हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 51


IV/ A-2050

विश्वभारती पत्रिका

साहित्य और संस्कृति सम्बन्धी

हिन्दी त्रैमासिक

हिन्दी भवन

शान्ति निकेतन,बंगाल

20.2.42

परम श्रद्धास्पदेषु,

       सादर प्रणाम आपको इसके पहले एक पत्र और विश्वभारती पत्रिका की एक प्रति भेजी थी। आशा करता हूँ, वह आपको मिल गई होगी। आपने अभी तक उसका कोई जवाब नहीं दिया और बहुत दिनों से कोई पत्र भी नहीं दिया। इस पर से मैं अनुमान करता हूँ कि या तो आप किसी कारणवश नाराज हैं या फिर अस्वस्थ हैं। प्रथम कारण मुझे ठीक नहीं जँचता, क्योंकि आप नाराज होते तो और कुछ नहीं तो डाँट कर पत्र ज़रुर लिखते। आप नाराज होकर गुस्से को मन में घोल रखने वालों में नहीं है। इसलिए मुझे यही लग रहा है कि आप फिर अस्वस्थ हो गये हैं। कृपया लौटती डाक से लिखें कि क्या बात है मुझे इतना तो मालूम ही है कि आपका स्वास्थ्य इधर अच्छा नहीं जा रहा है।

       विश्वभारती पत्रिका के विषय में आपसे बहुत कुछ मार्ग प्रदर्शन की आशा रखता हूँ। पहला अंक करीब-करीब समूचा हमारे हाथों का लिखा हुआ है। दुसरा अंक भी तथैव च। लेख मैंने सभी ऐसे प्रकाशित किये हैं (गुरुदेव को छोड़ कर) जो पहले कहीं प्रकाशित नहीं हुए। पर अधिकांश लेख यहाँ बंगला और अंग्रेजी में मिलते हैं। और सब कुछ हमी लोगों को लिख लेना पड़ता है। इसमें परिश्रम पड़ता है, किन्तु पत्रिका में एकरुपता आ जाती है। परन्तु हिन्दी वालों का कंट्रिब्यूशन कुछ भी नहीं जा रहा है। कई सज्जनों का पत्र लिख-लिख के हार गया हूँ। न तो कोई जवाब आता है न लेख। शायद हिन्दी क्षेत्र में बिना रुपयों के लेख मिलते ही नहीं या फिर कोई और कारण हो। लगभग डेढ़ सौ प्रतियाँ समालोचना और भेंट में भेज चुका हूँ। एक दर्जन से अधिक लोग ऐसे नहीं मिले, जिन्होंने क्या पहुँच की भी सूचना दी हो। समालोचनाएँ भी बहुत कम निकली है। कर्मवीर, हंस, विश्वभारती और विशाल भारत ने बहुत शीघ्र और सुंदर समालोचना निकाली है। बाकी किसी ने पहुँच की भी सूचना नहीं दी। Nौर-हिन्दीभाषी पत्रों ने ज़यादा भद्रता और तत्परता दिखाई है। देश में श्री नंदबाबू वाले लेख का अनुवाद भी छपा है। पर हिन्दीवालों की ओर से ऐसी कुछ भद्रता या तत्परता नहीं दिखाई दी। शायद सभी लोगों का ऐसा ही अनुभव हो।

       परन्तु मैं चिन्ता में ज़रुर पड़ गया हूँ। जिस कागज की महँगी के युग में हमने यह साहस किया है, उसको ध्यान में रखते हुए डेढ़ सौ प्रतियाँ कम नहीं हैं। मैं आपसे पूछता हूँ कि क्या ऐसा ही होता है और हमें

चिन्तित होने की ज़रुरत नहीं या कोई ऐसी गलती हमसे हुई है, जिससे लोग उपेक्षा का भाव दिखा रहे हैं। जहाँ तक लेख देने का प्रश्न है, मैंने उन सब लोगों को अपनी शक्ति-भर लिख कर दिया, जिन्होंने मुझसे माँगना ठीक समझा है। इसका मैंने हिसाब नही रखा। आप जिस प्रकार मुझे स्वयं उद्योगी होकर पैसा भेज देते थे, वैसा और लोग बहुत कम करते थे। फिर भी मैं अपनी शक्ति-भर सबकी सेवा करता रहा हूँ, असुविधाओं के होते हुए भी। शायद इसीलिए मैंने मन-ही-मन आशा की थी कि लोग मेरी भी सुनेंगे, पर जान पड़ता है, ऐसी बात नहीं है। खैर।

       अगर आपका स्वास्थ्य ठीक हो तो आप मुझे कुछ रास्ता बताइये। किस प्रकार सात्विक और ठोस साहित्य पाया जाय और दिया जाय। किन-किन विषयों पर विशेष भाव से जोर दिया जाय। ग्राहकों की दृष्टि से हमारी पत्रिका का दाम ज्यादा ज़रुर है, पर इतने पर भी हम घाटे में ही हैं। अगर कुछ अच्छे विज्ञापन मिलते तो शायद घाटा कम पड़ता और पत्रिका भी सस्ती होती। आप इन विषयों पर हमें जो कुछ बता सकें सो ज़रुर बताइये।

              जामवन्त मैं पूछों तोही

              उचित सिखावन दीजै मोहीं

       और सब कुशल है। आशा है, आप सानंद हैं।

आपका

हजारी प्रसाद

कृपया इस पत्र की बात अपने तक ही रखें।  

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली