काशी,
5.6.1953
श्रध्देय
पंडित जी,
प्रणाम!
दिल्ली
से लौटे एक
पखवारा हो
गया पर आपके
प्रश्नों का उत्तर
अभी तक नहीं
दे सका। कल
की डाक से हिंदी
परिषद् में
दिए हुए अपने भाषण
की एक प्रति रजिस्ट
बुकपोस्ट
से भेजी है।
मेरे विचार
उसमें आ गए हैं।
कृपया उसे
पढ़कर-पूरा
पढ़कर-आसका
यथेच्छ उपयोग
करें। हिंदुस्तान
वाले छापना
चाहें तो उन्हें
दे भी दें। शायद
आपके कुछ प्रश्नों
का समाधान
इससे हो जाएगा।
दिल्ली
के साहित्यिक
केंद्र बनने के
संबंध में
आपके प्रश्न पर
मैंने बहुत
विचार किया
है और जितना
ही सोचा
है उतना ही
लगता है कि
दिल्ली साहित्य
के वितरण
और प्रकाशन
का बड़ा केंद्र
तो हो सकती
है पर साहित्य
के उत्पादन के
लिए जो बात
आवश्यक है,
वह अभी वहाँ
नहीं है। अच्छे
साहित्य के
उत्पादन के लिये
आडम्बर पूर्ण
सरल जीवन,
त्याग की प्रवृत्ति
और उच्चकोटि
का साधनात्मक
जीवन आवश्यक
है। अभी दिल्ली
जिस रुप में
बढ़ रही है
वह दूसरे
प्रकार का है।
वह और सब
कार्यों के लिये
चाहे जितनी
भी उपयोगी
हो अच्छे साहित्य
के उत्पादन के
लिये उपयोगी
नहीं, मालूम
हो रहा है।
मुझे ऐसा लगा
कि वहाँ साहित्य
का साधक-यदि
वह औसत
¸ोणी का साधक
है-अपने को
छोटा और
उपेक्षित समझने
लगता है। बाहरी
तड़कभड़क दिल्ली
में अधिक सम्मानित
होने का गौरव
पाती है। मेरा
यह मतलब
कदापि नहीं
है कि दिल्ली
में साहित्य
साधक नहीं
हैं। मैं सिर्फ
यह कहना
चाहता हूँ
कि इस समय
दिल्ली जिस
रास्ते जा रही
है वह बाह्य
आडंबर और
चमक दमक की
पूजा का रास्ता
है, अन्तर में
वर्तमान मनुष्य
के हृदय में
सुप्त और नैवेद्य
दान से उपेक्षित
सामान्य मनुष्यता
का तेज वहाँ
धूमिल होता
जा रहा है।
दिल्ली ही
क्यों सभी
बड़े नगरों
का यही हाल
है। साहित्यिक
साधना के लिये
बहुत बड़ा
उद्देश्य सामने
होना चाहिए।
मैं समझता
हूँ देश के
कोने कोने
में दृढ़व्रती
लोग यदि
छोटे छोटे
आश्रमों की
स्थापना करें
तो साहित्स
महान भी
होगा और
प्रभावशाली
भी होगा।
इन दिनों नगरों
के वातावरण
में जो साहित्य
लिखा जा रहा
है उससे कोई
प्रेरणा नहीं
मिल पाती।
कम लेखक
पुस्तकीय विद्या
के अनपचे भावों
को उगलने की
बीमारी से
बच पाते हैं।
केवल जानकारियों
का बंडल तौयार
होता जा रहा
है, प्राणवस्तु
क्रमशः हीन
शिथिल चेष्टा
होती जा रही
है।
पर
दिल्ली साहित्य
के उत्पादन का
तो नहीं पर
वितरण और
प्रसारण का
अच्छा केन्द्र बन
सकता है। मेरा
सुझाव है
कि दिल्ली का
हिन्दी भवन
प्रधान रुप से
इसी उद्देश्य से
चलाया जाय।
वितरण सिर्फ
व्यावसायिक
अर्थ में नहीं
ले रहा हूँ।
देश के कोने
कोने में जो
नया और पुराना
प्राणप्रद साहित्य
बन रहा है
और बन चुका
है और विदेशों
में जो भी
बना है और
बन चुका है
उनसे सार संकलन
करके दिल्ली
से हम वितरित
कर सकते हैं।
दिल्ली को
रेडियो स्टेशन
की भाँति ब्रॉडकास्ट
करने का केन्द्र
बनाइये। साहित्य
निर्माण का
कार्य तो शान्तिनिकेतन
और काशी
विद्यापीठ जैसी
जगहों में
ही संभव
है। या फिर
हो सकता
है कि चिरगाँव
मे, सेवाग्राम
में या स्वाधीन
मनस्वी लेखतों
की झोपड़ियों
में। आशा है
सानंद होंगे।
मैं प्रसन्न हूँ।
आपका
हजारी प्रसाद
पुनश्चः
चिट्ठी लिख
लेने के बाद
सोचता हूँ
कि कुछ गड़बड़
तो नहीं लिख
गया। दिल्ली
में इतने बड़े-बड़े
साहित्यिक
हैं कि यह
कहना अनुचित
ही लगता है
कि वहाँ साहित्य-निर्माण
नहीं हो सकता।
पर मैं आप या
दिनकर जी या
पं. बालकृष्ण
शर्मा जी जैसे
चिर युवा
महाप्राण तथा
दद्दा जैसे चिरगाँव
मनीषियों
को औसत से
ऊपर का मानता
हूँ। और सही
बात तो यह
है कि देखना
है कि आप लोग
भी कब तक
डटते हैं।
इस पत्र में शायद
ऐसी कुछ बात
तो नहीं है
जो किसी को
बहुत बुरा
लगे पर थोड़ा
भी बुरा लगे
तो मैं इसमें
हिंसा का ही
आभास पाऊँगा।
वस्तुतः इसमें
जोर जोर
से बोलता
हुआ सोच रहा
हूँ। इसे इसी
रुप में ग्रहण
करें।