हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 73


IV/ A-2075

हिन्दी-भवन

  शान्तिनिकेतन, बंगाल

दिनांक : 29.3.46

पूज्य पंडित जी,

       आपके कई पत्रों का उत्तर न देने का अपराधी हूँ। बीच में एक लड़की की मृत्यु हो जाने से अस्वस्थ सा हो गया था। अब धीरे-धीरे फिर स्वस्थ हो आया हूँ। लेकिन उसकी माँ अब भी प्रकृतिस्थ नहीं हुई।

       मधुकर में मुझे दो तीन लेख लिखने हैं। यह बात मुझे पूरी तरह याद है। मेरे अनुभव बड़े मजेदार हैं। नवीन लेखकों को उनसे केवल मनोरंजन मिल सकता है। शिक्षा विशेष कुछ नहीं। ये बात मुझे आसानी से सौभाग्यवश मिल गई थी वह सभी नवीन लेखकों को नहीं मिलती, यह बात जब मैं सोजता हूँ तो मुझे बड़ा क्लेश होता है। अपने अनुभव लिखने का मतलब है संयोगवश मुझे जो सौभाग्य मिल गए थे उनका बखान। यह संकोच की बात है पर बहुत से अनुभव मनोरंजन अवश्य हैं।

       मैं थोड़ा और देर करके आपको लेख भेजूँगा। आपकी एक आज्ञा और भी पड़ी हुई है। मैं कबीरपंथी   सिद्धांतो के बखेड़े में पूरी तरह उलझ गया हूँ। कभी-कभी ऊब जाता हूँ कि यह जंजाल क्यों मोल लिया। लेकिन अब किनारे तक पहुँचकर ही दम लूँगा। आपके आशीर्वाद से यह काम जैसा हो जाएगा।

       बंगला में हिन्दी साहित्य का परिचय लिखने के लिये विश्वभारती ग्रंथ विभाग बहुत जोर दे रहा है। इस प्रकार उसे भी समाप्त करना ही है। इन्हीं उलझनों में फँसा हूँ। देखें कब उद्धार होता है।

       आशा है, प्रसन्न हैं।

आपका

हजारी प्रसाद  

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली