हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 11


IV/ A-2009

शान्तिनिकेतन से

11.4.36

श्रध्देय पंडित जी,

सादर प्रणाम!

       पत्र मिल गये। आपने महिला अंक और कहानी अंक के लिये suggestions माँगे हैं। अभी मुझे कुछ सूझ नहीं रहा है। एक मात्र suggestion जो इस समय मैं दे सकता हूँ, वह यह है कि इस नम्बर का नाम महिला अंक न रख कर महिला-संख्या रखिये। इस अवस्था में महिला-अंक से आपका किसी प्रकार का संबंध आशंका का कारण है। नहीं तो क्या? राष्ट्रीय अंक से उतर कर एकदम महिला अंक में आने की आईडिया किसके दिमाग में आई है, आपके या वर्मा जी के? देखते हैं पत्थरों के शहर में भी वसन्त का प्रभाव कम नहीं है

       योगी का जो कटिंग आपने भेजा है, उसे किसी एक और मित्र ने कलकत्ते से ही भेजा था। स्वयं योगी वालों ने उसे गुरुदेव और विश्वभारती के पास भेजा था। हम लोगों ने उसकी उपेक्षा करना ही सोचा था। असल में उसका टोन इतना असंस्कृतिपूर्ण है कि उसका कुछ जवाब दिया ही नहीं जा सकता। आप कितनी

भी अधिक युक्ति देकर उस आदमी को कैसे convince कर सकते हैं, जिसने मान लिया है कि नाचना और गाना स्रियों के लिये सबसे बड़ा विघातक पाप है क्या योगी के सम्पादक रामवृक्ष शर्मा बेनीपुरी हैं? उनके विचार कितने उलझे हुए हैं, जो वेश्यावृत्ति भी नष्ट करना चाहते हैं, संगीत और कला की प्रतिष्ठा भी करना चाहते हैं, और गृहदेवियों को इससे अलग रहने का भी उपदेश देते हैं। लेख में गुरुदेव के संबंध में इतनी उच्छ्ृंखल बातें हैं कि पढ़ कर क्रोध होता है। गोसाईं जी ने ऐसे निन्दकों के लिये दो व्यवस्थाएँ दी है:

काटिय जीह जो चलइ वंसाई

स्त्रवन मूंदि न तु चलिय पराई।

           वश चले तो जीभ काट लो और नहीं तो कान मूँद कर भाग चलो। हमारी राय है कि दूसरा ही उपाय काम में लाया जाय।

       लेकिन अगर अपने नाम से आप इसका प्रतिवाद करना ही चहाते हों तो मैं दो दिन में लिख कर भेज देता हूँ।

       Edward Carpenter का काम हो गया हो तो किसी आते-जाते के हाथ भेज दीजियेगा। साल के अन्त में ये लोग किताबों का हिसाब मिलाते हैं।

       गुरुदेव आजकल कलकत्ते में ही हैं। उनकी दौहित्री का शुभविवाह १९ अप्रैल को होने जा रहा है। तब तक वे यहाँ लौट आयेंगे। शेष कुशल है।

आपका

हजारी प्रसाद

       वर्मा जी के भाई साहब के स्वर्गवास के समाचार से बड़ा दु:ख हुआ। जो रोग हुआ था, वह अत्यन्त भयंकर था। उनकी हँसमुख सौजन्य भरी मूर्ति भूलती नहीं। भगवान् की लीला है।

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली