झारखण्ड |
मुण्डा लोकगीत और सांस्कृतिक जीवन पूनम मिश्र |
जापी गीत | ||||
विवाह-गीत
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संगीत जीवन है। संगीत भला किसे पसन्द नहीं है! संगीत मानव मन की कोमल अनुभूतियाँ हैं। मनुष्य बिरह वेदना में गाता है, अभिसार में गाता है, खुशी में गाता है, गम में गाता है, जीवन के संस्कार बिना गीत और संगीत के संभव नहीं हैं। और जब हम किसी आदिवासी संस्कृति की बात करते हैं तो हमें जो सहज ज्ञान मिलता है वह यह है कि कोई भी आदिवासी संस्कृति गीत, संगीत, नृत्य आदि के बिना खोखला है। संगीत इनके जीवन को गतिमान बनाता है, इन्हें पूर्णता प्रदान करता है। रम्य जंगल, पहाड़-पठार, कल-कल करते निश्छल झरनों के स्वर, पहाड़ी नदियों का अंकारण थोड़े ही जल में उन्माद, पक्षियों के कलख, जंगली जानवरों की आवाज, फूलों के खिलते सौन्दर्य, मनमोहक सुगन्ध आदि समस्त जनजातीय जीवन को संगीतमय बना देते हैं। झारखण्ड के ऐसे ही रम्य वातावरण में निवास करने वाला मुण्डा जनजाति भी गीतों ताने-बाने में अपनी सांस्कृतिक धरोहर के साथ जीता, जागता, गाता, नाचता रहता है। इनके गीतों की संख्या असंख्य है, जो कि मौखिक परम्परा से अर्थात् माता से पुत्री, एवं पिता से पुत्र में अनन्त काल से चरैवेति-रचैवति करते हुए परम्परा के साथ जुड़ते हुए चले आ रहे हैं। किसी-किसी मुण्डा युवक या युवती को सैकड़ो लोकगीत कंठाग्र है। शायद ही ऐसा कोई मुण्डा परिवार का सदस्य होगा जो एक-आध-दर्जन गीत नहीं जानता हो। मुण्डा समाज के युवक एवं लड़कियाँ अपने लोकगीतों को किसी विद्यालय, पाठशाला या गुरुकुल में जाकर नहीं पढ़ते या सीखते हैं। नृत्य के अखाड़ों में मस्त वातावरण में ही नये-नये गीत सीख जाते हैं। कभी-कभी अखाड़ों में अनेक पास एवं दूर के गाँवों से आए नवयुवक सम्मिलित होकर संगीतमय माहौल में तल्लीन हो जाते हैं और उनमें से किसी न कोई नया गीत गाया और वह किसी नवजवान को पसन्द आ गया तो उसे वे तुरन्त अक्षरश: कंठाग्र कर लेते हैं। फिर, मुश्ती तथा नशे के वातावरण में उस स्थान से अलग होने कभी-कभी पर गीत के कुछ अंशों को भूल भी जाते हैं। किन्तु, इस बात पर वे न तो पश्चाताप करते हैं, न ही कोई चिन्ता। अगर किसी ने मुण्डा जनजाति के युवक एवं युवतियों को और उनके (मुण्डा लोगों के) गीतों की प्रकृति को समझ लेता है, तो वह सहज ही पता लगा लेगा कि उन टूटी हुई कड़ियों को पुन: जोड़ लेना उनके लिए कितनी आसान बात है। एक तो समस्त मुण्डा जनजाति ही झारखण्ड में बसने वाली अन्य जनजातियों के समान कवितामय है, प्रत्येक व्यक्ति भावुक और स्वरपूर्ण है; दूसरे उनकी कविता-सृजन की कला इतनी सरल और सुपरिचित है, जिसके संस्कार प्रत्येक व्यक्ति पर पड़े हुए हैं। ऐसी दशा में किसी नये गीत की सम्पूर्ण रुपरेखा की कल्पना भले ही प्रत्येक व्यक्ति न कर सके; किन्तु कुछ भूली हुई पंक्तियों को मिला लेना थोड़ी-सी भी प्रतिभा वाले गायकों के लिए कठिन नहीं होता। श्री जगदीश त्रिगुणायत (१९७०) ऐसी सूचना अपने शोधकार्य के आधार पर देते हैं कि मुण्डा जनजातियों के गीत साधारणत: तीन पदों के होते हैं। तीनों पदों में कभी-कभी दो और कभी-कभी एक पद पूरे-के-पूरे बदल जाते हैं। ऐसे परिवर्तन बहुधा अर्थों में भी मोड़ पैदा कर देते हैं। ""एक-आध पक्तियाँ इतनी लोकप्रिय हो गई हैं, जिनका कई गीतों में प्रयोग हुआ है और वे श्रोता को कभी-कभी भ्रम में डाल देती हैं।'' मुण्डा जनजाति के द्वारा गाये जाने वाले गीतों का संग्रह सबसे पहले फादर हॉफमेन ने किया। हॉफमेन महोदय ने २०० गीतों का महत्वपूर्ण संग्रह किया था और ""दि मेमोरिज आॅफ दी एशियाटिक सोसाइटी आॅफ बंगाल'' में मुण्डा-लोकगीतों की विशेषता पर भी महत्वपूर्ण एवं आलोचनात्मक (सकारात्मक) प्रकाश भी डाला था। राय बहादुर एस.सी. राय की पुस्तक दी मुण्डा एण्ड देयर कण्ट्री (पृ.सं. ५३९) में यों तो कहने के लिए प्रमाण और उद्वरण के लिए जगह-जगह बहुत से गीत आये हैं; किन्तु गीतों की व्याख्या के लिए लगभग २०-२२ गीत प्रस्तुत किये हैं। राय महोदय ने उनका अंग्रेजी-छन्दों में अनुवाद किया है, जहां डॉ. जगदीश त्रिगुणायत के अनुसार अधिकांश मुण्डा-गीतों का कायाकल्प हो गया है। उनमें इनके गीतों के सरल सौन्दर्य से अधिक राय महोदय की विद्वता प्रकट होती है। उन अनुवादों में राय बहादुर शरत चन्द्र राय ने अपनी ओर से नये बाव, नूतन प्रयोग और नूतन अर्थ जोड़े हैं और अंग्रेजी भाषा के बड़े-बड़े कवियों, जैसे - फ्रांसिस सैम्पेल, जेम्स रसल लावेल, टेनिसन, वड्र्सवर्थ आदि की कविता से मुण्डा-गीतों की भावभूमि की तुलना की है। हालांकि राय महोदय ने उन गीतों के विश्लेषण और विवरण का भी घोर प्रयास किया है परन्तु उनके सही अर्थ अंग्रेजी अनुवाद में अपना अस्तित्व खो देते हैं। राय महोदय ने अपनी पुस्तक दी मुण्डाज एण्ड देयर कण्ट्री में प्रयुक्त मुण्डारी लोकगीतों का किस भावना से और कैसे अर्थ निकाला है, इसका उदाहरण निम्नलिखित गीत में दिया जा रहा है: गीत का प्रसंग उपस्थित करते हुए राय महोदय कहते हैं - ""जहाँ मुण्डा अपने सगे-सम्बन्धियों से मिलने पर उदार और संतुष्ट होता है, वहाँ अपने उत्पीड़कों और दुश्मनों को देखकर अकथनीय घृणा और नफरत से आगबबूला हो जाता है। उसके गांव में पैर रखनेवाले हिन्दु एवं मुसलमान व्यापारी, साहूकार (महाजन) तथा बाहरी ठेकेदार, जागीरदार या नीलामदार मुण्डा समुदाय के लोगों की आँख में अत्यधिक खटकने वाले हैं। व्यापारी और साहूकार अपने स्वार्थ के लिए उनका सिर मूँडा करते हैं (चूना लगाते हैं) और बाहरी "दिकू' अपने गांव की जमीन की मिलकियत से पदच्युत करके उन्हें केवल लकड़हारा और पानी भरने वाला बना छोड़ते हैं। जैसा कि हम देख चुके हैं, मुण्डा गीतकार घृणापूर्वक उनकी तुलना "खून चूसने वाले', "लोभी गीद्ध', "अपशकुनी कौवे', "हठी जिद्दी उल्लू' और "छद्मवेशवाले मोर' से करते हैं।'' मूल गीतः
डॉ. शरतचन्द्र राय अब ऊपर वर्णित लोकगीत का अंग्रेजी भाषा में कुछ इस तरह से करते हैं :
मूल का अर्थ देखो, देखो, पानी का स्वागत करने वाली चीलें पंख हिला रही हैं। देखो-देखो, घाँटों के दल उड़े जा रहे हैं। इमली का झुण्ड बता दो (जहाँ जाकर बैठे)। आम का बाग दिखा दो (जहाँ जाकर उतरें)। उन्होंने पसन्द नहीं किया। इमली का झुण्ड उन्होंने पसन्द नहीं किया। अनुवाद का अर्थ ये चीलें यहाँ पर अपने रास्ते से उड़कर आई हैं। साफ है कि ये पानी के लिए प्यासी हैं। ये लोभी हंस सुन्दर उड़ान के साथ ऊपर चक्ककर काट रहे हैं। उन्हें, वहां पर, जहाँ इमली का पेड़ खड़ा है, ले जाओ, वहाँ उन्हें पहुँचा दो। उन्हें उस अमराई को बता दो, जहाँ वे आश्रय प्राप्त करें। इमली का सिरा उन्हें पसन्द नहीं आया, वह उन्हें प्रसन्न नहीं कर सका। उस अमराई को इन दोनों हंसों ने नापसन्द किया। मुझे विश्वास है कि वे अप्रसन्न हैं। श्री जगदीश त्रिगुणायत ने अपने मुण्डा जाति के लोगों के साथ अनुभव के आधार पर जब शरत चन्द्र राय के अनुवाद का अवलोकन किया तो उन्हें पता चला कि राय महोदय की व्याख्या में कोई सम्बन्ध नहीं है। यह एक साधारण प्रकृति का वर्णन मात्र है, और है, उन पक्षियों के स्वभाव का चित्रण। चील के बारे में मुण्डा जाति के लोगों के मन में कोई बुरी भावना नहीं और घाँटों तो सारी मानव-जाति की तरह उन्हें भी प्रसन्न करने वाले पक्षी हैं। पहली पंक्ति में "दोरोम्-द:' का अर्थ है पानी की आगवानी करने वाले। चील का उड़ना पानी आने की सूचना समझा जाता है। लेकिन, राय महोदय लिखते हैं : ""साफ है कि वे पानी के लिए व्यासे हैं।'' आगे की पंक्ति में सीधे घाँटों पक्षियों की सीधी उड़ान का वर्णन है; किन्तु एस.सी. राय घाँटों को हंस बनाते हैं, उनके सथ लोभी का विशेषण लगाते हैं और "चक्कर काटने' की क्रिया प्रदान करते हैं। आश्चर्यजनक सत्य है कि "हंस' मुण्डा जनजाति की किसी नफरत या घृणा का पक्षी नहीं है। मुण्डा जनजाति के लोकगीतों के संग्रह में डब्ल्यू. जी आर्चर का महत्वपूर्ण योगदान है। आर्चर महोदय ने सन् १९४३ ई. में मुण्डारी भाषा के १६४१ गीतों का संग्रह और प्रकाशन कराया। इसके बाद श्री जगदीश त्रिगुणायत ने सं. २०१३ वि. में मुण्डा-लोकगीत का एक हिन्दी में अनुवाद सहित एवं उच्चकोटि की भूमिका के साथ बाँसरी बज रही : रुतु सड़ितन नामक पुस्तक, जो कि बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद पटना से प्रकाशित हुआ, लिखकर इस दिशा में एक सफल भगिरथी प्रयास किया है। जगदीश त्रिगुणायत मुण्डा लोकगीतों की विस्तार से चर्चा करते हैं। उनका संक्षिप्ति विवरण यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है: मुण्डाओं की संगीतप्रियता के रहस्य मुण्डा जाति के लोग शान्त, परिश्रमी, प्रकृति प्रेमी होने के साथ ही साथ कला मुख्य रुप से संगीत, नृत्य आदि के प्रति स्नेहवान होते हैं। कोई भी मानवशास्री, समाजशास्री या समाज विज्ञानी जब इनके साथ सहभागी अवलोकन करते हुए इनके जीवन चक्र या अन्य क्रिया-कलापों का अध्ययन करता है तो वह मुण्डा जनजाति के लोगों के जीवन में कला, सुरुचि और सौन्दर्य का भाव स्पष्ट पाता है। कलाप्रियता और मस्ती इनके जेहन में है। यह मस्ती वह काली घटा है, जिसने मुण्डा एवं झारखण्ड प्रदेश में निवास करने वाली अन्य जनजातियों के विपतियों से झुलसे हुए मन को सींचा है, प्राणवान बनाया है, आधार को ठोस किया है, और अपने प्यार की धपकी से इनके मन को शान्ति की गोद में सुलाया है। मुण्डा समाज के लोगों के सौन्दर्य-बोध और संगीतप्रियता का रहस्य जानने के लिए उनके प्राकृतिक जीवन का तात्पर्य समझना आवश्यक है। प्रकृति की रंगस्थली : सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मुण्डा एवं अन्य जनजाति झारखण्ड प्रदेश के प्रकृति की मनोहर एवं आकर्षक रंगस्थली में निवास करते हैं। खासतौर से मुण्डाओं का निवास स्थान पहाड़, पठार, रम्य जंगल, जलप्रपात, झरणों आदि से भरा हुआ है। इसी उन्मुक्त, रंगीन और रहस्यमय वातावरण में उनका जीवन चक्र चलता रहता है। शैशव से मृत्यु तक वे यहीं रहते हैं। हरियाली और फूलों से भरे हुए जंगल, रहस्यमय गुफाओं से भरे हुए पहाड़, कल-कल गाते हुए निर्झर, प्राणों में उन्माद भरने वाली हवाएँ और मधुर स्वरों से जंगल को गुंजित रखने वाले पखेरु, यही मनोहर और मुग्धकारी चित्रसारी मुण्डाओं की दुनिया हैं। ""किसान हल जोतने गया है और उनकी आँखों के सामने घाटी फैलती जा रही है। एक अल्हड़ मुण्डा बाला धान की निकाई कर रही हैं और उधर पहाड़ों की ओट में मेघ की परियाँ अपना श्रृंगार कर रही हैं। एक अल्हड़ युवक गाय चराने गया है और वहाँ सखूआ वृक्षों की मंजरियाँ अपने रुप और गन्ध से उनके मन को बेचैन कर देती हैं, और एक लड़की की माँ ने पत्तियाँ तोड़ लाने के लिए जंगल में भेजा है और वहाँ कोयल कूक-कूक कर उनके प्राणों में उन्माद भर देती है। इस आफत से कोई अपने को कैसे बचाये? आदिवासी अपनी सारी इन्द्रियों से प्रकृति के इस मधुर सौन्दर्य का उपभोग करते हैं और उनकी चेतना इस अमर तृप्ति से सदा अभिभूत रहती है। इसीलिए वे सौन्दर्य और संगीत के प्रेमी है।'' एकान्त और सूनापन : रुप और छवि के ये मनोहर दृश्य मुण्डा जनजाति के लोगों के आजीवन संगी हैं। इन दृश्यों के सात इनका आत्मीय भाव स्थापित हो चुका है। जंगल के एकान्त और सूनापन में भी ये अपने को कभी अकेला नहीं पाते। उनके मन की लहरें कहीं भी किनारा पा जाती हैं। चाहे सुख हो या दु:ख, किसी भी अवस्था में ये मनोहर दृश्य आकाश से वह शून्यता नहीं बरसने देते, जो जीवन को नीरस और नि:स्पन्द कर देने वाला विधाता का सबसे निष्ठुर अभिशाप है। सुख और दु:ख, भाव और अभाव, क्रीडा और हर परिस्थिति इनके मन में हिलोर उठाती है और अपनी उँगलियों से छूकर इनके हृदय के तारों को झंकृत करती रहती है। अगर देखा जाय तो सूनापन एक प्रकार से जीवन का अभिशाप समझा जाता है, लेकिन यही अभिशाप मुण्डा जनजाति के लोगों के लिए वरदान बन जाता है। उस एकान्त में दुश्चिन्ताओं के छिद्र उनके प्राणों के पात्र को जितना रिक्त करते हैं, छटाएँ उससे अधिक भर देती हैं। जंगल के वातावरण का सूना एकान्त मुण्डाओं के लिए भावों का उद्दीपक बन जाता है। जैसे एकान्त की सूनी राह में राही के लिए गीत का सहारा बनते हैं, वैसे ही एकान्त मुण्डा के कण्ठों में स्वर का सर्जन करता है। निर्झर का किनारा, कोई सूनी चट्टान, एकान्त खेत, सुनसान रास्ता ये ऐसे वातावरण प्रस्तुत कर देते हैं, जिनसे गीतों का फूट पड़ना स्वाभाविक है। स्वतन्त्रता : मुण्डा जनजाति के लोगों में कला और संगीत प्रेम का तीसरा कारण इनकी स्वतन्त्रता है। ये अपने मन की प्रत्येक लहर के साथ बढ़ने के लिए स्वतन्त्र हैं। हालांकि स्वतन्त्रता और उच्चश्रृंखलता के बीच के अन्तर को ये भली-भांटी समझते हैं और स्वतन्त्रता का प्रयोग सांस्कृतिक एवं पारम्परिक मर्यादा के अन्दर ही करते हैं। फिर अपने अन्तर्लोक में उठने वाली किसी भी लहर को ये दम घोंटकर मार नहीं डालते। वे सुखी होने पर जी खोलकर हँसते हैं और दु:खी होने पर सारा भार हल्का होने तक रोते हैं। अपने ही बनाये मायाजाल में मुण्डाओं ने अपने पंखों को फांस नहं रखा और अपने पैरों में अपनी ही बनाई हुई गुलामी की बेड़ी नहीं डाल ली है। आज की सभ्यता का "सभ्य' मनुष्य इस विषय में कितना लाचार है! "ड्यूटी' और "रुटीन' की जड़ मशीन (और कम्प्यूटर) का गुलाम होने के कारण उसे न ते किसी से प्यार करने का अवकाश है, न किसी स्मृतियों से मन बहलाने की फुरसत है। वह न जी खोलकर हँस सकता है, न भारी-से-भारी विपत्ति में आँसू बहा सकता है; किन्तु प्रकृति के ये पुत्र मानव प्रकृति की इन आवश्यकताओं के लिए उन्मुक्त हैं। इसी स्वतन्त्रता के कारण ये मनुष्य के अन्तर्लोक के सौन्दर्य को पहचानते हैं, जी खोलकर उनका उपभोग करते हैं और इस अक्षय निधि को उन्मुक्त हाथों लुटाते हैं। परिश्रम : मुण्डा जाति के लोगों की मस्ती का चौथा कारण इनका सरल और सच्चा परिश्रम है। इनके कठोर परिश्रम में कोई छल प्रपंच नहीं, वरन् ईमानदारी है। वह परिश्रम जीवन की स्वाभाविक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बड़े स्वाभाविक ढ़ंग से किया जाता है। उनके परिश्रम में किसी को ठगने की धूर्तता नहीं, किसी के शोषण की दुर्वृति नहीं और किसी का सर्व हरण कर लेने स्पृहा नहीं है। उनका परिश्रम सरल हृदय का वह उद्वेग है, जो प्रकृति की निर्झरी में अपनी अंजलि से दो चुल्लू जल पीकर तृप्त हो जाता है। वहां परिग्रह और अपहरण की वासना लेकर नरपशु परेशान नहीं रहता। उनका परिश्रम हवा में मिलकर उसे विषाक्त कर देने वाला जहरीला और काला धुआँ नहीं, उसमें मिलकर उसे शीतल कर देने वाला पवित्र स्वेदकण है। उस शीतल वायु की लहरें उन्हें भी छूती हैं और उनके समाज के दूसरे व्यक्तियों के प्राणों को भी छूकर आनन्द और मस्ती का एक वातावरण बनाती हैं। अवकाश और सद्भाव के यही स्रोत जंगल की ठण्डी हवाओं में मिलकर समाज के लिए, गीत और मस्ती की लहर बन जाते हैं। विकास का शैशव : पाँचवी बात यह है कि मुण्डा जनजाति विकास की शैशवास्था में रही है। और, एक व्यक्ति तथा समाज के विकास की प्रक्रिया एक ही प्रकार की है। जिस प्रकार एक व्यक्ति की प्रौढ़ावस्था में जब उसके ज्ञान और अनुभव परिप हो जाते हैं, तब भावनाओं की लहर सूखने लगतीहै और कल्पना के पंख झड़ जाते हैं; किन्तु बचपन और जवानी ऐसी अवस्थाएं हैं, जब उसके भाव प्रबल होते हैं, मन के आकाश में सतरंगी घटाएं घिरती हैं और उमंगों की धारा में स्वप्नों के फूल खिलते हैं। यही दशा जातियों के विकास की भी है। सभ्यता के विकास के साथ मनुष्य की बुद्धि क्रमश: विकसित हुई है और उसकी अभिव्यक्ति अधिक रंगीली, चिन्तन और आडम्बरपूर्म बनती गई है, किन्तु मनुष्य की भावना की दशा इसके प्रतिकूल है। जब मनुष्य की सभ्यता का पूरा विकास नहीं हुआ था, तब उसका हृदय अधिक संवेदनशील था और उसमें स्पन्दन अधिक था। जीवन सुख-दु:ख के पालने पर उसे अधिक झुलाता, जवानी उसके हृदयाकाश में स्वपनों के अधिक फूल खिलाती और प्रकृति अपने सौन्दर्य की किरणों से उसके मन को अधिक रंगती थी। बाहर का रुप मानव के हृदय में आज से अधिक रागों का सर्जन करता और वे रागाविहृल स्वरों में फूट-फूटकर वायु की लहरों को आज से अधिक झंकृत किया करते थे। भारतीय जनजातियों की प्रकृति को समझने के लिए मानव-विकास की उस प्रक्रिया को समझना नितान्त आवश्यक है। सबी आदिम जातियों (या जनजातियों) की तरह मुण्डा-जाति भी ज्ञान-विज्ञान की प्रारम्भिक अवस्था में रही है, जिससे उसके जीवन की आवश्यकताएँ सरल और सीमित बनी रहीं। उसके कन्धों पर बड़े-बड़े उत्तरदायित्व नहीं आये और अपने प्रकृत भावों से उसके आदिम सम्बन्ध नहीं टूटे। अस्तु; स्वभावत: ही उसके हृदय में बचपन की अल्हड़ भावनाओं और जवानी की उमंगों की अठखेलियाँ होती रहीं। मुण्डाओं की क्रीड़ा और संगीतप्रियता का सबसे बड़ा रहस्य यही है। मुण्डा जनजाति के लोगों की प्रकृति भावना, सरलता, सौन्दर्यप्रियता और स्वतन्त्रता ने मिल-जुलकर उसके सारे जीवन को सुरुचिपूर्ण और कलापूर्म बना दिया है। अस्तु; वे अपने साधन और सामर्थ्य की सीमा में जीवन को सुन्दर-से-सुन्दर बनाकर जीना पसन्द करते हैं और पूरी तन्मयता से साथ जीवन का उपभोग करते हैं। मुण्डा जाति के समस्त लोगों की संगीतप्रियता इसी सुरुचि और तन्मयता की स्वरित अभिव्यक्ति है। इसे हम उनके शेष जीवन से अलग करके नहीं देख सकते। उनका सारा जीवन ही संगीतमय है। वह संगीत जब मौन होता है, तब भी उनके प्राणों की गीत बजाता है। वह उनके कार्यों में सुरुचि और लगन भरता है, उनके जीवन की प्रत्येक साँस को अपनी सुरभि से सँवारता है, और उनकी सन्तानों के लिए अनुराग बनकर उन्हें विहृल बनाये रखता है। वह संगीत उनके मेलों और "जतराओं' (यात्राओं) के लिये आतुर प्रतीक्षा बनकर उनके मन में उमंग भरता है, तन्मयता बनकर एक-एक अनुष्ठान को पूर्ण कराता है और वही संगीत ताल बनकर उनके नृत्यों की किंशजिनी बजाता है। और, जब मुखर होता है, तब आकाश में काली घटाएँ छा जाती हैं, वसन्त की ठण्डी हवा में पत्तियाँ फूट पड़ती है और उसके स्वर की धारा में दु:खों के पहाड़ डूब जाते हैं। मुण्डा जनजाति का संगीत उसका जीवन-संगीत है और उसकी जीवन-कला की डाल पर खिला हुआ सबसे मनोहर फूल है। जनजातियों के प्राणों में पर्वों एवं उत्सवों ने भी आश्चर्यजनक योगदान दिया है। उत्सव आदिवासी के कर्म-कोलाहल में रसमय क्षणों का नाम है। ये उसके जीवन के मरुस्थल में "ओयसिस' (या फूलों का बगीचा) की तरह होते हैं। आदिवासी बेचैन होकर पर्वों की प्रतीक्षा करते हैं और पर्व के आने पर अपने हृदय की सारी उमंग उसमें उड़ेल देते हैं। पर्व के अभिनन्दन में इनका रोम-रोम गाने लगता है। मुण्डा जाति के लोगों के विहृल संगीत के तमाम रहस्य हड़िया (चावल से निर्मित देसी शराब) की महिमा बनाये बिना अधूरे रह जाएंगे। हड़िया इनका मादक पेय है, जिसे ये प्रत्येक पर्व, आनन्द और थकान के अवसर पर पीते हैं। कहा जाता है कि ये नशीले पदार्थ आदिवासियों के पिछड़ेपन के प्रधान कारण हैं। यह बात सच है। किन्तु, यह भी सच है कि इन्होंने इनके महान् विपत्तियों से झुलसे हुए मन को सदा खींचा है, और जीवन के भीषण संघर्षों में इन्हें अपने प्यार की मादक थपकी से सुलाकर सान्त्वना दी है। कौन कह सकता है कि इनके अभाव में इन्होंने सभ्यता की दौड़ में अपने को आगे बढ़ाया होता या इतिहास से मिट जाने वाली अनेक जातियों की तरह ये भी मिट गये होते? जनजातियों के पैरों में गति तथा कण्ठों में लय भरने में हड़िया का स्थान महत्वपूर्ण है। इसकी मादकता उस मस्ती को बढ़ाने में महत्वपूर्ण योग देती है, जिसके बिना मनुष्य जीवनभर की सारी चिन्ताओं को क्षणभर में भूलकर नाचने नहीं लग जाता। जनजातियों के नृत्य और संगीत एक दूसरे के परिपूरक, प्रेरक और उद्दीपक होते हैं। यह विह्मवलता की एक ही लहर का पगों और कण्ठों के बीच कलापूर्ण विभाजन है। जनजातियों अथवा वनवासियों की संगीत प्रियता में उनकी सामाजिक व्यवस्था का भी हाथ है। पुरुष और नारी की, जीवन में सहयोगिता और कर्मक्षेत्र में समानता भी उनके मन में आकर्षण, अनुराग और मधुर भाव भरती रही है - जो गीतों के उद्दीपक बने हैं। नारी की स्वतन्त्रता और पुरुष के साथ नृत्य स्वभावत: ही दोनों के मन के तारों में झञ्कार पैदा करने वाले हैं। इस अनुराग की विह्मवल पुकारों से मुण्डा-गीत भरे पड़े हैं। इस मस्ती और तन्मयता ने उनके जीव की प्रत्येक साँस को ही कविता बना दिया है। यहाँ तक कि बकरी चराने से लेकर पेड़ों की पत्ती तोड़ने तक सभी इनके गाने के विषय है। मुण्डारी गीतों का भेद मौसम के अनुसार मुण्डारी-गीतों के बहुत से भेद हैं। और महत्वपूर्म बात यह है कि, इन सभी भेदों के लय, ताल आदि-आदि अलग-अलग हैं। सभी गीत मौसम विशेष में गाये जाते हैं। एक मौसम का गीत दूसरे मौसम में नहीं गाया जा सकता है और इस नियम का पालन कठोर अनुशासन के साथ किया जाता है। मौसम के अनुसार ही उन गीतों से सम्बद्ध बाद्य-यन्त्रों के ताल, लय और नृत्य भी अलग-अलग हो गये हैं। श्री जगदीश त्रिगुणायम महोदय ने मुण्डारी गीतों को निम्नलिखित आठ भेद का जिक्र करते हैं : (क) जदुर अब इनका क्रमवार विवरण नीचे दिया जा रहा है : (क) जदुर गीत : जदुर गीत के बारे में ऐसी मान्यता है कि यह इस जनजाति का सबसे प्रमुख और प्राचीन गीत है। जदुर ॠतुराज वसन्त का गीत है। मुण्डाओं का सबसे प्रमुख पर्व सरहुल है, जो वसन्तोत्सव है। मुण्डा के जीवन की चिर-सहचरी प्रकृति जब अपना अभिनव श्रृंगार करती है और जब जंगलों में वसन्त की छटा छा जाती है, तब ये भी प्रकृति के स्वर में स्वर मिलाकर गा उठते हैं। इनके मस्ती-भरे मन पर छाया हुआ सारा वातावरण ही पर्व बन जाता है। ये एक-एक फूल के पास जाकर उसकी निराली मुस्कान का रहस्य पूछते है, और पक्षियों के राग में अपने विह्मवल मन की पुकार सुनते हैं। सरहुल वन देवता के प्रति इनके कृतज्ञ हृदय का विनम्र अभिनन्दन है और इनके जदुर-गीत प्रकृति की अर्चना में इनके विह्मवल प्राणों का मधुर संकीर्तन है। जब पलाश के फूलों और कुसुन की नई कोपलों से सारा जंगल लाल हो जाता है और नए पल्लवों और फूलों से जंगल भर जाता है, उस मोहक वातावरण में अगल कोई जदुर-गीत सुने तो जैसे कोयल की मीठी बोली वसन्त के सरस वातावरण में रसीली और मीठी हो जाती है, उसे उस समय ऐसा प्रतीत होगा कि ठीक वैसे ही मुण्डा के स्वरों में भी एक दर्दभरी मधुर टेर समा जाती है। उसका हृदय आकुल आमन्त्रण से विह्मवल हो जाता है और वाणी करुण पुकार से भर जाती है। जंगल में छाए हुए रुप, रस, गन्ध और ध्वनि के मधुर वातावरण मुण्डा-प्राणों को मिलन की बैचेनी से भर देते हैं और विरह की व्यवस्था को और भी गहरी बना देते हैं। ऐसे वातावरण में दूर से सुनाई देने वाले जदुर-गीत के छोटे-छोते आकर्षक बोल ऐसे जान पड़ते हैं, जैसे कोयल की दर्द-भरी टेर रह-रहकर टूट-टूट जाती हो या बरसात की काली घटाओं के नीचे पपीहे की पी-पी की रटन थककर हार-हार जाती हो। एकान्त में गाए हुए मुण्डा-युवक एवं युवतियों के इन जदुर-गीतों पर प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानन्दन पन्त का यह कथन पूर्णरुपेण चरितार्थ लगता है :
या प्रसिद्ध आंग्ल कवि शेली महोदय की यह उक्ति : 'Our sweetest songs are those that tell us of saddest thought. इन वनों में जहाँ मुण्डा जाति के लोग रहते हैं एक अजनबी भी महसूस कर सकता है कि इन सारे प्रकृति पुत्रों, पक्षियों और मनुष्यों के स्वर एकान्त वातावरण में आपस में मिलकर और एक दूसरे के पूरक होकर इतने एकाकार हो जाते हैं, जैसे वे एक ही अर्त के विभिन्न शब्द हों, एक ही भाव के विभिन्न छन्द हों, जैसे वे एक ही गीत की विभिन्न लय हो। दरअसल, पुष्पों से भरी हुई झाड़ियों में भौंरो की गूँज का, वृक्षों की नई कोंपलों में कोयल की कूक का वसन्त की रंगीन छटाओं में मुण्डा की करुण पुकार का एक ही अर्थ है। माघ महिने में मनाया जाने वाला मागो पर्व के बाद जदुर का मौसम प्रारम्भ होता है और वृक्षों की नई कोंपलों के साथ ही इस गीत की कलियाँ भी फूटने लगती हैं। और फिर, सरहुल मना लेने के बाद जदुर के भावमय गीत अगले वर्ष की प्रतीक्षा के लिये बन्द कर दिये जाते हैं। (ख) गेना गीत : अपने मूल स्वभाव से गेना-गीत, जदुर-गीतों के ही पूरक हैं, जो नृत्य की सुविधा के लिए बनाये गये हैं। बहुधा दो जदुर-गीतों के बाद गेना गाया जाता है, जो जदुर-नृत्य की ताल को थोड़ी देर के लिए बदल देता है। जदुर के कठिन आरोह-अवरोह के बाद गेना के सरल नृत्य में थोड़ा आराम मिलता है और वातावरण की एकरुपता में थोड़ा परिवर्तन आ जाता है, जो रात-रात भर चलने वाली लघुतर बनाने के लिये गेना-गीतों की पंक्तियाँ भी छोटी-छोटी रखी गई हैं। (ग) ओर -जदुर : ये गीत भी जदुर-गीतों के पूरक हैं और जदुर के विशाल वृक्ष की बाहर निकली हुई टहनी के समान जान पड़ते हैं। इनकी लय और छन्द जदुर से कुछ भिन्न होते हैं, किन्तु गाने का समय, मौसम और उपयोग वही है। (घ) करमा : करमागीत भाव, लय और लोकप्रियता की दृष्टि से जदुर-गीतों से भी आगे बढ़े हुए हैं। सरहुल की समाप्ति से ही करमा-गीतों का प्रारम्भ होता है। मुण्डा जनजाति के लोग सरहुल की अन्तिम सन्ध्या आने के पहले ही, उसी दिन के धुँधले प्रभात में दो-चार करमागीत गाकर करमा के महान् मौसम का स्वागत करते हैं। और फिर, इन गीतों का क्रम नित्य बदलते रहने वाले वातावरण में अपना रुप बदलता हुआ आश्विन के अन्त तक चलता है। भादव की शुक्ल एकादशी को करमापर्व मनाया जाता है और उस पर्व से भी सम्बद्ध बहुत से गीत हैं; किन्तु दरअसल, करमागीत पर्व की सीमाओं में बँधे हुए नहीं हैं। अपने प्रकृत रुप में वे एकान्त संगीत हैं, जो गरमा में वन वृक्षों की शीतल छाया में, अषाढ़ की काली घटाओं में, बरसात की एकान्त खेतों में और भादव की सूनी राहों में समान रुप से गाये जाते हैं। वास्तव में, बरसात के दृश्य इन पहाड़ी भागों में बड़े मोहक हो जाते हैं। धरती पर छाई हुई हरियाली, बादलों के गंगाजल से धुले हुए जंगल, घास और झुरमुटों की चादर ओढ़े पहार, खेतों में कुलकालाता हुआ पानी, रात की नि:स्तब्धता, झींगुरों की झनकार, पक्षियों की चहचहाहट, धरती से आकाश तक के सारे दृश्य और क्षण क्षण परिवर्तित प्रकृति के रुप बड़े प्रभावशाली होते हैं, जी मुण्डाओं के मस्त स्वभाव को छेड़े बिना नहीं रह सकते। एकान्त के क्षणों में उन्ही क्षणों के लिए बने होने के कारण करमागीतों का प्रभाव बड़ा गहरा होता है। और उनके कम्पित स्वर तथा लय की लहरों का बड़ा मधुर विकास हुआ है। सूनेपन की टेर उनके स्वरों को ऊंचा उठाती है और दर्द उनमें कम्पन पैदा करता है। जंगल के किसी एकान्त से खुलकर गाये हुए करमागीत प्रकृति के चरणों में पुरुष की चिरन्तन प्रकार के समान जान पड़ते हैं। मानो प्रणयातुर धरती, आकाश को अपने मिलन का विह्मवल सञ्देश सुनी रही हो। करमा गीतों का अर्थ वही है जो दूर क्षितिज के ऊपर उठती हुई काली घटाओं में बगुलों की पंक्ति का अर्थ है; जो ठण्डी हवा के साथ खुली खिड़की से आकर बदन को सिहरा देने वाली भाप की फुहारों का अर्थ है, जो आषाढ़ के पहले पानी पाकर धरती से उठने वाली सोंधी-सोंधी गन्ध का अर्थ है और जो सूनी रात के बेचैन कानों में दूर से आने वाली बाँसुरी की करुण पुकार का अर्थ है। करमा पर्व मुण्डा जाति के लोगों का बहुत पुराना पर्व नहीं है। ऐसा लकता है कि इस पर्व को उन्होंने दूसरों से सीखा है। किन्तु, उसमें अपना रंग मिलाकर उसे और भी रसमय बना लिया है। अस्तु; पर्व के लिये भी बहुत से गीत बने हैं। करमा के अलग नृत्य हैं और बाजों के अलग लय-ताल हैं। करमा गीतों में कृष्णकाव्य और रामायण की भी बहुत सी कथाएँ गाई जाती हैं। मुण्डा जाति का कृष्णकाव्य प्रीतपला के नाम से और रामकता रामायाण के नाम से प्रसिद्ध हैं। ऐसे गीतों में पूर्णता है और भावों की अभिव्यंजना अधिक मार्मिक और कलापूर्ण। ये शिक्षित गीतकारों द्वारा रचे गए हैं। इन्हें "बुदू बाबू' नामक एक पाँच परगना (खूँटी अनुमण्डल का पूर्वी भाग पाँच परगना कहलाता है) निवासी कवि एवं गीतकार ने बनाया है। इनमें चैतन्य महाप्रभु के कीर्तनों का प्रभाव और बँगला गीतों की रसमयता है। अधिकांश करमा गीतों की पंक्तियाँ लम्बी होती हैं, जो गाते समय खींचकर और भी बढ़ा ली जाती हैं। उनके स्वरों का आरोह, जो इन्हें अन्य गीतों में प्रमुखता प्रदान करती हैं। (च) जरगा गीत : करमा गीत के समाप्त होते ही जरगा-गीतों का मौसम आता है, जो कार्तिक से मागे पर्व की सीमा तक गाये जाते हैं। मागे फसली पर्व है। यह कृषि से सम्बन्धित सारे कार्य की समाप्ति के बाद जब अनाज घर में आता है, और जब ये लोग काम-धाम से थोड़े दिनों के लिए छुट्टी पा जाते हैं, तब मनाया जाता हैं। मागे पर्व अन्न की प्रसन्नता में तृप्ति का पर्व है और जरगा गीत अपने मौसम के अनुसार शान्त भावों के गीत हैं। उनकी लय, ताल और नृत्य में एक शान्ति और सन्तोष की भावना पाई जाती है। स्वभावत:, यह मुण्डा के जीवन की उमंगों का सबसे सुनहला समय है, पर दुर्भाग्यवश दर्द भरे गीत ही मानव के सबसे मीठे गीत होते आये हैं और गीत के सबसे मनोहर फूल आँसू के खारे जल में ही लिखा करते हैं, इसलिए जरगा-गीत दु:ख-दर्द के अभाव में मिठास के सौभाग्य से वंचित हैं और सूने दिनों को काट ले जाने के सिवा इनका और कोई महत्व नहीं है। (छ) जापी गीत : जापी गीत शिकार के गीत हैं और मुण्डा गीतों में इनकी संख्या सबसे कम है। ये उन शिकार के आयोजनों में, जो होली और सरहुल पर्वों के उपलक्ष्य में होते हैं, गायें जाते हैं। जापी गीतों में प्रमाण की गतिशीलता, युद्ध की ललकार और सफलता की उमंगे, तीनों के बड़े अच्छे सामंजस्य पाये जाते हैं। इनके वाद्य और नृत्य भी तदनुकूल ललकार की ध्वनियों से भरे होते हैं। इन गीतों में अपनी कलाप्रियता को सम्मिलित करके मुण्डा जनजाति के लोगों ने शिकार को भी उत्सव बना लिया है। जापा-गीतों की पंक्तियाँ प्राय: लम्बी होती है। नृत्य जोरदार चक्र के कारण घुड़दौड़ के समान जान पड़ते हैं। लगता है, स्वर द्रुतगामी कदमों का पीछा कर रहें हों। (ज) जतरा गीत : प्रत्येक पर्व और उल्लास के अवसर पर इन नृत्यप्रेमियों के बहुत से गाँवों के लोगों का जो समवेत सम्मेलन हुआ करता है, उसे जतरा कहते हैं। इन जतराओं में मुण्डा जनजाति एवं अन्य जनजातियों के लोग बड़े उल्लास से दलबल के साथ - प्राय: अपनी नृत्य मण्डलियों के साथ जाते हैं। मानों कर्म-कोलाहल के बन्धनों से आजाद होकर ये मुक्त उमंगों के राजमहल पर धावा बोल रहे हों। युवक-युवतियों के लिए ये जतरा महापर्व है। इन जतराओं में गानों के लिए विभिन्न प्रकार के गीत बने हुए हैं। इनमें कभी-कभी नृत्य मण्डलियाँ बाजे-गाजे के साथ जाती हैं और कभी-कभी बिना बाजे के ही उनके दल मुक्त रागों की लय पर नाचते हुए प्रमाण करते हैं। जतराओं के गीत रास्ते की थकान को भुलाने के लिए और पैरों में उमंग भरने के लिए बनाये गये हैं। हालांकि आजकल परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में जतरा के गीतों की संख्या दिनानुदिन कम होती जा रही है। जतरा के अवसर के लिए भी - चाहे रास्ते में या मेले में मौसमी गीत ही अब प्राय: गाये जाने लगे हैं और जतरा के गीत स्वतन्त्र गीतों का स्थान लेने लगे हैं। (झ) विवाह -गीत : जैसा कि हम समस्त भारतवर्ष के निवासियों में विवाह के विभिन्न रस्मों से जुड़े संस्कार गीत देखते हैं ठीक इसी तरह मुण्डा जनजाति के लोगों में भी विवाह के बहुत से गीत गाये जाने की प्रथा अति प्राचीनकाल से चली आ रही है।
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