हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 124


IV/ A-2121

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणासी
26.1.60

आदरणीय पंडित जी,
प्रणाम!

बाबू श्याम सुंदरदास जी की आत्मकथा वाला लेख पढ़ गया हूँ। बहुत अच्छा लगा। आपने सचमुच उसे सहानुभूति के साथ पढ़ा है। उसमें पारस्परिक विवाद की जो बातें हैं वे कहीं कहीं मुझे भी कुछ अनुचित-सी लगती हैं। पर बाबूजी बड़े खरे और कठोर प्रकृति के थे। उन्हें जो अनुभव हुआ उसमें उन्होंने यह सोचने की ज़रुरत नहीं समझी कि इसका दूसरा पक्ष भी हो सकता है। आपने तो अपने विचार स्पष्ट और मृदु भाषा में व्यक्त किया है। मालवीय जी का जो प्रसंग है उस संबंध में मुझे लिखना होता तो इतना और जोड़ देता कि उनकी उत्कट हिंदी भक्ति और हिंदी को जल्दी से जल्दी उच्चतर आसन पर बैठाने की विकलता ने ही उन्हें ऐसा लिखने को बाध्य किया। मालवीय जी से बहुत अधिक आशा रखते थे और मालवीय जी अन्य सैकड़ों बंधनो से बंधे थे। इस आशा और नैराश्य के संघर्ष से ही वह मानसिक झुझलाहट पैदा हुई जिन्होंने बाबू साहब को ऐसा लिखने को विवश कर दिया। यद्यपि इस प्रकार का लिखना ठीक नहीं नहीं हुआ पर बाबू साहब की हिंदी-भक्ति और तज्जन्य व्यग्रता को तो, वह स्पष्ट कर ही देता है इत्यादि।

परन्तु यह मेरी व्याख्या है। आपने लेख को बहुत सन्तुलित करके लिखा है। प्रसन्नता है।

आपका
हजारी प्रसाद द्विवेदी

 

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली