श्रध्देय
पंडित जी,
प्रणाम!
पूरे
एक मास से नित्य
पत्र लिखने की
सोच रहा
हूँ पर आँखो
के कष्ट के कारण
लिख नहीं पा
रहा हूँ। अब
कुछ ठीक हुई
हैं पर अभी
भी लिखने
पढ़ने में कष्ट
हो रहा है।
काम भी इधर
बढ़ गया है
और सही अर्थों
में "आँख मूँद
के" किए जा रहा
हूँ। आपसे
यही निवेदन
करना है कि
मुझे अपने यहाँ
बुला लीजिए।
यहाँ दम घोंटू
वातावरण
से तंग आ गया
हूँ। प्रतिदिन
यही विचार
ज़ोर पकड़ रहा
है कि ""अब
लौं नसानी
अब ना नसैहौं।""
इस बीच एक घर
बना लिया
है। विश्वविद्यालय
कैम्पस से हटकर
चला आया हूँ।
मन बिलकुल
नहीं लग रहा
है। आगे-पीछे,
नीचे-ऊपर सर्वत्र
एक ऐसा जाल
बिछा है कि
बुद्धि व्याकुल
हो जा रही
है। अब तक जिन
बातों को
अच्छा समझता
था उन आस्था बनाए
रखने में कठीन
परीक्षा का सामना
करना पड़ रहा
है। कबीर
दास ने जो
कहा था-
दौ की
जाली में जलूँ,
प्यासी जलहरि
जाउँ
हौं देख्या
जलहरि जलै,
सन्तो कहाँ
समाउँ।
सो
प्रत्यक्ष हो गया
है। प्यास का
मारा जलाशय
को गया तो
देखा जलाशय
ही जल रहा
है।
बस
यही लिखना
था, दूसरे
से यह बात
लिखना संभव
नहीं था। इसलिये
देर हो गई।
उत्तर की प्रतीक्षा
कर्रूँगा-साहस
और शक्ति पाने
के लिये। आशा
है, स्वस्थ और
प्रसन्न हैं। आँखें
ज़रा और ठीक
हो जायें तो
दिल्ली भी
दूर नहीं है।
आपका
हजारी प्रसाद
द्विवेदी