हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 30


IV/ A-2031

शान्तिनिकेतन
17.8.39

मान्यवर चतुर्वेदीजी,

 

प्रणाम

आपके पहले पत्रों का जवाब मैंने दे दिया था, पर मालूम नहीं हो सका कि वह पत्र आपको मिला या नहीं। दूसरे पत्र के पाने के पहले ही गुरुदेव माडव्यू को रवाना हो चुके थे। इसलिये इन्टरव्यू वाली बात का सवाल ही नहीं उठता। सम्मेलन होने से पहले वे शायद यहाँ नहीं आयेंगे। आपके पत्र का जवाब वहीं से दे दें तो ठीक है।

आपने हिन्दी साहित्य सम्मेलन के लिये इस वर्ष के प्रोग्राम की बात पूछी है। मेरा विचार यह है कि साहित्य सम्मेलन का प्रधान कार्य साहित्य का निर्माण और साहित्य का ही प्रचार होना चाहिये। साहित्य सम्मेलन की परीक्षाओं ने साहित्य के प्रचार में अद्भुत सहायता पहुँचाई है, यह सम्मेलन का मौलिक और ठोस कार्य है। मुझे स. की पद्धति के अविष्कार पर गर्व रहता है। परन्तु इन परीक्षाओं में एक बड़ी भारी त्रुटि रह गई है। अगर किसी भी साहित्यरत्न उपाधिधारी विद्वान की साहित्यिक आलोचना आप पढ़े तो आपको मेरी बात में कोई संदेह नहीं रह जायेगा। आलोचना के नाम पर इन परीक्षाओं में रीतिकालीन ग्रंथ और तक्षण ग्रंथों को इतनी अधिक मात्रा में अभ्यास कराया जाता है कि उस चक्रव्यूह से निकला हुआ महारथी साहित्यिक कन्वेंशन के ऊपर आने में प्रायः असमर्थ हो जाता है। हमारे साहित्य की आलोचना भी इसीलिये समग्र जगत् की समस्याओं को दृष्टि में रख कर नहीं होती जो नित्य हमें जूझने को ललकार रही है, बल्कि संकीर्ण रीति मनोवृत्ति द्वारा परिचालित हो रही है। उचित यह था कि सम्मेलन का परीक्षा विभाग इस विषय की परवाह किये बिना कि उसकी परीक्षा की पाठ्यपुस्तकें किसी विश्वविद्यालय की पाठ्य तालिका से घट कर न हों, संसार की अभिनव चिन्ताधारा से परिचय कराने वाली पुस्तकों को प्रधान स्थान देते। जिन विषयों की पुस्तकें मौजूद न हों, उन पर पुस्तकें लिखावें और लेखकों को प्रोत्साहित करें। ऐसा करने से शायद युक्त प्रान्त की काँग्रेसी सरकार या और कोई सरकार उसकी परीक्षाओं को स्वीकार न करे। कोई हर्ज नहीं। सम्मेलन को कभी भी सरकार से सुलह करने की मनोवृत्ति को प्रश्रय नहीं देना चाहिये। सरकार चाहे तो परीक्षाओं को स्वीकार कर ले, मगर सम्मेलन को उसकी परवाह नहीं होनी चाहिये। जिन विषयों की पुस्तकें हमारे साहित्यिक संस्कारों को बनाने के लिये नितान्त ज़रुरी हैं, उनकी एक सूची मैंने विशाल भारत के मई (या उसके आस-पास) के अंक में प्रकाशित की है। मैं चाहता हूँ कि 'साहित्य की आलोचना' शब्द को कविता या कहानी की आलोचना के रुप में ही व्यवहार न किया जाय, उसे समूचे जीवन की अलोचना के अर्थ में व्यवहार किया जाय। विशाल भारत में लिखे हुए उस मेरे लेख का नाम है, साहित्यिक संस्थायें क्या कर सकती है।

मैं परीक्षा विभाग की बात ही इसलिये कर रहाथा कि सम्मेलन का वह विभाग सर्वाधिक संगठित और ठोस है। वस्तुतः सम्मेलन का प्रधान कार्य है साहित्यिक रुचि का परिमार्जन करना। यह काम परीक्षायें बड़े सुन्दर ढंग से कर सकती हैं, और अगर अब तक के किये गये कार्य पर से इनका महत्त्व कूता जाय तो निस्संदेह उन्होंने बहुत बड़ा कार्य किया है। आप अगर सम्मेलन के अधिकारियों से पूर्वोक्त रास्ता स्वीकार करने का आवेदन करें तो शायद कुछ कार्य हो भी सके।

सम्मेलन को साहित्य निर्माण के कार्य को अधिक दृढ़ता के साथ अपने हाथ में लेना चाहिये। तीन छोटे-छोटे विभाग खोलने की बात मैं सोच सकता हूँ। एक विभाग नये विचार के परिचायक ग्रंथों काप्रणयन कराये, अगर इन नये विचारों के परिचायक ग्रंथों की एक योजना बनाने को मुझे अवसर मिले तो दो-चार मित्रों की सहायता से मैं ऐसे १२० ग्रंथों की योजना बना सकता हूँ, जिसे सम्मेलन दस वर्षों में प्रकाशित करे या कराने का जिम्मा ले। दूसरे विभाग को मौलिक कार्य कराने का भार दिया जाय। यह मौलिक कार्य कहानी या नाटक लिखने का न होगा। कोई भी संस्था प्रोग्राम बना के इन विषयों को नहीं लिखा सकती। मेरा मतलब है, हिन्दुस्तान के भिन्न-भिन्न भागों की भौगोलिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, भाषाशास्रीय, नृतत्व विषयक, धार्मिक परिस्थितियों के वैज्ञानिक अध्ययन से। यह कैसा अन्धेर है कि अपने देश के विषय में भी हमें अंग्रेजों की लिखी पुस्तकें पढ़ कर ज्ञान प्राप्त करना पड़े। सम्मेलन के यह विभाग पहले अध्ययन के लिये युक्त प्रान्त को ही चुन सकता है। विशेषज्ञों की एक कामेटी इस विषय के लिए दस वर्ष का प्रोग्राम आसानी से बना सकती है। यह इतना आवश्यक कार्य है कि इसके लिये एक क्षण भी विलम्ब ठीक नहीं जान पड़ता। आप 'विशाल भारत' में इसका श्रीगणेश क्यों नहीं करते? क्यों न बुंदेलखणड से ही शुरु किया जाय। टूं जिस जाति का है, उसका ऐतिहासिक, समाजिक और नृतत्व शास्रीय दृष्टि से कितना महत्त्व है। खंगारों का आगमन (शायद मंगोलिया से), उनका उत्थान और पतन सभी अत्यन्त आश्चर्यजनक व्यापार हैं। अंग्रेज इतिहास लेखकों के यहाँ सिज्दा करने के सिवा इस विचित्र जाति के विषय में जानने का क्या उपाय है? डाक्टर कोलिन्स से एक बार मैं पूछने गया था कि क्या कार्य कर्रूँ। बूढ़े ने मेरी ओर अवाक् भाव से देख कर कहा-तुम? तुम्हारे देश में क्या काम हुआ है? सब तो करने को बाकी पड़ा है। जिस जिले से आये हो वहाँ के आदमियों के बारे में लिख सकते हो? वहाँ की बोली के विषय में लिख सकते हो? अपनी जाति का इतिहास? अपने आस-पास, बिलकुल नज़दीक रहने वाली किसी जाति के आचार-विचार, नृत्य-गीत, पूजा-पार्वण, गहने, कपड़े-जिस किसी विषय को क्यों नहीं उठा लेते? गुरुदेव से जब हिन्दी भवन के कार्यक्रम के विषय में पुछा तो उन्होंने चन्दोला जी से कहा कि तुम अपने यहाँ की स्रियों के विवाह आदि संबंधी स्रियाचार के विषयों में लिखो। मुझसे कहा कि तुम अपनी भाषा में से उन प्रयोगों को ढूँढ निकालो, जिनका प्रचलन तुम्हारी किताबी भाषा में नहीं हो रहा है और जिनके अभाव में भाषा निश्चय ही कमज़ोर होती जा रही है। काका कालेलकर से पूछने गया था। उन्होंने भी वही जवाब दिया-अपने जिले के खेत-खलिहान के शब्दों को इकट्ठा करो, रीति-र का अध्ययन करो। इस प्रकार सभी चिन्ताशील व्यक्ति इस कमी को समान भाव से अनुभव करते हुये दिखाई दिये। सम्मेलन को इस दिशा में क़दम उठाना चाहिये। अपने यहां हिन्दी भवन से यह कार्य किया जा सकता था, पर हमारी कठिनाइयाँ और तरह की हैं, जिनकी चर्चा फिर कभी कर्रूँगा। पहले विभाग के कार्य में तो हम नि:संदेह यहाँ से कार्य कर सकते हैं।

तीसरे विभाग का काम प्राचीन संस्कृत के दार्शनिक वैज्ञानिक ग्रंथों का हिन्दी अनुवाद और हिन्दी प्रस्तावना के साथ सम्पादन होना चाहिये। मेरा मतलब हिन्दी के पुराने ग्रंथो का संपादन से नहीं है। वह कार्य नागरी प्रचारिणी सभा बड़े सुन्दर ढंग से कर रही है। मैं इसे संस्कृत, पाली, प्राकृत आदि के ग्रंथों का समीक्षात्मक संपादन से है। अब तक यह कार्य अंग्रेजी और जर्मन, फ्रुेंच आदि भाषाओं में ही होता रहा है। यही कारण है कि साधारण हिन्दी विद्वान् अपनी प्राचीन संस्कृति के विषय में बड़े भ्रम में है। इस विषय की भी सवा सौ पुस्तकें तैयार कराई जा सकती हैं। मेरा प्रस्ताव यह है कि एक समिति ऐसी नियुक्त की जाय जो इन विषयों की एक-एक सूची तैयार कर दे। प्रत्येक सूची में १२० ग्रंथ हों। प्रत्येक विभाग नियम से हर महीने एक ग्रंथ प्रकाशित कर दे। इस प्रकार दस वर्ष में सम्मेलन एक लाइब्रेरी तैयार कर सकता है। इस प्रस्ताव का एक व्यावहारिक पहलू भी सुझा दूँ तो शायद काम आ जाय। इस प्रकाशन के कार्य में रुपये की तो ज़रुरत होगी ही। सम्मेलन के पास स्वयं प्रकाशित कर सकने लायक रुपये का न होना ही स्वाभाविक है। पर वह आसानी से दस-बारह अच्छे प्रकाशकों का सहयोग प्राप्त कर सकता है। ये लोग सम्मेलन की सिफ़ारिश पर उसकी ओर से पुस्तकें प्रकाशित करेंगे। मैंने बहुत-से प्रकाशकों से सुना है कि उन्हें अच्छी किताबें नहीं मिलतीं। सम्मेलन का सहयोग पाने पर उनकी यह शिकायत दूर हो सकेगी। ऊपर हमने यथामति प्रोग्राम की ओर इशारा कर दिया।

मैंने पहले एक लेख और कहानियाँ भेजी थीं, आपने उन पर अपनी राय अभी तक नहीं लिखी।
यहाँ सब कुशल है। आशा है, आप सानंद हैं।

विशेष-
पिछली छुट्टियों में मैं अपनी पत्नी की चिकित्सा के लिये कलकत्ते गया था। तब से बजट एकदम गड़बड़ हो गया है। इस महीने अनेक कोशिश करके भी एक ज़रुरी मद में कुछ रुपये जमा नहीं कर सका। मैंने १०००/- रुपये का इन्श्योर कराया है। उसके लिये हर तीसरे महीने १३रु. पाँच आने देना पड़ता है। इस बार की अन्तिम तारीख ३१अगस्त बीत गई। ३० सितम्बर तक और समय है। क्या वि. भा. से उसके पहले १३रु. पाँच आने मिल सकता है। (क्या अराजकवादी बीमे में विश्वास नहीं रखते?) अगर यह संभव हो तो वर्मा जी के कलकत्ते में लिख दीजिये। मैं उनके पास मनीआर्डर फार्म भर कर भेज देता हूँ। यदि न हो सके तो मुझे चिट्ठी लिख कर बता दे। मैं कोई और व्यवस्था कर्रूँगा।
आशा है, आप सानंद हैं। हम सब कुशल है।


विनीत
हजारी प्रसाद द्विवेदी


पुनश्चः

वि.भा. में छपे हुए मेरे लेखों की कुछ रिप्रिंट कापियों के मिल जाने की व्यवस्था कर दीजिये। 

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली