हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 96


IV/ A-2092

काशी विश्वविद्यालय

  29.11.50

परम श्रध्देय पंडित जी,

              सादर प्रणाम!

       18.11.50 का संस्कृत कवित्व वाला पत्र मिला है। रोज़ ही आपको पत्र लिखने की सोचता हूँ पर कुछ-न-कुछ बाधा आ जाती है। शरीर तो मेरा पहले से अच्छा है। इस बात से आपको मैं "विगतौत्कण्ठ्य" वना सकता हूँ। पर मेरा मन अभी तक शान्तिनिकेतन में ही उलझा हुआ है। यहाँ के कार्यव्यस्त जीवन में "भारेर बेगे से चले", अभी तक जीवन के स्वाभाविक आनंद से चलने-योग्य शक्ति नहीं पा सका हूँ। साहित्यिक कार्य एकदम नहीं कर रहा हूँ। विद्यार्थी अवश्य बहुत मिल रहे हैं और बड़े प्रेम से भी मिल रहे हैं, परन्तु नाना कारणों से मैं यथाबुद्धि उनका पालन नहीं कर पाता। अब धीरे-धीरे थोड़ा मानसिक स्वास्थ्य लौट रहा है परन्तु सारे जीवन के, स्वच्छंद-जीवन के संस्कार मुंहजोड़ घोड़े की तरह नियमबद्धता और पदमर्यादा बोध की लगाम मानना नहीं चाहते। गुरुदेव और गुरुवर (श्री दीनबंधु एण्ड्रूज़) को न पा सकने की ग्लानि नित्य मन को बेचैन कर डालती है। महान् बनने के लिये जिस तप और संयम की आवश्यकता है उसका नित्य अभाव अनुभव करता हूँ।

       मेरे विभाग में जो पुराने अध्यापक हैं उनके चित्त मे मेरे आने से बड़ा क्षोभ है। पहले मुझे बताया गया था कि वे लोग मेरे आने से संतुष्ट होंगे, पर वे हुए नहीं। नित्य उनका विरोध और विक्षोभ स्पष्ट हो उठता है। मैं भरसक सबका सम्मान करना चाहता हूँ। परन्तु उन लोगों के मन में संदेह है और मेरे प्रयत्न केवल व्यर्थ ही नहीं जाते उल्टा फल भी देते हैं। इसी से मेरे चित्त की ग्लानि बढ़ जाती है। यही मुख्य समस्या है। मेरे मित्र कहते हैं कि यह सब तो होता ही रहता है। संघर्ष ही जीवन है। पर मैं सोचता हूँ, संघर्ष किस वास्ते? कोई बड़ी सिद्धि मिलती हो तो संघर्ष अच्छा है पर जहाँ कोई बड़ी सिद्धि नहीं है, वहाँ यह संघर्ष क्रमश: पतन की ओर ही खींचता है। बहुत दिन बाद अपने मन की व्यथा आपको बता रहा हूँ। विभाग के बाहर लोग सन्तुष्ट ही दिखते हैं। पर ऐसा लगता है कि एक दल सन्तुष्ट होने पर भी कुछ लोग तो इसे दलगत भाव ही समझते हैं। खैर, मेरा तो बराबर यही विश्वास रहा है कि मेरे करते कुछ नहीं होता। सब कुछ कराने वाला पर्दे के भीतर है जो अभी समझ नहीं आ रहा है कि आगे मेरे लिये क्या विधान है। अराजवादी तो मैं गुरु से किसी अंश में कम नहीं हूँ पर एक अन्तर अवश्य है, मेरी सब कल्पनाओं के पीछे कोई ऐसा राजा है। जीवन राजापन, आत्मगोपन, आत्मत्याग और आत्मविलयन में ही प्रकट होता है। यथापि स्नेह पापशंकी होता है तथापि स्नेह बल भी देता है। मैं वह बल पाता रहता हूँ। कभी कभी परिवार पालन की चिन्ता होती अवश्य है, परन्तु आप विश्वास रखें, अवसर आने पर ये बातें मुझे बाँध नहीं सकेंगी। आपके स्नेह की लाज तो बराबर बचा रखना है।

पापमाशङ्कते स्नेहं इति सत्यमकवेर्वचः ।

उत्तरं वचनं वेतत् स्नेहं एवाभिरक्षति।।

आपका

हजारी प्रसाद द्विवेदी

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली