झारखण्ड |
मुण्डा भाषा : एक परिचय पूनम मिश्र |
मुण्डा झारखण्ड प्रदेश की एक प्रमुख आदिवासी है। इस जनजाति का मूल स्थान दक्षिणी छोटा नागपुर है, हालांकि उत्तरी छोटा नागपुर में भी ये कहीं-कहीं मिल जाते हैं। मुण्डा जाति पर सर्वप्रथम राय बहादुर शरत चन्द्र राय ने सर्वाधिक महत्वपूर्ण और प्रमाणिक कार्य किया। सन् १९१२ में मुण्डा बोली बोलने वालों के इतिहास पर उन्होंने कार्य किया। उसके बाद अन्य जातियों जैसे बिरहोर (१९२५) खरिया (१९३७, अपने पुत्र के साथ) और दो विवरण द्रविड़ियन भाषा बोलने वाले उरांव (१९१५, १९२८) और एक इण्डो-यूरोपियन बोली बोलने वाले उत्तर-पश्चिमी उड़ीसा (१९३५) पर उन्होंने अपना मूल और तथ्यपरक रिपोर्ट पुस्तकाकार रुप में प्रकाशित किया। उनका दूसरा महत्वपूर्ण योगदान है मेन इन इण्डिया नामक शोध जनरल का प्रकाशन वह भी रांची जैसे छोटे जगह से। १९२१ ई. में ऐसा प्रयास वह भी एक बैरिस्टर के द्वारा क्या आसान बात है। इस जनरल को प्रारम्भ करने के पीछे भी राय का मूल उद्देशय एक ऐसै मानवशास्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय जनरल का प्रकाशन करना जिनमें भारतीय लेखों को प्रकाशित करना था। इस जनरल में भी मुण्डा पर अनेक लेख प्रकाशित हुए। शरत चन्द्र राय ने बाद में मुण्डा जनजाति के लोगों के सम्बन्ध में एक सम्पूर्ण पुस्तक दी मुण्डास एण्ड देयर कन्ट्री लिख दिया। श्री राय महोदय के इस कार्य में शीघ्र ही धीरेन्द्र नाथ मजुमदार (१९०३-१९६०) भी सम्मिलित हो गये। मजुमदार ने हो जनजाति (१९५० में विशेषतौर पर) जमकर लिखा और बहुत हद तक कोरवा पर भी महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने भी राय महोदय के समान ही एक मानवशास्रीय जनरल, इस्टर्न एन्थ्रोपोलोजिस्ट का प्रकाशन प्रारंभ किया। हालांकि मेल इन इण्डिया की तुलना में इस्टर्न एन्थ्रोपोलोजिस्ट एक क्षेत्रीय जनरल बनकर सीमर गया। मानव विज्ञान के विद्वानों के अनुसार मुण्डा आदिवासी प्रोटो-आस्ट्रोलाइट परिवार की भारतीय शाखा से सम्बद्ध है। डॉक्टर गुहा महोदय ने अपनी रचना, रेस एलिमेण्ट्स इन दी इण्डियन पॉपुलेशन में भारतवर्ष के निवासियों को ६ मानव-वंशों में बांटा है :
इनमें भारत की आदिम जातियां निग्रिटो, प्रोटो-आस्ट्रेलाइड और मंगोलाइड, इन तीन बड़े आदिम परिवारों से सम्बन्ध रखती हैं, जिनमें सबसे प्राचीन "निग्रिटो' जातियां अब भारत में बहुत कम रह गई हैं। श्रावणकोर की कादन और पलियन तथा राजमहल पहाड़ियों की बागड़ी जातियां विशाल निग्रिटो-परिवार का समाप्तप्राय अवशेष हैं। दक्षिण भारत की कुछ अन्य जातियों में भी निग्रिटो विशेषतायें मिलती हैं। अण्डमान-निकोबार के जनजातियों का सम्बन्ध विद्वान इसी वर्ग से जोड़ते हैं। भारतवर्ष के उत्तरी-पूर्वी भागों में, विशेषकर आसाम में मंगोलाइड़ वर्ग की जातियां बसी हैं। हालांकि मध्य भारत में भी उनके रक्त के कुछ अंश पाये जाते हैं। शेष तीसरी प्रोटो-आस्ट्रेलाइड वर्ग की जातियां भारत में सर्वाधिक हैं। गुहा महोदय ने अपनी पुस्तक एन आउट लाइन आॅफ दि रेसियल एश्नोलॉजी आॅफ इण्डिया में लिखा है :
गुहा महोदय द्वारा दिया गया ऊपर वर्णित वर्गीकरण हालांकि जातिगत है। भाषा की दृष्टि से इस विशाल एवं गौरवशाली देश भारत के इस परिवार के आदिवासियों ने विभिन्न जनजातीय भाषाओं के अतिरिक्त अन्य भाषा-परिवारों की भाषाओं को भी अपनाया है। मुण्डा भाषाएं आॅस्ट्रिक परिवार की भाषाएं हैं। मुण्डाओं के लिये गौरव की बात है कि आॅस्ट्रिक-परिवार की जो भाषायें भारतवर्ष की विभिन्न जातियों द्वारा बोली जाती हैं, वे सब की सब मुण्डा-भाषाययें कहलाती है। भाषाओं का आॅस्ट्रिक परिवार एक बहुत विशाल परिवार है, जो मध्य भारत से आस्ट्रेलिया तक फैला हुआ है। ई. ए. गेट महोदय राय बहादुर शरत चन्द्र राय लिखित मुण्डाज एण्ड देयर कन्ट्री के इण्ट्रोडक्शन में लिखित हैं :
श्यामसुन्दर दास अपनी पुस्तक भाषाविज्ञान में लिखते हैं कि भारतीय विद्वानों ने इन दोनों परिवारों का नाम ""आग्नेय-देशी और आग्नेय द्वीपी दिया है।'' मुण्डा भाषाओं के मूल और परिवार के सम्बन्ध में शरत चन्द्र राय लिखते हैं :
प्रोटो-आस्ट्रेलाइड परिवार की कुछ जातियों ने अपने से अधिक उन्नत मेडिटेरियन (भू-मध्य सागरीय) परिवार की द्रविड़-जातियों के सम्पर्क में आने से अपनी मौलिक भाषाओं को भूलकर द्रविड़ भाषाओं को ही अपना लिया है, जिससे छोटा नागपुर के उरांव प्रमुख हैं। इन बातों के कारण विद्वान बहुत दिनों तक जातियों के वर्गीकरण के सम्बन्ध में भ्रम में पड़े रहे, क्योंकि तब तक भाषायें ही वर्गीकरण का सबसे मुख्य आधार थीं। किन्तु, जब मानव शास्रियों ने वैज्ञानिक मापदण्ड :
उपर्युक्त भ्रम में पड़कर बहुत से शोधकर्मी उरांव आदि जातियों को द्रविड़ियन मानते रहे। एक ही प्रोटो-आस्ट्रेलाइड जातियों को दो समझकर उनका कोलेरियन और द्रविड़ियन परिवारों में वर्गीकरण किया। शरत चन्द्र राय का भी यही मत था, किन्तु इससे भी आश्चर्यजनक भ्रम इन्साइक्लोपीडिया का था, जिसने, पता नहीं, किस आधार पर स्वयं मुण्डाओं को द्रविड़ परिवार का माना है। उन्होंने लिखा है : ""मुण्डा = छोटा नागपुर अंचल में रहने वाली द्रविड़-असभ्य जाति विशेष।'' डॉक्टर गुहा ने इस महत्वपूर्ण सिद्धान्त की स्थापना करके जब कोई जाति अपने से अपेक्षाकृत अधिक सभ्य जाति के सम्पर्क में बहुत दिनों तक रहती है, तब वह प्राय: अपनी भाषा को भूलकर सभ्य जाति की भाषा अपना लेती है। इस भ्रम का निराकरण कर दिया है। दुनियां की बहुत सी जातियों में यह बात हुई है। झारखण्ड के उरांव और मुण्डा स्वयं इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। मुण्डा क्षेत्र में जो दो-चार घर उरांव जहां-तहां आ बसे हैं, वे मुण्डा भाषा और उरांव क्षेत्र के मुण्डा-उरांव-भाषा बोलते हैं। आॅस्ट्रिक परिवार की जो भाषायें भारत के जनजातियों द्वारा बोली जाती हैं उनका नाम श्रीमान ग्रियर्सन महोदय ने कोलेरियन (या कोलभाषा-परिवार) दिया है। ग्रियर्सन ने इन नाम को प्रचारित करना चाहा, परन्तु पीछे चलकर फ्रेडरिक मिलर ने इन भाषाओं को मुण्डा-भाषाओं की संज्ञा दी। इन मुण्डा भाषाओं का प्रचार भारत की आदिम जातियों में बहुता पहले से था और इन्हीं जातियों के द्वारा भारत में पाषाण युग की सभ्यता का निर्माण हुआ था। इन मुण्डाभाषी जातियं के नाम बहुत दिनों से अलग-अलग हो गये हैं, रस्म-रिवाज बदल गये हैं और उनकी भाषाओं में काफी अन्तर पड़ गया है। उनमें कहीं-कहीं तो इतना अन्तर पड़ गया है कि भाषा शास्र की सूक्ष्म और वैज्ञानिक दृष्टि से देखे बिना उनमें एकता नहीं मालूम हो सकती। आखिर इसका कारण क्या है? इस प्रश्न पर चिन्तन की आवश्यकता है। बहुत दिनों से ये जातियां काल की आंधियों में पड़कर बिखर गई हैं। और एक दूसरे से इतनी दूर पड़ गयी है कि उनमें आपस में कोई सम्बन्ध नहीं रह गया है। जैसे आज ज्ञान, विज्ञान और सम्पर्क बड़ी-बड़ी दूरियों को भी निकट बना रहे हैं, वैसे ही अज्ञानता और असम्पर्कता ने इनकी निकटता में ली लाखों कोस की दूरी भर दी है। पहले इनमें शिक्षा की वह सूक्ष्मदर्शी और दूरदर्शी दृष्टि भी नहीं रही है, जिससे ये भूतकाल में प्रवेश करके अपनी एकता को समझते। इसलिये एक ही जाति की एक-एक शाखा को अलग-अलग जाति मान लेना इनके लिए स्वाभाविक था। दूसरी बात यह है कि जातियों का वर्गीकरण दो प्रकार से किया जाता है। एक तो कोई जाति स्वयं अपना नाम रखती है, जिसमें औरों से अपनी विशेषता सूचित करती है। दूसरे, अन्य लोग किसी जाति का नाम रखते हैं, जिसमें उस जाति के बारे में अपने विचारों को ध्वनित करते हैं और उनके बारे में अपनी हीनता या उच्चता की भावना प्रकट करते हैं। बहुधा ऐसे नामों में जातीय घृणा और तिरस्कार के कारण हीनता की भावना ही प्रकट होती है। पीछे ये दोनों प्रकार के नाम रुढ़ बन जाते हैं। मुण्डा जातियों ने बहुधा अपना नाम मनुष्यवाची रखा है। जैसे संताल - "टोड़', मुण्डा - "होड़ो को', हो - "हो' और यह स्पष्ट है कि वे जितनी बार बिखरी उतनी बार अपना नाम रखा। हर शाखा ने अपना और #ेक ने अपने निकट सम्पर्क की दूसरी शाखा का नाम भी रका। बहुत से पुराने नाम लुप्त हो गये और नये प्रकट हुए। सन्थाल, हो, जुवांग, खड़िया, आदि नाम हाल के रखे हुए हैं। मुण्डा का एक अर्थ है सिर या प्रमुख। गांव के प्रधान को पहले मुण्डा कहा जाता था। पीछे और जातियों से अपनी प्रमुखात दिखाने के लिए यह जाति का नाम बन गया और फ्रेडरिक मिलर के द्वारा पूरे परिवार की भाषाओं के लिए अपनाया गया। शब्द सपं के केंचुल की तरह अपने पुराने अर्थ छोड़कर नये अर्थ ग्रहण कर लिया करते हैं। हो जाति ने मुण्डाओं से अलग होने पर अपना नाम "हो' रखा। "हो' "होड़ो' का संक्षिप्त रुप है, जिसका अर्थ है मनुष्य। "ड़' का उच्चारण नहीं कर सकने के कारण "हो' जनजाति उसे छोड़ देते हैं। जैसे "ओड़:' को "ओअ:' (घर) "पिड़ि' को "पी' (मैदान) और "कुड़ि' को "कुइ' (स्री) कहते हैं। सन्ताल अपने को "होड़ो-को' कहते हैं। दूसरे लोग उन्हें सन्ताल या सन्थाल कहते हैं। इससे पहले इन जातियों (या जनजातियों) का "कोल' और "शबर' नाम मिलता है। "शबर' कोई घृणासूचक शब्द नहीं है। यह शब्द संस्कृत-ग्रन्थों में प्राय: वहां आया है, जहां इन जातियों से अच्छे सम्बन्ध के प्रसंग में चर्चा है। विन्ध्य क्षेत्र की "सहरिया' झारखण्ड की "सौरिया' और उड़ीसा, छत्तीसगढ़, कर्नाटक तथा झारखण्ड की "सावरा' आदि जातियों के नाम इसी शब्द से सम्बद्ध हैं। इन्हीं शब्दों को संस्कृत में "शबर' रुप प्रदान किया गया है। इस प्रकार "मुण्डा' आॅस्ट्रिक-परिवार की सारी भारतीय भाषाओं का नाम होने के साथ ही अपनी एक स्वतन्त्र उपजाति और उसकी भाषा का नाम भी है। मुण्डा जनजाति के बहुत दिनों से अन्य भारतीय जातियों के सम्पर्क में रहने के कारण उनकी भाषा पर उच्चारण, शब्दों के आदान-प्रदान आदि के रुप में अन्य भारतीय भाषाओं का अत्यन्त प्रभाव पड़ा है। मुण्डा-भाषा में बहुत से शब्द संस्कृत, प्राकृत तथा अरबी-फारसी के भी सम्मिलित हुए हैं। उन्होंने मुण्डा-उच्चारण के अनुरुप अपनी रुप बदल लिया है। उदाहरण के लिए कुछ शब्द यहां दिये गये हैं -
मुण्ड़ा-भाषा की मौलिक शब्दावली में वन, पर्वत सम्बन्धी वस्तुओं के शब्दों की भरमार है। पशु-पालन, ग्राम व्यवस्था तथा कृषि-कार्यों से सम्बन्धित मौलिक शब्द इस जाति की मूल संस्कृति पर प्रकाश डालते हैं। धातु के बरतन, कपास के वस्र, वाणिज्य-व्यवसाय, कर्ज, सूद, महाजन आदि सम्बन्धी शब्द मुण्डा-भाषा के अपने मूल शब्द नहीं हैं। मुण्डारी में इन बातों के लिये आर्य भाषाओं के शब्दों को देखकर पता चलता है कि मुण्डाओं की मूल संस्कृति में ये बातें विद्यमान नहीं थीं, किन्तु नृत्य, गान, वाद्य, बांसुरी आदि के उनके अपने शब्द हैं। शिक्षा के प्रचार के साथ में नई वस्तुओं, नये विचारों, नये भावों और नई विद्याओं के सम्पर्क में आते जा रहे हैं, जिससे मुण्डारी में बहुत से नये शब्दों की वृद्धि होती जा रही है। पढ़े-लिखे लोग मुण्डा व्याकरण-क्रियापदों, प्रत्ययों और विभक्तियों आदि को छोड़कर अपनी बोलचाल में हजारों अन्य शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं और अपनी भाषा की शक्ति को बढ़ा रहें हैं। यह एक जीवित भाषा का लक्षण है। आज इस भाषा में हर प्रकार के भाव और विचार व्यक्त करने की शक्ति पैदा होती जा रही है और सच पूछा जाए, तो किसी भाषा की मौलिकता उसके क्रियापदों, विभक्तियों और प्रत्ययों आदि में ही है। आप जिन नई वस्तुओं को अपनाते जा रहे हैं, उनके रुपक शब्दों को तो अपनाना ही पड़ेगा। जिस दिन साबुन की बट्टी आपके काम में आई, उस दिन "साबुन' आपका शब्द हो गया और जिस दिन आपकी जाति ने टेलिविजन, कम्प्यूटर, आदि का व्यवहार करना प्रारम्भ किया, "टेलिविजन', "कम्प्यूटर' आपके शब्दकोश में सम्मिलित हो गया। क्या जिस "साबुन', टेलिविजन, कम्प्यूटर आदि को आपने खरीदा है, उसे दूसरे की चीज समझते हैं? यदि नहीं, तो फिर वह शब्द दूसरे का कैसे है? लेकिन, मुण्डारी एक भाषा के रुप में इस विषय में काफी उदार है, यह शुभ लक्षण हैं। शब्दों की ही भांति उच्चारण पर भी अन्य भाषाओं के उच्चारण का प्रभाव पड़ा है। पहले मुण्डा परिवार की जातियों के मानुषमिति के सिद्धान्तों के अनुसार, स्वर-रन्ध्रों की बनावट में कुछ ऐसी विभिन्नता थी कि वे महाप्राण अक्षरों का उच्चारम नहीं करती थीं। धीरे-धीरे वह कठिनाई अब मिट रही है। "हो' जनजाति के लोग अब भी महाप्राण वर्णों के लिए अल्पप्राण वर्णों का ही प्रयोग करते हैं। एक उदाहरण नीचे के टेबल में दिया जा रहा है -
इस भाषा में विसर्गों की प्रधानता है, किन्तु शहरों के सम्पर्क में रहने वाले मुण्डा विसर्गों को छोड़ते जा रहे हैं और उच्चारण को सीधा-सपाट बनाते जा रहे हैं। जैसे "द:' (पानी) को सीधे "दा' कह देते हैं। "सेत:' (विहान) को "सेता' और "कोत:' (कहां) को "कोता' कह देते हैं। मुण्डा भाषा पर बंगला के उच्चारण का भी प्रभाव पड़ा है। जैसे "रोकोम-रोकोम' (तरह-तरह), "ओनेक' (अनेक) इत्यादि। मुण्डारी भाषा का व्याकरण बहुत महत्वपूर्ण हैं। संस्कृत व्याकरण की ही भांति इसके नियम इतने कठोर हैं कि कोई भी व्यक्ति व्याकरण के नियमों से एक इंच भी बाहर नहीं जा सकता । छोटे बच्चे भी शुद्ध भाषा ही बोलते हैं। बिना किसी पाणिनि - पतञ्जलि के किसी भाषा का इतना नियमित आश्चर्य की बात यह है कि मुण्डारी का व्याकरण संस्कृत व्याकरण से मिलता-जुलता है।
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