हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 15


IV/ A-2013

शान्तिनिकेतन

10.7.36

मान्यवर चतुर्वेदी जी,

      प्रणाम!

       कृपा-पत्र मिला। कलकत्ते में मेरी पत्नी का आपरेशन हुआ था। वह बहुत सफल रहा। वे सब स्वस्थ हो आई हैं। कानोडिया १जी और सक्सेरिया २ जी ने मेरे ऊपर बहुत कृपा की है। धावले जी से मालूम हुआ था कि आपने ही कनोडिया जी से पहले कहा था और उसी के फलस्वरुप कनौडिया जी ने मुझसे कलकत्ते आकर इलाज कराने को कहा। अर्थात् इसमें भी आप दूर से बैठे सूत्रधार का काम कर रहे थे।

       मैं और चन्दोला जी हिन्दी भवन के क्वार्टर्स में आ गये हैं। हाल में बैठा-बैठा कुछ पढ़ने-लिखने का कार्य कर रहा हूँ। लेकिन हिन्दी भवन का वायुमण्डल बन नहीं पाया। इस विषय में आप कुछ करें या हम लोगों को कोई रास्ता सुझावें। मैं काम करने को तैयार हूँ, परन्तु कोई निश्चित प्लैन और व्यवस्था बहुत आवश्यक है। गुरुदेव ने परसों इस विषय पर बहुत-सी बातें कीं। उन्होंने फिलहाल मुझे अपनी पुस्तक बंगला भाषा परिचय के आदर्श पर हिन्दी भाषा परिचय नाम से पुस्तक लिखने को कहा है। वे चाहते हैं कि पुस्तक में हिन्दी की भिन्न-भिन्न बोलियों से ऐसे शक्तिशाली प्रयोगों को स्टैण्डर्ड भाषा में परिचित कराया जाय जो उसमें प्राप्त नहीं हैं। यह कार्य है तो बहुत महत्त्वपूर्ण, पर मुझे अपनी शक्ति के संबंध में संदेह है। मैंने अध्ययन शुरु कर दिया है। देखें, सफलता कहाँ तक मिलती है।

       चन्दोला जी को उन्होंने साहित्य की भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व कर सकने वाली विधाओं को संग्रह करने का काम किया है। इस कार्य में हम दोनों लग गये हैं। पर यही भर। मैं चहाता था कि हिन्दी भवन एक जीवित संस्था बने। वह विद्याभवन की तरह दो-चार आदमियों   के रिसर्च करने की तो जगह न हो उससे हिन्दीभाषी जनता को त्दःsत्द्धठ्ठेद्यत्दृदः मिले। विद्वान् और साहित्यकार आते-जाते रहें। कैसे इस संस्था को इस प्रकार सजीव बनाया जा सकता है, यह बात आप सुझावें। रथी बाबू को लिखना उचित समझें तो उन्हें भी लिखें।   

       काँग्रेस वाले गुरुदेव के लेख का मैं स्वयं समयाभाव के कारण नहीं अनुवाद कर सका। मेरे छोटे भाई रामनाथ ने कर दिया है। भाषा उसकी साफ़ नहीं है। वैसे मैंने अनुवाद को देख लिया है। आप इसका उपयोग कर सकते हैं।

       एक बार आपने वेत्रवती के संबंध में प्राचीन ग्रंथो के उद्धरण माँगे थे। मैंने लिख रखा था पर मैं भूल गया था। इस पत्र के साथ भेज रहा हूँ।

       यहाँ सब लोग सानन्द हैं। मलिक जी आ गये हैं। आपको प्रणाम कहते हैं।

आपका

हजारी प्रसाद


1 . श्री भागीरथ कानोडिया - उद्योगपति   2 . श्री सीताराम सक्सेरिया - समाजसेवी एवं साहित्यप्रेमी

वेत्रवती

१. वेत्रासुर की माता -

   वेत्रावत्युदरे जातो नाम्रा वेत्रासुरोsभवत् (वराह पुराण)

२. आयुर्वेद के मत से इसका पानी मधुर, पाचन, बलबारक, पुष्टिकारक

   तन्नान्मा दधतेजलं सुमधरं कान्तप्रदं पुष्टिदम्

   वृण्यं दीपन पाचनं बलकरं वेत्रावती जापिना

- राजनिर्णय  

३. वराह पुराण के देवात्पत्ति नामक अध्याय में कथा है कि सिन्धद्वीप नामक राजा ने इन्द्र लोक से बदला लेने के लिये कठोर तप किया। तब वरुण की स्री वेत्रावती नामक नदी मानुषी का रुप धारण करके उसके पास आई और कहा कि स्वयं भोगार्थ समुपागता परस्री को जो स्वीकार नहीं करता, वह नरकगामी होता है और ब्रह्ममहत्या का पातकी होता है। राजा ने उसे स्वीकार किया, उससे पुत्र हुआ। नाम वेत्रासुर पड़ा। वह प्राग्जयोतिष (आसाम) का राजा हुआ और इन्द्र को हराया। कुछ श्लोक यहाँ लिखे जा रहे हैं :

  आसीद्राजा पुरा राजन् सिंधुद्वीपः प्रताप वान्

  स तेपे परमं तीव्रं शक्र वैरमनुस्मरन् ।।

  तत: कालेन महता नदी वेत्रवती शुभा ।

  मानुषं रुपमास्थाय सालंकारं मनोरमम् ।

  आजगाम यतो राजा तेपे परमकं तपः ।  

वेत्रवत्युवाच।  

अहं जलपते: पत्नी वरुणस्य महात्मनः।

नाम्ना वेत्रवती पु त्वामिच्छन्तीहमागता।।

साभिलाषां परस्रीं च भजमानां विसज्र्जयेत्।

स पापः पुरुषो ज्ञेयो ब्रह्ममहत्यां च विन्दति।

एवं ज्ञात्वा महाराज भजमानां भज माम्।।

तस्य सदयोsभवत् पुत्रो द्वादशार्कसमप्रभः।      

वेत्रवत्युदरे जातो नाम्ना वेत्रासुरोsभवत् ।

४. महाभारत वनपर्व १८८ अध्याय में मार्कण्डेय ने महाप्रलय के समय वेत्रवती नदी को नारायण के उदर में देखा था।

५. महाभारत वन. २२२ अध्याय में अन्यान्य कई नदियों के साथ वेत्रवती को भी अग्नि की माता बताया गया है।

६. महाभारत के और स्थानों में भी इसकी चर्चा है। स्थल निर्देश कर रहा हूँ। ये स्थल कलकत्ता संस्करण से दिये गये हैं:   

१३/६६६

९/३२३  

९/३२७

eद्यड़.

७. सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में शायद इसकी कोई चर्चा नहीं है। हो भी तो इस नाम से नहीं है। शायद आर्य लोग तब तक उधर नहीं आये थे।

८.मेघदुत : १.२५

   हे मेघ, दाशार्ण की राजधानी समस्त दिङ्मण्डल में प्रथित विदिशा नाम मे मशहूर है। वहाँ जाते ही तुम विलासिता का फल पा जाओगा, क्योंकि वहाँ वेत्रवती नामक नदी बह रही है, उसके तट के उपान्त के भाग में गर्जन पूर्वक मन हरण करके उसका चंचल तरंगशाली सुस्वादु जल, इस प्रकार पान करोगे मानो (प्रेयसी का) भ्रूभंगयुक्त मुख -

तेषां दिक्षु प्रथित विदिशा लक्षणां राजधानीं

गत्वा सद्य: फलमविकलं कामुकत्वस्य लब्धा।

तीरोपान्त स्तनित सुभगं पास्यसि स्वादु यस्मात्

सभ्रूभंगं मुखमिव पयो वेत्रवत्याश्चलोर्मि।।

९. कादंवरी कथा मुख -

       विदिशा के चारों ओर वेत्रवती नदी है। स्नान के समय मतलब विलासिनियों के कुचतट के आस्फालन से उसकी तरंगश्रेणी चूर्ण एवं चूर्ण हो जाती थी और रक्षकों के द्वारा रमानाथ भयभीत विजात स्रियों के अग्रभाग में लिप्त सिंदुर के फैलने से सन्धि आकाश की भाँति उसका पानी लाल हो जाया करता था और उसका तट-छोर उन्मत्त कल हंस मण्डली के कोलाहल से सुदा मुखरित रहता था -

  मज्जन्मालव विलासिनी कुचतटास्फालन जज्र्जरितोर्मिमालया

  जलावगाहनावतारित जयकुञ् कुंभसिन्दूर सन्ध्यायमान-

  सलिलया उन्मद कलहंस कुल कोलाहल मुखरित कूलधा।

पिछला पत्र   ::  अनुक्रम   ::  अगला पत्र


© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

सभी स्वत्व सुरक्षित । इस प्रकाशन का कोई भी अंश प्रकाशक की लिखित अनुमति के बिना पुनर्मुद्रित करना वर्जनीय है ।

प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली