हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 29


IV/ A-202 9       

द तुलसी पुस्तकालय

८, मन्दिर स्ट्रीट,

कलकत्ता

30.5.39

श्रध्देय चतुर्वेदी जी,

प्रणाम!

       कृपा-पत्र मिल गया था। आपकी घुमाई हुई लाथी भी देखने को मिल गई। लोगों को लगी है, यह भी नाना पत्र-पत्रिकाओं से पता चला, परन्तु मानसिक स्थिति ऐसी नहीं रही कि जवाब दे सकता। अपनी पत्नी की चिकित्सा के लिये कलकत्ते आया हूँ। एक महीने से कभी यहाँ, कभी वहाँ रहता हूँ। बच्चों को सम्हालने से उतनी फुरसत भी नहीं मिल पाती कि जाकर पत्र लिख सकूँ। कल आपरेशन हुआ है। कानोडिया जी की कृपा से मातृ सेवा सदन में प्रबंध हो गया है। इन्होंने बड़ी कृपा की है। देखें, कब तक छुट्टी मिलती है। डाक्टर कहते हैं, पंद्रह-बीस दिन लग जायेंगे।

       और सब कुशल है। मेरा एक लेख बहुत दिन से लिखा हुआ पड़ा है। बौद्ध और जैन साहित्य में क्या है-यह विषय है। आपने संस्कृत साहित्य वाला लेख पसन्द किया था। यह भी उसी तरह का है। कहिये तो भेजूँ। अवश्य ही अभी उसे फेयर करना बाकी है।

       भाषा वाली आपकी टिप्पणी अच्छी है। मुझे केवल एक बात उसके विषय में निवेदन करनी है। वह यह   कि क्या विषय के अनुसार भाषा नहीं बदलनी चाहिए। प्राचीन शास्रकार तीन स्थान पर भाषा की क्लिष्टता और अशुद्धि को भी गुण मानते थे-विषयोचित, वक्ता के अनुरुप (जैसे वैयाकरण के मुख से क्लिष्ट और गंवार के मुँह से ग्राम्य) श्रोता के अनुरुप (जैसा सुननेवाला हो, उसे लक्ष्य करके कहा गया)। इस तरह सब जगह कठिन भाषा का प्रयोग ठीक नहीं भी हो सकता है। तुलसीदास की विनयपत्रिका का आरंभ कितना आडंबरपूर्ण है। इतने संशोधन के साथ आपका मत मान्य है।

आपका

हजारी प्रसाद द्विवेदी  

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली