झारखण्ड |
संताल जनजाति : जीवन और संस्कृति पूनम मिश्र |
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अभिवादन के अनेक स्तर : संतालों के सांस्कृतिक जीवन के अनूठे स्वरुप |
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समधी और समधन के बीच अभिवादन | |||
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संताल झारखण्ड प्रदेश की प्रमुख जनजाति है जो अपनी जीविका मुख्यता कृषि से प्राप्त करते हैं। झारखण्ड मे आबादी के दृष्टिकोण से संतालों की संख्या सर्वाधिक है। सन् १९९१ की जनगणना के अनुसार संतालों की जनसंख्या लगभग २१ लाख है। झारखण्ड प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री श्री बाबूलाल मरांडी भी संताल ही है। यों तो संताल झारखण्ड के विभिन्न भौगोलिक हिस्सों में निवास करते हैं, परन्तु इनका मुख्य निवास स्थान संताल परगना प्रमण्डल में है। संभवत: संतालों के कारण ही इस प्रमण्डल का नाम सन्ताल परगना पड़ा। संताल परगना के अतिरिक्त ये संताल आदिवासी राँची, हजारीबाग, सिंहभूम, पलामू तथा धनबाद में भी पाये जाते हैं। इसके अलावा पड़ोसी राज्य बिहार, बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ तथा असम में भी संताल निवास करते हैं। सदरलैण्ड महोदय के विचार से संताल संत देश (Sant Country) से यहां अर्थात् संताल परगना आए थे। इसी लिए लोगों ने इन्हें सन्तान या सन्त देश के निवासी कहना प्रारंभ कर दिया। स्वभाव से संताल को जंगलों खासकर सखुए के वृक्ष से अथाह लगाव है, इसीलिए इसके गाँव जंगलों के ही अगल-बगल बसे मिलते हैं। बी.एस.गुहा महोदय मानते हैं कि संताल प्रोटो आॅस्ट्रोलायड संतति से सम्बन्ध रखते हैं और हब्शी लोगों के आने के थोड़े ही दिनों के बाद संताल भारत में आए। संतालों की अपनी भाषा है, जिसका नाम संताली है और आजकल इन्होंने गुरु गोमके रघुनाथ मुरमू के अथक प्रयास की बदौलत अपनी लिपि "ओल चीकि' का भी विकास कर लिया है। भाषा शास्रियों का मानना है कि संताली भाषा के सम्बन्ध आस्ट्रो-एशियाई भाषा से है परन्तु इनकी बोली झारखण्ड की दूसरी जनजातियों से मिलती-जुलती है। संतालों की अपनी भाषा, अपनी लिपी, अपने संस्कार, संसार के निर्माण की अपनी कहानी, गाथा आदि है। इनके समस्त जीवन के क्रिया-कलापों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है: |
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सृष्टि का निर्माण |
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संतालों की मान्यता है कि संसार के तत्व - जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश - एक-एक कर अस्तित्व में आए। सर्वप्रथम पानी, पृथ्वी और आकाश का उद्भव हुआ। उसके बहुत दिनों बाद वायु और अग्नि का विन्यास हुआ। सर्वप्रथम ऊपर आकाश और नीचे पानी ही पानी था। जीव का नामो-निशान नहीं था। उस समय संतालों के प्रथम देवता ठाकुरजीयो और प्रथम देवी ठाकुर बुढ़ी ने मिट्टी के गोलक से दो पंक्षियों का बनाया और उसमें प्राण फूंके। इन पंक्षियों में एक नर और एक मादा जिसका नाम हांस तथा हासिन था। उनके बीच यौन सम्बन्ध स्थापित हुआ जिससे हासिन ने दो अण्डे दिये। इन अण्डों से प्रथम पुरुष और प्रथम महिला का आर्विभाव हुआ। उनका नाम पड़ा - पिलछू हड़ाम तथा पिलछू बुढ़ी। ये दोंने स्री-पुरुष - पिलछू हड़ाम तथा पिलछू बुढ़ी - इस धरती पर चिन्तामुक्त प्रसन्न जीवन व्यतीत करने लगे। कहीं दु:ख, क्लेश का नाम नहीं था। सर्वत्र शांति और आनन्द का माहौल था। तब तक इनके जीवन में लिटा (ईश्वर का दूत) का प्रवेश नहीं हुआ था। एक दिन लिटा इन दोंनो के समक्ष उपस्थित हुआ तथा पिलछू बुढ़ी को चावल का मदिरा (हांड़ी) तैयार करने के लिए कह। लिटा ने हांड़ी बनाने की समस्त पद्धति भी सविस्तार समझा दिया। जब हांड़ी तैयार की गयी तो लिटा ने इन्हें आदेश दिया : ""ईश्वर के भोग हेतु कुछ हांड़ी के बून्द धरती में गिरा दो और शेष हांड़ी आपस में बांटकर पीलो।'' दोंनो ने भगवान लिटा के आज्ञा का पालन किया। मदिरा पीते ही दोंने नशे में धूत हो गए। नशे में आपस में हंसी-मजाक करने लगे। ऐसी मान्यता है कि नशे की हालत में ही पिलघू हड़ाम ने पिलघू बुढ़ी के साथ सर्वप्रथम दिन सहवास स्थापित किया। पिलछू बुढ़ी ने भी मना नहीं किया। वे दोंनो मदिरा सेवन करते गए और सहवास करते गए। परिणाम में उन्हें सात पुत्र और सात पुत्रियों के माता-पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अब पिलछू हड़ाम अपने सातों पुत्रों को लेकर भूसनीवीर चले गए तथा पिलछू बुढ़ी वीर पुत्रियों सहित सूड़कूच चली गयी। अनेक वर्षों तक दोंनो समूहों का परस्पर सम्पर्क नहीं रहा। समय बीतने पर दोंनो समूहों का धीरे-धीरे मिलन हुआ तथा बाद में शादी हो गयी। इस प्रकार संसार के प्रथम माता-पिता ने अपनी ही संतानों का आपस में विवाह करा कर वसुन्धरा की गोद मानव संतानों से भर दी। उन्होंने अपने सातों पुत्र-पुत्रियों को यह रहस्य नहीं उद्घाटित किया कि वे आपस में भाई बहन हैं। चूंकि पिलछू हड़ाम तथा पिलछू बुढ़ी अपने शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करने के समय मदिरा तैयार की तथा ईश्वर को अर्पित की थी, इसलिये आज भी संतालों में यह प्रथा प्रचलित है। अब सात पुत्र एवं सात पुत्रियों ने अनाज आदि उपजाना भी सीख लिया और उनका व्यवहार भी करने लगे। जनसंख्या अब तेजी से बढ़ने लगी। इसी प्रकार संताल लोग उत्पन्न हुए। संतालों का यह भी विश्वास है कि पिलछू हड़ाम तथा पिलछू बुढ़ी द्वारा अपने सात पुत्रों तथा सात पुत्रियों का दाम्पपत्य सूत्र में बान्धने के पश्चात ही सात संताल पारिस (गोत्र) का आविष्कार हो गया जिससे कि अगली पीढियों का विवाह एक ही गोत्र में न हो सके। संताल समुदाय के अनुसार वे सात पारिसगोत्र हैं : |
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१. |
किस्कू |
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२. |
मुरमु |
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३. |
मरान्डी |
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४. |
टुडू |
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५. |
हेम्ब्रम |
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६. |
सोरेन तथा |
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७. |
हँसदा।
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बाद में इनमें पांच पारिस गोत्र और जुड़ गए। ये पांच गोत्र हैं : |
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१. |
बास्के |
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२. |
चौड़े |
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३. |
पॉवरिया |
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४. |
बेसरा तथा |
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५. |
बेदिया।
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चौड़े तथा पॉवरिया गोत्र के संताल बहुत कम ही पाये जाते हैं, जबकि बेदिया संताल लुप्तप्राय हो गए हैं। कहा ऐसा भी जाता है कि एकबार ठाकुर जीओ धरती पर आकर स्नान कर रहे थे कि एक पेन्सिल उनके कान से गिर पड़ी और उसी से बाद में करमा का पेड़ उपजा। इसी करमा पेड़ के शाखाओं पर सभी पक्षी बैठा करते थे। उनके अण्डों से दो मनुष्य उत्पन्न हुए। ठाकुरजीओ ने समस्त धरा को प्रकाशित करने के लिए चांद और सूर्य का निर्माण किया। उन मनुष्यों ने झोपड़ी बनाई और उसमें आराम से रहने लगे। धीरे-धीरे उन लोगों ने पृथ्वी से अन्न उपजाना सीख लिया और उनका व्यवहार भी उचित रुप से करने लगे। संताल जनजाति के लोग मुख्यतया गाँवों में निवास करते हैं। एक गाँव में कुछ टोले होते हैं, जिनका सरदार एक मुखिया होता है। संतालों के घर साफ-सुथरा, छोटे, आकर्षक और बहुत ही कम खर्च से तैयार होनेवाले होते हैं। इन घरों के दरवाजे गाँव की गली के सामने होते हैं। गलियाँ इतनी चौड़ी होती है कि उनमें एक साथ दो बैलगाड़ियाँ जा सकती हैं। प्रत्येक मकान में एक बड़ा कमरा और उसके साथ ही एक छोटी कोठरी होती है, जिसमें ये लोग अपनी बहुमूल्य वस्तुओं को रखते हैं। मकान के दूसरे भाग में जानवरों का घर होता है और उसके बगल में सुअर आदि रखने की व्यवस्था होती है। ये लोग मकान में खिड़कियाँ नहीं बनाते। साधारणतया संतालों के घर मिट्टी के होते हैं। प्रत्येक घर के चारों ओर एक चौड़ा प्लेटफार्म होता है। छत को साल (सखुआ) की लकड़ियों और बाँस से पाटा जाता है। संताल जनजाति के लोग मुख्यतया कृष्क होते हैं। औसतन संताल बिलकुल साधारण भोजन खाकर अपना जीवन जीते हैं। इनका मुख्य भोजन चावल, दाल, और पशु एवं पक्षियों का मांस है। मांस के लिए ये भेड़, बकरी, सुअर, मुर्गी आदि का व्यवहार करते हैं। ये लोग दिनभर में तीन बार भोजन ग्रहण करते हैं। इनमें पशु पालन की प्रथा प्राचीन है। संताल धरती माता के परिश्रमी संतान हैं। काम के वक्तत न तो इन्हें जाड़े का ख्याल रहता है और न गरमी से घबराते हैं। ये लोग धान, मकई, ज्वार, दलहन आदि की खेती करते हैं। घरों के आसपास सब्जी (तरकारियाँ) आदि भी अपने प्रयोग के लिए ये लगाते हैं। इनके खेत एक तो क्षेत्र में बहुत छोटे होते हैं और साथ ही इधर-उधर बिखरे हुए होते हैं। इसका फल यह है कि इनकी खेती न तो उन्नत हो सकती है और न ही ये इतना उपजा सकते हैं कि सुख चैन से जीवन व्यतीत कर सकें। आज के इस महा वैज्ञानिक युग में भी वसुन्धरा के ये पुत्र हल और बैल से पारम्परिक कृषि करते हैं। न तो इनके यहाँ खाद्य का कोई अच्छा प्रबन्ध है और न ही सिंचाई के अच्छे साधन हैं। इन्हें मजबूर होकर महाजनों से उधार लेना पड़ता है और सूदी रुपये बहुत शीघ्र अपने मूल से भी अधिक हो जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि इनकी भूमी धीरे-धीरे उन महाजनों (सूदखोंरो) के पास पहुंच जाती है। इस प्रकार दिन बीतने के साथ ही साथ इनकी आर्थिक अवस्था बिगड़ती ही जा रही है। आज बहुत से ऐसे संताल भी है जिनके पास भूमि नहीं रही और वे विवश होकर अब दूसरों के खेत में जाकर मजदूरी करते हैं। |
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जन्म संस्कार |
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संताल परिवार में अगर कोई गर्भवती महिला प्रसव-वेदना से छटपटाने लगती है तो गाँव की आया जिसे ये अपनी भाथा में दो-दुल बुढ़ी कहते हैं, को सर्वप्रथम बुलाते हैं। दो-दुल बुढ़ी उस परिवार में बच्चा या बच्ची के नामकरण संस्कार तक कार्य करती है। नामकरण संस्कार को संतालों की भाषा में निभदाक मण्डी कहा जाता है। परिवार में नवजात शिशु के जन्म होते ही बच्चे का पिता या अभिभावक घर का छप्पर लाढ़ी से पीटना प्रारंभ कर देता है। इसके सम्बन्ध में इनका विश्वास है कि ऐसा करने से नवजात शिशु बड़ा होकर निडर, साहसी, तीक्ष्ण और बहादुर हौगा। पारितोषिक के रुप में ग्रामीण आया को पुरुष बच्चे के जन्म पर ३२ किलो (पैला) धान और बालिका के जन्म पर १६ किलो धान दिया जाता है। बालक के जन्म के तीसरे, पाँचवें या नवें दिन उसका निभदाक-मण्डी होता है। बालक के पिता अपने गाँव के सभी पुरुषों को मुन्डन (हयोक) के लिए अपने यहाँ आमन्त्रित करता है। अगर किसी गाँव में कोई हजाम उपलब्ध नहीं है तो आमन्त्रित पुरुष सदस्यों में से ही एक सदस्य को हजाम का कार्य सम्पादन करना पड़ता है। हजाम के रुप में यह व्यक्ति सर्वप्रथम गाँव के प्रधान (माँझी) की दाढ़ी बनाता है। ततपश्चात नायके, जोगमाँझी, प्रानिक तथा अन्य सदस्यों की दाढ़ी बनाता है। सबसे अन्त में नवजात शिशु का केस मुन्डन करता है। इस समय में सभी आमन्त्रित सदस्यों को पत्ते के दोनों में सरसों का तेल दिया जाता है, स्नान करने के उपरान्त वे लोग इस तेल को अपने शरीर पर लगाते हैं। इधर ग्रामीण आया संताल महिलाओं को निमंत्रण देती है। प्रसूतिगृह को साफ-सुधरा रखा जाता है। गोबर से लीप-पोतकर बालक के माँ की सफाई करती है तथा बालक को गर्म जल स नहलाती है। उसके बाद ग्रामीण आया निमन्त्रित महिलाओं के साथ नहाने के लिए नदी, तालाब, झरना आदि की ओर प्रस्थान करती है। अपने साथ पत्ते के दोनों मे सरसों तेल, सिन्दूर, बईन के पेन्दे का कालिख भी ले जाती है। स्नान के पश्चात ग्रामीण आया घाट के पत्थर पर तीन या पांच बार सिन्दूर और कालिख का दाग लगाती है, पश्चात वे सब घर की ओर प्रस्थान करती है। घर आने पर नवजात बालक के परिवार वाले गाँव के सभी लोगों को निमदाक-मण्डी पीने के लिए पेश करते हैं। निमदाक-मण्डी चावल, आटा या मकई का नीम पत्ती के साथ तैयार करते हैं। पश्चात् ग्रामीण आया बारी-बारी से उपस्थित सभी व्यक्तियों को प्रणाम (डोबोक जोहार) प्रेषित करती है। साथ ही नवजात बालक का नाम भी बताते जाती है। नामकरण बालक के पिता या प्रधान द्वारा ही निश्चित करके ग्रामीण आया को सूचित कर दिया जाता है। इसी बीच बालक के परिवार की कोई महिला (छिपके-छिपके) उपस्थित बुजुर्ग महिलाओं को गुप्त रुप से चुकु पीठा (चावल की रोटी) दे जाती है। कभी-कभी इस आनन्द उत्सव में उपस्थित बुजुर्ग महिलाओं को उबला चावल भी परोसा जाता है। अधिकतर संताल के दो नाम होते हैं : एस घर का होता है और वह जन्म लेने वाले लड़की या लड़के के दादी या दादा का ही होता है। दूसरा नाम नामकरण संस्कार के समय रखा जाता है। एक से अधिक पुत्र या पुत्री होने पर पुत्रों के नाम उनके दादा, चाचा, नाना, मामा, फूफा के नामों पर होता है जबकि पुत्रियों का नाम उनके दादी, माँ, चाची, नानी, मामी, फूफी के नामों पर होता है। संताल समुदाय में चाचो छठीयार भी एक अनिवार्य प्रथा है। इसके सम्पन्न होने के उपरान्त ही कोई व्यक्ति संताल जनजाति में अपना स्थान पा सकता है एवं अधिकारों का, उत्सवों का आनन्द ले सकता है। इस संस्कार के लिए कोई विशेष आयु सीमा निर्धारित नहीं है, लेकिन इसके बिना किसी भी व्यक्ति का विवाह संस्कार नहीं हो सकता है। अगल कोई व्यक्ति चाचो छठीयार संस्कार के बिना ही मर जाता है तो उसे अनिवार्य रुप से दफना दिया जाता है, जलाया नहीं जाता है। चाचो छठीयार का आयोजन सामुदायिक स्तर पर गाँव के मांझी पराणिक, जोग-मांझी, नायके, गोड़इत तता गाँव से सभी सदस्यों की उपस्थिति में होता है। मेजवान द्वार हाण्डी का सेवन सभी आमन्त्रित मेहमानों को कराया जाता है। हाण्डी पिलाने के साथ-साथ रिवाज से जुड़े अनेक लोकगीतों को भी गाया जाता है। |
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अभिवादन के अनेक स्तर : संतालों के सांस्कृतिक जीवन के अनूठे स्वरुप |
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संताल संसाकारों से जुड़े मानव समुदाय है। इनके अभिवादन करने के अनेक स्तर हैं। दो संतालों के बीच अभिवादन के तौर-तरीके को देखकर ही व्यक्ति आसानी से समझ जाता है कि इनके बीच किस प्रकार की नातेदारी है। यहाँ इनके बीच प्रयुक्त कुछ विशेष अभिवादन के तौर-तरीकों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है: |
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पति-पत्नी के बीच अभिवादन |
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संताल पत्नी अपने पति के सामने कमर के बल झुककर, दोंनो हाथो की हथेलियां मिलाकर, अंगुलियों से अपने ही (पृथ्वी) छूती है। इस समय दोंनो हथेलियों की स्थिति धरती की तरफ होती है। पति भी अपने दाहिने हाथ को सामने की तरफ उठाकर पत्नी के सिर तक ले जाता है, इस अवस्था में दाहिने हाथ की हथेली जमीन की तरफ होती है तता बायें हाथ की हथेली दाहिने हाथ की कुहनी छूती रहती है। |
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पिता-पुत्र के बीच अभिवादन |
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पिता के सामने पुत्र कमर के बल झुककर, दाहिने हाथ की हथेली को मुट्ठी की शक्ल में बन्दकर अपनी ही ललाट को स्पर्श करता है, इस समय बायीं हाथ की हथेली दाहिने हाथ के कुहनी को स्पर्श करती रहती है। पिता दाहिने हाथ को सामने बढ़ाकर हथेली से पुत्र के सिर तक ले जाकर आर्शीवाद देता है, इस समय बायें हाथ की हथेली दाहिने हाथ के कुहनी को स्पर्श करती रहती है। |
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पिता और पुत्री के बीच अभिवादन |
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पिता और पुत्री के बीच अभिवादन के तौर-तरीके पति और पत्नी के बीच अभिवादन के समान जिसका वर्णन ऊपर किया गया है। |
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माँ और बेटे के बीच अभिवादन |
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माँ के सामने बेटा कमर के बल झुककर दाहिने हाथ की हथेली को मुट्ठी की शक्ल में बन्दकर अपने ही ललाट को स्पर्श करता है, इस समय बांये हाथ की हथेली दाहिने हाथ के कुहनी को स्पर्श करती रहती है। माँ अपने दोनों हाथों की हथेलियों को मिलाकर, हथिलियों की स्थिति माँ के मुँह की तरफ होता है, थोड़ा आगे की ओर ले जाती है, फिर अपने ही ललाट को एक बार स्पर्श करती है। |
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माता और पुत्री के बीच अभिवादन |
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माता के सामने संताल पुत्री कमर के बल झुककर दोंनो हाथों की हथेली परस्पर मिलाकर हथेलियों से ही अपने पैरों को स्पर्श करती हैं। माँ अपने दोंनो हाथों की हथेलियों को मिलाकर (हथेलियों की स्थिति माँ के मुँह की तरफ ही होता है) थोड़ा आगे की ओर ले जाती है फिर अपने ही ललाट को एक बार स्पर्श करती है। |
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भाइयों के बीच अभिवादन |
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बड़े भाई के समक्ष छोटा भाई कमर के बल झुककर, दाहिने हाथ की हथेली को मुट्ठी की शक्ल में बन्द कर अपने ही ललाट को स्पर्श करता है, इस समय बायें हाथ की हथेली दाहिने हाथ की कुहनी को स्पर्श करते रहती है। |
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बड़े भाई और छोटी बहन के मध्य अभिवादन |
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इनमें बड़े भाई और छोटी बहन के बीच अभिवादन के तौर तरीके पिता और पुत्री के बीच अभिवादन के तौर-तरीके के समान ही होता है। |
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बड़ी बहन और छोटा भाई के बीच अभिवादन |
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इनके बीच अभिवादन के तौर-तरीके माँ और पुत्र के समान ही होता है। |
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पुत्रवधु और स्वसुर के बीच अभिवादन |
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पुत्रवधु और स्वसुर के बीच अभिवादन के तौर-तरीके पिता और पुत्री के समान ही होता है। |
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पुत्रवधु और सास के बीच अभिवादन |
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पुत्रवधु और सास के बीच अभिवादन माँ और पुत्री के समान ही होता है। |
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छोटे भाई की पत्नी एवं भैसुर (जेठ) के बीच अभिवादन |
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संतालों में इनके बीच अभिवादन पिता और पुत्री के समान ही होता है। स्मपणीय तथ्य यह है कि संताल जनजाति में छोटे भाई की पत्नी और जेठ के बीच शारीरिक दूरी रखी जाती है। छोटे भाई की पत्नी अपने जेठ के सामने बाल फैलाकर नहीं छोड़ती, खटिया पर नहीं बैठती है, आदि। |
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देवर और भाभी के बीच अभिवादन |
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देवर और भाभी के बीच अभिवादन माँ और पुत्र के समान ही होता है। |
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छोटे भाई की पत्नी और ननद के बीच अभिवादन |
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इन दोनों के बीच अभिवादन माँ और बेटी के समान ही होता है। |
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भाभी और छोटी ननद के बीच अभिवादन |
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भाभी और छोटी ननद के बीच अभिवादन माँ और बेटी के समान ही होता है। |
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दो मित्रों के बीच अभिवादन |
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जब दो संताल (या गैर संताल) मित्र आपस में मिलते हैं तो हाथ हिलाकर एक दूसरे का अभिवादन करते हैं। |
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सहेलियों के बीच अभिवादन |
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जब दो सहेलियाँ मिलती है तो दोंने अपना-अपना दाहिने हाथ हेन्डसेक करने की स्थिति में आगे बढ़ाती है लेकिन मिलाती नहीं है बल्कि दोंनो सहेलियों की हथेलियाँ आसमान की तरफ होती है, पश्चात हथेलियों की अंगुलियों को अपनी-अपनी तरफ एक बार मोड़ती है। पश्चात अपने-अपने ललाट को दाहिने हाथ से ही स्पर्श करती है। अभिवादन (या नमस्कार) दोनों हाथों को फैलाकर भी किया जाता है। |
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समधी और समधन के बीच अभिवादन |
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समधन दाहिनी तरफ झुककर अपने दोनों हाथों को अपने ललाट पर ठीक आँखों के ऊपर रखकर समधी को देखती है। जबकि समधी भी दाहिनी तरफ झुककर अपना दाहिना हाथ अपने ललाट पर ठीक आँखों के ऊपर रखकर समधन को देखता (झाँकता) है, इस समय दायें हाथ की हथेली दाहिने हाथ की कुहनी का स्पर्श करते रहती है। |
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इनके बीच अभिवादन का तरीका सहेलियों के समान ही होता है, सिर्फ अन्तर यह होता है कि दोनों समधन अपने-अपने दोंनो हाथों की अंगुलियों को तीन बार मोड़कर सीधा करती है, पश्चात मोड़कर अपने-अपने ललाट को अपने दोनों हाथों से स्पर्श करती है। |
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दो समधी के बीच अभिवादन |
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दो समधी जब मिलते हैं तो आपस में हाथ मिलाकर और हिलाकर अंग्रेजों के समान अभिवादन का आदान-प्रदान करते हैं। फर्क केवल इतना होता है कि हेण्डसेक की स्थिति में अपने हाथ को कन्धों की ऊँचाई तक उठाते हैं, फिर नीचे लाते है। तत्पश्चात अपना-अपना हाथ अलग कर लेते हैं और नमस्ते की शक्ल में अभिवादन करते हैं। कहीं-कहीं उपरोक्त समस्त क्रियाएं दोनों हाथों को मिलाकर भी की जाती है।
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