हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 80


IV/ A-2083

शान्तिनिकेतन

दिनांक : 23.4.49

पूज्य पंडित जी,

              सादर प्रणाम!

       आपके दोनों कार्ड यथासमय मिल गए थे। आपने लिखा है कि मेरे साथ एक सप्ताह रहने से आपको अच्छा लगता है। मैं स्वयं आपसे मिलने को बहुत उत्सुक हूँ पर कोई सुयोग ही नहीं मिलता। घर और बाहर की अनेक उलझनें रोक लेती हैं। मैं इस बार काशी जाकर २महीने सपरिवार रहने की सोच रहा हूँ। अभी भी सोच ही रहा हूँ क्योंकि आजकल के दिनों में "सोचने" भर में ही आनंद है। सचमुच ही चल पड़ना काफी व्ययसाध्य है। पर जाना अवश्य चाहता हूँ। यदि वहाँ सचमुच गया तो फिर एक बार आपकी तरफ आने का भी संकल्प कर सकता हूँ। आपसे मिलने पर काम करने की नई प्रेरणा पा सकूँगा। इधर कुछ "डल" होता जा रहा हूँ। पिछली बार गंगा जी की कृपा से "अनिकेत" हो जाने के बाद कुछ चिन्तित हो गया हूँ। आपके साहचर्य से थोड़ी मस्ती आ जाएगी।

       विनोद जी ने लिखा है कि आपने उनके बारे में कुछ पूछा है और उन्होंने लिख दिया है कि द्विवेदी जी जानते हैं। मैं पिछली बार काशी गया था तो उन्हें विशेष चिन्तित पाया।

       यद्यपि "जनवाणी" के लिये रुपया ग्राहक और लेख सभी वे ही जुटाते हैं पर कुछ लोग कभी-कभी उनसे लगने वाली बातें कह देते हैं। उन्हें आचार्य जी का स्नेह प्राप्त है और श्री जयप्रकाश बाबू का भी स्नेह प्राप्त है पर मुझे मालूम हुआ कि कुछ अन्य लोग उन्हें पसंद नहीं करते और इसीलिये उनका मन बैठ जाता है। मैंने विनोद जी से कहा कि वे ऐसी बातों पर ध्यान न दें और जनवाणी की जैसी अब तक सेवा करते रहे हैं वैसी ही किए जायँ। वे कर भी रहे हैं, पर कुछ उदास से रहते हैं। मैंने देखा है कि विनोद जी अब काफ़ी अच्छा लिखने लगे हैं और जनवाणी को बहुत जीवंत पत्र बना रहे हैं पर उनका मन कुछ बिदक गया है।  

       विनोद जी कुछ दिन मेरे साथ रहकर दो-एक पुस्तक प्रकाशित करना चाहते हैं। इसके लिये उन्हें घर पर दो सौ रुपये की सहमति आवश्यक है। मैंने श्री बदरी प्रसाद जी वयाँवाला (कलकत्ते वाले) से कहा था, वे ६ महीने का खर्च दे देंगे। पर इस दिशा में आप उन्हें उचित सलाह दें। मेरा निश्चित यह है कि उन्हें "जनवाणी" का काम छोड़ना चाहिए। आचार्य जी और जयप्रकाश बाबू का उन्हें स्नेह और विश्वास प्राप्त है तो और किसी की बात पर उन्हें ध्यान ही क्यें देना चाहिए।   

       विनोद जी मेरे पास रहकर पुस्तक लिखना चाहते हैं, यह ठीक ही है। पर मेरा विचार यह है कि वे अंग्रेजी का पहले अभ्यास कर लें। जो लोग उनको लगने वाली बातें कहते है उनका बड़ा भारी अभिमान यही है कि वे अंग्रेजी के दस पाँच शब्द रट चुके हैं। विनोद जी थोड़ा ही परिश्रम करें तो उन्हें उस भाषा पर अधिकार हो जाएगा और स्वयं मूल अंग्रेजी पुस्तकें देख कर अपना ज्ञान बढ़ा सकेंगे।

       विनोद जी का मन बड़ा उदास है पर साथ ही अधिक भावुक भी है। इसलिये उन्हें इस बात को जरी सावधानी से बताने की ज़रुरत है। क्या ऐसा हो सकता है कि वे आपके साथ कुछ दिन रह कर इस ओर प्रयत्नशील हों?

       हिंदी में भारतवर्ष के इतिहास और प्राचीन सभ्यता के बारे में जो कुछ निकला है उसे विनोद जी ने पढ़ा है, और इस विषय का उनका ज्ञान काफी विशाल है। उन्हें थोड़ा-सा जम कर मूल पुस्तकों को देख और समझ-लेना भर बाकी है।

       शेष कुशल है। आशा है, आप स्वस्थ, सुस्थ और प्रसन्न हैं।

आपका

हजारी प्रसाद द्विवेदी

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली