झारखण्ड |
टांगीनाथ धाम से जुडी किवन्दन्तियाँ तथा लोककथाएँ पूनम मिश्र |
टांगीनाथ के सात अनेक किवऩ्दन्ती तथा लोककथाएँ जुड़ी हुई है। अलग -अलग लोग अलग-अलग कथा टांगीनाथ के सम्बन्ध में बताते हैं। एक कथा जो मनु भण्डारी ने बताया नीचे वर्णित है - देव सेना नगर के समीप जो टांगीनाथ से लगभग २५ किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है,सतयुग और धर्मयुग में नवरत्न नामका एक दुर्ग (किला) था। दुर्ग बाइस योजन में बना हुआ था,(एक योजन में आठ मील होते हैं)। किले की ऊँचाई बावन जिले से अधिक थी, उस समय इस क्षेत्र में बावन जिले या जनपद थे। किला भव्य, चमत्कृत एवं अदभुत् था। श्री कृष्ण भगवान,पृथ्वीनाथ,वीर टांगीनाथ, भोलेनाथ, सभी देवसेना नगर में अवतरित हुए तो पृथ्वी कांपने लगी और सभी बावन जिले एक आश्चर्यजनक प्रकाश से प्रकाशित हो गये। दुनिया पाप से भरी पडी थी और भगवान टांगीनाथ इस पापी संसार का अन्त करने पर आमादा हो गये थे। उन्होंने अपनी लील बछरी, पंखराज,हंसराज, घोडे और सैन्य के सभी असला - खसला को भी तैयार कर लिया।बुद्ध कुल्हरिया जो उनका अवतार बुधकुल में लिया था,और देवसेना के बुढबन्ध ने भी पृथ्वीनाथ को उनके कन्धे से कन्धा मिलाकर साथ देने के लिए कमर कस लिया था। पृथवानाथ चक्रवन (एक सुदर्शन चक्र के समान अस्र) अपने हाथ में धारण कर एवं मठुक (ताज) सिर मेंपहनकर चल पडे। उनकी ताकत को देखकर सूर्य और चन्द्रमा डर से कहीं छिप गए।पृथवीनाथ ने चोचरन और मलंगा के पत्रों को कवच और तलवार में परिवर्तित कर लिया और बरछी के धार को जहर से किंभगोनेके बाद उसे बाइस योजन के क्षेत्र में रख दिया। उसके बाद उन्होंने अपना पताका सभी बावन जिलों में लहरा दिया। पृथवीनाथ के साथ लीली बछेरी और पंखराजहंसराज भी थे। बूढा कुल्हरिया भी उनके साथ अपने बारह मन (४८०किलो) का टांगी जिसमें १३ मन का मुष्ठि लगा हुआ था चल दिए। बूढा कुल्हरिया के साथ नौ सौ अनजी, नौ सौ जोगी और नौ सौ चीतबर भी थे।फिर क्या था विजयी मुद्रा में पृथवीनाथ घमण्ड से चूर सभी योद्धाओं और साहसी लोगों का संहार करते हुए अपना पताका विजयी चिन्ह के रुप में फहराते हुए आगे बढते ग। उनके झण्डो के नीचे २१ माताएँ और २२देवियाँ सोने और चांदी से बने पंखे झेलने लगीं।पृथवीनाथ देवनशा नगर में आराम का अनुभव नहीं कर रहे थे। अत: उन्होंने इस जगह को त्याग दिया और उत्तर की दिशा में चल पडे। वे जहाँ-जहाँ भी जाते केवल कुछ क्षण रहकर आगे की ओर प्रस्थान कर देते।नागपुर जाते समय वे खुश्खरा नगर पहुँच गए।वहाँ उन्होंने कुछ पल के लिए विश्राम किया। अपनी प्यास मिटाने के लिए बारह तालाब का पानी भी पिया। फिर वहाण से वे कुल्हीअंजन गए और वहां रुके। कुल्हीअंजन में पृथवीनाथ प्रतिदिन एक नए तालाब का पानी पीते थे। एक साल के ३६५ दिनों में इस तरह से ३६५ तालाब का पानी ग्रहण करने के बाद, उन्होंने कुल्हीअंजन से भी किसी अन्य स्थान के लिए प्रस्थान कर दिया।बीरु,केसलपुर और रामरतनपुर होते हुए वे रामगढ़ जिला पहुँच गए। यह स्थान उन्हें पसन्द आ गया। फिर वे धर्मराजगढ़ (छत्तीसगढ़) गए और वहाँ कुछ दिनों तक रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि इस क्षेत्र में धर्म का प्रचार होने लगा। फिर वहाँ से वे जशपुर नगर (छत्तीसगढ़) गए। वहाँ भी कुछ दिन तक रहे और वहाँ धर्म एवं सत्संग का प्रचार प्रसार किया। इसके बाद वे बारवे नगर और कमलपुर गए। कमलपुर में उन्होंने तालाब का पानी पिया। जदुनन्दनपुर में भी वे कुछ दिन कर रहकर अगल - बगल के स्थानों का भ्रमण किया।फिर वे कटाई पहाडी पहुँचे और नावाडीह में नवरत्न तालाब खोद ड़ाला।पृथवीनाथ अपनी यात्रा पश्चिम की ओर मोडते हुए मझगांव पहुँचे। यहाँ भी वे कुछ पल रुके।यहाँ की खुबसूरत वादी,पहाडी, जंगल झरना आदि ने उनका मन मोह लिया। परिणामस्वरुप पहाडी के शीर्ष पर उन्होंने एक किले का निर्माण किया जिसे नवरत्न किला और दरभंजन किला के रुप में जाना जाता था। यह किला २१ योजन और बावन जिलों में सबसे ऊँचा था।धर्म के द्वार खुल गए। सभी योद्धाओं एवं भाई- माताओं के लिए घर का निर्माण किया गया।धर्म के द्वार खुल गए। लोहे ट्ठट्ठट्ठट्ठ के छञ्जन तथा त्रिशूल कॉपर के बने थे। इस जगह में पृथवीनाथ अपनी रानी सावित्री के साथ रहने लगे। वे लोग केवल दूध और खीर भोजन के रुप में ग्रहण करते थे। सावित्री के साथ २१ ग्वालन रहती थी जो उन्हें दूध देती थीं।उस समय धर्म और तीर्थ के दरवाजे खुले हुए थे।उस तीर्थस्थली में अगल -बगल के भक्त लोग झुण्ड के झुण्ड आने लगे। वे सभी अपने मनोवांछित फल की कामना लेकर आते थे। शरब और करताल दिन रात बजते थे। प्रहरी रात और दिन चौबीस घण्टे पहरा दिया करते थे।बुढा कुल्हरिया अपने १२ मन की कुल्हाडी को १३ मन के बैंत में डालकर मुख्यद्वार पर खडा हो गया। उसके साथ - साथ ९०० अंजी, १०० जोगी, ९००चण्डी और ९०० चितवार भी सुरक्षाकर्मी के रुप में पहरा देने लगे।भगवान पृथ्वीनाथ निर्धन,संतानहीन और अज्ञानी को धन, संतान और ज्ञान का वरदान देने लगे।उसी समय पूर्व देश के पामापुर में एक ब्राह्मण के घर एक भव्य पुत्र का जन्म हुआ। जब वह बडा हुआ तो अपने हाथ में एक चिमटा लेकर कंधे में सोने का जनेऊ धारण किया; तथा पिताम्बरी धोती पहन एक हाथ में जल ग्रहण करने के लिए लोटा लेकर नौकरी के लिए जोंगी के वेष में घर से चल पडा। वह नागपुर होते हुए देवसा नगर पहुँचा। देवसा नगर के किले को देखकर उसके मन में विचार आया:" अगर इस किले का मालिक होता तो मैं यहां नौकरी कर सकता था।" फिर वहाँ से वह कुल्ही अंजन गया। कुल्ही अंजन के ३६० जगमग करते तालाब को देखकर वह वहाँ भी रहने के लिए सोचने लगा। ब्राह्मण आगे बढ़ता हुआ जशपुर नगर पहुँचा। नगर को दूर से ही उसने प्रणाम किया। गाजीसिंह, जो कि कभी टांगीनाथ के सैन्य संचालन में सेनापति था ब्राहम्ण के प्रणाम का बडे ही आदर के साथ जवाब दिया। यहाँ भी ब्राह्मण देव के मन में नौकरी करने की इच्छा जागृत हुई। लेकिन गाजीसिंह ने कहा:" मैं ब्राह्मण को नौकर नहीं रख सकता। अच्छा होगा आप बारवें नगर जायें। "इसके बाद निराश होकर वह मझगांव आ गया और वहाँ पृथ्वीनाथ से अपने मन की बात कह डाली। उसे वहाँ नौकर पर रख लिया गया।अब उसका नाम बदलकर चाकर (अर्थात् नया नौकर) रख दिया गया।उसे वहाँ के लोगों ने एक कवच, एक तलवार दे दिया तथा उससे कहा कि वह मुख्य द्वार से लेकर किले तक की सुरक्षा करे। कुछ समय के बाद अपने हाथ में चक्रवन और सिर पर मुठुक धारण कर पृथवीनाथ विजय अभियान पर चल पडे। अपने कुल्हाडी और डण्डे को लेकर बुढा कुल्हरिया भी उनके साथ चल पडा।उनके साथ एक विशाल सेना थी। जब पृथवीनाथ चार राजाओं को परास्त कर पांचवे के साथ युद्ध कर रहे थे उसी समय ब्राह्मण के बालक ने एक ग्वालिन को गलत निगाह से देखा।परिणामस्वरुप, 'नवरत्न' किला दूषित हो गया और सभी बावन जिले अंधकार में आ गए। पृथवीनाथ को तुरन्त इस बात का ज्ञान हो गया। वे तुरन्त अपने घर की तरफ चल पडे। पापी ब्राह्मण वहाँ से भागा। भागते भागते वह महादेवजी के पास पहुँचा, बोला:" हे प्रभो हमारी रक्षा करें। मैंने पृथवीनाथ के अपने कर्म से क्रोधित कर दिया है", लेकिन महादेव जी ने उसे मदद करने से मना करते हुए उस जगह को शीघ्र छोड़ देने का निर्देश दिया। पृथ्वीनाथ जी भी वहाँ आए और ब्राह्मण के सम्बन्ध में पूछा। इसपर महादेव बोले" ब्राह्मण अभी - अभी यहाँ से गया है। वहाँ से ब्राह्मण दुर्गाजी और शंकरगढ़नी माता के पास मदद के लिए गया: परन्तु वहाँ भी उसे निराशा ही हाथ लगी।अन्तत: लाचार होकर वह ब्राह्मण सम्बलपुर की साम्मलीमाता के शरण में गया और बोला:" त्राहिमाम् माता! मेरी रक्षा करें! बदले में मैं जिन्दगी भर आपकी सेवा कर्रूँगा। साम्मलीमाता को ब्राह्मण पर दया आ गयी। वे अपना मुँह खोलकर उसे अपने उदर में छुपा लिया। उसी समय पृथ्वीनाथ ब्राह्मण की पूछताछ करते हुए वहाँ आ गये। परन्तु साम्मलीमाता ने कहा कि उसके सम्बन्ध में उन्बें कुछ भी ज्ञात नहीं है। उन्होंने दो जुडंवा बच्चे को जन्म दिया। दोनों बच्चे उसी ब्राहम्ण से जन्में थे। पृथवीनाथ को किसी करह इस तथ्य की जानकारी मिल गयी। उसने आक्रोश एवं क्रोधावश में सम्मलीमाता से कहा" एक पुरुष को यह शोभा नहीं देता है कि एक महिला पर हाथ उठाये, अन्यथा मैं तुम्हारा वध कर देता।" इससे सम्मलीमाता घबरा कर कांपने लगी। वह तुरन्त धोबिन के पास गई और बोली कि वह उन्हें शीघ्र शुद्ध करे क्योंकी उन्होंने दो जुड़वें बच्चे को जन्म दिया है। इसपर इस धोबिन ने एक डोमिन ( डोम की पत्नी) को बारह असुर और तेरह लोधा परिवार से आग लेने को भेजा। जब धोबिन ने वस्र को धो दिया और डोमिन आग ले आयी तो सम्मलीमाता ने अंगद महावीर को हल्दी लाने के लिए भेजा। हल्दी आ जाने के बाद सम्मलीमाता तेल और हल्दी से अपने शरीर का मालिश कर दूध से स्नान किया। और इस तरह से अपने आपको शुद्ध और पवित्र किया।अब भैरव वीर और भैरव कोटवारको बुलाकर पृथ्वीनाथ ने आज्ञा दिया कि वे शीघ्र ही उसके दुश्मन का पता लगाएँ कि वह कहां छिपा है। दूत दूत अपनी दिशा में चल पड़े। रास्ते में उनेहोंने जुड़वां बच्चे को एक देवी गुडी (देवी मन्दिर) में बातचीत करते देखा। उन्होंने तुरन्त इसकी सूचने पृथ्वीनाथ के दी। इस पर पृथ्वीनाथ ने बैगा और बैगी (पुजारी और पुजारिन) को बुलाकर बताया कि उसके दुश्मन देवी गुडी के मन्दिर में बैठे हैं। पुजारी और पुजारिन ने उसी समय मन्दिर जाकर बच्चों का वध कर दिया। इसपर पृथ्वीनाथ ने एक किसान का बेटी को निर्देश दिया कि इन जुड़वां बच्चों के शरीर को नए घडे में उबाला जाए। किसान की बेटी पृथ्वीनाथ की आज्ञा मानकर उन्हें घडे में उबालने लगी। जैसे ही उसने उबालना शुरु किया दोनों जुड़वां बच्चे जीवित हो उठे और आपस में बात करने लगे। जब पृथ्वीनाथ को इस बात का पता चला तो वह गुस्से में आग - बबूला होकर घडे को जमीन पर पूरी ताकत से पटक दिया। दोनों बच्चे इस घडे से निकलकर आकाश में उड़ने लगे। उडते - उडते वे सावन्त राजा के किले में पहुँचे। सावन्त राजा पृथ्वीनाथ का शत्रु था। दोनों भाईयों ने राजा से निवेदन किया कि वह उनकी पृथ्वीनाथ से रक्षा करें। बदले में वे जीवन भर उनकी सेवा करेंगे। सावन्त राजा ने उन्हें आश्वस्त किया। दोनों भाईयों को उसने बदलकर रानियों के बीच रख दिया। राजा ने यह घोषण कर दिया कि जो भी अजनबी उसके दरबार में आए,उसे तुरन्त खत्म कर दिया जाए।पृथ्वीनाथ इस चाल को समझ गया। वह अगमजानि था। अपना भेष बदलकर वह राज गरबार पहुँचा। वहाँ वह एक मालिन के पास एक बगीचे में गया जहाँ वह रहती थी। उसने मालिन से कहा कि वह उसका नाती है। मालिन ने जवाब दिया कि उसका कोई नाती नहीं है।इस पर पृथ्वीनाथ बोला कि वह उस मालिन के बहन की लडकी का पुत्र है। इस पर मालिन उसे अपनी कुटिया में रखने को तैयार हो गयी। मालिन जब फूलों की माला बनाने लगी तब पृथ्वीनाथ ने भी उसके साथ नौ फूलों की कलियों से एक बहुत ही आकर्षक नवरत्नहार बनाया। जब मालिन उस माला को लेकर राजदरबार में पहुँची तो राजा की सभी रानियां नवरत्नहार को देखकर दंग रह गई और मालिन से पूछने लगी कि किसने इस हार को बनाया है। मालिन बोली :" एक लडका जो मेरा दूर का सम्बन्धी है, उसी ने इस नवरत्नहार के गुंथा है।"इस पर रानियों ने उसे खीर और दूध देकर उसके उत्साह को बढ़ाया। उसी रात भोजन के बाद पृथ्वीनाथ ने मालिन से राजदरबार खासकर रनिवासा में आगन्तुकों के जाने के रोक का कारण पूछा। इस पर मालिन ने जवाब दिया कि राजा के रनिवासा में दो जुड़वां ब्राहम्ण भाई सेवक के रुप में आए हैं और आजकल वे रानियों के साथ वेश बदलकर रह रहे हैं। इसीलिए बाहरी लोगों का जाना मना है। जब पृथ्वीनाथ ने मालिन से पूछा कि इन भाइयों की पहचान किस तरह से की जा सकती है, इसपर मालिन बोली:" अगर तुम्हें उनकी पहचान करनी है तो सुबह-सुबह तालाब के पास जाओ। वहाँ रानियां अपना मुख धोती हैं। उनका सूक्ष्म अवलोकन करो।याद रखो महिलाएँ मुँह एवं चेहरा धोने के लिए दोनों हाथ का प्रयोग करतीं हैं जबकि पुरुष केवल एक हाथ का। इस तरह से सूक्ष्म अवलोकन द्वारा तुम इन दोनों भाइयों की सहजता से पहचान कर सकते हो।" पृथ्वीनाथ ने ऐसा ही किया। सुबह- सुबह तालाब के समीप जाकर उन दोनों भाइयों का पहचान कर लिया उसने सोचा "अगर मैं इनका वध अपने छद्म भेष में करता हूँ तो इससे मेरी बदनामी होगी। अत: मैं अपने असली रुप में ही आकर इनका वध कर्रूँ तो अच्छा है।" यह सोचकर पृथवीनाथ अपने असली रुप में आकर इन जुड़वां भाइयों को मारने के लिए आगे बढ़ा। दोनों भाई असहाय होकर भागने लगे। सभी रानी भय से कांपती हुई तालाब के अथाह जल में डूब कर मर गयीं जबकि दोनों भाई अपना अपना नकली भेष त्याग वहाँ से भागने लगे। पृथ्वीनाथ को एकाएक इन जुड़वां भाईयों पर दया आ गई और उन्हें प्राणदान दे दिया। सावन्त राजा भी डरकर भागने लगा। भागते -भागते वह अपनी किला के मुख्य द्वार पर पहुँचा जहाँ पृथ्वीनाथ ने अपनी टांगी से उस पर दूर से प्रहार किया। उसका एक जांघ कटकर अलग हो गया और वह वहीं पर मर गया।इस तरह से अपने तमाम शत्रुओं एवं पापियों का संहार करने के बाद पृथ्वीनाथ वापस बारवें नगर पहुँचा। दुश्मनों के संहार के कारण रक्त नदी के समान बहा था। अत: पृथ्वीनाथ ने इन्द्र को धनधोर वर्षा कराने का आदेश दिया। जब सभी शव उस जल में बह गए और स्थान साफ हो गया तो पृथ्वीनाथ ने इन्द्र से अमृतवर्षा करवाने का आदेश दिया इस तरह से अमृतवर्षा से जो भी निर्दोष जीव-जन्तु मर गए थे, उनमें एक बार फिर प्राण का संचार हो गया। इस तरह से एक बार पुन: धर्म और तीर्थ के द्वार खुल गए और सभी बावन जिले प्रकाशवान हो गए।बैगो पुजारी भी टांगीनाथ के संबंध में अपनी कथा बताते हैं। एक कथा कुछ इस प्रकार है: मझगांव से करीब तीस मील दूरी पर दीपडीह नाम का एक गांव है। बहुत दिन पहले इसी गांव के खाखोगढ़ में सावंत राजा रहता था। एक दिन उसने राजा टांगीनाथ की पत्नी को देखा और उसकी ओर वासना की दृष्टि से देखने लगा। उसने उस अत्यन्त सुन्दरी महिला को प्राप्त करने का मन बना लिया। एक दिन वह उसके पास विवाह का प्रस्ताव लेकर भी गया। किन्तु इस प्रस्ताव से वह गुस्से में आ गई और तुरंत अपने पति टांगीनाथ से सावन्त राजा की शिकायत कर दी। टांगीनाथ गुस्से में आकर सावन्त राजा का कत्ल करना चाहता था लेकिन इस बीच सावन्त राजा डरकर वहां से भाग गया। इस बात को लेकर दोनों के बीच दुश्मनी हो गई। इस घटना के बाद सावन्त राजा ने सोच लिया कि वह किसी भी तरह टांगीनाथ की पत्नी को मौत के धाट उतार देगा। उसने उसके मंदिरों को धवस्त करने का षडयन्त्र भी रच लिया। इस कार्य के लिए उसने कोटरा गांव की नेटो धोबिन को अपना गुप्तचर बनाकर टांगीनाथ के क्रियाकलाप पर नज़र रखने का आदेश दिया। एक दिन टांगीनाथ पलामू के जंगल में शिकार करने गया। उसी समय नेटो धोबिन ने सावन्त राजा को इस बात की सूचना दे दी। उस खबर को सुनते ही सावन्त राजा अपने दो योद्दा धीर,वीर को लेकर महल में आक्रमण किया।महल की सभी दासियों एवं टांगीनाथ की पत्नी का सिर,हाथ और वक्ष काट कर मार दिया। उसके बाद उसने मन्दिरों का भी सर्वनाश कर दिया। टांगीनाथ जब शिकार करके वापस आया तबतक उसका सर्वनाश हो चुका था। सारी घटना को सुनकर वह पश्चाताप,क्रोध और बदले की ाावने से जलने लगा।टांगीनाथ क्रोघावेश में आकर अपना विख्यात कुल्हाडी (टांगी) हाथ में लेकर सावन्त राजा को मारने के लिए चल पडा। सावन्त राजा डर से अपने किले की ओर भागा। वह किले के प्रवेश द्वार पहुँचने ही वाला था कि कुल्हाडी से दूर से ही प्रहार कर टांगीनाथ ने उसका वध कर दिया। उसी दिन से सावन्त राजा का किला और शरीर पत्थर में तब्दील हो गया जो आर भी देखा जा सकता है। एक और प्रचलित दन्तकथा के अनुसार सावन्त राजा टांगीनाथ पहाड को हड़पने तथा मन्दिर पर अपना अधिकार जमाने के लिए आया था। किन्तु वीर टांगीनाथ ने अपनी कुल्हाडी हाथ में लेकर वहाँ से खदेड दिया। सावन्त राजा अपने किले की ओर भागा और किलेमें पहुँचकर कर एक साड़ी पहन सात सौ ग्वालिनों के बीच छिप गया। जब टांगीनाथ वहाँ पहुँचा तो उसने सावन्त राजा को चेहरा धोते देख पहचान लिया। जहाँ ग्वालिन अपना चेहरा दोनों हाथों से जल लेकर धोती है,वहीं सावन्त राजा केवल एक हाथ से मुँह धो रहा था। पहचाने जाने के बाद सावन्त राजा भागने लगा परन्तु टांगीनाथ ने उसी समय कुल्हाडी फेंककर उसे मौत के घाट उतार दिया। राजा किले में पहुँचने से पहले ही मर गया। एक अन्य दन्तकथा के अनुसार पम्पापुर से एक ब्राह्मण टांगीनाथ महल एवं मन्दिर में नौकरी करने के लिए आया। ब्राह्मण की योग्यता को परखने के बाद उसे यहाँ नौकरी मिल गयी। यहाँ उसने ३६० खूबसूरत ग्वालिन को बुरी न से देखा जिसके कारण लोगों ने ब्राह्मण को यहां से खदेडा। जान बचाने के लिए वह एक कोईरिन (कोईरी की पत्नी) की गोद में छिप गया। उस समय से ऐसी धारणा है कि इस मझगांव की सीमा के भीतर कोई भी ब्राह्मण नहीं निवास करता है। जो भी इस नियम का उल्लंघन करेगा वह तीन वर्ष के भीतर मर जाएगा। एक दन्तकथा के अनुसार टांगीनाथ मन्दिर को ध्वस्त करने वाला सावन्त राजा नहीं बल्कि स्वयं टांगीनाथ ही है। टांगीनाथ पलामू की मुसूकरानी तथा सावन्त राजा के बाच प्रतिस्पर्धा के कारण टांगीनाथ ने स्वयं इन मन्दिरों को ध्वस्त कर दिया। कथा का वर्णन संक्षेप में कुछ इस प्रकार है : एक समय की बात है। टांगीनाथ बाबा; मुसूकरानी तथा सावन्त राजा आपस में बात कर रहे थे।उन तीनों में इस बात की शर्त लगी कि कौन एक रात में मन्दिर का निर्माण कर लेगा। फिर क्या था! तीनों मन्दिर निर्माण में अपने -अपने जगह तल्लीन हो गये। यह भी निर्णय लिया गया कि जो भी पहले मन्दिर बने लेगा वह तुरन्त एक दीप प्रज्वलित कर देगा; जिससे लोगों को इस बात की जानकारी मिल जाए कि मन्दिर सर्वप्रथम किसने बनवाया। कार्य तीन स्थानों में द्रूत गति से चल रहा था। जब सावन्त राजा का मन्दिर बन चुका, उसने दीप प्रज्वलित कर इस बात की सूचना दे दी, इधर टांगीनाथ बाबा का मन्दिर भी लगभग बनकर तैयार हो चुका था। उन्हें लगा कि क्षण भर के कारण वे इस बाजी को हार गए। उनके मन में एक हीन भावना का संचार हो गया कि सावन्त राजा उनसे ज्यादा दक्ष हैं। गुस्से में आकर टांगीनाथ बाबा ने अपने बनाए मन्दिर को ध्वस्त कर टुकडों-टुकडों में बाँट दिया। यही कारण है कि टांगीनाथ के सभी प्रतिमा खण्डित है और टुकडों में बंटा हुआ है। एक दन्तकथा खेरबार बैगा किस तरह से टांगीनाथ का पुजारी बना इसके सम्बन्ध में है। कथा कुछ इस तरह है - टांगीनाथ का जन्म देवसा नगर में हुआ था। एक बार अपने लिए उपयुक्त स्थान की खोज में टांगीनाथ डोमराजा के राज क्षेत्र में पूर्व की ओर गए।डोमराजा के साथ आज के बैगा पुजारी परिवार के पूर्वज दो भाई डोमराजा के साथ शिकार करने जाते थे। टांगीनाथ ने दोनों को देखा तो उन्हें लगा कि शायद ये दोनों भाइ उनका सही से देखभाल एवं पूजा अर्चना कर पाएँगें। फिर क्या था ; टांगीनाथ ने अपने आपको तुरन्त स्वर्ण मृग में परिवर्तित कर लिया। जब दोनों भाईयों ने इस स्वर्णमृग को देखा तो उसे शिकार करने के लिए तीर-धनुष लेकर उसकी ओर चल दिए।स्वर्ण मृग आगे -आगे और बैगा बन्धु पीछे -पीछे। स्वर्ण मृग सर्वप्रथम रामगढ़ आया, फिर जशपुर,हरिहरपुर,गानी,बारवेनगर और अन्त में कराइटोला आया। कराइटोला पहुँचकर बडा भाइ बुरी तकह थककर वहीं बैठकर आराम करने लगा। जबकि छोटा भाई उसी उत्साह के साथ स्वर्ण मृग का पीछा करते- करते अन्तत: मझगांव पहुँचा अबतक टांगीनाथ बाबा छोटे बैगा की लग्नशीलता से बहुत अधिक प्रभावित हो गये और सोचा: "अब इससे अध्क लहीं परेशान किया जाए तो अच्छा। " इतना सोचने के बाद स्वर्ण मृग से वे अपनी सही अवस्था में अवतरित हो गए और एक स्थानीय पहाडी पर वास कर गए।अब उन्होंने छोटे खेरवार को वरदान दिया और कहा:"आज से तुम्हे मेरी पूजा पण्डित की भाँति श्रद्धापूर्वक करोगे। मैं तुम्हारी भक्ति और लग्न से प्रसन्न हूँ।" उसी दिन से टांगीनाथ का पुजारी केवल खेरवार होता है, जिसे स्थानीय भाषा में बैगा कहते हैं। पूर्व में इन खेरवार को मांझी कहा जाता था, जो संयोग से इस गांव के सबसे प्राचीन निवासी हैं। इसलिए इस मांझी के नाम पर ही इस गांव का नाम मझगांव पडा।
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