है,
छोंकर का वृक्ष
विजय दिलानेवाला
है और लंका-विजय
से पूर्व राम
ने भी इसकी पूजा
की थी।-२ वट-वृक्ष
सौभाग्य
का देवता
है, वटसावित्री-कथा
में सावित्री
ने यम के विधान
को बदलकर
सत्यवान के
लिए नया जीवन
प्राप्त किया
था। अमंगल-निवारण
के लिए बड़ी-बूढ़ी
स्रियाँ, स्याने,
तांत्रिक या
पंडित पीपल,
आक आदि की पूजा
का नि श् ा देते
हैं। जैसे-स्वप्न
में साँप दिखाई
दे तो शनिवार
को पीपल
पर दूध चढ़ाना
चाहिए।
१.२. देव
प्रतीक रुप
देव
प्रतीक के रुप
में सुपाड़ी,
हल्दी की गाँठ
तथा नारियल
की पूजा की
जाती है।
१.३. देव
निवास रुप
अनेक वृक्ष-वनस्पतियों
के मूल और
शाखाओं पर
देवताओं का
निवास माना
जाता है। ये
देव भी तीन
प्रकार के हैं-
१. ३.१. देवता रुप
१.३.२. प्रेत रुप
१.३.३. पितृश्वर
रुप
१.३.१. देवता
रुप : केला के
मूल में विष्णु
का निवास
है। यदि शमी
वृक्ष पर पीपल
उग आए तो वह
नर-नारायण
का रुप है। नीम
पर भैरव
का निवास
है। आोक पर
कामदेव का
निवास है।
१.३.२. प्रेत
रुप : गूलर,
बाँस, बेरिया,
पीपल प्रेत
के निवास-स्थान
माने जाते
हैं।
१.३.३. पितृश्वर
रुप : पूर्वज
वृक्ष के नीचे
निवास करते
थे या उठते-बेठते
थे। पूर्वज-संबंध
सूत्र के कारण
के वृक्ष भी
पूर्वजों के
समान पूज्य
माने जाते
हैं। वृक्षों
के नीचे थान
बनाए जाते
हैं, जहाँ पूर्वज
देवता या
पितृश्वर देवताओं
की (देवताबाबा
के रुप में) पूजा
की जाती है।
देवतत्त्व
के रुप में तुलसी,
पीपल, वट,
दूब, अ शोक,
गूलर, छोंकर,
आँवला, अंडी,
आक, केला, नीम,
कदंब, बेल,
कमल का विवरण
प्रस्तुत किया
जा रहा है-
(अ) तुलसी
: ब्रजमंडल
में प्राय: घरों
में 'तुलसी'
का 'थामरा'
होता है।
स्रियाँ श्रद्धापूर्वक
उस पर जल
चढ़ाती हैं
तथा दीपक जलाती
हैं। तुलसी
की पूजा का
विोष अनुष्ठान
कार्तिक के महीने
में होता
है। 'कार्तिक
स्नान' करके
स्रियाँ 'राई
दामोदर'
की पूजा करती
हैं तथा तुलसी
के पौधे को
बीच में रखकर
कथा-कहानी
सुनाती हैं।-३
तुलसी के
विवाह तथा
गौने (द्विरागमन)
के गीत गाए जाते
हैं-
'हो
राम डूँगर
खटकी में सुनी
और नद जमना
के तीर' इस
गीत में कहानी
है कि जब
तुलसी सिर
पर गागर लेकर
यमुना-किनारे
गई, तो 'रुक्मणी'
ने तुलसी
को पकड़कर
हिला दिया
और उसके जेवर
तथा चूड़ियाँ
तोड़ डालीं,
गागर लुढ़का
दी और तुलसी
के पिता को
गालियाँ
दी। श्रीकृष्ण
आए और उन्होंने
पूछा कि-'तुलसी,
आज तुस इतनी
अनमनी क्यों
हो ?' तुलसी
ने कहा-'हे
कृष्ण, तुमरी
रुकमिन लाड़ली
और हम डारीं
झकझोर।' कृष्ण
बोले-'तुलसी,
मेरी सबसे
प्रिय तो तुम्हीं
हो और तुम्हें
मैं हृदय में
धारण करता
हूँ।'-४ स्मरणीय
है कि ' शालिग्राम'
की पूजा तुलसीदल
से होती
है। शालिग्राम
शिला पर एक
सौ आठ तुलसीदल
चढ़ाने का अनुष्ठान
किया जाता
है।
एक अन्य
गीत में 'राधा'
और तुलसी
के सपत्नी-भाव
की चर्चा है,
जिसमें एक धोबी
कृष्ण और तुलसी
के प्रेम के रहस्य
को प्रकट कर
देता है। राधा
श्रीकृष्ण से
उनके माथे पर
तिलक, मेहँदी
का पत्ता, पैरों
में महावर
तथा दुपट्टा
में लगे दाग
का रहस्य
पूछती है।
कृष्ण सभी
बातों का
उत्तर देकर कहते
हैं कि दुपट्टा
धोबी के
यहाँ बदल
गया। राधा
धोबी को
बुलाकर
पूछती है,
तो धोबी
कृष्ण और तुलसी
के प्रेम-प्रसंग
को प्रकट कर
देता है।-५
एक कथा
के अनुसार
वृन्दा ने कृष्ण
की तपस्या
करके वरदान
माँगा था कि
'मैं तुम्हारी
लीला के
लिए निकुंज
बनाऊँगी,
उस उपवन में
छ: ॠतुएँ एकसाथ
रहेंगी, तुम
उस निकुंज
में राधा के
साथ बिहार
करना।' ये ही
वृंदावन
की निकुंजें
हैं।
कार्तिक
मास में 'देवठान-एकाद शी'
को तुलसी-ाालिग्राम
के विवाह
का अनुष्ठान
किया जाता
है। उसमें गीत
गाया जाता
है-
आसाढ़े उजियारी
तीजा लै रे
बोवउ रानी
तुलसी के
बीजा ।
जोतहु बोवहु
करहु कियारियाँ
धनि जा मलिया
के बेटाहू
जायौ
तुलसी कौ
बिरवा सींच
जमायौ।
सावन तुलसा
पात-दुपाती,
भादों तुलसा
गहर गँभीरी
क्वार में तुलसा
कान कुँवारी
कातिक तुलसा
कौ रचौ
विवाहु।
इस गीत
में तुलसी
की माँ धरती
और पिता
इंद्र बताए गए
हैं।
तुलसी की
आरती का गीत
है-
तुलसा की
मंजरि तोरि
श्रीकृष्ण चढ़ाइयौ
।
श्रीकृष्ण चढ़ाइ
परमपद पाइयौ
।
कुसुमी चीर
पहराय तुलसीदे
कों व्याहिये
।
एक पुराकथा
के अनुसार
'वृंदा' शंखचूड़
असुर की पतिव्रता
पत्नी थी, जिसकी
वजह से वह
अजेय था। उसका
सतीत्व खंडित
करने के लिए
श्रीहरि ने
शंखचूड़ दानव
का रुप धारण
किया और
उसके पतिव्रत
को भंग किया।
तब वृंदा
ने श्रीहरि
को शालिग्राम
शिला होने
का शाप दिया
और शिव ने
वृंदा को
जड़ (वनस्पति)
होने का शाप
दिया।-६
एक अन्य
पुराकथा के
अनुसार 'तुलसी'
'जालंधर'
दैत्य की पत्नी
तथा 'कालनेमि'
की पुत्री थी।
जालंधर की
मृत्यु के पचात्
इसने अग्नि-प्रवे श
किया था। इसकी
पति-भक्ति से
'विष्णु' प्रसन्न
हुए। इसके अग्नि-प्रव श्ेा
के स्थान पर
'गौरी' के
अ श्ंा से आँवला,
'लक्ष्मी' के अं श
से तुलसी
तथा 'स्वरा'
के अं श से मालती
के पेड़ उत्पन्न हो
गए।-७ पंजाब
में जालंधर
में तुलसी
का प्रसिद्ध मंदिर
है।
पुराणों
में तुलसी
को वृंदा
के पसीने से
उत्पन्न बताया
गया है,-८ एक
कथा के अनुसार
'समुद्रमंथन'के अवसर पर
जब अमृत बाहर
आया तो उसकी
बूँद जमीन
पर गिरी। उस
बूँद से तुलसी
का पेड़ उत्पन्न
हुआ, जो 'ब्रह्मा'
ने 'विष्णु' को
दिया।-९ तुलसी
का भगवान
के चरणों में
निवास है,
लक्ष्मी का भी
निवास भगवान
के चरणों में
है, इसलिए
तुलसी को
'लक्ष्मी' की सौत
मान गया है।
ब्रज में
जब 'ठाकुरजी'
को भोग
समर्पित किया
जाता है तब
भोग में तुलसी-दल
डाला जाता
है, क्योंकि
उसे बिना वे
भोग स्वीकार
नहीं करते-
छप्पन
भोग छतीसौ
व्यंजन बिन
तुलसा हरि
एक न मानी
नमो-नमो।
तुलसा महारानी
नमो-नमो
'चरणामृत'
में भी तुलसीदल
होता है।
विवाहों
में तेल चढ़ाया
जाता है, 'तेल
चढ़ाने' के समय
गीत गाया
जाता है-
ए हरि
नवन सँजोय
तुलसा पलोटै
हरि के पाँय
हो।
कार्तिक
में कही जानेवाली
तुलसी की
एक कहानी है
कि 'एक घर में
ननद-भावज
थीं। कुँआरी
ननद तुलसी
की पूजा करती
थी, जब ननद
का विवाह
हुआ तो भाभी
ने बरातियों
के आगे गमला
तोड़कर डाल
दिया, जो
पकवान के
रुप में बदल
गया, तुलसी
की मंजरी
गहना बन
गई ।-१०
'रामचरितमानस'
में प्रसंग है
कि 'लंकापुरी'
में 'विभीषण'
के घर पर हनुमान
ने तुलसी
के पौधे देखे
और अनुमान
किया कि अवय
ही यहाँ
किसी भक्त
का निवास
है-
नव
तुलसी के
वृंद बहु
लखि हरसे
कपिराय ।
वैष्णव
लोग तुलसी
की कंठी पहनते
हैं तथा तुलसी
की माला
पर ही जप
करते हैं। मृत्यु
के समय मुख
में गंगाजल
और तुलसीदल
जाला जाता
है और विश्वास
किया जाता
है कि ऐसा
करने से 'बैकुंठ
लोक' प्राप्त
होता है।-११
(आ) पीपल
: पीपल वृक्ष
का उल्लेख वैदिक-साहित्य
में है।-१२ गीता
में श्रीकृष्ण
ने पीपल को
अपना ही प्रतिरुप
बताया है-१३
तथा लोकजीवन
में उसे विष्णु-नारायण
एवं वासुदेव-वृक्ष
माना जाता
है। पीपल
सतयुग का
वृक्ष है। भगवती
'जालपा देवी'
के भवन के
द्वार पर पीपल
और 'पिछवारे'
वट का वृक्ष
है।
पीपल
वृक्ष पर शनि,
नाग देवता,
पीर, लक्ष्मी,
भूत-प्रेत तथा
पितृश्वर देवताओं
का निवास
माना जता
है। शनिवार
तथा 'अमावस्या'
को संतान
की कामना
तथा 'ग्रहदोष'
एवं 'अनिष्ट-निवारण'
के लिए पीपल
की पूजा की
जाती है। गाँवों
में प्राय: पीपल
के नीचे छोटे-छोटे
पत्थर रखे होते
हैं, यह वास्तव
में 'चैत्य-पूजा'
की परंपरा
का रुप है।
भैंस अथवा
गाय के 'ब्याने'
पर (बच्चा होने
पर) एवं नई
फसल आने
पर सबसे
पहले देवपूजा
का भाग पीपल
के 'चैत्य' पर
चढ़ाया जाता
है।
एक लोक
कहानी है
कि एक लड़की
पीपल को
जल चढ़ाने
जाया करती
थी तो 'लक्ष्मी'
उसके पीछे जाकर उसके
घर का सारा
काम कर दिया
करती थी।-१४ लोकमानस
में पीपल
को शनि के
रुप में पूजा
जाता है। ब्रज
की एक लोककथा
में एक महिला
पीपल से
'गोद भरने'
की याचना
करती है-
पीपर
देउ सनीचर
देउ मेरी गोद
में लरका
देउ
पीपल के प्रसाद
से जब ननद
के भी लड़का
हुआ तो भाभी
न पति से शंका
की। भाई को
भी विश्वास
नहीं हुआ,
तब पीपल
का तना फटा
और बालक
उसमें समा
गया। इस दुर्भाव
के कारण भाई
को 'कुष्ठ' हो
गया तब वह
पुन: पीपल
से 'सत' के भांजे
को माँगने
गया।-१५ इस कहानी
में पीपल
गोत्र का महत्त्वपूर्ण
संकेत है।
'सासनी' के
पास 'बिजाहरी'
गाँव के जाटव
बिरादरी
के एक महानुभाव
ने पीपल 'गोत्र'
का उल्लेख किया
था।-१६
जब
'मुगल' देवी
के 'मढ़' के द्वार
पर स्थित 'हरियल
पीपर' काटने
को उद्यत हुआ-'हरियल
पीपर ग्वाइ
कटवाय दउँ
तब मानैं
मन मेरौ'
तब लाँगुरिया
ने उसे सावधान
किया। पीपल
काटने के कारण
'मुगल' नष्ट
हो गया। पीपल
की लकड़ी जलाने
का दोष माना
जाता है, विश्वास
किया जाता
है कि पीपल
काटने से कोढ़े
हो जाता
है।
लक्ष्मी,
शनि तथा देवी
के अतिरिक्त 'पितृपूजा'
में भी पीपल
का महत्त्व है।
'पितृश्वरों'
को तृप्त करने
के निमित्त मृत्यु
के बाद दस
दिनों तक एक
जल से भरा
घड़ा पीपल
पर टाँग दिया
जाता है।-१७ प्रेत
अपनी मुक्ति
के लिए स्वप्न
देता है कि
मेरी मुक्ति
के लिए पीपल
का वृक्ष लगवाओ।
यदि
छोंकर ( शमी
वृक्ष) पर पीपल
का वृक्ष उत्पन्न
हो जाता
है तो उसे
'नर-नारायण'
का वृक्ष कहते
हैं।-१८ उसी वृक्ष
की सूखी लकड़ी
से यज्ञ में
'अरणि-मंथन'
(लकड़ी के घर्षण
से अग्नि की चिनगारी
उत्पन्न होती
है, उससे यज्ञ
की अग्नि प्रज्वलित
की जाती है)
करने का विधान
है।
' नाग
पूजा' का दूध
भी पीपल
पर चढ़ाया
जाता है। पुराणों
में पीपल
को विष्णु
का रुप कहा
गया है-
मूले विष्णु:
स्थितो नित्यं
स्कंधे केाव
एव च।
नारायणस्तु
शाखासु पत्रेषु
भगवान्
हरि:।
फलेऽच्युतो
न सन्देह: सर्वदेवै:
समन्वित:।
स एव विष्णुर्द्रुम:।
- (स्कंद पुराण)
एक पुराकथा
है कि शिव-पार्वती
की रतिक्रीड़ा
में अग्नि ने बाधा
डाली तब
पार्वती ने
सभी देवताओं
को वृक्ष बन
जाने का शाप
दिया, परिणामस्वरुप
ब्रह्मा पीपल
बने और विष्णु
वट। एक कथा
के अनुसार
लक्ष्मी की बड़ी
बहन 'दरिद्रा'
एक बार रुठकर
पीपल के नीचे
जा बैठी। शनिवार
के दिन लक्ष्मी
उससे मिलने
आयी, इसलिए
शनिवार को
तो पीपल
लक्ष्मीप्रद होता
है तथा अन्य
दिनों उसका
स्र्पा करने
का निषेध
है। भूत-प्रेत
तथा दरिद्रा
के निवास
के कारण पीपल
को गृहस्थ
घर में रखने
का निषेध
है।
भगवान
शिव पीपल
के नीचे ध्यानमग्न
रहते हैं।
जब भगवान
कृष्ण पीपल
वृक्ष में बैठे
थे, तभी उनके
पैर में बहेलिया
का बाण लगा
था तथा उनका
परमधाम
गमन हुआ।-१९
गोस्वामी
तुलसीदास
के संबंध
में किंवदंती
है कि वे जिस
पीपल पर
पानी चढ़ाते
थे, उसी के नीचे
उन्हें हनुमानजी
के द र्शन हुए।
इस प्रकार के
किस्से गाँव-गाँव
में प्रचलित
हैं कि-"गाँव
के पच्छिम माँऊँ
एक बम्बा पै
कोठी ऐ, ग्वा
पै कैऊ पीपर
ठाड़े ऐं,
थान बन रए
ऐं, म्वाँ ते पीर
निकरतु ऐ।"-२०
पीपल
को धर्म का
द्वारा माना
जाता है। शपथपूर्वक
कहने के लिए
पीपल की डाल
पकड़कर सत्यनिष्ठा
प्रकट की जाती
है। गाँवों
में पहले
पंचायतें
पीपल के नीचे
की जाती थीं
ताकि लोक
झूठी गवाही
न दें। ब्रज की
अनेक जातियों
में बालकों
का 'मुंडन
संस्कार' (मुड़ामन)
पीपल के नीचे
कराया जाता
है।-२१
यदि
किसी कन्या
की कुण्डली
'मंगली दोष'
अथवा अन्य कोई
अनिष्ट दोष
होता है
तो उसके निवारण
हेतु उस कन्या
के 'फेरे' पहले
पीपल के साथ
डालने के
बाद फिर
विवाह की
विधि सम्पन्न
करायी जाती
है।
जिस
प्रकार शालिग्राम-तुलसी
के विवाह
का अनुष्ठान
कराया जाता
है उसी प्रकार
पीपल का जोड़े
से अथवा नीम
के साथ विवाह-अनुष्ठान
भी कराया
जाता है। लोकगीतों
में पीपल-पूजा
का अभिप्राय
बहुप्रचलित
है-
पीपर
पूजन हम
चलीं बाँयें
बोलौ काग।
पीपर पूजत
पिय मिलें
एक पंथ दो काज।
(इ) वट
: वट-वृक्ष भी
पीपल के समान
ही नारायण
विष्णु का स्वरुप
माना गया
है। इसी वृक्ष
के नीचे 'सावित्री'
ने मृत्यु को
जीतकर 'सत्यवान'
का पुनर्जीवन
प्राप्त किया
था। ज्येष्ठ मास
की अमावस्या
(बड़मावस
अथवा सावित्री
व्रत) को दीवाल
पर हल्दी-चावल
के 'ऐंपन' से
बड़ का चित्र
बनाकर अथवा
उसकी टहनी
लाकर सौभाग्यवती
स्रियाँ सुहाग
की कामना
से बड़ की
पूजा करती
हैं तथा बड़-वृक्ष
उपलब्ध हो
जाए तो वहाँ
पौनी (कच्चा
सूत) लपेटकर
एक सौ आठ परिक्रमा
करती हैं।
पुराणों में
शिव का आसन
वट-वृक्ष के
नीचे उल्लिखित
है। पुराण
प्रसिद्ध 'मार्कण्डेय
मुनि' ने जो
प्रलय-र्दान
किया था, उसमें
'प्रलयकाल'
में केवल
'अक्षयवट' शेष
था और सर्वत्र
जल ही जल
था। वट-वृक्ष
के पत्ते पर
'बालमुकुंद'
शयन कर रहे
थे।-२२
ब्रज में
कहावत है
कि-
वृंदावन
सौ बन नहीं,
नंद गाँव
सौ गाँव।
वं शीवट सौ
वट नहीं, कृष्ण
नाम सौ नाम।
इसी
व श्ंाीवट के
नीचे श्रीकृष्ण
ने गोपियों
के साथ रास
किया था। भागवत-पुराण
के व्याख्याकारों
ने 'रास' के अभिप्राय
की विस्तार
से व्याख्या
की है तथा
'विराट पुरुष',
'श्रीयंत्र' जैसे
अभिप्रायों
की भाँति
अध्यात्म-विद्या
के रुप में रास
का विवेचन
किया है।
वट का अभिप्राय
' शास्र' में किस
रुप में प्रतिष्ठित
है, इसका एक
उदाहरण वं शीवट
तथा दूसरा
उदाहरण 'अक्षयवट'
है। भगवान
बुद्ध के जीवन-प्रसंग
में सुजाता
की दासी ने
गौतम बुद्ध
को वृक्ष का
देवता यक्ष
समझकर खीर
समर्पित की
थी। ब्रज के 'भांडीर
वन' में भांडीर
यज्ञ का 'भांडीर
वट' प्रसिद्ध
है।
'करवा चौथ'
के व्रत में दीवाल
पर वट का
अभिप्राय अंकित
किया जाता
है, क्योंकि
सात भाइयों
ने 'अखैबर'
के पेड़ पर
चढ़कर ही
दीपक दिखाया
था। विष्णुसह शनाम
में 'न्यग्रोधोदुंबरऽावत्थ:'।
वट, पीपल
तथा गूलर
विष्णु के स्वरुप
हैं। भागवत
में वट को
'महायोगमय
तथा मुमुक्षुओं
का आश्रयभूत'
कहा गया
है। (४.६.३३)। इस प्रकार
' शास्र' और
'लोक' दोनों
में वट की
महिमा प्राचीन
का से प्रतिष्ठित
है।
(ई) दूब
: श्रावण शुक्ला
सप्तमी को
'दूर्वा-सप्तमी'
या 'दूबरी
सातें' कहा
जाता है। 'दूबरी
सातें' की कहानी
में उल्लेख है
कि 'दूबरी
सातें' के दिना
सबु बैयरबानी
जुर मिल
में दूब लैबे
जाओ करतीं।'-२३
दूब को देवी
का रुप माना
गया है तथा
इसकी पूजा
से सुख-सम्पत्ति-संतान
की प्राप्ति होती
है। दूब गणे श
को प्रिय है
तथा गणे शजी
की पूजा में
दूब का होना
अत्यंत आव श् यक
माना जाता
है। भविष्य
पुराण की
कथा है कि-"जब
देवताओं
ने 'क्षीरसागर-मंथन'
किया, उस समय
विष्णु भगवान
ने अपनी पीठ
पर 'मंदराचल'
को धारण
किया, उसकी
रगड़ से भगवान
के जो रोम
उखड़कर जल
में गिरे, उनसे
दूब उत्पन्न हुई,
उस दूब पर
देवताओं
ने 'अमृत के
कुंभ' रखे,
उस अमृत के स्र्पा
से यह अजर-अमर
हो गयी।"
ब्रज की एक लोक
कहानी है
कि कौआ 'अमरौती'
लेकर आया
तो उसने दूब-घास
पर रखकर
ही अमरौती
खायी थी। दूब
को अजर-अमर
माना गया
है। दूब कितनी
ही सूख जाए,
एक बूँद जल
से ही हरी
हो जाती
है। दूब उर्वरता
की प्रतीक है
तथा पुत्र-जन्म
के उत्सव में
'नाई' परिजनों
के कान पर
दूब लगाकर
दक्षिणा लेता
है।
(उ) अ शोक
: 'अ शोक' कामदेव
का प्रतीक है।
विवाह आदि
अवसरों पर
अ शोक के पत्तों
का बंदनवार
बाँधा जाता
है। कामदेव
के हाथस में
अ शोक का बाण
है। संतान
की कामना
से स्रियाँ
चैत्र शुक्ल अष्टमी
को इसकी पूजा
करती हैं
तथा इसकी आठ
पत्ती खाकर
विश्वास किया
जाता है कि
उसके पुत्र उत्पन्न
होगा। रावण
की लंका में
अ शोक वाटिका
थी और 'सीता'
को अ शोक वाटिका
में रखा गया
था। वे अ शोक
वृक्ष के नीचे
बैठती थीं-'सुनहु
विनय मम
विटप 'आोका'।'
किंवदंती
है कि अ शोक
का फूल सुंदरी
के पदाघात
से फूलता
है। इस अभिप्राय
से युक्त प्राचीन
प्रतिमाएँ 'पुरा-संग्रहालय'
में विद्यमान
हैं।
(ऊ) गूलर : 'गूलर'
को 'विष्णुसह"ानाम'
में विष्णु
का रुप माना
गया है। गूलर
को 'व्रण वृक्ष'
माना गया
है। भगवान
नृसिंह ने
अपने नखों की
गरमी को
(क्रोध के ताप
को) गूलर
के वृक्ष में
गाड़कर शांत
किया था, इसलिए
इसका फल
विरस हो
गया तथा 'व्रण'
के रुप में कीड़े
भी उत्पन्न हो
गए। गूलर के
नीचे सैयद
का थान होता
है-'गूलरिया
धुकधालरी
म्वाँ सैयद
कौ थान।'
(ए) शमी
(छोंकरा) : दाहरा
(आश्विन) के दिन
स्रियाँ शमी
(छोंकरा के
पेड़) की पूजा
करती हैं।
यज्ञ में 'अरणिमंथन'
के लिए इसी
की लकड़ी ली
जाती है। विवाहों
में 'वरमनियाँ'
को 'बव्रावाहन'
(बर्बरीक)
का रुप माना
जाता है। लोक-कथा
है कि श्रीकृष्ण
ने बव्रावाहन
को यह वरदान
दिया था कि
तेरी पूजा
छोंकर के वृक्ष
पर होगी।-२४
(ऐ) आँवला
: आँवले के
वृक्ष पर देवताओं
और ब्रह्माजी
का निवास
माना जाता
है। पुराकथा
के अनुसार
यह गौरी
के तेज से उत्पन्न
होनेवाला
वृक्ष है। अखयनवमी
(कार्तिक शु. नवमी)
के दिन कुमारियाँ
घी-गुड़ से
इसकी पूजा
करती हैं
तथा कच्चे सूत
के साथ परिक्रमा
करती हैं।
इतवार के
दिन आँवले
का नाम लेना
निषिद्ध है।-२५
(ओ) अंडी
(एरंड) : गाँवों
में बसंत
पंचमी के दिन
होरी का
'डाँड़ा' गढ़ता
है। लक्कड़ों
के बीच में
'अंडी' के पेड़
के लगा देते
हैं। जब होली
जलाई जाती
है, तब इसे
निकाल लिया
जाता है, यह
प्रह्मलाद का
प्रतिरुप माना
गया है।
(औ) आक
: श्रावण शुक्ल
षष्ठी को 'अकौआ
छट' कहा जाता
है। इस दिन
आरोग्य-कामना
से सूर्य
के नामों से
आक की पूजा
की जाती है।
यह स्वर्ग
का वृक्ष माना
जाता है। जब
कोई तीसरा
विवाह करता
है, तो पहले
उसका विवाह
आक से होता
है। इसका नाम
मंदार भी
है।
(अं) केला : बृहस्पतिवार
को स्रियाँ
सौभाग्य-कामना
से गुड़ और
चने की दाल
से केले की
पूजा करती
हैं तथा कच्चा
सूत लपेटकर
परिक्रमा करती
हैं।
(अ:) नीम
: नीम के पेड़
पर भैरव
का निवास
माना जाता
है। विश्वास
किया जाता
है कि स्नान
करके नीम
पर जल चढ़ाने
से दुख-दरिद्रता
दूर हो जाती
है। यह शीतला
माता का प्रिय
वृक्ष है।
(क) कदंब
: कंदब वृक्ष
एक ओर कृष्ण-लीला
के संदर्भ
से जुड़ा है-'बैठो
कदम की डारी
कदम बिच
बनवारी',
'कालिंदी कूल
कदंब की डारन',
'कदम चढ़ कान्ह
बुलावत
गइयाँ'। 'टेर
कदम्ब' प्रसिद्ध
है। दूसरी
ओर भगवती
जगदंबा भी
कदंबवन-वासिनी
हैं। भगवती
का चिंतामणिगृह
कदंबों से
घिरा है-मणिद्वीपे
नीपोपवनवति
चिंतामणिगृहे।-२६
कंदब वृक्ष
विश्व वृक्ष
है तथा इस
पर लोहितायनि
(कार्तिकेय
की धाय) की
पूजा होती
है।
(ख) बेल
: बेल का वृक्ष
शंकर को भी
प्रिय है और
लक्ष्मी को भी।
ज्येष्ठ मास
की पूर्णिमा
को ज्येष्ठा
नक्षत्र में सरसों
मिले जल
से इसकी पूजा
होती है,
माना जाता
है कि जो
इस प्रकार पूजा
करे, वह स्री
विधवा नहीं
होती। 'बेल
वृक्ष' की पूजा
करने से धन
और पुत्र की
भी प्राप्ति होती
है। इसकी तीन
पत्तियाँ मिली
हुई होती
हैं, इन्हें बेलपत्र
(बेल पत्थर
भी) कहते
हैं और शिव
की पूजा में
बेलपत्र का
महत्त्व उसी
प्रकार का है;
जैसे- शालिग्राम
पूजा में तुलसीदल
का। एक कथा है
कि एक भील
बेल पर चढ़
उसके पत्र तोड़-तोड़कर
गिरा रहा
था, नीचे शिवलिंग
था। भगवान
शंकर इस कृत्य
से भील पर
प्रसन्न हो गए।-२७
(ग) कमल
: भारतीय
संस्कृति में
कमल सृष्टि
का प्रतीक है।
ब्रह्मा की उत्पत्ति
कमल से मानी
गयी है। यह
कमल विष्णु
का नाभि से
उत्पन्न हुआ था।
लक्ष्मी का नाम
कमला है,
उसका निवास
कमल-वन
में है, उनका
आसन भी कमल
है, उनके हाथ
में कमल का
ही आयुध है।
लक्ष्मी को पद्मा,
पद्मायताक्षी,
पद्महस्ता,
पद्मप्रिया,
पद्मसंभवा
कहा गया
है।-२८ विष्णु
के हाथ में
भी पद्म
है और चरणों
में भी पद्मचिन्ह
हैं। भगवती
सरस्वती
'श्वेत पद्मासना'
हैं। राधा
के हाथों
में भी लीला-कमल
है। महाभारत
(वन. १५४/२०.२१) में प्रसंग
है कि कुबेर
के पास सौगंधिक
कमलों का
सरोवर
था और भीम
कमल लेने
गए थे। योग शास्र
में षट्चक्रों
की परिकल्पना
कमलों के
रुप में की गयी
है।
नित्य-वृंदावन
कमल पर ही
बसा हुआ
है, ऐसा विश्वास
प्रचलित है-'अधर
कमल बिंदावन
बसि रह्यौ।'
(घ) वृंदावन
के वृक्ष : वृंदावन
के लता-पता
और वृक्षों
को ॠषि-मुनि
माना जाता
है। भागवत
में उल्लेख है
कि स्वयं उद्धव
ने वृंदावन
की गुल्म लतौषधि
बनने की कामना
की थी।
ब्रज की
लता-पता मोहि
कीजै।
आसामहोचरण
रेणुजुषामहं
स्याम
वृंदावने
किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।
रसिक
भक्त इन लताओं
को 'सखी' रुप
मानते हैं,
जो यामा-याम
के लीला
विहार की
सहायक एवं
साक्षी हैं।
वृंदावन
के भक्त ब्रजलताओं
के साथ निवास
को अपने जीवन
का सौभाग्य
मानते हैं।
बास
करै ब्रज लतन
सँग माँग
मधुकरी खाँय।
वृंदावन
के वृक्षों की
महिमा संबंधी
कहावत है-
वृंदावन
के बिरछ कौ
मरम न जानें
कोय।
डार-डार अरु
पात-पात पै
राधे-राधे
होय।
(ङ्) रुद्राक्ष
: एकमुखी 'रुद्राक्ष'
को गौरी
शंकर कहते
हैं। रुद्राक्ष
के दाने पर
शिव की पूजा
होती है।
पुराणों में
रुद्राक्ष की महिमा
का विस्तार
से वर्णन किया
गया है। रुद्राक्ष
धारण करने
से सौभाग्य
प्राप्त होता
है।
शिव
पर केतकी
का फूल नहीं
चढ़ाया जाता
क्योंकि एक कथा
के अनुसार
'शिवलिंग'
का आदि और
अंत ब्रह्मा ने
खोज लिया
है' ऐसी झूठी
गवाही देने
के कारण केतकी
को यह शाप
दिया गया
था।
(च) बाँस
: भगावत-माहात्म्य
के प्रसंग में
गोकर्ण का
भाई 'धुंधकारी'
प्रेत बना और
उसने सात गाँठों
के बाँस में
प्रवेा करके
भागवत सप्ताह
सुना था।-३० भागवत
सप्ताह के
आयोजन में
एक बाँस प्रतिष्ठित
किया जाता
है।
(छ) कल्पवृक्ष
: देववृक्ष
: गायों में
जो स्थान सुरभि
नामक गौ
का है, वृक्षों
में वैसा
ही स्थान पारिजात
अथवा कल्पवृक्ष
का है। 'सुरभि'
स्वर्ग की गाय
है तथा उसे
कामधेनु कहा
जाता है, पारिजात
उसी प्रकार
स्वर्ग का वृक्ष
है। जिस प्रकार
कामधेनु सम्पूर्ण
कामनाओं
को पूर्ण करनेवाली
है, उसी प्रकार
कल्पवृक्ष भी
सम्पूर्ण इच्छाओं
को पूरा करनेवाला
तथा समस्त
अभावों को
दूर करनेवाला
है। पुराकथाओं
की भाँति
ही लोक
कहानियों
में भी इसका
प्रसंग आता
है और जहाँ
भी इसका प्रसंग
आता है वहाँ
पर अभिप्राय
जुड़ा रहता
है कि किसी
व्यक्ति ने कल्पवृक्ष
के नीचे जो
संकल्प किया,
जो इच्छा की,
वह पूर्ण
हो गयी। भगवान्
को 'वांछा
कल्पतरु' कहा
गया है तथा
जगदंबा को
'कल्पलता' नाम
से भी अनेक
ग्रंथ रचे गए
हैं, स्तोत्र
ग्रंथ उपलब्ध
होते हैं
तथा 'कल्पद्रुम'
नाम से भी
अनेक ग्रंथ रचे
गए हैं, जैसे- शब्दकल्पद्रुम,
काव्यकल्पद्रुम
आदि। 'कल्पवृक्ष'
उन 'चौदह रत्नों'
में से एक है,
जो समुद्र-मंथन
के माध्यम
से प्रकट हुआ
था। 'पारिजात
वृक्ष' नंदन
वन में था
और इस वृक्ष
को स्वर्ग से
द्वारका में
लाने के लिए
कृष्ण का इंद्र
से युद्ध हुआ
था और कृष्ण
ने इंद्र को परास्त
किया था। कृष्ण
के परमधाम
गमन के बाद
इंद्र इस पुन:
स्वर्ग ले गया,
ऐसा उल्लेख
भी पुराकथाओं
में विद्यमान
है।-३१
मलिक
मुहम्मद जायसी
ने अपने 'पद्मावत'
में 'कंचनवृक्ष'
का वर्णन किया
है, यह वर्णन
बहुत कुछ
कल्पवृक्ष की
परिकल्पना
से मिलता-जुलता
है-
और कुंड एक
मोंती चूरु,
पानी अंब्रित
कीच कपूरु।
ओहिक पानी
राजा पैं पिया,
बिरिध होइ
नहिं जो लहि
जिया।
कंचन बिरिख
एक तेहि पासा,
जस कल्पतरु
इंद्र का विलासा।
मूल पताल
सरग ओहि
साखा, अमर
बेल पाव
को चाखा।
चाँद पात औ
फूल तुराई,
होइ उजियार
नगर जहँ ताई।
वह फर पावै
ताप कें कोई,
बिरिध खाय
नव जोबन
होई।
राजा भये
भिखारी सुनि
वह अंब्रित
भोग।
जेहि पावा
सो अमर भा
न किहु व्याधि
न रोग
महात्रिपुर
सुंदरी के
मणिद्वीप की
परिकल्पना
में कल्पवृक्षों
के वन हैं-
सुधासिंधोर्मध्ये
सुरविटपवाटी
परिवृते।-३२
कल्पवृक्ष
का विश्वास
'वृक्ष में परिपूर्णता-सम्पूर्णता'
का विश्वास
है। अनेक साहित्य-मनिष्यों
ने मन तो ही
कल्पवृक्ष कहा
है।
(ज) वृक्ष-पूजा
: विधि-विधान
: वृक्ष-पूजा
के विधि-विधानों
में कर्मकांड
के प्राचीन अव शेष
विद्यमान हैं।
सूत लपेटना,
परिक्रमा करना,
जल चढ़ाना,
दीपक जलाना,
कथा-कहानी
कहना, गीता
गाना, दान करना,
व्रत-उपवास
रखना, चित्र
लिखना-३३ तथा
उद्यापन करना
वृक्षपूजा
के विधि-विधान
हैं। साँझी-टेसू
के अनुष्ठान जिस
प्रकार खेल
के रुप में आयोजित
होते हैं,
उसी प्रकार
कजली खेलना
जौ-बोने
संबंधी अनुष्ठान
है। पूजा-अनुष्ठान
के साथ खेल
का तत्त्व किसी
प्राचीन परंपरा
का संकेत
करता है।
केला, पीपल
और तुलसी
की पूजा में
कथा-कहानी
सुनने-सुनाने
का विोष
महत्त्व है।
तुलसी के
पूजन में गीत
भी गाए जाते
हैं और भिन्न-भिन्न
अंचलों में
भिन्न-भिन्न
प्रकार के तुलसी
के गीत प्रचलित
हैं।-३४
(झ) टोटम
(गणगोत्र) : आचार्य
क्षितिमोहन
सेन ने थस्र्टन
द्वारा लिखित
पुस्तक के आधार
पर उल्लेख
किया है कि
अनेक जातियाँ
अपनी उत्पत्ति वृक्षों
से मानती
हैं। इस प्रकार
के टोटम वृक्षों
(गणगोत्र से
संबंध रखनेवाले
वृक्षों) की
संख्या एक सौ
तक है। पीपल,
गूलर, नीम,
बेल, बरगद
आदि की गणना
भी इन वृक्षों
में की गयी
है।-३५ इस संदर्भ
में सासनी
के पास बिजाहरी
गाँव में एक
जाटव परिवार
के पीपल गोत्र
का उल्लेख यथा-प्रसंग
किया जा चुका
है।
(ञ) अध्यारोपण
: कुछ वृक्षो-वनस्पतियों
को किन्हीं
प्राचीन 'व्यक्तित्वों'
का प्रतिरुप
माना जाता
है। तुलसी
कृष्ण की प्रेयसी
है, साथ ही
शंखचूड़ की
पतिव्रता पत्नी
और जलंधर
की सती स्री
भी वह है।
(ट) अंतर्भुक्ति
: इतिहास में
हम देखते
हैं कि जब
दो मानव
जातियों का
सम्मिलन
होता है
तो उन जातियों
के देवतत्त्व
और पूजातत्त्व
भी एक-दूसरे
में समा जाते
हैं। तुलसी
देवतत्त्व में
वृंदा देवतत्त्व
की अंतर्भुक्ति
उदाहरण है।
पुराणों में
तुलसी और
वृंदा दो
भिन्न-भिन्न
व्यक्तित्व हैं,
जिनका संबंध
असुर और
दानव-संस्कृति
से है और
वह दानव
संस्कृति आज
तुलसी की
वैंष्णवी पूजा
में इस प्रकार
अंतर्भुक्त है
कि उसे पहचानना
ही कठिन है।
होली का
संबंध दैत्य
संस्कृति से
है। होली
पर जो गीत
गाए जाते हैं,
उनमें राजा
बलि का उल्लेख
मिलता है
'राजा बलि
के द्वारा मटी
रे होरी।'-३६
होली पर
अंडी का दंड
जो प्रह्मलाद
का प्रतिरुप
माना जाता
है, दैत्य संस्कृति
का पूजा तत्त्व
है, प्रह्मलाद
दैत्य थे। इसी
प्रकार अर्क पूजा
का संबंध
आदित्य से है।
आक की पूजा
सूर्य के नाम
से की जाती
है।
पीपल
की पूजा में
नाग देवतत्त्व
तथा शनिग्रह
देवतत्त्व अंतर्भुक्त
हैं। लक्ष्मी
देवतत्त्व का
भी उसमें समावे श
है। आगे चलकर
हम पीपल
के साथ नारायण
एवं विष्णु
को भी अंतर्भुक्त
देखते हैं।
गूलर विष्णु
का रुप माना
गया है परंतु
गूलर के साथ
प्रेत और पितृश्वर-देवतत्त्व
अंतर्भुक्त होते
हैं, सैयद
पनमेसुरेका
थान भी गूलर
के नीचे मिल
जाता है।
अंतर्भुक्ति
की प्रक्रिया
निरंतर प्रक्रिया
है तथा जातीय
जीवन के साथ
उसका अभिन्न
संबंध है।
जातीय जीवन
की घटनाएँ अंतर्भुक्ति
की प्रक्रिया
में परिलक्षित
की जा सकती
हैं। इसी प्रकार
वृक्ष-वनस्पतियों
से
संबंधित
निषेधों का
अध्ययन भी
सांस्कृतिक
इतिहास के
अध्ययन में सहायक
हो सकता
है।
भूत-प्रेतों
और आत्माओं
का वर्गीकरण
भी किया
जा सकता है;
जैसे 'पुरखा-पनमेसुरे',
'अऊत', 'पितर',
'भुमियाँ',
'भूत', 'प्रेत',
'जोगिनी', 'सती',
'सैयद', 'पीर',
'जिन्न', 'खईस'
और 'चुड़ैल'
आदि।
जिन्न,
बेर पर रहता
है। खईस केवड़ा
में रहता
है, गूलर
पर भी रहता
है।
धुंधकारी
का प्रेत बाँस
में प्रतिष्ठित
होकर भागवत-सप्ताह
सुनता था।
'हरदौल'
का प्रेत 'महुआ'
पर स्थित था।
'हरदौल'
गाथा-३८ का एक
प्रसंग है-
त्यारे
बिरन द्वेै
बिरछ लगाए
एक महुआ एक
आम।
आम मिली
है रोय
कें रे महुआ
ऐ छाती फारि।
महुआ की फटि
करिचें भई
रे बैठे हैं
गुंजलक मार।
सैयद
का थान गूलर
के नीचे होता
है-
गूलरिया
झुक झालरी
म्वाँ सैयद
कौ थान।
इस प्रकार
का लोकविश्वास
भी प्रचलित
है कि मृत्यु
के उपरांत
आत्मा वृक्ष
के रुप में भी
जन्म ले लेती
है।
बाबुल
मरि महुआ
भये और
वीरन पीपर
के पेड़।
(ड) प्राचीन
जातियों की
स्मृति : अनेक
मानवाास्रियों
तथा पुराविदों
ने वृक्षपूजा
की परंपरा
तथा पौराणिक
उल्लेखों के
आधार पर प्राचीन
जातियों और
उनकी सांस्कृतिक
परंपराओं
की पहचान
की है। प्राचीन
काल में यक्ष
और गंधर्व
पेड़ों को
आवास बनाकर
रहते थे, इसलिए
प्राचीन संस्कृत-साहित्य
में वृक्षों
का एक नाम यक्षावास
भी आता है।
याोदा के
आँगन में दो
अर्जुन (यमलार्जुन)
वृक्ष थे। भागवत
में उल्लेख है
कि नल और
कूबर नाम
के यक्ष नारद
के शाप से ग्रस्त
होकर इन
पेड़ों के रुप
में उत्पन्न हुए
थे।-३९ डॉ. नीलकंठ
पुरुषोत्तम
जो शी ने वटवृक्ष
का यक्षों से
संबंध रेखांकित
किया है।-४०
भांडीर यक्ष
का भांडीरवन
ब्रज की चौरासी
कोसी परिक्रमा
में तीर्थ के
रुप में माना
जाता है।
काम
गंधर्व देवता
था और आम,
अ शोक, पलाा,
ईख, कमल, कुमुद
एवं दमनक
कामदेव के
सम्बद्ध माने
जाते हैं। दमनक
और अ शोक
पर काम की
पूजा होती
है। आम, अ शोक,
पला श, कुमुद
और कमल
की गणना कामदेव
के बाणों
के रुप में तथा
ईख की गणना
कामदेव के
धनुष के रुप
में की जाती
है।
'हिकिंडब' नाम
का राक्षस
शाल
वृक्ष पर रहता
था।-४१ सिहोर
का वृक्ष पि शाच-वृक्ष
है। पीपल
का संबंध
नाग संस्कृति
से है, क्योंकि
नागपूजा का
दूध पीपल
पर चढ़ाया
जाता है। 'तुलसी'
या 'वृंदा'
का संबंध
कालनेमि
दैत्य, असुर
शंखचूड़ तथा
दैत्य पौराणिक
कथा के अनुसार
पीपल और
अश्वत्थ नामक
असुर ब्राह्मणों
का वध करते
थे। इस प्रसंग
में प्रख्यात विद्वान्
आचार्य क्षितिमोहन
सेन का विचार
उल्लेखनीय
है। वे कहते
हैं-'वृक्षों
की पूजा आर्यों
ने आर्यपूर्व
भारतीयों
से ग्रहण की
होगी।' उनका
तर्क है कि
'जिन देवताओं
से संबंद्ध
माने जाकर
तुलसी, पीपल,
बिल्व आदि
वृक्ष पवित्र
माने गए हैं,
उन देवताओं
का आदिम परिचय
वेद विरुद्ध
देवता के
रुप में मिलता
है।'-४२
२.
आनुष्ठानिक
सामग्री के रुप
में
अनेक वृक्ष-वनस्पतियों,
फल-फूल
पत्तियों का
आनुष्ठानिक
महत्त्व है।
हल्दी, सुपाड़ी,
अक्षत, लौंग, फूल,
फल, चंदन, चना
की दाल के बिना
देवी की पूजा
कैसे होगी?
भाँग, धतूरा
और बेलपत्र
से ही तो भगवान
शंकर प्रसन्न
होंगे। आम,
अ शोक, गूलर,
पीपल और
वट के पत्तों
के बिना विवाह
जैसे मांगलिक
कार्य सम्पन्न
नहीं हो सकते।
आक, ढाक आदि
कि समिधा आयेगी
तभी तो यज्ञ
होगा, जौ
और तिल का
चरु बनेगा,
गोला के साथ
पूर्णाहुति
दी जाएगी। तिल
से पितृश्वरों
का तपंण होगा।
देवतत्त्व और
आनुष्ठानिक
सामग्री अविच्छिन्न
है। शास्रीय
विधि हो या
लौकिक विधि
हो, सभी
जगह यज्ञ, पूजा
और अनुष्ठान
में काम आनेवाली
सामग्री को
अभिमंत्रित
किया जाता
है। देवता
की पूजा से
पहले शंख
और घंटा की
पूजा होती
है। इसलिए इसमें
संदेह नहीं
कि आनुष्ठानिक
सामग्री भी
देव-रुप है।
मांगलिक
अवसरों पर
पंच-पल्लव
आनुष्ठानिक-सामग्री
के अंतर्गत हैं
पर ये पाँचों
वृक्ष भिन्न प्रसंगों
में देव-रुप
हैं। वृक्ष देवतत्त्व
के आनुष्ठानिक
सामग्री के रुप
में पर्यवसित
होने की भी
एक कहानी है,
जिसे वृक्ष-पूजा
के इतिहास
के साथ कहा-सुना
जा सकता है।
आनुष्ठानिक
सामग्री के रुप
में वृक्ष-वनस्पतियों
के निम्नलिखित
चार संदर्भ
वर्गीकृत किए
जा सकते हैं-
२.१. पूजन
संदर्भ
२.२. संस्कार संदर्भ
२.३. पर्व त्यौहार
संदर्भ
२.४. अभिचार संदर्भ
२.१. पूजन
संदर्भ
भिन्न-भिन्न
देवताओं के
पूजन में भिन्न-भिन्न
फूल, पत्ते तथा
अन्य आनुष्ठानिक
सामग्री स्वीकार
की जाती है।
२.१.१. देवी
पूजा : भगवती
की पूजा भाद्रपद
मास में नीले
कमल से, आश्विन
में दुपहरिया
के फूलों
से तथा मार्ग शीर्ष
में मालती
के फूलों
से की जाती
है। कदंब,
कमल, हरसिंगार,
गुलाब, चमेली
भगवती के
प्रिय पुष्प
हैं। भगवती
को लोकगीतों
में 'फूलन
की लोभिनियाँ'
कहा जाता
है। मैया रही
है नंदनवन
छाय फूलन
की लोभिनियाँ ।
दुर्गा-पूजा
में हरी-हरी
मेहँदी, लौंग,
पान, चने की
'कौमरी' या
चने की दाल
का विधान
है।
२.१.२. शिवपूजा
: शिव की पूजा
में आक-धतूरे
के फूल तथा
बेलपत्र का
वि शेष महत्त्व
है। धतूरा,
फल और भोग
भी शिव को
प्रिय है। देवता
पर चंदन घिसकर
चढ़या जाता
है।
२.१.३. पितृश्वर
एवं प्रेत : पितृश्वरों
के लिए तिल,
सवाँ, मूँग,
उड़द और सफेद
फूलों से
पूजा जाता
है। 'कूआवाला'
नामक लोकदेवता
की पूजा आक,
धतूरे के फूल,
चने की भीगी
दाल तथा बिनौले
से की जाती
है। 'सैमद'
पर सैमई-चावल
चढ़ाए जाते हैं।
'पितरों'
की तृप्ति हेतु
जो श्राद्ध किए
जाते हैं, उनमें
उड़द से बननेवाले
पदार्थ वि शेष
रुप से सम्मिलित
किए जाते हैं।
काले उड़दों
को सिंदूर
से मिलाकर
'बलिदान'
हेतु रखी
गयी सामग्री
में रखा जाता
है। उड़द को
मांस का प्रतीक
बतलाया
जाता है।
२.१.४. सामान्य
पूजा-सामग्री
: चावल, नारियल,
हल्दी, रुद्राक्ष,
कुा, तिल, तथा
समिधा सामान्य
रुप से प्रचलित
पूजा-सामग्री
हैं। इनके साथ
अनेक सांस्कृतिक
तत्त्व मिले
हुए हैं, इस
दृष्टि से यहाँ
इनका संक्षिप्त
विवरण प्रस्तुत
किया जा रहा
है।
(अ) चावल
: चावल या
अक्षत का आनुष्ठानिक
महत्त्व है।
विष्णु-पूजा
में अक्षत चढ़ाने
का उसी प्रकार
निषेध है,
जैसे शिवपूजा
में केतकी का
पुष्प निषिद्ध
है। इसके अतिरिक्त
ऐसी कोई
पूजा या अनुष्ठान
नहीं, जिसमें
चावलों
का महत्त्व न
हो।
विवाह
के अवसर पर
जब वर और
कन्या बैठते
हैं तो कन्या
वर पर अक्षत
उछालती है
और वर कन्या
पर अक्षत उछालकर
परस्पर एक-दूसरे
का वरण करते
हैं। 'वरमनियाँ'
जिस पात्र में
कन्यापक्ष के
यहाँ जौ
लाते हैं,
कन्यापक्ष उस
पात्र में चावल
रखकर 'वरमनियाँ'
को दे देता
है। जब 'भामर'
पड़ती है, तब
सप्तपदी के
समय कन्या
का भाई उसमें
से दो मुट्ठी
खील वधू
की 'अंजुलि'
में भरता
है। श्रीवर
" शुवा से
सूप एवं 'अंजुलि'
के खीलों
को घी से सिंचित
करता है
तथा वधू हवनाग्नि
में उनकी आहुति
कर देती है।
करवाचौथ
पर खाँड़ के
करवा में
चावल रखकर
उसे छिरका
जाता है। विवाह
के अवसर पर
जहाँ चौक
पर पटा बिछता
है, वहाँ
'आखत' रखे जाते
हैं। इसके साथ
ही गणे श-कला
की स्थापना
भी आखतों
पर होती
है। 'भात' विवाह
की एक महत्त्वपूर्ण
र है, जिसमें
कन्या का मामा
(भातई) विवाह
की मांगलिक
सामग्री लेकर
विवाह में
सम्मिलित
होता है
तथा मान-पक्ष
को सम्मानित
करता है।
प्रस्थान (यात्रा
के लिए मुहूर्त
का शकुन) की
पोटली में
भी चावल
बँधे होते
हैं।
(आ) नारियल
: प्रत्येक मांगलिक
अनुष्ठान में
नारियल
और गोला
का महत्त्व है।
भगवती पर
ध्वजा-नारियल
चढ़ाना बहुत
शुभ माना
गया है।
साधु,
संत या ब्राह्मण
मांगलिक
अनुष्ठानों के
बाद आँचल
में नारियल
का फल पुत्रोत्पत्ति
के आ शीर्वाद
की कामना
से तथा अनुष्ठान
की सफलता
के रुप में प्रदान
करते हैं।
'भाई दोज'
पर भाई की
अनुपस्थिति
में बहनें
गोला या
नारियल
पर तिलक
करती हैं।
विवाह
में नारियल
का गीत गाया
जाता है कि
अरे नारियल
तुझे कहाँ
लगाऊँ? तुझे
ससुरजी
की सेज पर
लगाऊँ अथवा
सास की गोद
में-
कहाँ
लगाय आऊँ
तोय, अहो
नारियल
के बिरवा
तोय लगाऊँ
ससुरजी
की सेजरिया
ससुर रानी
की गोद अहो
नारियल
के बिरवा।
'पलकाचार'
या 'गौने'
के समय पति-पत्नि
जिस पलंग
पर बैठते
हैं, पति उस
पलंग के चारों
'पायों' के
ऊपर गोला
का स्प र्श कराके
एक पाये पर
गोले को
फोड़ता है।
यज्ञ और हवन
में जो पूर्णाहुति
दी जाती है,
उसमें गोला
में 'घृत' भरकर
उसे अग्नि में 'स्वाहा'
किया जाता
है। 'साद फरेई'
(पुंसवन संस्कार)
में गर्भिणी
अपने दोनों
हाथों की
उँगलियों
में नारियल
और उस पर
आटे का बना
चौमुख दीपक
लेकर ऊपर
अटारी से उतरती
है एवं परिवार
के मुखिया
को समर्पित
करती है।
नारियल
को विश्वामित्र
की सृष्टि माना
जाता है।-४३ नारियल
के खोपरे
का आकार बंदर
के मुँह जैसा
होता है।
नारियल
को सिर का
प्रतीक माना
जाता है। कहानियों
में ऐसा उल्लेख
है कि भगवती
जगदंबा ने
'जगद्देव' के
धड़ पर नारियल
रखा और वह
जीवित हो
गया।-४४ 'पूर्णकला'
एक मांगलिक
प्रतीक है। कला
में तीर्थों
का जल भरा
जाता है, सर्वौषधि
डाली जाती
है, पंचपल्लव
कला के मुख
पर प्रतिष्ठित
किए जाते हैं
तथा उनके ऊपर
नारियल
को प्रतिष्ठित
किया जाता
है। नवरात्रों
में कला-स्थापन
किया जाता
है तथा भगवती
का प्रतिरुप
मानकर इसकी
पूजा की जाती
है।
(इ) हल्दी
: लोकजीवन
के मांगलिक-प्रतीकों
में हल्दी का
महत्त्वपूर्ण
स्थान है। हल्दी
को घोलकर
उसके छींटे लगाकर
लड़कीवाले
के यहाँ से
'पीरी चिट्ठी'
भेजी जाती
है, जिस पर
विवाह की
तिथि अंकित
होती है।
विवाह के
अवसर पर
'हृदय हाथ'
के नेग में हल्दी
कूटी जाती
है। तेल चढ़ाने
की र में
'बर' या 'बरनी' के
कान, घुटने
और हाथों
पर तेल लगाकर
हल्दी मली
जाती है। मंडप
में लड़के के
काका-मामा
तथा वरपक्ष
के पंडित की
पीठ पर स्रियाँ
हल्दी के थापे
(हाथ के निाान)
लगाती हैं।
हल्दी चढ़ाने
का गीत है-
ए मेरी
हल्दीरा, हल्दी
की लंबी
चौड़ी गाँठ
लहर करेगौ
लाड़न सूअना।
पुत्रजन्म
के अवसर पर
'जच्चा' के माता-पिता
के घर जब
नाई के माध्यम
से समाचार
भेजा जाता
है, तब समाचार
की चिट्ठी
में हल्दी की
गाँठें भी रखी
जाती हैं। इस
अवसर का गीत
'रोचन' है-'हरद
गहगही बहुत
चहचही।'
माता
की पूजा जिस
चंदन से होती
है, उसे 'ऐपन'
कहते हैं।
रात को चावल
और हल्दी
की गाँठ पानी
में भिगोकर
रख दी जाती
है तथा सबेरे
उसे बारीक
पीस लेते
हैं, यह ऐपन
है। ऐपन से
ही वरमावस
के दिन वट
देवता का
भित्तिचित्र
बनाया जाता
है। नवरात्र
में हल्दी के
रंग से ही
दीवाल पर
त्रिकोणाकार
चित्र काढ़कर देवी
मैया 'धरी'
जाती हैं। विवाह
के अवसर पर
हल्दी से स्वास्तिक
भी काढ़ा जाता
है तथा पूजा
की थाली में
दूब-हल्दी
और धनियाँ
के दाने रखे
जाते हैं। लगन
पत्रिका के ऊपर
हल्दी का स्वास्तिक
होता है
तथा पत्रिका
के अंदर भी
'हल्दी की गाँठ'
होती है।
पंडित लोग
रोली के
स्थान पर हल्दी
भी चढ़वा
देते हैं। जब
किसी प्रसंग
में 'थापे' धरे
जाते हैं, वे
प्राय: हल्दी
से ही अंकित
होते हैं।
'कन्या दान' के
समय कन्या
की माँ अथवा
तत्सथानिक
महिला हल्दी
से कन्या के
दोनों हाथ
'पहुँचों' तक
पीले रँग
देती है। 'कन्या
के हाथ पीले
करना' एक मुहावरा
है, जिसका
अर्थ है-विवाह
करना।
(ई) रुद्राक्ष
: माला : जिस
प्रकार वैष्णव
परंपरा में
तुलसी की
कंठी पहनी
जाती है और
तुलसी की
माला पर
जप किया जाता
है, उसी प्रकार
शाक्तों और
शैवों की
परंपरा में
रुद्राक्ष का महत्त्व
है। बगलामुखी
देवी का जप
हरिद्रा (हल्दी
की गाँठ) की
माला पर
किया जाता
है। सुख-सम्पन्नता
के लिए रक्तचंदन
की माला
का विधान
है तथा पुत्रोत्पत्ति
की कामना
से 'जीयापोता'
की माला
पर जप किया
जाता है।
(उ) कु शा
: कु शा को भगवान
'वाराह' की
जटा बताया
जाता है। 'मत्स्यपुराण'
में उल्लेख है
कि 'मधु दैत्य'
के वध के समय
भगवान विष्णु
के शरीर से
उत्पन्न हुए पसीने
की बूँदों
से तिल, कुा
और उड़द की
उत्पत्ति हुई थी।-४५
कु शा को अत्यंत
पवित्र माना
गया है। 'सूर्याग्रहण'
और 'चंद्रग्रहण'
के दोष-निवारण-हेतु
घर की वस्तुओं
पर कु शा डाल
दी जाती है।
पितृकार्य
में श्राद्धदेवी
पर कु श बिछाए
जाते हैं तथा
पितृश्वरों
को कु शा पर
ही 'पिंड' तथा
जल का 'तपंण'
समर्पित किया
जाता है।-४६ पितरों
की पत्नियों
के लिए भी
कु शों पर ही
अन्न प्रदान किया
जाता है। कु श
की ही 'पवित्री'
(उँगलियों
में पहनने
की अँगूठी जैसी
आकृति) पहनकर
श्राद्ध-कार्य
सम्पन्न होता
है। कु श का
ही आसन बिछाया
जाता है।
विवाह
में वेदी से
आठों दि श् ााओं
में दो-दो
कु श इस प्रकार
बिछाए जाते
हैं कि कु श
का अग्रभाग और
पृष्ठभाग क्रम श:
आगेवाले
कु श के अग्र व
पृष्ठभाग से
मिलता रहे
फिर प्रत्येक
कु शद्वय के बिट
में पीले चावलों
की ढेरी रख
दी जाती है
ताकि कु श अपने
स्थान पर रहे।-४७
विवाह में
कु श लेकर
उनमें गाँठ लगाकर
कन्या का पिता
वर के आमने-सामने
परस्पर जुड़े
हाथों से
पकड़ा देता
है। यहाँ
कु श यामा
गौ तथा बछड़े
के प्रतीक माने
जाते हैं। 'कन्यादान'
के समय कन्या
की माँ के हाथ
में जल की
'झारी' और
कन्या के पिता
के हाथ में
कु श होती
है, लोकगीत
गाए जाते हैं-
सोहै
सुमन के हाथ
गडुंअरा राजिंदर
कु श की डार
कंपन लाग्यौ
है हाथ कौ
गुडुंआ कंपी
है कु श की
डार
इस समय
वर कन्या की
दाहिनी कोख
को कु श के
द्वारा स्प र्श
करता है
तथा कु श से
वधू पर मार्जन
करता है।
ब्राह्मण
लोग 'श्रावणी-पूर्णिमा'
के दिन सूर्यास्त
से पूर्व कुा
का संचय करते
हैं। कु शल
शब्द का तात्पर्य
उन ब्रह्मचारियों
से था, जो
कु शा लाते
थे-'कु शं लातीति
कु शल:', कु श
में तीखी धार
होती है,
इसलिए उसे
काटकर लाना
सावधानी
और चतुरता
का काम है।
तीक्ष्ण बुद्धि
को कु शाग्र-बुद्धि
कहा जाता
है। कु शा पर
'गरुड़' ने 'अमृतघट'
रखा था। पुराणों
में 'कु शावर्त'
और कु शद्वीप
के प्रसंग हैं।
(ऊ) तिल
: पितरों के
'कव्य' और
देवताओं
के 'हव्य' दोनों
में ही तिल
का महत्त्व है।
पितृश्वरों
को तिलांजलि
दी जाती है।
(ए) समिधा
: मदार, पलाा,
खैर, चिचिड़ा,
पीपल, गूलर,
छोंकर ( शमी)
दूब और
कु श को नवग्रहों
की समिधा
बताया गया
है। आम, ओंघा
और कपास
की लकड़ी भी
समिधा में
ग्रहण की जाती
है।
(ऐ) अन्नाधिवास
: जब किसी
देवता की
प्रतिमा प्रतिष्ठित
की जाती है
तो उस प्रतिमा
का 'अन्नाधिवास'
कराया जाता
है और उसे
अन्न के बीच रखा
जाता है।
(ओ) जौ
संबंधी अनुष्ठान
: लोकजीवन
में जौ का
विोष आनुष्ठानिक
महत्त्व है।-४८
वह देवतत्त्व
भी है और
आनुष्ठानिक
सामग्री भी।
पूजन तथा संस्कार
एवं पर्व-त्यौहार-तीनों
संदर्भों में
उसका महत्त्व
है। नवरात्रों
में 'कला-स्थापन'
किया जाता
है, यह कला
भगवती जगदंबा
का प्रतिरुप
है। इसके चारों
ओर पवित्र
मिट्टी अथवा
गंगा-यमुना
की 'रेता' लगाकर
उसमें जौ बोये
जाते हैं। नौ
दिन की पूजा
के बाद ये
'जौ' उग आते
हैं। यदि ये
जौ लंबे,
घने और बड़े
उग आते हैं तो
माना जाता
है कि घर
में धनधान्य
सुख-सम्पत्ति
की वृद्धि होगी
तथा यदि ये
जौ न उगें, छितराये
उगें और छोटे-छोटे
उगें तो इसे
अप शकुन माना
जाता है।-४९
श्रावण
में 'कजली-खेल'
में भी जौ
बोये जाते
हैं। नागपंचमी
को बर्तनों
में जौ बोये
जाते हैं, जो
चौदस तक
उग आते हैं, उन्हें
झूले पर झुलाया
जाता है। 'राखीपूनों'
के दिन 'सेंमई
चावल' से
इनकी पूजा
होती है,
तदुपरांत
'राखी' बाँधकर
इन्हें तालाब-सरोवर
में 'सिरा'
दिया जाता
है (विसर्जित
कर देते हैं)।
उगे हुए जौ
'घूँघा', 'गूँद'
'भुजरिया'
अथवा 'जवारे'
कहे जाते
हैं तथा इन्हें
बहन-बेटियाँ
अपने भाई और
पिता के कान
पर पहनाकर
दक्षिणा लेती
हैं।
'गणे शचौथ'
की कहानी
में प्रसंग है
कि बुढिया
अपने बेटे
को जौ देकर
कहती है
कि 'इन्हें अपने
चारों ओर
बिखेरकर
बो देना।'
इसे परिणामस्वरुप
बुढिया का
बेटा कुम्हार
के अंवा में
से जीवित
निकल आता
है। इसी प्रकार
'करवाचौथ'
की कहानी
में बहू ला श
के आसपास
मिट्टी बिखेरकर
जौ बोती
है, 'चौथ मैया'
की कृपा से
उसका पति जीवित
हो जाता
है।-५०
'गाज
की कहानी'
चुटकी में जौ
लेकर सुनी
जाती है। 'देवायनी'
एकाद शी को
घूँघा एकाद शी
भी कहते
हैं और इस
दिन मिट्टी
के पाँच घोंघे
बनाकर उनमें
दूब लगाकर
उनकी पूजा की
जाती है।
जौ
उत्पादकता का
प्रतीक माना
गया है और
कन्या का पिता
कन्या का विवाह
करके गंगा
पर जौ बोने
जाता है। परिक्रमा
करते समय
भी मार्ग
में जौ बिखेरे
जाते हैं। बच्चे
का जन्म सुनकर
स्वजन जब
आते हैं, तो
हाथों में
जौ लेकर
आते हैं तथा
उन्हें चौक पर
छोड़ते हैं।-५१
यज्ञ-हवन
में जौ को
लौंग का स्थानापन्न
माना जाता
है, हवन
सामग्री में
तिल और
जौ होते
हैं। जौ का
स्थान अन्नों में
(अनाजों में)
¸ोष्ठ है-
अन्नन में
तौ जौ बड़ौ
रे ग्वाइ दयें
फल होय।
मृत्यु
के उपरांत शव की छाती
पर जौ के
चून के पिंड
रखे जाते हैं।
पिंडदान के
पिंड जौ के
जून से ही
बनाए जाते
हैं।
विवाह
में वरपक्ष
का मान्य पुरुष
'मलिरया'
(मिट्टी के
पात्र) में जौ
लेकर कन्या
पक्ष के यहाँ
जाता है।-५२ घुड़चढ़ी
में 'दुल्हा'
की बहन जौ
बिखेरकर
मंगल-कामना
करती है।
'टीका' के समय
लड़की के माता-पिता
विवाह-मंडप
के चारों ओर
जौ बोते
हैं।
जन्म
संस्करों
में 'ओंड़ा कोंड़ा'
नाम का एक अनुष्ठान
होता है।
इसमें बैमाता
की मनौती
करते हुए जच्चा
जौ के ढेर
का स्प र्श कर
देती है।
जौ
बोना पुण्य
कार्य है।
ब्रज के एक मृत्यु-गीत
में इसे धर्म
का हेतु माना
गया है।
काए के
कारन जौ
बए और कहे
के हरे-हरे
बाँस
हरि के किसन
कैसे तिरयऔ
भाला धरम
के कारन जौ
बए मरन के
काजें हरे
हरे बाँस
हरि रे किसन
कैसे तिरयऔ।
जौ
बोने की
प्रथा का प्रचलन
मिश्र में भी
था। फ्रे ने
इसका संबंध
ओसिरिस
की मृत्यु, अंगच्छेदन
और उसके पुनरुज्जीवन
में जोड़ा है।
उसके अनुसार
जौ बोना
मृत ओसिरिस
को दफनाने
के समान था,
जल आदि देकर
जौ का फूटना
दूसरी स्थिति
थी और जौ
का अंकुरित
होना पुनरुज्जीवन
का द्योतक है।-५३
२.२. संस्कार
संदर्भ
मांगलिक
कार्यों में
आोक के पत्तों
का 'वंदनवार'
तथा केले के
खंभ लगाए
जाते हैं। पंचपल्लवों
में पीपल, बरगद,
पाकर, गूलर
और आम के
पत्तों की गणना
की गयी है,
मंगल कला
के ऊपर पंचपल्लव
रखे जाते हैं।
२.२.१. फरेई
: पुंसवन संस्कार
(फरेई) में
गर्भिणी को
गूलरिया
की माला पहनाई
जाती है।-५४ जन्म
संस्कार में
छटी के दिन
छटी मैया
की आकृति बनाकर
उसके सामने
लाल चंदन
और अनार की
दातुन रखी
जाती है और
विश्वास किया
जाता है कि
छटी की रात
को बैमाता
नवजात शि शु
का भाग्य लिखेगी।
प्रसूति गृह
के द्वार पर
'स्वास्तिक' और
'फूल-छबरिया'
धरे जाते हैं
तथा मेहँदी
और हल्दी
के थापे लगाए
जाते हैं। नीम
के पत्तों का
'वंदनवार'
बाँधा जाता
है।
२.२.२. जनेऊ
: जनेऊ (उपनयन)
में छोंकर
के पत्ते, गूलर
की दातुन, गूलर
फल, मूँज
की जेवरी
और ढाक का
दंड लाया
जाता है। जनेऊ
के यज्ञस्तंभ
के रुप में ढाक
की लकड़ी को
प्रतिष्ठित किया
जाता है तथा
उस पर कलावा
(मौरी) लपेटा
जाता है।-५५
संजूती-थाली
में हल्दी की
गाँठ और सुपाड़ी
पर गणपति
का पूजन किया
जाता है।
२.२.३. विवाह
: कन्या के घर
में विवाह
के दिन का सबसे
पहला अनुष्ठान
'माढयौ' है,
इसमें छोंकर
अथवा आम की
लकड़ी का यज्ञस्तंभ
स्थापित किया
जाता है। इसी
के साथ एक बाँस
स्थापित किया
जाता है, जिसमें
लाल कपड़े
में हल्दी की
गाँठ, अक्षत और
कुपाजडी बँधी
होती है।
विवाह के
समय वर
और कन्या के
सिर पर खजूर
के पत्तों से
बनी मौर
बँधी होती
है, मौर
को सेहरा
भी कहते हैं।
वैवाहिक
अनुष्ठान में
जब कन्या की
माँ 'भात नौतने'
अपने भाई के
यहाँ जाती
है तो गुड़
की डेली से
निमंत्रण देती
है तथा अपने
'गोती' बंधु-बाँधवों
को चावल
से 'नौता'
जाता है।
गुर
की डरी ते साहिब
पीहर नौतौ
साठी के चामर
अपने गोतिया।
बरातियों
को सुपाड़ी
देकर नौता
(निमंत्रित किया)
जाता है तथा
पान का बीड़ा
देकर सम्मानित
किया जाता
है। सम्मानित
लोगों को
फूल देकर
निमंत्रित करने
तथा पान देकर
बुलाने का
उल्लेख भी
लोक कहानियों
में मिलता
है। जब वधू
पहली बार
अपने पति के
घर आती है
तो 'धागा सूती'
की र होती
है-जिसमें
उसके सिर
पर एक लोटा
जल और आम
के पत्ते रखे
जाते हैं।-५६ जौ
के आटे के जो
'फर'-५७ बनाए
जाते हैं, उन्हें
अपने पैरों
से दबाती
है।
पान,
फूल, लौंग
और सुपाड़ी
अतिथि के सम्मान
के प्रतीक हैं।
२.२.४. मृत्यु-संस्कार
: आसान्न-मृत्यु
व्यक्ति के मुख
में तुलसी
और गंगाजल
डाला जाता
है तथा दाब
घास के आसन
पर लिटा दिया
जाता है। मृत्यु
हो जाने पर
बाँस की नसैनी
पर फूस डालकर
शव को
श् म शान
पहुँचाया
जाता है तथा
चंदन-चिता
बनाई जाती
है। सामान्य
व्यक्ति की चिता
में प्रतीकात्मक
रुप में चंदन
की एक लकड़ी
रख दी जाती
है, सम्पन्न स्वजन-संबंधी
तिनका तोड़-५८
कर मृतक से
संबंध-विच्छेद
करते हैं तथा
परिवार
के प्रमुख व्यक्ति
के द्वारा प्रस्तुत
की गयी नीम
की जाल में
से एक पत्ती लेकर
चबाते हैं।
प्रेतात्मा
की शक्ति के निमित्त
दस रात तक
पीपल के वृक्ष
पर बाँधकर
जल का घड़ा
लटका दिया
जाता है। 'कनागतों'
में काकबलि
का गौर ढाक
के पत्तों पर
डाली जाती
है।-५९
२.३. पर्व-त्यौहार
संदर्भ
'होली'
की पूजा में
गेहूँ की बाल
और चना के
बूट (हरे
पौधे) आव श् यक
होते हैं।
'होली'
में बालें
भूनी जाती
हैं तब गीत
गाया जाता
है-
बालि
बलूलरियाँ
जौ की लामनियाँ
होली
की रात को
ही माता ( शीतलामाता)
पर बालबूट
चढ़ाए जाते हैं।
दीपावली
को गणे श और
लक्ष्मी की पूजा
खील और बता शों
से की जाती
है। 'कोठी' और
'कुल्हैया'
(मिट्टी के
पात्र) में भरकर
ये ही खील
'भुमियाँ',
'माता', 'देवी'
और 'पितृश्वरों'
के लिए 'मनसी'
जाती हैं, उनके
थान पर जाकर
समर्पित की
जाती हैं।
शिवरात्रि
को शिवपूजा
में 'बेर' और
'सिंगाड़ी' चढ़ाए
जाते हैं तथा
'देवठान एकाद शी'
के दिन शकरकंद
की खीर बनायी
जाती है तथा
ईक से देवताओं
को जगाने का
अनुष्ठान किया
जाता है।
ॠषि
पंचमी को
ऐसे अन्न के ग्रहण
करने का विधान
है, जो बिना
जोते-बोए
उपजता है। सवाँ
का चावल जैसे
मुनिधान्य
इस व्रत में ग्रहण
किए जाते हैं।
मुनिधान्य
का यह सूत्र
हमें कृषिपूर्व
सभ्यता की
याद दिलाता
है।
कृष्ण-जन्माष्टमी
के व्रत में खीरा
का माहात्मय
है। खीरा में
'ाालिग्राम'
बराजमान
कर दिए जाते
हैं और आधी
रात के बाद
ाालिग्राम
का खीरा से
जन्म होता
है। यह प्रतीकात्मक
अनुष्ठान है।
'फुलौरा
दोज' को क्वारी
कन्या फूल
बाँटन आती
है तथा पितृपक्ष
में क्वारी कन्या
फूल और
पान के साथ
गोबर में
'साँझी' की रचना
करती हैं और
फूलों से
ही साँझी
की पूजा करती
हैं।
'अखतीज'
के दिन पंखा
और सत्तू के
साथ खरबूज
और ककड़ी का
दान किया जाता
है तथा संक्राति
(मकर) के दिन
खिचड़ी 'मनसी'
जाती है। 'तिलभुग्गा'
और तिल से
बनी अन्य सामग्री
दान की जाती
है। सकटचौथ
भी तिल का
त्यौहार
है।
अक्षयनवमी
को 'आँवलानवमी'
भी कहा जाता
है तथा इस
दिन आँवले
की पूजा और
आँवले के
दान का महत्त्व
है।
बसंतपंचमी
के दिन आम के
बौर, आम
के पत्ते और
सरसों के
फूल घर में
लाए जाते हैं
तथा उन्हीं से
पूजा की जाती
है। संवत्सर
के दिन प्रात:काल
मिसरी की
डली के साथ
नीम की कोंपल
पत्तियाँ चबाई
जाती हैं।
२.४. अभिचार
संदर्भ (टोटका)-६०
यदि
किसी बाग
में फल नहीं
आवे तो उस
बाग का विवाह
कराया जाता
है। गाँवल
नगलागढू
के 'डहरवाले
पंडितजी' ने
स्वीकार किया
कि उनके बाग
में फल नहीं
आता था तो
होली की
रात को उन्होंने
नग्न होकर
वृक्षों को
खुरपी से गोद
दिया, उसके
बाद फल आने
लगे।
हल
चलाते समय
बैल के फाला
लग जाए तो
हींस के नीचे
होकर "पैना"
को तीन बार
निकालकर
जिस दि श् ाा में
पीपल हो,
उस दि श् ाा में
देखने से घाव
सूख जाता है।
न लग जाने
पर सुबह-सुबह
ताजा पानी
का एक लोटा
बीमार व्यक्ति
के ऊपर सात
बार उतारकर,
उसमें थोड़ा-सा
सिंदूर और
एक बूँद घी
या तेल डालकर
पीपल पर चढ़ा
दिया जाता
है।
सूखारोग
के मरीज को
लेकर शुक्रवार
या शनिवार
के दिन बिना
टोके किसी
ईख के खेत में
होकर निकल
जाने से विश्वास
किया जाता
है कि ईख सूख
जाती है तथा
बच्चा स्वस्थ
हो जाता है।
इसी प्रसंग में
बबूल पर
लौकी भी
लटका दी जाती
है, लौकी
सूख जाती है
और बच्चा भी
ठीक हो जाता
है।
आँख में
गुहेरी होने
पर बेरिया
के ढाई पत्ते
लेकर उलटे
फेंके जाते
हैं तथा सात
पत्ते आँख के ऊपर
सात बर उतारकर
उनको उसी बेरिया
के काँटे में
लगा देते हैं।
बुखार,
फोड़े-फुंसी
तथा भूत-प्रेत
संबंधी 'ऊपरी
व्याधि' के लिए
नीम, शिरीष
तथा आक की पत्तियों
से
'झाड़ा' दिया
जाता है। कार्य
की सफलता
के निमित्त शिरीष
की पत्तियाँ
'टोपी' में अथवा
गोझा (जेब)
में रख ली
जाती हैं। नरक
चतुर्दाी के
दिन बालबच्चों
को रोगादि
से मुक्त रखने
की कामना से
शिरीष की
पत्तियों का
'आजाझारा' किया
जाता है-'आजाझारौ
रोग सोक
पनारें डारौ।'
शीतलामाता
की मेहर के
समय (चेचक
में) नीम की
'लहर्रा' रोगी
के तकिए के नीचे
रखा जाता है।
कहावत है-'इकेलौ
नीम घर-घर
सीतला।'
'जूड़ी'
आने पर रोगी
को बबूल
के पेड़ से लिपटकर
मिलना चाहिए,
यह टोटका
है। इसी प्रकार
शुक्र या
शनिवार
को रोगी
मूँज की रस्सी
से किसी प शु
की हड्डी को
बबूल के
पेड़ से बाँद
देते हैं। 'तिजारी
बुखार' में
बिना टोके
हुए रोगी
कीकर के पास
जाकर कहता
है-'मेरौ
मेहमान तेरे
आवै, आइ बैठना
मन कौ पावै।'
छोटे
बच्चों के अस्वस्थ
होने पर
उनके कपड़े हींस
की झाड़ी पर
डाल दिए जाते
हैं।
जूड़ी
आने पर रोगग्रस्त
व्यक्ति आक के
नीचे चावल
रखकर कहता
है-'तेरौ
दूध और मेरे
चावल तू मेरे
यहाँ नौतौ
है।'
अनेक पुराकथाएँ
हैं जिनमें
यह अभिप्राय
होता है
कि किसी सिद्ध
पुरुष के द्वारा
दिए गए फल को
खाने से गर्भ
हुआ और पुत्र
की उत्पत्ति हुई।
अभी भी नवविवाहतों
को 'बड़े-बूढ़े'
श्रीफल (नारियल)
देते हैं, उसके
पीछे पुत्र की
कामना निहित
होती है।
माना जाता
है कि गोला
का फूल खाने
से पुत्र उत्पन्न होता
है।
जब नया
मकान बनवाया
जाता है तो
उसकी नींव में
अमरबेल रखी
जाती है, क्योंकि
अमरबेल विस्तार
का प्रतीक है।
जिस प्रकार
अमरबेल जिस
वृक्ष पर डाल
दी जाती है,
वहाँ फैलती
चली जाती
है, उसी प्रकार
यह कुनवा
भी फैले,
यह भावना
और विश्वास
इस टोटका
के साथ जुड़ा
हुआ है।
मंगलकामना
के लिए जौ बिखेरे
जाते हैं। भैयादोज
के दिन बहनें
कटेहरी के
पत्ते और काँटों
के कूटकर विश्वास
करती हैं कि
उन्होंने भाई
के शत्रुओं का
विना श कर
दिया है।
पिछवारे
सूर बिखेर
बैरियरा
सब झुरि मरें।
आँगन उरद बिखेर
भाइअरे सब
जुरि मिलें।
अर्थात्
घर के पिछवाड़े
काँटों को
बिखेरो ताकि
भाई का शत्रुदल
कंटकों में
उलझ मरे तथा
आँगन में 'उड़द'
बिखेरो ताकि
भाई एकत्र हो
जाएँ।
मारण-व शीकरण
जैसे प्रयोगों
के लिए मंत्र
पढ़कर सरसों,
उड़द तथा चावल
के दाने (अक्षत)
फेंकने और
मारने का
टोटका है।
'सिड़रिया-गाथा'
में उल्लेख आता
है कि-'पढि
पढि सरसों
मारै रे सिड़रिया।'
डॉ. महेंद्र
भानावत के
अनुसार-'मूठ
उड़द के दानों
की चलती है।
ये उड़द शव की
खोपड़ी में
बोए जाते हैं।
पके के बाद
वि शेष मंतर
से उड़द फेंके
जाते हैं। मक्खियों
की तरह से
सर्र से उड़द
हमला करते
हैं और जिस
पर फेंके जाते
हैं, उसके अंग-अंग
में समा जाते
हैं।'-६१
कन्या
का विवाह
संबंधी ग्रहदोष
मिटाने के
लिए उसका पीपल
के साथ और
पुरुष का आक
के साथ विवाह
कराया जाता
है, फेरे डलवाए
जाते हैं। उसके
बाद फिर
वास्तविक
विवाह कराया
जाता है।
नींबू और
मिर्य (लाल)
न उतारने
के टोटका-प्रयोग
में ग्रहण किए
जाते हैं। न
से रक्षा करने
के कारण इसे
पेड़ों का राजा
भी माना जाता
है।
तंत्र-मंत्र
और यंत्र संबंधी
प्रयोगों में
भोजपत्र का
महत्त्व है।
तांत्रिक मंत्र
भोजपत्र पर
रक्तचंदन या
गोरोचन
से लिखे जाते
हैं तथा 'ताबीज'
बनाया जाता
है।
निषेध-६२
विश्वास
किया जाता
है कि सूर्यास्त
के समय वृक्ष-वनस्पति
सोते हैं, इसलिए
उस समय वृक्ष
से फल-फूल
तोड़ने का निषेध
है। पनवारी
के पान, बारी
के बैंगन तथा
बाग का कच्चा
फल तोड़ना
पाप है-'कै
तैनें बारी
के बैंगन तोरे
के पनवारी
के पान।' पीपल
देववृक्ष है,
इसकी डाली
तोड़ना पाप
है, अनेक कथाओं
में बताया
गया है कि
ऐसा करने से
कुष्ठ रोग हो
जाता है। पीपल
के आस-पास
पे शाब करने
से 'सकला'
(मुँह पर सफेद
का निाान) हो
जाता है। भूलचूक
में ऐसा अपराध
हो जाए तब
प्राय श् चित्त के
लिए शिवजी
के मंदिर में
जाकर जल चढ़ाना
और दीपक जलाना
चाहिए तथा 'जलहरी'
का जल उस स्थान
पर लगाना
चाहिए-
पीपर
काटे पात बिनासे
जीव जंतु नींव
पूछे
जा करनी से
भयी कोढिया
पट्टी बाँधतु
फिरिये हरि
भज लै।
पीपल को गृहस्थ
घर में रखने
तथा इसकी लकड़ी
जलाने का भी
निषेध है।
या महुआ की
छाया में नहीं
जाना चाहिए।
बृहस्पतिवार
को खिचड़ी और
एकाद श् ाी को चावल,
मूली और
बैंगन खाने
का निषेध है।
रविवार
को चना नहीं
खाए जाते। कार्तिक
मास में लहसन,
सलगम, गाजर,
बैंगन और
पेठा खाना भी
दोष माना
जाता है। खलिहान
में बैठकर
भुना अनाज नहीं
खाया जाता।
रविवार
को तुलसीदल
खाने, तुलसी
की पत्ती तोड़ने
और सींचना
भी निषिद्ध
है। 'अखतीज' से
पहले जमासा
नहीं काटा जाता।
बाँस को जलाना
अपने वंा को
जलाने के समान
है, कहते हैं-'बाँस
जरायौ तैसो
बंस जरायौ।'
रविवार
को आँवले
की पूजा नहीं
करते, 'आँवला'
शब्द का उच्चारण
करना भी दोष
है। कमल के
पुष्प में लक्ष्मी
का निवास
है, इसलिए कमल
तोड़ने का भी
दोष माना
जाता है। कमल
तोड़ने के कारण
ब्रह्माण दरिद्र
हुआ, ऐसा विश्वास
किया जाता
है। कोई भी
हरा वृक्ष काटना
पाप है। बैठे-बैठे
तिनका तोड़ते
रहने को बड़े-बूढ़े
दोष बतलाते
हैं।
विधान
वृक्षारोपण
करना पुण्य
कार्य माना
जाता है। इसी
प्रकार तुलसी,
शालिग्राम
का विवाह
भी एक धार्मिक
अनुष्ठान है।
धम शास्रों
में वृक्षारोपण
की महिमा
यज्ञ करने के
समान बतलायी
गयी है। -६३
गाँवों
में सत्यापन
के लिए पीपल
की डाल पकड़कर
'सौगंध खाने',
हरे पेड़ के
नीचे बैठकर
शपथ लेने तथा
हाथ में अन्न लेकर
कहने का रिवाज
है।
इस प्रकार
'लोक अनुष्ठानों
में बीज-वृक्ष'
के अध्ययन से
लोकमानस
की विश्वास
प्रणाली में
बसे हुए बीज-वृक्षों
के प्रति देवभाव
के सूत्र तो
परिलक्षित
होते ही हैं,
इसी के साथ
परम्परा की
शक्ति भी स्पष्ट
होती है। वृक्ष देवतत्त्व
इतिहास की
अँधेरी गहराइयों
से जुड़ी हुई
संस्कृति का
सूत्र है और
यह परंपरा
की ही
शक्ति है,
जिसके प्रवाह
में बहकर
वह आज के लोकजीवन
में भी वर्तमान
है।
संदर्भ
१. 'हरि
की दटरानी
नमो-नमो।'
तुलसी पूजा
के गीत से।
श्रीमती कलावती
भुआजी, सासनी
२. इसीलिए
इसी पूजा दाहरा
के दिन की जाती
है।
३. 'राधा'
दामोदर वलि
जइयै श्रीगोपाल
प्रसाद व्यास
: ब्रज विभव
दिल्ली, हिंदी
साहित्य सम्मेलन,
पृ. ७०१
४. ब्रज के
लोकमंगल
का संसार
(सं.-डॉ. विद्यानिवास
मिश्र) क. मा.
विद्यापीठ, आगरा
विश्वविद्यालय,पृ.
२५६-२५८
५. वही
६. शिवपुराण
रुद्र संहिता,
अध्याय ४१
७. पद्म.
६१
८. वही
९. पद्मपुराण
१०. भारतीय
साहित्य (अक्टूबर
१९६०) क. मा. विद्यापीठ,
आगरा विश्वविद्यालय,
पृ. २६७-२६८
११. तुलसी
से दैनिकरुप
से विनती
करने का लोकगीत
श्रीमती चंदोदेवी
से सुना-
'तुलसी
माता तू सुखदाता
तू श्रीकृष्ण
की प्यारी
मैं बिरुला
सीचों तेटौ
तू कर निस्तारौ
मेरौ।
मूँगभात
कौ खायबौ
दीजो पीतांबर
कौ पैरबौ
दीजो।
चंदन की लकड़िया
दीजो श्रीकृष्ण
कौ कंधा दीजो।'
१२. ॠग्वेद
१.६.४.२०, अथर्व, ९.९.२० श्वेता,
४.६ कठ. तृतीय
बल्ली।
१३. 'अश्वत्थ:
सर्व वृक्षागाम्।'
गीता अ. १० लो.
२६
१४. श्रीमती
चंदोदेवी
(७५ वर्ष) मथुरा।
१५. भारतीय
साहित्य, अक्टूबर
१९६० (डॉ. सत्येंद्र),
पृ. १९३
१६. श्री बुद्धसेन
ने अपने को पीपल
गोती बतलाया
था।
१७. दे. लोका शास्र
अंक (सं.-राजेंद्र
रंजन), पृ. ११९-१३५
१८. भागवत
९.१४.४४.४५
१९. भागवत
११.३०.२७
२०. लेखक
द्वारा संकलित
किस्मों से।
२१. भागवत
४.६.३३
२२. वही
३.३३.४ तथा म. भा.
वन. १८८य९२
२३. भारतीय
साहित्य, अक्टूबर
१९६०, पृ. ९१ तथा व्रतार्क,
पृ. २४४
२४. नगलागढू
गाँव : डहरवाले
पंडितजी से
सुना।
२५. ब्रज की
लोकवर्जनाएँ
: राजेंद्र रंजन।
ब्रजविभव,
पृ. ६१७। आँवला
किसी जाती
का गणगोत्र था।
उस जाति के प्रति
वैमनस्य भाव
गणगोत्र के प्रतीक
के प्रति रुपांतरित
हो गया।
२६. सौंदर्यलहरी
(ांकराचार्य)
२७. शिवपुराण
की कथा : श्री
हरिहर शास्री
मथुरा से
सुनी।
२८. श्रीसूक्त
२९. म.भ.
गोपीनाथ कविराज
: शक्ति का जागरण
और कुंजलिनी,
पृ. १९२
३०. भागवतसुधासागर,
पृ. १६-१७
३१. भागवत
३.३.५
३२. सौंदर्यलहरी
३३. देव
प्रतीक आठ प्रकार
के हैं-प्रस्तर
प्रतिमा, काष्ठमूर्ति,
धातु प्रतिमा,
मिट्टी के
द्वारा निर्मित
प्रतीक, चंदन-हल्दी
आदि से बना
चित्र, बालुका
की प्रतिमा, मनोमय
प्रतिमा तथा
मणिमय प्रतिमा।
३४. दे. परिाष्टि
३५. वि शाल
भारत : अप्रिल
१९४०, भारत में
नाना संस्कृतियों
का संगम : आचार्य
क्षितिमोहन
सेन।
३६. श्रीमती
भगवान देई
(७० वर्ष) गाँव
हरियानगला
(सासनी)
३७. उदाहरण
के लिए सासनी
के पास बनजारों
का एक गाँँव है-वीर
नगर। श्री हुकुम
सिंह, बाबूलाल
तथा दुर्गपाल
सिंह ने भूतों
की कितनी कहानियाँ
लेखक को सुनाईं
तो लगने लगा
कि यहाँ भूतों
का आतंक है।
इसी गाँव से
स्याने माधो
सिंह तथा भवानी
सिंह को 'अऊत'
पर विश्वास
है और जाटरपीर
इनके सिर आते
हैं।
३८. लोक शास्र
अंक (राजेंद्र रंजन),
पृ. १३६
३९. भागवत
दाम् स्कंध
अध्याय।
४०. प्रेरक
साधक (पं. बनारसीदास
चतुर्वेदी अभिनंदन
ग्रंथ), पृ. २१४
४१. प्राचीन
चरित्र को श,
पृ. ११०९
४२. वि शाल
भारत, अप्रिल
१९४०
४३. श्रीमती
चंदोदेवी
(मथुरा) से
सुनी कथा।
४४. जगद्देव
लोकगाथा
४५. मत्स्यपुराण
८७य४
४६. वही
४७. वैदिक
विवाह (श्री
खरग राय चतुर्वेदी)
कलरना, पृ.
२२७
४८. भागवत
११.१६.२१ वनस्पतीनां
अश्वत्थ: ओषधीनामहंयव:।
४९. सिद्धांत
शेखरोक्त यवांकुर
परीक्षा-
सम्यगूर्ध्व
परुढानि कोमलानि
सिलानिच,
धूम्रवर्णा
प्रपूर्णानि तथा
तिर्ययमलानि
च कुब्जानि बर्जयेदाुभानिच।
अवृर्जिंष्ट कुरुते
कृष्णा-धूम्राभं
कलहं तथा
अपूर्ण जननाां
च दुर्भिक्षं यमालंकुरम्।
तिर्यग्गतिभवेद्
व्याधि:
कुब्जे शत्रुमयं
तथ।
५०. श्रीसती
सुमनाजलि
चतुर्वेदी ने
गणेाजी की कहानियाँ
सुनाईं।
५१. गाँव
दिनावली
में जौ के प्रसंग
पर लंबी
चर्चा छिड़ गयी
और वहीं
बैठे लोगों
ने ये सारी
बातें बताईं।
५२. लोक शास्र,
अंक, पृ. ११९-१३३
५३. भारतीय
साहित्य, अक्टूबर
१९६० (डॉ. सत्येंद्र)
२४८
५४. लोक शास्र,
अंक, ११९-१३३
५५. माथुर
चतुर्वेदियों
में प्रचलित
प्रथा के अनुसार।
५६. कठ नगला
के श्री भँवरपाल
सिंह से सुना।
५७. कच्चे चून
की गोल मुनिया
बनायी जाती
हैं, जिन्हें 'फट'
कहते हैं।
५८. 'तृन
टूटना' एक मुहावरा
है जो भक्तों
के साहित्य
में व्यापक रुप
से प्रयुक्त हुआ
है-"आज तृन
टूटत है री
ललित चिमंगी
पै।" तृन टूटने
का तात्पर्य बलिहारी
जाने से है।
५९. लोक शास्र
अंक
६०. दे. वही
८२
६१. धर्मयुग,
फरवरी, ५.१९८१
६२. लोक शास्र
अंक, पृ. १५३ तथा ब्रज
विभव, पृ.
६१ ब्रज की लोकवर्जनाएँ
(डॉ. राचेंद्र
रंजन)
६३. सीमा
वृक्षांच कुर्वीत
न्यग्रोधाश्वत्थ
किंराुकान्।
शातमलीन्साल
तालच क्षीरिणचैव
पादपाल। (मनु)
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