झारखण्ड |
संताल
सांस्कृतिक चेतना के महानायक पूनम मिश्र |
संताल जनजाति की अपूर्व एवं विलक्षण सांस्कृतिक व्यवस्था, सादगी भरा जीवन, प्रकृति के साथ उनका प्रेम और घर की सफाई अनायास लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। इनकी सांस्कृतिक गौरव एवं धरोहर नीले नभ के समान विशाल, महासागर के समान गम्भीर, पहाड़ी नदियों के समान स्वच्छन्द, चंचल एवं इन्द्रधनुष के समान रंगीन है। इनकी संस्कृति पर राजनीति और धर्म परिवर्तन सम्बन्धित हमले लगातार होते रहते हैं। इनकी भाषा, संस्कृति, आचार-विचार, सोचने के ढ़ंग आदि पर प्रहार किये जा रहे हैं। आधुनिक शिक्षा के नाम पर अनेक व्यक्ति एवं संस्था इन्हें गुमराह करने में लगे हुए हैं। अन्ध विश्वास, विद्वेष, वैमनस्य, नशे की लत, विकास के नाम पर अपनी मूल आदिवासी संस्कृति से संताल युवक एवं युवतियों का दुराव अत्यन्त विनाशकारी प्रतीत होता है। संतालों के अनेक राजनैतिक, धार्मिक गुरु हुए। धर्म प्रदर्शक, स्वतन्त्रता सैनानियों की कमी नहीं, परन्तु यह जनजाति हमेसा से एक ऐसे महापुरुष किंवा महिला का इन्तजार करता रहा जो इन्हें सांस्कृतिक धरोहर के प्रति जागरुक बना सके, अपनी संस्कृति, संस्कार, भाषा आदि से घनिष्ठ सम्बन्ध बना सके। ऐसी परिस्थिति में संताल लोगों में वसुन्धरा के महान पुत्र रघुनाथ मुरमू का जन्म हुआ। पण्डित मूरमू ने अपनी रचिताधर्मिता, संस्कृति के प्रति लगाव, लोगों का अपने विरासत एवं अच्छी परम्परा के प्रति पुरर्झुकाव आदि प्रयासों ने संताल जनजाति में नवजीवन का संचार प्रारंभ कर दिया। देखते-ही-देखते झारखण्ड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल एवं बिहार आदि के समस्त संतालों के बीच वे संस्कृति के पुरोधा पुरुष बन गए। इस लेख में पण्डित रघुनाथ मुरमू के जीवन, दर्शन एवं कृतत्व आदि वर विस्तृत प्रकाश डालने का एक मानवशास्रीय प्रयास किया गया है। उनका जन्म एक गरीब संताल परिवार में ५ मई १९०५ ई. को उड़ीसा के मयुरभंज जिलान्तर्गत रायरंगपुर उप-जनपद के डंडपोस नामक ग्राम में हुआ। इनके पिता का नाम नन्दलाल मुरमू था। नन्दलाल मुरमू स्वयं तो पढ़े-लिखे नहीं थे परन्तु शिक्षा के प्रति उनका अनुराग प्रशंसनीय था। पिता नन्दलाल ने अपने पुत्र रघुनाम के मैट्रिक तक की शिक्षा रायरंगपुर के सरकारी विद्यालय से दिलवाया। मैट्रिक की परीक्षा सफलतापूर्वक करने का बाद रघुनाम मुरमू ने मयुरभंज जिला के मुख्यालय बारिपदा में विद्युत विभाग में अप्रेंटिस की नौकरी शुरु कर दी। बाद में इस नौकरी को तिलांजलि दे-देकर उन्होंने दरी बनाने का धंधा शुरु किया। वे बचपन से ही प्रयोगवादी एवं सर्जना के पुजारी थे। यहां भी धागों को नये ढ़ंग से प्रयोग कर बेहतरीन एवं कलात्मक दरियाँ बनाकर पण्डित मुरमू ने मयुरभंज के तात्कालिन दीवान डॉ. पी.के. सेन का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। इनके कलात्मक प्रवृति से प्रभावित होकर उदार हृदय के सम्राट डॉ. सेन ने इन्हें औद्योगिक शिक्षा के लिए कोलकता भेजा। मुरमू ने इस प्रशिक्षण को सफलतापूर्वक सम्पन्न किया। कोलकता से प्रशिक्षण समाप्ति के बाद वे "पूर्णचन्द औद्योगिक संस्थान' में बारिपदा में ही शिक्षक हो गये। इसी बीच पण्डित रघुनाथ मुरमू के सिर से पिता का हाथ सदा-सदा के लिए समाप्त हो गया। वे पिता के देहान्त के बाद ज्यादा से ज्यादा समय अपने गाँव में देना चाहते थे, अपितु उन्होंने अपना तबादला रायरंगपुर में करवा लिया। वे बादामतलिया मोडल विद्यालय के प्रधानाचार्य के पद को सुशोभित करने लगे। यहीं उनके मन में एक विचार आया कि क्यों न संतालियों के लिये एक विशिष्ट लिपि का निर्माण किया जाये। अपने अथक प्रयास एवं मित्र मण्डली की सहायता से उन्होंने एक लिपि की रचना की। एक हाथ का प्रेस बनाकर अक्षरों को उसमें सेट किया। उड़ीसा के जिला शिक्षा अधिकारी ने जब विद्यालय के निरीक्षण में वह लिपि तथा हाथ प्रेस एवं रघुनाथ मुरमू के असीम उत्साह को देखा तो उन्हें बेहद खुशी हुई। १९३९ के उड़ीसा राज्य के वार्षिक प्रदर्शनी में वे उनका प्रदर्शन करवाना चाहते थे। बाद में इस लिपि को देखने का सौभाग्य मयुरभंज के राजा पी.सी. भंजदेव को प्राप्त हुआ। वे इस लिपि की कलात्मकता एवं भाषाशास्रीय वैज्ञानिकता से इनते प्रभावित हुए कि राज्य भर में इसके विकास के कार्यक्रम जारी किये। रघुनाथ मुरमू थे स्वतन्त्र विचार के एवं कलात्मक प्रवृति के मस्त मानव, वे अपने मन के अनुसार कार्य करना चाहते थे। इनका विद्यालय के अध्ययन में मन नहीं लगता था। हालांकि तीन साल बाद उनकी प्रोन्नति हुई और रायरंगपुर उच्च विद्यालय में इनका स्थानान्तरण हो गया। कुछ निजी कारणों से पण्डित मुरमू ने सन् १९४६ ई. में स्तीफा दे दिया। १९४१ में जब गुरु गोमके रघुनाथ मुरमू ने आॅलचिकि (संतालों की एक विशेष लिपि) को जन्म दिया और उसी लिपि में अपनी कृतियों विशेषतौर में अपने नाटकों की रचना की और तब से आज तक वे एक बड़े धार्मिक नेता और संताली के सांस्कृतिक एकता के प्रतीक रहे हैं। मुरमू ने २१ फरवरी १९७७ में पश्चिम बंगाल के झाड़ग्राम के नजदीक बेताकुन्दरीडाही गांव में एक संताली विश्वविद्यालय का शिलान्यास किया था। उनके इसी योगदान के लिये मयूरभंज आदिवासी महासभी ने उन्हें गुरु गोमके अर्थात महानतम् शिक्षक की उपाधि प्रदान की। रांची के धुमकुरिया ने आदिवासी साहित्य में उनके इस असीम योगदान के लिए उन्हें डी.लिट. प्रदान की। जुलियस तिग्गा ने गोमके मुरमू को महान आविष्कारक एवं नाटककार कहा और तो और जयपाल सिंह ने मानव वैज्ञानिक और पण्डित शब्द से उन्हें सम्मानित किया। चारुलाल मुखर्जी ने उन्हें संतालियों के धार्मिक नेता कहकर सम्बोधित किया तथा प्रो. मार्टिन ओरांव ने अपनी रचना "The Santal : A Tribe in Search of the Great Tradition" में उनकी लिपि (आॅलचिकि) की प्रशंसा करते हुए उन्हें संताल जनजाति का धार्मिक गुरु एवं सांस्कृतिक जननायक कहकर सम्बोधित किया है। शर्मीले, शान्त एवं अन्तर्मुखी स्वभाव के होने के बावजूद वे दिन-प्रतिदिन लोगों में प्रशंसनीय एवं महान होते जा रहे थे। उनकी प्रशंसा करते हुए सीताकान्त महापात्र लिखते हैं, ""मुरमू की अभिव्यक्ति न तो बहुत मुखर थी न ही वे कोई चमत्कारी महापुरुष थे - न तो वे कोई उग्र पैगम्बर थे, और न ही कोई प्रेरित सक्रिय नेता थे। न ही वे बिरसा मुण्डा की तरह थे - न ही उन्होंने राजनैतिक और आदर्शवादी संदर्भ में अपने दृढ़ व्यक्तित्व द्वारा संतालियों को बड़े पैमाने पर राजनैतिक आन्दोलन के लिए प्रेरित किया। फिर भी उनके कार्य और औजस्वी लेखनी ही वह महत्वपूर्ण शक्ति रही है जिसने संतालियों में अपनी व्यक्ति के बोध को जगाया है।'' रघुनाथ मुरमू एक महान सांसकृतिक पुरोधा थे और उन्हें संताल आदिवासी का सबसे महत्वपूर्ण सांस्कृतिक जननायक कहा जा सकता है। शिक्षकों एवं छात्रों को शिक्षित करने के उद्देश्य से उन्होंने प्राथमिक स्तर तक की कई पुस्तकें "आॅलचिकि' में लिखी। अपनी मनमोहक रचना के माध्यम से वे जनजातीय संस्कृति एवं धर्म की नई विवेचना द्वारा एक पहचान और एकता लाने का प्रयास किया। जीवन पर्यन्त वे संताली समाज, उनकी संस्कृति और राजनीति के मूल स्रोत बने रहे। पण्डित मुरमू के नेतृत्व में ही मयूरभंज की "आॅलचिकि' समिति ने सन् १९५३ में एक ""आदिवासी सांस्कृतिक संघ'' की स्थापना का प्रस्ताव लाया और उसका उद्घाटन १४ मार्च १९५४ को नाकी बगान में हुआ। नाकी बगान वामनघाटी उप प्रभाग में स्थित है। सभा में संकल्प किया गया कि संघ निम्नलिखित ढ़ंग से चलाया जाएगा: |
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१. |
"आॅलचिकि' द्वारा आदिवासियों (मुण्डारियों) को साक्षर बनाना |
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मुण्डारी साहित्य को समृद्ध करना। |
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पुराने गीत एवं परम्पराओं का संग्रह - कला में पढ़ाने योग्य कुछ का लेखने एवं प्रकाशन। |
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उनके नृत्य एवं संगीत को प्रोत्साहन करना। |
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एक सामजिक पत्र का प्रकाशन। |
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२. |
आदिवासी छात्रों की पढ़ाई उनकी अपनी भाषा तथा लिपि में ही होनी चाहिए। |
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३. |
हर आदिवासी गाँव में एक शिक्षक की बहाली होनी चाहिए जो गाँव के लड़के-लड़कियों को पढ़ा सके। |
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४. |
आदिवासी सांस्कृतिक संघ के सदस्य इन विद्यालयों का निरीक्षण करके शिक्षकों का मार्गदर्शन करेंगे। |
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५. |
सरकार द्वारा एक पर्यवेक्षक की नियुक्ति करायी जाएगी जो विद्यालयों का पर्यवेक्षण करें। |
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संघ का नाम पुन: बदलकर ""आदिवासी सामाजिक शैक्षिक और सांस्कृतिक संघ'' कहा गया।
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१३ अक्टूबर १९६७ के खुले अधिवेशन में चकुलिया (झारखण्ड) के डॉ. काली चरण सोरेन की अध्यक्षता में संस्था के उद्देश्यों की चर्चा की गई। सरकार से सहायता की मांग की गई और जनजातियों से अपील की गई कि वे सभी संस्था के झण्डे तले एक जुट होकर अपनी सभ्यता, संस्कृति और भाषा की उन्नति का प्रयास करें। उन्होंने मांग की कि "हंडिया' (चावल से निर्मित देशी शराब) के बनाने और उसके सेवन में कोई प्रतिबन्ध न लगाया जाय। सम्मेलन में निम्नलिखित दस प्रतिशत पारित किये गए : |
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(i) |
प्रचलित वैवाहिक रीतियों को हटाना; |
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(ii) |
जादू पाटा नाच की निन्दा करना; |
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(iii) |
बारीपदा में संस्था की एक शाखा खोलने का निर्णय; |
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(iv) |
सदस्यों को ज्यादा राशि का अंशदान; |
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(v) |
जाहेर (पूज्यनीय भूमि) का बचाव; |
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(vi) |
गांवों में मांझियों द्वारा और देश परगनाओं में पीरों के द्वारा अपने झगड़े-झंझटों का समझौता; |
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(vii) |
जनजातीय बच्चों की प्राथमिक शिक्षा "आॅलचिकि' में करवाले की सरकार से मांग; |
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(viii) |
सरकार द्वारा संस्था के विरुद्ध अतिक्रमण के लगाए गए मामलों की वापसी की मांग; |
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(ix) |
उनके पत्र-पत्रिकाओं के डाक खर्च में रियायत; |
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(x) |
संस्था को ज्यादा से ज्यादा राशि का अनुदान दिलाना।
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रघुनाथ मुरमू संतालों के विषय में काफी चिन्तित रहते थे। उन्होंने अनुभव किया कि दूसरी जातियाँ संतालों को हेय दृष्टि से देखती हैं क्योंकि संताल अशिक्षित थे। उन्होंने सोचा कि जब तक संताल अपनी भाषा, साहित्य, परम्पराओं एवं संस्कृति से भली-भांति परिचित नहीं होंगे तब तक लोग उन्हें हेय दृष्टि से देखते रहेंगे। इस जनजाति को अपनी तरक्की एवं विकास के लिए तथा दूसरों की न में आदर पाने के लिए उनके अन्दर एक तीव्र अस्तित्व बोध पैदा करना होगा। इन्हीं कारणों से उन्होंने निश्चय किया कि एक अपनी लिपि, अपनी वर्णमाला, जो मुण्डारी के अक्षरों को अपने में समेट सके, की आवश्यकता है - इसमें बंगाल, झारखण्ड, बिहार, उड़ीसा और असम के संताली भाषी एक जुट हो सकते हैं। वर्णमाला का आविष्कार करने के समय पण्डित रघुनाथ मुरमू चार बातों से प्रभावित हुए : |
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१. |
मुण्डारी महिलाएं अपने शरीर में आकर्षक गोदना गुववाती थी जिन्हें "खोदा' कहा जाता है। इन खोदों के पीछे कुछ खाश अर्थ होते थे जो जाति-जाति में भिन्न होते थे और उनका मतलब भी भिन्न-भिन्न होता था। |
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२. |
संताल जाति के लोग खरेलू जानवर और मवेशियों पर भिन्न-भिन्न प्रकार के निशान अपने अधिकारों को दर्शाने हेतु लगवाते थे। अपने बाएं हाथ पर ऐसे ही जले हुए स्थान निशान को "शिखा' कहते थे। |
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३. |
जब संताल घने जंगलों में रहते थे वे चट्टानों पर अथवा वृक्षों पर विभिन्न प्रकार के निशान लगाते थे जिनका तात्पर्य खतरा, सुरक्षा, भागना या यहां मिलेंगे आदि होते थे। |
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४. |
बिगुल और हॉर्न विभिन्न प्रकार के स्वर निकालते थे जो अपने उतार-चढ़ाव द्वारा खाश मतलब रखते थे और लोग इनको सुनकर उनका अर्थ समझ जाते थे, जैसे आगे जोखिम या खतरा है।
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अन्त में उन्होंने एक सम्पूर्ण वर्णमाला का आविष्कार किया जिसमें ३० अक्षर थे। ६ स्वर और हर स्वर के साथ जुड़े हुए ४ व्यंजन। हर अक्षर किसी वस्तु से जुड़ा था या शारीरिक क्रियाओं से स्वरों की पैटर्न से। जैसे कुकुर मुत्ते, उड़ती हुई मधुमक्खी, मुँह से हवा छोड़ना, उल्टी करने जैसा मुँह खोलना, करनी की क्रियाएं आदि। लिपि को ईश्वर की देन कहा जाता है। शायद यही कारण है कि संस्कृत की लिपि को देवनागरी अर्थात् देवों द्वारा खोजा गया लिपि गया है। अनेक लिपियां "दर्शन' के रुप में प्रकट होती है और ऐसे लोगों द्वारा इनका आविष्कार होता है, जिनके पास लिपि बनाने का कोई ज्ञान या अनुभव नहीं होता ऐसे लिपियाँ अवतरित होती हैं। जिस प्रकार भागवद् गीती में कृष्ण कहते हैं कि जब-जब धर्म की हानि होती है तब-तब ईश्वर सभी युगों में अवतरित होते हैं, ठीक इसी भांति ऐसी लिपियों के बारे में मान्यता है कि पहले किसी युग में वे थीं, फिर लुप्त हो गई जो जाति के पतन से जोड़ा जाता है। नये सिरे से जब जाति का उत्थान होता है तो ये नई और विकसित होकर प्रस्तुत होती है। संताल समाज में तीन ऐसे महामानव हुए जिन्होंने संताली भाषा के लिपि को विकसित किया। घाटशिला के रामदास टुडु; सिलडा के राजचन्द्र मुरमू और रायरंगपुर के गुरु सोगके पण्डित रघुनाथ मुरमू। समस्त संताली समाज ने रघुनाथ मुरमू के लिपि को वैज्ञानिकस सहज और कलात्मक लिपि के रुप में स्वीकार किया है। अपनी लिपि आॅलचिकि के सम्बन्ध में रघुनाथ मुरमू का विचार कुछ ऐसा है: |
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""मैंने तो अपनी संस्कृति और सामाजिक परम्परा से सीखी गई भाषा और उसके स्वरों की लिपि में "फोनेटिक' ढ़ंग से जोड़ दिया है। अवतरित लिपियाँ सिंहभूम की हों। जनजाति और गंजाम की "रुबरस' जनजाति में भी पायी जाती है।''
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गुरु गोमके का यह भी विश्वास रहा है कि संताल जनजाति की अभूतपूर्व परम्परा उनकी अछूतेपन और नैतिक मूल्यों पर स्थिर है और इसी कारणवश वे अपनी पौराणिक परम्परा के विषय में हमेशा बोलते रहते थे। उन्होंने अपनी संताल जनजाति के स्पारटन सभ्यता जैसा बताया है। इसका आधार था - स्वस्थ्य, मजबूत शरीर, व्यायाम, नशीली चीजों से परहेज (त्यौहारों को छोड़कर) और सबसे ऊपर अपने संताल समाज के लिए जान-प्राण देने की क्षमता। हर मनुष्य जाति के लिए ही जीता था और उसके लिये कुछ कर पाना उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि होती थी। इस तरह की सभ्यता के पतन का मुख्य कारण आस-पास रहने वाली दूसरी जातियाँ थी जो निश्छल जनजातियों को बहकाकर उनके पतन के लिए जिम्मेवार थी। संताली उद्देश्यहीन हो गये और अपनी एकता भूलने लग गये। वे आस-पास की जातियों की चमक-दमक, उनके पहनावे, खान-पान आदि से ज्यादा ही प्रभावित हो गये। संताली लड़के-लड़कियाँ गैर-संताली युवक-युवतियों के साथ मेल-जोल बढ़ाने लगे, वो भी सिर्फ अच्छे खाने-पीने के लिये। इनका परिणाम यह हुआ कि संताली रहन-सहन प्रदुषित हो गया। वे अपनी चुस्ती खोने लगे और अन्य लोगों ने समझा कि संतालियों की प्रवृतियां सिर्फ शारीरिक सुख और आनन्द के लिये है। "आॅलचिकि' का लुप्त होना भी इसी पतन से जोड़ा गया। गुरुगोमके महापण्डित मुरमू द्वारा "आॅलचिकि' का आविष्कार अपने आपमें मूल्य रखता है और संतालियों की उज्जवल परम्परा उनके नैतिक मूल्यों से ज्यादा बंधा हुआ है। संताली उत्थान का यह अनुपम प्रतीक है। अपनी रचनाओं के माध्यम से उन्होंने संताल से सम्बन्धित सामाजिक - सांस्कृतिक प्रश्नों किंवा मुद्दों को उठाया है। इनमें हंड़िया का सेवन परिवार के अन्दर की शादियाँ, नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों और पूजन एवं बन्दन आदि प्रश्नों पर लिखा गया है। इनकी कृतियों में तीन नाटक हैं : |
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(क) |
बिदुचन्दन; |
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(ख) |
खेरवाल; |
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(ग) |
दारेगे धान।
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हीतल गीतों का अद्भुत संकलन है जो कि ईश्वर की प्रार्थना और अवसर विशेष पर गायेजानेवाले गीतों से भरा है। इन्होंने अपनी बाखेन (१९६७) नामक पुस्तिका में वे परम्परात्मक गीत एवं भजन इकत्रित किये हैं जो संतालों के बीच अनेक पीढियों से प्रचलित थे। उनके अनुसार ये गीत और भजन संताली संस्कृति का आधार है, उन्हें आत्मबोध प्रदान करती हैं, तथा उनके संताली संस्कृति के भिन्न चरित्र को उजागर करती है। इस तरह से गुरुगोमके पण्डित भी रघुनाथ मूरमू व संताल जनजाति के सांस्कृतिक पुरुषश्रेष्ठ के रुप में हमेशा ख्याल रहेंगे। वैसे लोगों का सम्मान समाज, देश एवं लोग अवश्य करें, तभी सांस्कृतिक धरोहर का बचाव एवं सम्वर्धन संभव है।
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