काशी
हिंदू विश्वविद्यालय,
काशी
11.5.1952
पूज्य
पंडित जी,
प्रणाम!
आपके
कई पत्र मिले।
आपने उस पाजामे
की इतनी अधिक
चर्चा की है
अब खाँसने
की जरुरत महसूस
हुई है। आपको
विधाता ने
केवल दातृत्व
शक्ति ही दी
है। जीवन भर
आपने अपने को
उन्मुक्त भाव
से दिया है।
आपको देख कर
मुझे रवीन्द्रनाथ
की "चंचला"
कविता याद
आती है -
जिस
क्षण पूर्ण हो
जाती उसी क्षण
कुछ नहीं रहता
तुम्हारा।
सभी हो
जाता निखिल
का।
स्वयं को इस
भाँति दे देना
उंड़ेल-उंड़ेल-मस्ती
का
कि अलबेला
नशा निर्द्वेन्द्व!
अब आपको
पत्रों की कुछ
बातों के संबंध
में मेरा निवेदन
इस प्रकार है
:
१. पूर्वियों
को हिंदी सीखना
नहीं है। वे
जो कुछ लिखते
हैं वही शुद्ध
हिंदी है। पश्चिम।
कानपुर के
पश्चिम के लोग
हिंदुस्तानी
लिखते हों,
उर्दू लिखते
हों, फारसी
लिखते हों
पर हिंदी नहीं
लिखते। हिंदी
तुलसी, कबीर,
हरिशचन्द्र और
प्रेमचंद की
भाषा का नाम
है। सब कानपुर
से पूरब के
रहने वाले
हैं। इसलिए आपकी
थ्योरी गड़बड़
है।
२. आपका
हिंदी एकेडेमी
वाला लेख
मिल गया है।
मुझे साप्ताहिक
हिंदुस्तान मिल
जाता है। मुझे
अलग से प्रति
भिजवाने
की जरुरत नहीं
है। मैं आपके
सभी लेखों
को उसमें नियमित
रुप से पढ़ लिया
करता हूँ।
३. डा.
धीरेंद्रजी को
लिख रहा
हूँ कि वे विष्णु
प्रभाकर जी
से पत्राचार
करें।
४. आपने
जिस मुस्तैदी
से एकेडेमी
का कार्य हाथ
में उठाया है
उसी से पूरी
आशा है कि
वह पृथक्
रुप लेगी। मैं
शीघ्र ही कुछ
द्रदृत्दःद्यs लिख कर भेज
रहा हूँ ताकि
आगे का कार्य
आरंभ हो।
५. विनोद
जी का अभी कुछ
भी नहीं हुआ।
शायद जनपद
का पहला अंक
कुछ आगे नहीं
बढ़ा।
शेष कुशल
है। आशा है
सानंद हैं।