झारखण्ड

टांगीनाथ तीर्थस्थल का विवरण

पूनम मिश्र


सूर्य मन्दिर

 

खुबसूरत पहाडी, घने जंगल,लघु किन्तु आकृषक जलप्रवात,पंछियों के कलरव, निश्चल जनजातियों के गीत और संगीत,इस तीर्थस्थली के अर्थात् टांगीनाथ को आकर्षक,पवित्र और एक महत्वपूण तीर्थधाम में परिवर्तित कर देता है।टांगीनाथ में लगभग २०० अवशेष है जिसमें शिवलिंग और देवी देवताओं की मूर्ती विशेषकर दुर्गा,महिषासुर मर्दानि और भगवती लक्ष्मी गणेश अद्धर्नारीश्वर, उमा महेश्वर, विष्णु,सूर्यदेव, वीरहनुमान, नन्दी बैल, हाथी, गज,सिंह के अलावे पत्थर की वर्गाकार आकृति कलात्मक खुदाई किया हुआ है। इसके साथ ही साथ पत्थर के जलपात्र, कुम्भ आदि भी हैं। इन मूर्तियों के निर्माण में बिन्धया सेन्ट स्टोन और क्वार्टजाइट पत्थरों का प्रयोग हुआ है, इनमें से अधिकांश मूर्तियों एवं लिंगों को उत्खनन से प्राप्त किया गया है। मूर्तियों का नामकरण एवं पहचान स्थानीय पुजारियों की सहायता से किया गया है। इनमें से कुछ मूर्तियाँ खण्डित हैं और टुकड़ो -टुकड़ों में बटे हुए हैं, जबकि कुछ तो पहचानने के लायक नहीं है या फिर अपूर्ण या अलग तरह के बने हैं। टांगीनाथ की सबसे बड़ी विशेषता एक महाविशाल त्रिशूल है। शायद ही कहीं इतना विशाल त्रिशूल मिला है।

टांगीनाथ को टांगीनाथ महादेव के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ लगभग ६० शिवलिंग हैं जिन्हें पाँच भागों में बाँटा जा सकता है -

(क) वैसे शिवलिंग जिन्हें पत्थरों के सहारे से खडा किया जाता है।इस तरह के शिवलिंग मुख्यतया वर्गाकार आकृति के होते हैं जो मध्य में अष्टभुजाकार आकृति के होते हैं।
(ख) वैसे शिवलिंग जो सामान्य गोल एवं अर्द्धाकृति में अवस्थित है।
(ग) वैसे लिंग जो आयताकार या वर्गाकार अर्ध में स्थापित हैं।इनमें सेएक लिंग का व्यास २७
इंच /२७ इंच है।
(घ) वैसे लिंग जो छोटे वर्गाकार और आयताकार दीवाल से बने चेम्बर में स्थापित है और
(च) वैसे लिंग जिसमें मानव मुख या शरीर खुदे हुए हैं।

टूटी फूटी मूर्तियों, शिवलिंगो के अतिरिक्त टांगीनाथ में पाँच स्थान हैं जहाँ पूजा अर्चना की जाती है, ये हैं--

(क) टांगीनाथ मन्दिर या शिव मन्दिर
(ख) त्रिशुल जोकि उत्तरी प्रवेश द्वार के सामने अवस्थित है
(ग) शिवमठ या योगी मठ
(घ) देवी मन्दिर या देवीमुरी,यह दक्षिण द्वार के सामने अवस्थित है
(च) सूर्य मन्दिर, यह सुदूर पश्चिम के अन्तभाग में अवस्थित है।

यद्दपि विधिपूर्वक पूजा एवं अनुष्ठान मुख्यतया टांगीनाथ मन्दिर और देवी मन्दिर में ही होता है। भक्त पूजा अर्चना परम्परागत पूजारियों की सहायता से इन्हीं दो जगहों पर करते हैं। मन की मुरादें मांगते हैं या मिल जाने पर कृतज्ञता अर्पित करने के लिए यहाँ आते हैं।

टांगीनाथ मन्दिर का क्षेत्रफल ग्यारह फीट चार इंच गुने ग्यारह फीट है।इसका निर्माण ईंट की दीवार और फूस के छत से किया गया है। इसके प्रवेश द्वार पर पत्थर के दो स्तम्भ लगे हुये हैं। दरवाजे के बाहरी भाग पर भगवान सूर्यदेव का साढे चार फीट की ऊँची मूर्ती है। एक त्रिकोणीय झंडा दरवाजे के बांयी दिशा में और छत के ऊपर लगा रहता है। मन्दिर के अन्दर एक लिंग जिसका व्यास पांच फीट है। एक अर्ध के साथ स्थापित है।लिंग को देखने से ऐसा आभास होता है। यह एक प्रस्तरीकृत वृक्ष के तने की आकृति का है जो बीच से खंडित है और बहुत जगह से टूटा फूटा है।इस लिंग के साथ आठ प्रस्तर फलक सजाये हुये हैं, उसके साथ -साथ दो लोहे के त्रिशूल जो कि क्रमश: दो और चार फीट के हैं गढे हुये हैं। इसके अलावा लगभग एक दर्जन छोटे -छोटे (त्रिकोणीय) झंडे पतले - पतले बांस से लगे हुये हैं। लोगों में ऐसा विश्वास है कि सतयुग में इस सथान पर सुगन्धित वृक्ष लगा हुआ था। जब कलयुग आया तो लोगों के आपसी वैमनस्य, घृणा,लोभ एवं अन्य कुकृत्य से दुखी होकर भगवान टांगीनाथ उस चन्दन के वृक्ष में प्रवेश कर गये और देखते ही देखते समस्त वृक्ष पत्थर बन गया।समय के प्रवाह के साथ वृक्ष के बहुत से तने टूट कर धरती पर गिर गये और खो गये किन्तु मुख्य भाग अभी भी बचा हुआ है जो भगवान टांगीनाथ का सूचक है। इसका नाम शिव मन्दिर होना इस बात का सूचक है कि टांगीनाथ - देवाधिदेव महादेव के एक अवतार हैं। इस मन्दिर का निर्माण जसपुर के राजा के किसी पूर्वज ने उन्निसवीं शताब्दी में किया था। कहते हैं वह सन्तानहीन था। सन्तान प्राप्ति के सभी उपाय से निराश होकर यह मान हिया था कि वह बिना सन्तान ही रह जायेगा। इसी समय किसी शिवभक्त ने उसे सुझाव दिया कि अगर भगवान टांगीनाथ के यहाँ पत्नी के साथ जाकर पूजा करे और सन्तान की याचना करे तो निश्चय ही पुत्रलाभ होगा। राजा अपनी पत्नी के साथ एक सच्चे भक्त के रुप में राजमहल से पैदल चलकर टांगीनाथ पहाड पहुँचा। वहाँ स्थानीय कोरबाके शिवपुजारी की सहायता से विधिवत पूजा अर्चना किया। रात्रि में भी राजा एवं रानी शिवलिंग के समीप ही सो गये।राजा की भक्ति से द्रवित होकर भगवानशिव ने उन्हें स्वप्न दिया और कहा "हे राजन ! मैं तुम्हारी भक्ति से खुश हूँ और तुम्हे पुत्र होनेका वरदान देता हूँ।"

राजा सुबह उठकर स्नान ध्यान करने के बाद एक बार पुन: विधिवत पूजा अर्चना करके अपने राज्य की ओर प्रस्थान कर लिया। एक साल के अन्दर ही रानी ने एक सुन्दर तथा तेजस्वी बालक को जन्म दिया। कृतज्ञ राजा सन्तान को पाकर गद्गद् हो उठा और टांगीनाथ में जाकर उन्नीसवीं शताब्दी के मध्याह्म एक साधारण किन्तु कलात्मक मन्दिर का निर्माण राजकोष से करवाया। बाद में उसका जीर्णोधार मालगांव के पूर्व राजा ने किया

मन्दिर का त्रिशूल जो लोहे का बना हुआ है,बहुत ही विशालकाय है। त्रिशूल का तीनों फलक टूटा हुआ है और बगल में नीचे रखा हुआ है। दाहिना फलक भी तीन भागों में बंटा हुआ है। एक स्थानीय दंत कथा के अनुसार एक बार एक लोभी लौहार कोई उपयोगी उपकरण बनाकर पैसा कमाने के लिए इस त्रिशूल के तीनों फलक को काट दिया। लौहार मझगांव का ही रहने वाला था। उसके इस कुकृत्य से भगवान शंकर कुपित हो गये और एक सप्ताह के अन्दर अपने समस्त परिवारजनों के साथ वह लौहार मर गया। उसके बाद ऐसी धारणा है कि पूरी मझगांव की चौहदी में कोई भी लौहार जिंदा नहीं रह सकता। त्रिशूल की लम्बाई लगभग बारह फीट है। कुछ लोगों की मान्यता है कि त्रिशूल की लम्बाई सतरह फीट है,लगभग पाँच फीट नीचे यह गडा हुआ है। स्थानीय लोग किसी भी व्यक्ति को इस त्रिशूल को खोदने तथा इसके तह में जाकर इसकी पूरी ऊँचाई को नापने की अनिमति नहीं देते। दंत कथा के अनुसार भगवान विश्वकर्मा ने स्वयं अपने हाथ से इस त्रिशूल का निर्माण कर इसे गडा। अत: मनुष्य को यह अधिकार नहीं है कि इसके तह में जाकर इसकी लम्बाई मापे, जो कोई भी ऐसा करेगा उसका सर्वनाश हो जाएगा। आज से लगभग सत्तर वर्ष पहले मझगांव के लालचेत नारायण सहदेव ने इस त्रिशूल के नीचे की जमीन खोदना प्रारम्भ किया। खोदते - खोदते वह लगभग चौफीट नीचे गया, फिर भी उसे त्रिशूल की गहराई का पता नहीं चल पाया। उसके बाद उसे चार स्वर्ण सिक्के प्राप्त हुए। इस घटना के एक सप्ताह बाद वह पागल हो गया, वह लगभग दो बरस तक पागल बन भटकता रहा और अन्त में मर गया।

त्रिशूल के उत्तरी भाग के तरफ करीब दस फीट की दूरी पर एक पवित्र जलकुंड है जिसका निर्माण ईंट से हुआ है। इसकी लम्बाई चौदह फुट नौ इंच तथा चौडाई चौदह फुट पांच इंच के करीब है।यह करीब आठ फीट गहरा है। जल प्राप्त करने के लिए पश्चिमी भाग से सीढ़ी बना हुआ है। मान्यता ऐसी है कि इस कुंड का सम्बन्ध पाताल जल से है, जो टांगीनाथ मन्दिर से जुडा हुआ है। इस कुंड से भक्त चरणामृत लेते हैं। कुंड के पश्चिमी किनारे पर शायद किसी मन्दिर के गुम्बद का शीर्षभाग का विखण्डित रुप पडा है जो आकृति में घटपल्लव जैसा प्रतीत होता है। जनमानस में ऐसी मान्यता है कि प्रचीन समय में लोगों को एक स्थान पर एकत्रित करने के लिए नगाड़े के रुप में प्रयोग किया जाता था। 

तीसरा स्थान अर्थात् शिव मठ टांगीनाथ के दक्षिणी छोर पर अवस्थित है। यह बहुत ही जीर्ण शीर्ण अवस्था में है। ऐसा प्रतीत होता है कि विभिन्न प्रकार के पत्थरों को काटकर उनमें कलात्मक खुदाई का कार्य कर इसमें शिवमठ का निर्माण किया गया था। शिवमठ के मुख्य छत विहीन मन्दिर की लम्बाई ६ फूट डेढ़ ईंच तथा चौड़ाई पाँच फूट डेढ़ ईंच है। इस मन्दिर के दीवार लगभग ६ फूट ऊँची है। मन्दिर के बींचोबीच एक शिवलिंग अर्ध के साथ स्थापित किया गया है।इस शिवलिंग के पूरब भाग में इसी तरह की आकृति स्थापित है जोकि विखण्डित है। बहुत से शिवलिंगों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि यह मन्दिर मुख्य रुप से भगवान शिव को समर्पित था और महादेव मन्दिर के रुप में विख्यात रहा होगा। मन्दिर के मुख्य प्रवेश द्वार अर्थात् पश्चिम दिशा में एक छोटा और कलात्मक सीढ़ी है जिसपर मुश्किल से एक व्यक्ति खडा रह सकता है किन्तु इसके सजाये पत्थर अभी भी इसमें लगे हुए हैं। प्रमुख शिवलिंग के प्रवेश द्वार के पल्ले में कलात्मक चित्र, मूर्ती, फूल पत्तियों के डिजायन देवी मन्दिरों के चित्र आदि अति कलात्मक दृष्टि से खुदे हुये  हैं। हलाँकि देवी देवताओं के नाम आदि के सम्बन्ध में स्थानीय लोगों को विशेष जानकारी नहीं है। दीवार के बाहरी प्रदेशों में भी इसी तरह के कलात्मक नक्काशी की गयी है परन्तु इनको पहचान पाना मुश्किल है। शायद प्रकृति के प्रकोप यथा वर्षा, गर्मी, सर्दी, धूल, हवा आदि ने नक्काशी के कार्य को प्रभावित किया है और अधिकांश भाग घिसा हुआ प्रतीत होता है। दरवाजे के दोनों तोरण देवारके शीर्ष पर मंगलदायक विघ्नहरण श्री गणेश का चित्र खुदा हुआ है और ठीक इसी तरह तोरण द्वार के नीचे वाले प्रदेश में दोनों तरफ दो उन्नत खुदे महिला आकृति बने हुये हैं। ये आकृति परियों जैसी लगती है। पीलर के अग्र भाग में दो मानव मूर्ती खुदे है। बांयी दिशा वाली मूर्ती के चार हाथ है और वह गले में मुण्डमाला पहने हुये है। मूर्ती के उन्नत मूंछे हैं और वह दाहिने हाथ में डमरु धारण किये हुये है। यह स्वरुप इस मूर्ती को भगवान शिव का रुप प्रदान करती है। दांये भाग के मानव मूर्ती अपने दाहिने हाथ में त्रिशूल धारण किये हुये है और बांये हाथ में एक रुद्राक्ष की माला लिये हुये पूजा में ध्यान मग्न लगता है। दोनों मूर्ती लगभग २ फूट ५ इन्च ऊँची है। गुमला शहर के श्री गंगा महाराज के विचारानुसार ये मूर्ती क्रमश: जय और विजय के हैं। जबकि श्री प्रमोद महाराज का मानना है कि ये दोनों मूर्ती भगवान महादेव के दो रुपो - मुण्डमालाधारी महादेव और कमलत्रिशूलधारी महादेव - के हैं। इस मन्दिर में अंकित अन्य मूर्तियों में प्रमुख है कालीजी, लक्ष्मीजी,सतीदेवी भैरव इत्यादि। इस मन्दिर एवं यहाँ के मूर्तियों, पीलरों आदि के निर्माण के लिए बिन्ध सैन्डस्टोन का प्रयोग किया गया है।

दूसरा महत्वपूर्ण मन्दिर देवी मन्दिर का है। इस मन्दिर में प्रमुख पांच मातृदेवियों को एक पत्थर के आयताकार टुकडे पर थोडा ऊँचा करके क्रमवार से सजाया गया है। सारी मूर्तियां पश्चिम दिशा में मुखाकृत हैं। मन्दिर के निर्माण में मिट्टी के दीवारों का प्रयोग किया गया है। दीवार की लम्बाई और चौडाई क्रमश: चौदह फूट और ग्यारह फूट तीन इंच है। दिवाल की उँचाई प्रवेश द्वार के पास केवल पाँच फूट के आसपास है। जो भी भक्त इस मन्दिर में प्रवेश करता है, उसे सिर झुकाकर प्रवेश करना पडता है। मन्दिर क छत को छपरैल से ढका गया है। मन्दिर के प्रवेश द्वार के समीप दो स्तम्भ के अवशेष विखण्डित अवस्था में है। जिन्हे दोनो भागों में रखा गया है। मन्दिर में स्थापित मातृ मूर्तियों को बांए से दांए दिशा में कुछ इस तरह स्थापित किया गया।

(क) भगवती दुर्गा या महिषासुर मर्दिनी मूर्ती जिस का आधार क्रमश: साढ़े चौंतिस इंच न्२०इंच है जैसा कि नामकर से ही स्पष्ट है यह आठ भुजाओं से युक्त महादेवी सिंह पर सवार होकर राक्षस का वध करने की प्रचण्ड मुद्रा में है। हाथ में शस्रादि जैसै भाला, तीर,तलवार आदि है और एक हाथ से महिषासुर को त्रिशूल से बिंधे हुए हैं।
(ख) द्वितीय मूर्ती भगवती जी का है, जिसका आधार २६ ईंचन्१६ ईंच है।
भगवती के चार हाथ हैं और चारों दिशाओं में महिलामुखमण्डल बना हुआ है।
(ग) तृतीय मूर्ती को भगवती जी के नाम से ही जाना जाता है। इसकी उँचाई
लगभग २३ ईंच है।
(घ) चौथी मूर्ती दुर्गादेवी का है। यह १६ ईंच ऊँची और साढ़े नौ ईंच चौडी है।
(च) पाँचवी मूर्ती भी दुर्गा का है। यह बहुत हद तक प्रथम मूर्ति अर्थात् भगवती दुर्गा
या महिषासुर मर्दिनी से मिलती जुलती है। यह २१ ईंच ऊँची और १२ ईंच चौडी है। ये सभी मूर्ति ग्रेनाइट से बने हुये हैं।हलांकि तीसरी मूर्ति उध्र्वाकार है और उसको बनाने के लिए लेटेराइट पत्थर का प्रयोग किया गया है। यह मूर्ति दो भागों में कटिप्रदेश के नीचे से विखण्डित है।इसे पत्थर के दो टुकड़ों के सहारे पीछे से खडा किया गया है।

एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ये सभी मूर्तियाँ खुली धरती पर यत्र- तत्र बिखरी हुई थी। हाल के वर्षों (लगभग पच्चास वर्ष पूर्व) में ही उन्हें एक मन्दिर में स्तापित कर दिया गया है। कुछ भक्तों ने इस मातृदेवियों को निम्नलिखित नाम से पहचाना है :

(क) महाकाली जी;
(ख) लक्ष्मी जी;
(ग) बुद्धिमाता जी;
(घ) भैरोंमाता जी;
(च) पार्वतीदेवी जी;

श्री प्रमोद मिश्र महाराज के अनुसार ये मातृदेवियाँ निम्नलिखित हैं :

(क) दासभुजी देवी;
(ख) आस्ताभुजी देवी;
(ग) काली जी;
(घ) महामाया;
(च) दुर्गा।

सूर्य मन्दिर

सूर्य मन्दिर टांगीनाथ में एक प्रमुख मन्दिर है जहाँ लोग पूजा अर्चना करते हैं। यह पूरब की दिशा में अवस्थित है तथा इसका मुख्य द्वार दक्षिण की ओर खुलता है। इस मन्दिर के निर्माण में भी दीवार के लिए मिट्टी तथा छत के लिए खपड़े तथा फूस का प्रयोग किया गया है। यह पूरब की दिशा में१६ फूट लम्बी और पश्चिम की दिशा में १० फूट चौडी है। यहाँ मूर्तियों को डेढ फीट उँचे प्लेटफार्म पर सजाया गया है। मूर्तियों में बाँए से दाँए भाग की ओर क्रमश: विष्णु भगवान (१९ईंचन्१२ईंच) शिव पार्वती या उमा - महेश्वर (२३ईंचन्१४ईंच) और सूर्य भगवान (२६ ईंच ११.५ ईंच) है।

विष्णु चार भुजाओं से सुसज्जित हैं। उनके एक हाथ में गदा दूसरे में पदम है। तीसरा हाथ खण्डित है। जबकि चौथा पूरी तरह से दिखाई नहीं देता। दूसरी मूर्ति उमा महेश्वर की है; जिसमें उमा महेश्वर की दांयी जंघा पर बैठी हुई हैं। शिव के चारहाथ हैं जिसमें एक हाथ में त्रिशून है। शिव के दाहिने जंघा के नीचे एक बसहा बैल है ;जबकि पार्वती के पैर के समीप एक सिंह खडा है। शिव और पार्वती दोनों आन्नद मुद्रा में बैठे हैं। तीसरा और अन्तिम मूर्ति भगवान भास्कर की है। भगवान सूर्य अपने रथ पर सवार हैं जिसे नौ घोड़े खींच रहे हैं। उनके हाथ में दो गोल आकृति की वस्तु हैं जिसमें पुष्प डंठल (शायद सुरजमुखी) संलग्न है। दोनो हाथ केहुनी से ऊपर उठा हुआ है। भगवान सूर्य के सिर के ऊपर दो छोटे मानव आकृति हैं। शायद यह आकृति परियों की है। तीनों मूर्तियों के पृष्ठ भाग में तीन पताका (झण्डे) लगे हुए हैं जो भक्तों का भगवान के प्रति समपंण के भाव को दर्शाता है। मन्दिर के मध्य भाग में बाएं तरफ विभिन्न देवी - देवताओं के १० विखण्डित एवं जीर्ण - शीर्ण मूर्तियाँ या फिर उनके टुकडे बिखरे पड़े हैं। इन छोटी छोटी मूर्तियों के पीछे भी श्रद्धालुओं ने झंडा गांठ के भगवान के प्रति अपनी भक्ति का उदाहरण प्रस्तुत किया है।

सूर्यमन्दिर का निर्माण १९६३ में गंगा महाराजजी के निर्देशन एवं देख रेख में किया गया। इसके लिए टांगीनाथ के अगल - बगल के गांवों में रहने वाले हिन्दु समुदाय के लोगों ने दान दिया। इसी पैसे से श्री गंगा महाराजजी ने इनका निर्माण करवाया। सूर्य भगवान एवं अन्य देवताओं की प्रतिमा १९६३ ई० में ही पीछे के एक कुण्ड से श्री गंगा महाराज के कहने पर खुदाई से प्राप्त हुई। सूर्य मन्दिर के साथ ही पूरब की ओर एक और कक्ष का निर्माण कराया गया था। इस कक्ष के बनाने के पीछे उद्देश्य यह था कि यहाँ आए दर्शनार्थी अपनी असला - खसला यहाँ रख सके। परन्तु इसका रखरखाव सही नहीं है और यह जीर्ण - शीर्ण लगता है।

इन प्रतिमाओं के अलावे अन्य उपकरण लगभग २४ लघु मन्दिर ढ़ाँचे जिनकी ऊँचाई लगभग ३ फुट है,टांगीनाथ के समीप मिले हैं। एक को छोड़कर सभी जीर्ण - शीर्ण अवस्था में हैं। वे सभी टांगीनाथ मन्दिर के आगे दक्षिण दिशा में तथा कुण्ड के पीछे हैं। इन सभी लघु मन्दिरों में एक शिवलिंग अर्ध के साथ स्थापित है। टांगीनाथ एक पहाड़ी पर अवस्थित है। जिसके चारों ओर आदिकाल से लेकर आजतक जंगल क्षेत्र भरे पड़े हैं। इसके ठीक आस- पास के जंगलों का हलाँकि सफाया कराया गया होगा, ऐसा प्रतीत होता है। यद्दपि, बेलपत्र, कनैल फूल, आदि के वृक्ष अलग- बगल में होना इस बात के प्रमाण प्रस्तुत करता है कि इस जंगली प्रदेश में इन वृक्षों को भगवान शिव की पूजा - अर्चना करने के उद्देश्य से लगाया गया होगा। टांगीनाथ से केवल एक प्रस्तर अभिलेख मिला है, ज्समें फूल-पत्तियों के डिज़ायन बने हुए हैं। स्थानीय लोग इस फूल- पत्तों के डिज़ायन वाले प्रस्कर अभिलेख को अति प्राचीन मानते हैं। किसी भी इतिहासकार,मानवशास्री अथवा प्रागैतिहासज्ञ ने इस प्रस्तर अभिलेख पर आजतक वैज्ञानिक अध्ययन नहीं किया है।

 

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