हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 81


IV/ A-2084

काशी विश्वविद्यालय

दिनांक : 16.5.49

  श्रध्देय पंडित जी,

              सादर प्रणाम!

       कृपापत्र मिला है। मैं छुट्टियों में दो एक महीने के लिये यहाँ (काशी में) आ गया हूँ। बहुत-से मित्रों का आग्रह है कि मैं मालवीय जी महाराज का जीवन चरित्र लिखूँ। मैंने मन ही मन संकल्प भी कर लिया है, पर अभी तो ऐसा लगता है कि यह काम मेरे बूते का नहीं है। मैं एक योजना बना रहा हूँ, आपके पास सलाह और सुझाव के लिए भेजूँगा पर काम शुरु कर देने पर भी शीघ्र नहीं समाप्त होगा। मेरा विश्वास है कि कम-से-कम ३ साल तो लग ही जाएँगे। मुझे कोई जल्दी भी नहीं है।

       पं. गोविंद मालवीय जी का कार्य में बहुत आग्रह है। उनसे दो एक बार मिलने का मिला है। नाना कार्यों में इधर बहुत व्यस्त थे, जम के कोई बात नहीं हुई। एक दिन बातों ही बात उन्होंने एक बड़ा अच्छा सुझाव दिया। कह रहे थे क्यों न हिंदी के सभी पत्र एक-दो कालम नियमित रुप से पारिभाषिक शब्दों के लिये दें। एकाध कालम इन शब्दों की संक्षिप्त आलोचना पर रहे। मुझे सह बात सुंदर जँची। हिंदी पत्र-पत्रिकाएँ यदि पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार कार्य करें तो बहुत उपयोगी कार्य कर सकती हैं। अभी तो सभी पत्रिकाएँ व्यर्थ ही बहुत सा मैटर छापती रहती हैं। निर्जीव साहित्य उत्पन्न हुआ ही तो क्या लाभ है? आप इस विषय पर कुछ लिखें तो अच्छा हो।

       श्री संपूर्णानंद जी के लिये जो आप अभिनंदन ग्रंथ तैयार करा रहे हैं उसमें मेरा सहयोग निश्चित है। आपकी यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी कि उसमें निर्जीव साहित्य एकदम न दिया जाय। मैं समझता हूँ सहज-प्रसन्न भाषा के गंभीर विचार देने का संकल्प लेकर ही कोई कार्य होना चाहिए। उपलक्ष्य चाहे कुछ भी हो।

       विनोद जी बंबई से कल ही लौटे हैं। कहते थे बंबई में बीमार पड़ गए थे। आपके पत्र से उनको बड़ी सान्त्वना और साहस मिला है। पर "जनवाणी"   की आर्थिक अवस्था बहुत शोचनीय बता रहे थे। वे आपको पत्र लिखेंगे ही।

       जर्मनी भाषा वाली चिट्ठी का अनुवाद यहीं करा लिया लिया है। साथ में भेज रहा हूँ।

       आपने लिखा है कि आकाशवृत्ति पर अब निर्भर करने की सोच रहे हैं। लेकिन आकाशवृत्ति ""वृत्ति"" की दृष्टि से बहुत उत्तम तो नहीं है। वैसे मेरा विश्वास है कि आप यदि जमकर बैठ जायँ और साहित्यिक संस्थाओं के लिये सांस्कृतिक कार्य की प्रेरणा जुगावें तो निश्चित रुप से देश कल्याण ही होगा। उस समय आकाशवृत्ति चरितार्थ होगी।

       कहाँ बैठने को सोच रहे हैं? आगरा अच्छा केंद्र हो सकता है

       टीकमगढ़ जाने की सोच रहा हूँ। पर जब आप वहाँ से चलने ही वाले हैं तो नये आश्रम की ओर जाना ही ज्यादा पसंद कर्रूँगा। इस समय तो वहाँ काफ़ी गर्मी होगी।

       आशा है, सानंद हैं। हम लोग यहां सपरिवार सानंद हैं।

मेरा काशी का पता-

              क्/ पं. रमानाथ द्विवेदी

              ७, मोहन लॉज,

              पो. आ.-लंका

              बनारस

विनित

हजारी प्रसाद द्विवेदी

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली