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छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच सामान्य जन का मसीहा "कबीर' |
जन-नायक - कबीर |
प्रस्तावना महापथ का पथिक - ''कबीर""
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(अ) कबीर पंथ भारत के संदर्भ में -
यह गंध-चित्र कबीर के प्राणों की एक भीनी महक से हमारे समूचे अस्तित्व को गमका देता है। हम सुवास से घिरे अपनी सीमा में न जाने किसी असीमता के लिए अकुला उठते हैं। जीवन लय फैलता जाता है और सृष्टिलय बन प्रभु के लीला विलास में बदल जाता है -
जीवन की लालिमा सभी में समान रुप से व्याप्त हो जाती है। व्यक्ति और जन तदाकार हो उठते हैं। व्यष्ठि और समष्टि के लय और विलय से कबीर का अविशेष-विशेष मानव उद्भासित हो उठता है -
कबीर का यही परिचय है -
और उसका निरपख राम है -
कबीर उसी की उपासना के लिए निकल पड़ते हैं। सत्य की ज्योतिसे उनका अंतर उजास से भर उठता है।
और तब वह अपने लोगों को सीख देता है -
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कबीर का परिचय है -
निरन्तर अजपा-जाप में लीन कबीर राममय ही नहीं राम रुप हो उठा है।
कबीर अपनी इस अनुभूति का बयान नहीं कर सकता-
वह तो केवल इतना ही कह सकता है -
कबीर न कोई पंथ नहीं चलाया / कोई रास्ता नहीं बनाया / केवल सुझाया अपने प्राणों में बसे राम को जानने के लिए ""तू अपने राममय दुनियां से प्यार कर और एक दर्दीला दिल लिए सब में समा जा।'' तेरे जागतिक जीवन का यही आधार है।
पंथों से सत्य की प्रतीती नहीं होती। सत्य आत्मस्थ विवेक है। व्यक्ति को स्वयं उसे पाना पड़ता है -
और उसकी प्राप्ति अहंकार से नहीं होती, लघुता से होती है।
हां, "कबीर' ज्ञान की आँख है। पर वह व्यक्ति नहीं और शास्र नहीं। व्यक्ति को देख लेने के बाद मन से ग्रहण करना पड़ता है। हृदय से प्रतीती करनी पड़ती है। बुद्धि से समझना पड़ता है। तब संसार के जाल से वह मुक्त होता है और सत्य के दर्शन करता है।
कबीर की साखी, मानुषी वाक्य है। जनवाणी है। देववाणी या शास्रोक्ति नहीं। कबीर मानव था। मानव से परे न तो उसने कुछ देखा और न कुछ देखना चाहा। साधक कैसा हो?
साखी की जरुरत इसलिए है क्योंकि वह शब्द का दृश्यरुप है और शब्द से परे कुछ भी नहीं है। ध्वनि से सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। व्यष्टि ध्वनि को समष्टि ध्वनि में मिला देना ही "प्रणव' और "ओंकार' में बदल जाना है। यही नाद ब्रह्म है। इसलिए कबीर ने नाम स्मरण को महत्व दिया है -
कबीर - बेपरवाह, बेफिक्र और बेलाग अपनी वाणी में एलान करते हैं कि वे लोकवेद के अलावा और किसी शास्र को नहीं मानते।
और उनका यह लोकवेद उनका प्रत्यक्ष, व्यापक व गहन लोकानुभव है।
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कबीर-पंथ - ""महाजन येन गत: स पंथा'' कालजयी कबीर की महत्ता अपरिमेय है। प्रेम की मंदाकिनी उनके भीतर बह रही थी। प्रेम रस पीकर वे जीवन काल में ही देवोपम बन गये थे। कबीर के इस प्रेम में ज्ञान, प्रेम व कर्म का अद्भुत संयोग था। कबीर ""जन'' था। ""जन'' के लिए और ""जन'' के लिए मरा। ""जन'' से परे कबीर कहीं नहीं है। ""कबीर के इस अप्रतिम जन प्रभाव से ही कबीर - पंथ का प्रादुर्भाव हुआ होगा।'' वह जन को उसका न्यायोचित हक दिलाने के लिए हर वर्ग से, हर स्तर पर लडता रहा है। इस ""जन'' को समाज में यथोचित और सम्मानित स्थान दिलवाने को भागीरथ प्रयत्न करता रहा है। उसे समानता का जीवन और दर्जा मिल सके तथा वि मानवता के मंदिर में वह समुचित स्थान पा सके, यही कबीर का सतत् प्रयत्न था। दलित वर्गों में आत्म संस्थापन का कार्य करता रहा। कबीर के जीवन काल में ही एक बडा समाज उसका हो गया था। यह समाज कबीर के उपदेशों के अनुरुप अपना जीवन ढाल रहा था यही कबीर-पंथ वह उसके अचार-व्यवहार के उद्भव के कारण बने होंगे। समय के साथ उनमें युगानुरुप इतरतत्व आ मिले होंगे। चूंकि जन-शक्ति कबीर-पंथ के उद्भव का आदि स्रोत है, अत: बरजोर वर्गों ने भी निहित उद्देश्यों के लिए कालानेतर में इसे अपनाने की कोशिश की होगी। धीरे-धीरे प्रचार-प्रसार के साथ जटिलताओं, अंतर्विरोधों और पेचीदगियों ने प्रवेश पा लिया होगा। तथा बाद में वे क्रमश: रुढिबद्ध, अनमनीय व कठोर हो गये होंगे। अंततोगत्वा, संकीर्णता, साम्प्रदायिकता, वर्गीय-चेतना आदि बातें इसमें उत्पन्न हो गई होंगी और लिखित रुप की समस्त शक्ति व सीमा उभर आयीं होंगी। तब फिर अंदर से कोई नयी चेतना अॅकुवा उठी होगी। युगानुरुप नयी मांगों और दबाओं के अनुरुप नये रुप मे को चेतना प्रकट हुई होगी। शाखाओं और उपशाखाओं में बटने के बाद उसमें और भी उलझाव आया होगा। टकराहट की स्थिति बनी होगी। पंथ में अंतर्विरोध बढा होगा। सभी भेदों और उपभेदों में अपने को कबीरीय मत के सबसे ज्यादा निकट सिद्ध करने कि कोशिश भी हुई होगी। तथा सभी ने अपने का कबीर के मत का अधिकारी माना होगा। तब अंतर्विरोध व अनियमिततायें पनपी होगीं। इन लोगों ने अपना वैशिष्ट्य सिद्ध करने के लिए कुछ, वाह्याचारों को कट्टरता से अपना लिया होगा बस - गिरते-पड़ते / उठते-बैठते / यहां पंथ का इतिहास - सफर चल पड़ा होगा। आज यहां तो कल वहां। यह सब इसलिये होता है कि लोग अपने संस्कारों से पूर्व मान्यताओं को मिलाकर कोई मत अपनाते हैं, और अपनी वस्तु को सार्वभौमिक मान्यता दिलाने के लिए प्रवर्तक का नाम दे देते हैं। ""महापुरुषों की वाणी के साथ यह विडम्बना लगी रहती है।'' कबीर के साथ यही हुआ। पर उसकी और भी मजबूरियां थीं। उसका जन्म, जाति, गोत्र और परिचय सभी कुछ विवादास्पद था। वह आम जनता से आया था और उसका जीवन भी साधारण कामगार का था। पेशा भी आम-जनता का था। बोली भी सधुक्कड़ी और शिष्य भी पंचमेल। वैदिक रुढियों के साथ जनता में अवैदिक रुढियां फैली हुई थीं। जनता गुमराह थी। वैदिक रुढियों का विरोध कर कबीर ने अपने को अवैदिक रुढियों के प्रभाव में डाल दिया था। या लोगों ने उन्हें उसका पक्षधर मान लिया था। कबीर के विराट् व्यक्तित्व के अपरिमित भावादर्श और जीवनादर्श परस्पर उलझते रहें होंगे। कबीर ने जन बनकर जन के लिए कहा और जन के बारे में कहा। इस जन को छोड़कर राम को भी अपनाने से इंकार कर दिया।
कबीर जब षटचक्र भेदन की बात करते हैं, तब वे योग-रुढ़ी की बात नहीं करते, वरन् अंत:-चेतना के ऊर्ध्वगमन या विकास की बात करते हैं। लोग उसे रुढ़ीबद्ध रुप से देखते है। किसी भी बड़े व्यक्ति के साथ ऐसा ही होता है। कबीर के साथ विशेष रुप से हुआ। क्योंकि वह निषेध का कवि था। वह इंकलाबी था। वह एक साथ आम-आदमी व विश्व-मानव था। वह मूर्तिभंजक था। वह सब प्रकार के आवरणों को चीर कर निरपख राम व अविशेष-विशेष मानव को स्थापित करना चाहता था। पिण्ड में ब्रह्माण्ड व ब्रह्माम्ड में पिण्ड यही कबीर की दृष्टि है। कबीर ने मानसिक पूजा, निर्मलमन, सत्यनिष्ठता, दर्दीला-दिल, प्रेममय-जनवादी व्यक्तित्व, सदाचारी-नैतिक और सरल-जीवन, मूल्यवादी जीवन-दर्शन समन्वय और समानतामूलक समाज, धार्मिक सहिष्णुता व उदारता तथा मानवीय जीवन दृष्टि आदि का संदेश दिया। इनमें विरोध, भेद, रुढ़ी, टकराहट आदि की कोई गुंजाईश नहीं होती है। वे सार्वभौम, सार्वकालिक व पूर्णत: मानुषी है। कबीर के नाम पर अनेक वाणियां चल रही है। किसे प्रमाणिक माने? कबीर पर काम करने वाले के सामने यही सबसे बड़ा सवाल होता है। इस प्रचार-प्रसार में कबीर का इंकलाबी स्वर खो गया, यह विडम्बना की बात है। लाभ-हानि की बात तो बाद में आती है, पर जनता कबीर की विद्रोही वाणी से अपरिचित रह जाती है। यही सबसे अधिक चिंता व दुख की बात है। कोई भी वाणी ईश्वरीय नहीं होती और न अपौरुषेय। सबी मानवकृत होती है। कोई भी ग्रंथ कितना महान क्यों न हो, पर वह हर युग के लिए पूर्ण और उपयुक्त नहीं हो सकता । कबीर जैसे स्वतंत्र चेता और स्वप्पनदर्शी महात्मा के लिए तो और बी नहीं होता। इसलिए कबीर कहते हैं -
कबीर ने शाश्वत मानव मूल्यों पर जोर दिया। निष्पक्षता पूर्वक सत्य का उद्घाटन किया। निरपख राम वे निर्विशेष-विशेष मानव को दिया और समाज को प्रेम व सहयोग का संदेश दिया। कबीर कहते हैं- ""हे मनुष्य तू स्वयं हुजूर है। स्वयं सम्राट है। अपनी महानता को पहचान।''
अपने मानवीय गुणों को वह अवगुण कहता है और अपनी विचार शक्ति का उपयोग नहीं करता -
प्रत्येक घर में निवास करने वाला चेतन तत्व ही सर्वोपरि है। इसे जाने बिना भ्रमजाल से छूटा नहीं जा सकता।
कबीर का अनुगामी वही हो सकता है, जो मन का द्वन्द्व व वासनाओं को मिटा चुका हो। नीर-क्षीर विवेक रखता हो।
वही कबीर का बंधु है जो कुमार्गी को सुमार्ग पर लाये -
कबीर चाहते हैं कि उनका शिष्य उन्हीं के समान वासनाओं का परित्याग कर निर्द्वेन्द्व, निष्फिक्र और निस्पृह हो।
जो घर फूंक मस्ती में झूम सकता है, वही कबीर के साथ चल सकता है -
अत: सच्चे कबीर के अनुयायी होने के लिये आवश्यक हैं -
कबीर की अटपटी वाणी आज भी सबको मोह लेती है। पांच सौ वर्षों पहले उसका प्रभाव जैसा था आज भी वैसा ही है। कबीर ने एक कामगार का जीवन जिया। जुलाही से जीवन यापन किया। अपने "जन' (दलित वर्ग) से तनिक भी दूर नहीं गया। सामाजिक-विषमता व अन्याय का कारण ढूंढते हुये सीधे-सीधे उत्पीड़ित वर्ग (आम-आदमी) तक पहुंच और वही से एलान कर दिया -
जो बरजोर वर्ग उसके जीवन यापन का जरिया था और दलित वर्ग का शोषण कर रहा था कबीर ने उसके विरुद्ध जेहाद छेड़ दिया। "इत्यादि जन' का वर्ग जो पस्त हिम्मत और निर्जीव पड़ा हुआ था उसमें प्राण फूंक दिया। इतिहास के पन्ने उलट गये, यह सब कबीर ने "जन' को जगाकर किया। उसके पास कोई परम्परा नहीं, चमत्कार नहीं, ईश्वरीय वाणी नहीं और न ही कोई अवतार या पैगम्बर। ऐसै व्यक्ति का ५०० वर्षों से लोगों के हृदय में देव के रुप में स्थान पा लेना - अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है। शायद इसका कारण कबीर का अदेह होना है। नाबादास के शब्दों में -
अपने को छोड़ सबके हित की बात बिना दुराग्रह व पूर्वाग्रह से कहना, उसे सर्वप्रिय बना गया। कबीर निरंतर घूम-घूमकर सभी को जगाते रहे, क्रांति चेतना फैलाते रहे। अपने जीवन काल में ही वे किंवदन्ति बन गये थे। उनकी लोकप्रियता "जनश्रुति' बन गयी थी। कबीर महनीयता के उत्तुंग शिखर पर पहुंचकर भी "जन' ही रहे और "जन' बनने के अलावा और कुछ भी बनना नहीं चाहा। उस ऊंचाई से भी "जन' की बात करते रहे। कबीर का निरपख राम, दाशरथी राम से कम जन-नायक नहीं है। कबीर की महत्ता का आंकनल सम्भव नहीं है। वह "नेति-नेति' है। हमारे सांचे बहुत छोटे हैं और कबीर का व्यक्तित्व दिगंत प्रसारी। उसका विवाह रुपक हमारे लिए अकल्पनीय है। महाकाश और महिमामयी महाप्रकृति-महनीयां मां मेदिनी-आज महापर्व में मग्न हैं। क्योंकि, कबीर का विवाह उसके राम से हो रहा है -
मानव की सीमामयी प्रतिमा इस असीमता का मूल्यांकन कैसे करे? कबीर का मार्ग राजपथ भी है और वनवीथी भी। अत: निरपख राम व अविशेष-विशेष मानव कबीरमत का सार है। आम-आदमी और विश्व मानव (Micro-cosm व Macro-cosm ) दोनों तद्रूप हैं। यही कबीर-पंथ है। इससे परे किसा और कबीर-पंथ की कल्पना नहीं की जा सकती है।
राम > कबीर > पंथ > अनुयायी > = सभी तद्रूप हैं। |
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(ब) छत्तीसगढ़ व कबीर-पंथ समय की जरुरत और युग की मांग किसी भी नई धारा के उद्भव के आधारभूत कारण होते हैं। शून्य से अचानक कोई वस्तु प्रकट नही होती है। परिस्थितियां विभिन्न घटकों को संयुक्त व केन्द्रित करती रहती हैं। चब अनुकूल संदर्भ आता है, वे पूंजीभूत रुप से प्रकट हो जाते हैं, तब वह अंत: सलीला पयस्विनी मूर्त व दृश्यमान हो उठती है। हर नई वस्तु के उद्भव की यही प्रक्रिया होती है। छत्तीसगढ़ में कबीर पंथ के उद्भव का भी यही स्वरुप रहा होगा। युग जीवन के असंख्य मूर्त व अमूर्त कारण एकत्रित होते रहे होंगे। कबीर पंथ के लिए उर्वर भूमिका बनाते रहे होंगे। कबीर का आगमन वह तेज झोंका था, जिसके स्पर्श से इतिहास के पन्ने पलट गये थे। कबीर की मंजूलमूर्ति व उनकी पावन वाणी ने जनता का मन जीत लिया। छत्तीसगढ़ की मोजाईक संस्कृति व प्रकृति कबीरीय चेतना के लिए सबसे अधिक उपयुक्त थी। कबीर से पहले भी उसका अर्थात् (छत्तीसगढ़ की संस्कृति का) सर्वग्राही व समावेशी रुप दिखाई पड़ता है। इसलिए विराट् मानव धर्मरुपी कबीरीय संदेश यहां अल्प समय मे ही चारों और फैल गया और व्यापक रुप से स्वीकृत हुआ। छत्तीसगढ़ आदिवासी क्षेत्र है। यहां जनजातियां तथा अन्य वर्गों में न जाने कब से सह-अस्तित्व चला आ रहा है। मानों सम्पूर्ण भारत सिमट कर चला आया हो। इसका यह जनवादी रुप कबीर की जनवादी चेतना के अनुरुप है। यहां की धरती किसी ऐसे महापुरुष की प्रतीक्षा में थी, जो समयानुसार सबको मिलाकर एक व्यापक जनवादी समाज और संस्कृति की स्थापना कर सके। भारतीय समाज की प्रकृति व संरचना जनपदीय है। यहां राजा या योद्धा आदि का नहीं वरन ॠषि-मुनि, महात्माओं आदि की अहम् भूमिका रही है। भारत गांव का और खेत-खलिहानों का देश है। अत: उसकी जनपदीय - जीवन-व्यवस्था, कबीर की जनवादी दृष्टि की पृष्ठभूमि है। कबीर ने इस शक्ति से काम लिया और इतिहास की धारा मोड़ दी। अत: उसके संदेश का यहां व्यापक प्रभाव पड़ा। कबीर ने "जन' को उसका हक़ दिलाने कि लिए तथा समानता की स्थापना के लिए जीवन भर संघर्ष किया। सदा से उत्पीड़ित दलित जनों में आत्मसंस्थापन का कार्य किया और उनमें जागृति आयी। छत्तीसगढ़ के मूल-निवासी विस्तारवादी बाहरी लोगों से पीड़ित थे। कबीर की वाणी-सीधे उनके हृदय को छू गई - प्राण उमड़ पड़े। इस निर्मल और करुणापूर्ण प्रवाह में जनता बह चली - यही कारण है कि छोटी-सी अवधि में कबीर का सन्देश ओर-छोर फैल गया। बाहरी लोगों से मूलनिवासियों का संघर्ष चलता रहा। बाहरी शक्तियां बरजोर थीं। दमन चक्र भी तेज था। पर इसका इतिहास नहीं है। कारण - इतिहास भी बरजोर वर्ग द्वारा लिखा गया है, कमजोर वर्ग द्वारा नहीं। क्योंकि इतिहास लेखन की शक्ति उत्पीड़ित वर्ग में नहीं थी। कबीर की वाणी में बेजुबानों की मौन व्यता झंकृत हो उठी। जनसागर उमड़ पड़ा। सब कुछ उसमें डूब गया। सरिता की कल-कल, छल-छल ध्वनि में कबीर की वाणी, गहन कानन व गिरी-कन्दरा में मुखर हो उठी। इस कबीरीय प्रभाव के फैलाव से संघर्षरत समाज पास आया। एक सौहार्द्रपूर्ण सह-अस्तित्व संभव हुआ। कबीर की क्रांति रचनात्मक व मूल्यवादी थी। ध्वंसात्मक व पदार्थवादी नहीं। अत: इसका प्रभाव भी अनुकूल पड़ा। कालान्तर में इसे बरजोर वर्ग ने भी अपना लिया। यह छत्तीसगढ़ का सौभाग्य है कि उसे कबीरीय सन्देश के प्रसार के लिये प्रारंभ में कबीर के महान भक्त महात्मा धर्मदास जी मिले, जिनकी वंश-गद्दी परंपरा आज भी चल रही है। उन्होंने पंथ के साथ कबीर की रचनाओं को भी सुरक्षित रखा। कबीर व धर्मदास जी के जीवनकाल, दीक्षा तथा प्रसार के बारे मं विद्वानों में मतभेद है। १. पहले मत के अनुसार - ये कबीर के समकालीन थे। आचार्य रामचंद्र शुक्ला जी का मत है कि- ""ये बांधवगढ के रहने वाले और जाति के बनिये थे। बाल्यावस्ता में ही इनके हृदय में भक्ति का अंकुर था और ये साधुओं का सत्संग, दर्शन, पूजा, तिर्थाटन आदि किया करते थे। मथुरा से लौटते समय कबीरदास के साथ इनका साक्षात्कार हुआ। उन दिनों संत समाज में कबीर की पूरी प्रसिद्ध हो चुकी थी। कबीर के मुख से मूर्तिपूजा, तीर्थाटन, देवार्चन आदि का खंडन सुनकर इनका झुकाव "निर्गुण' संतमत की ओर हुआ। अंत में ये कबीर से सत्यनाम की दीक्षा लेकर उनके प्रधान शिष्यों में हो गये और संवत १५७५ में कबीरदास के परलोकवासी होने पर उनकी गद्दी इन्हीं को मिली।''... १ ""कहा जाता है कि धर्मदास जी को मथुरा में श्री कबीर साहेब के दर्शन हुये और उनके ज्ञान से वे प्रभावित हो गये। आपने गुरुदेव को अपने घर बांधवगढ आमंत्रित किया। बांधवगढ में सदगुरु कबीर द्वारा आपकी दीक्षा हुई। आप विरक्त भाव से रहने लगे और अपने अतुल धन को संत-सेवा, दुंखियों की सहायता एवं जनकल्याण में लगा दिया आप एक उच्च कोटि के संत हुए।''... २ २. दूसरी मत - वे कबीर के समकालीन नहीं थे - ''कबीर-पंथ की वंश-परंपरा के साहित्य एवं ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर विद्वानों का यह निष्कर्ष है कि श्री धर्म साहेब कबीर साहेब से पीछे हुए हैं। इसलिए श्री धर्मदास साहेब सदगुरु कबीर के साक्षात् शिष्य नहीं थे। भले ही धर्म साहेब कबीर साहेब के समकालीन न रहे हों और उन्होंने सदगूरु कबीर से दीक्षा न प्राप्त की हो, परन्तु पीछे कबीर पंथ के निर्माण में उनकी एक अहम् भूमिका रही है, इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता।""... ३ ""विद्वानों का मानना है कि धर्म साहब कबीर के शरीरांत के करीब सौ साल बाद हुए हैं। उन्हें कबीर साहेब के साक्षात दर्शन नहीं हुए, बल्कि मदन साहेब ने (वि. सं. उन्नीसवीं सदी) में भावना में कबीर साहेब के दर्शन किये थे, वैसे ही धर्म साहेब ने दर्शन किये।''... ४ छत्तीसगढ में कबीर-पंथ की वंश-परंपरा दिखाई पड़ती है। यद्यपि मान्यता है कि स्वयं धर्मदास जी ने इस प्रथा की परंपरा रखी थी, पर न जाने क्यो इस मान्यता को स्वीकारने में संकोच होता है। जिस महान त्यागी, महानदानी, महामना और इतिहास-पुरुष ने जीवन की चौथी अवस्था में अपने अपार वैभव व अतुल धनराशि को कबीर के "जन' की सेवा में लगा दिया था, और अपने लिये वीतरागी तपस्वी का जीवन अपना लिया था, वह दिव्यात्मा अपने वंश के लिये वंश गद्दी परंपरा की व्यवस्था करेगा, न जाने क्यों इसे विवेक बुद्धि स्वीकारने में हिचक रही है। लगता हे सुदुर अतीत के धुंध कुहासे को चीर कर सत्य का दर्शन शायद ही कभी हो। क्या इतिहास बोलेगा? क्या हम समझ पायेंगे? कौन जाने? केवल अनुमान के आधार पर कल्पना ही की जा सकती है। कबीर के लिये यहाँ की स्थितियां न जाने कब से राह देख रही थीं। इसलियें छत्तीसगढ ने दिल खोलकर "जननायक' कबीर का स्वागत किया। कबीर आये > रुके > देखा > अपनाया और यहां के हो गये। कबीर "बनाना' की ममता में ऐसे डूबे कि उसके धानी आंचल की साया से निकलने के लिए उन्हें तनिक समय लग गया।
यही कबीर-पंथ के शुरु होने के आधारभूत कारण रहे होंगे। समसामयिक युग जिस उद्वेलन से गु रहा था उससे मुक्ति पाने के लिये उसे एक मार्ग चाहिए था, एक दिशा चाहिए थी और एक अवलम्ब चाहिए था। कबीर का आगमन युगीन समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति कर देता है। इस प्रसंग के साथ जो महानुभाव लोग जुडे थे, वे कबीर-पंथ के संस्थापक बन गये। जिनमें सर्वोपरि नाम है- "महाप्राण' धर्मदास जी का। समय के साथ कबीरीय प्रभाव बढ़ता गया। उससे जुड़े लोग प्रमुखता पाते गये। जिसकी जितनी गम्भीर भूमिका थी, उसे उतना ही उच्च स्थान मिला। यह स्वाभाविक है। यहां धर्मदास जी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यहां कबीर पंथ के प्रचार और प्रचार का श्रेय उन्हें (धर्मदास) जाता है। अत: यदि लोगों ने उन्हें कबीर का स्वरुप या प्रतिनिधि मान लिया तो इसमें अचरज क्या है? कालान्तर में उसे बनाये रखने के लिये समय और समाज दोनों ने वंश गद्दी परम्परा चलाई होगी। यह एक स्वाभाविक परिणति है। समय से साथ वह बद्धमूल होता गया और एक वंश की परंपरा स्थापित हो गयी। उसका स्वरुप समय की जरुरत के मुताविक बना होगा। धर्मदास जी की भूमिका सर्वोपरि थी, अत: उन्ही का वंश चला। समय के साथ समाज ने इसे अपना लिया। धीरे-धीरे उसमें सीमाएं उभरी, चाहे पंथ हो या मार्ग, जब विचारणा एक निश्चित सम्प्रदाय का बाना पहन लेती है तो उनमें खुलापन नहीं रह जाता। सहज-स्फूर्त धारा अपनी सीमा में स्वत: आबद्ध हो जाती हैं। अत: कबीर जी व धर्मदास जी ने वंशगद्दी परम्परा चलायी है यह बात मानने में कठिनाई का अनुभव होता है। हमारा तो केवल विनम्र निवेदन है कि वंश गद्दी परम्परा समय के साथ विकसित हुई है। भारतीय समाज में वंशावली परम्परा की जड़े बहुत गहरी और पुरानी हैं। सभी क्षेत्रों में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक आदि में यह परम्परा अनेक रुपों में प्रकट होती रही है। इस प्रसंग में भी उसका प्रभाव देखा जा सकता है। कारण भले ही दृष्टिपथ से ओझल हो, पर परिणाम दृष्टिगोचर है। सामाजिक जीवन पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ा। विभिन्न जाति-प्रजातियां, बड़े समूह आदि सब एक साथ प्रेम से रहने लगे। एक उदार मूल्यवादी, मानवीय संस्कृति का विकास हुआ। यही कबीरीय उपदेशों का सार निचोड़ है। समाज ने समय के साथ इस वंश गद्दी परम्परा को कबीरीय आदेश के रुप में देखा होगा। कालान्तर में वह रुढिबद्ध हुई। कबीरीय विचारणा व भूमिका पर पंथ-परंपरा का प्रभाव ज्यादा होता गया। आज की स्थिति यही है। अनेक जाति व प्रजातियों वाला भारतीय समाज बेहद अन्तर्ग्रस्त जटिल समाज है। समन्वय व सन्तुलन के बिना इसे सम्भाला नहीं जा सकता। अत: वैचारिक क्रान्ति के द्वारा ही परिवर्तन सम्भव है। पहले तो समाज असहमति के स्वर को दबाने का प्रयास करता है, पर जब सम्भव नहीं हो पाता है, तो उसे स्वीकार कर सम्मान के साथ महान विभूतियों की श्रेणी में बैठा देता है। विरोध का शमन हो जाता है, व्यवस्था विघटित नहीं होती। भगवान बुद्ध और कबीर के संबंध में यही बात हुई। अत: कबीर-पंथ के निर्माण में चाहे सम्पूर्ण भारत में हो या छत्तीसगढ़ में, उसके पीछे समय की जरुरत व समाज की मांग होगी। शेष बातें आनुषांगिक रुप से मिली होगी। आज भी छत्तीसगढ़ में कबीर-पंथ का प्रभाव व्यापक रुप से देखा जा सकता है। कबीर पंथियों खासकर पनिका जाति का छत्तीसगढ़ की राजनीति में एक महत्वपूर्ण स्थान है। समाज के जीवन के विकास में इस प्रकार की ऐतिहासिक परिस्थितियां सदा ही दिखाई पड़ती हैं। छत्तीसगढ़ इसका अपवाद नहीं है। जब समय के अन्तराल में कबीर भारत के - "प्राणाश्य' बन गये, तब राजनीति ने भी उसका उपयोग करना चाहाष प्रशासन ने समाज-मानस को क्षितिजीय बनाने के लिये कबीर के उदार मानवीय दृष्टिकोण का उपयोग करना चाहा। इस दृष्टि से सम्राट अकबर व दारा शिकोह का नाम उल्लेखनीय है। ""कबीर साहेब के समभाव का सबसे अधिक प्रभाव अकबर पर पड़। उसने इसे हृदयंगम कर चरितार्थ किया। यही कारण था कि वह इतना लोकप्रिय शासक हो सका। और उसका शासन तीन पीढियों तक सुरक्षित रुप से चल सका। अकबर कालीन अब्दुल फजल द्वारा लिखित - "आइने अकबरी' में स्पष्ट उल्लेखित है कि "समभाव' को प्रोत्साहन देने वाला एक व्यक्ति था, जिसका नाम कबीर था।'' ५ अकबर के "दीन-ए-इलाही' में यही कबीराय चेतना अभिव्यक्त होती है। दारा शिकोह ने भी "दीन-ए-इलाही' की तरह "मजूम-उल-बहेरिन' का प्रचार प्रसार करना चाहा था। उनकी भी दृष्टि कबीर पर थी। अपने महान पूर्वज के चरण-चिन्हों पर चलकर उसने कबीर-पंथ का प्रचार उत्तर भारत में किया। जन समाज पर इसका अच्छा असर हुआ। दारा का समय अत्यल्प रहा। अपने प्रयास को वह व्यापक नहीं बना सका। पर समय को इसकी जरुरत थी। अत: दारा के बाद भी वह फैलता रहा। तथा भारत के अन्य भागों तक पहुंचा। छत्तीसगढ़ में कबीर पंथ के विकास में हो सकता है, इसका भी प्रभाव पड़ा हो -
कबीर-पंथक का सामान्य परिचय - कबीर-पंथ के आविर्भाव का समय अनिश्चित है। केवल इतना ही कहा जा सकता है कि कबीर के निधन के पश्चात् ही उनके समर्थकों और प्रशंसकों ने कबीर-पंथ की स्तापना की होगी। ""कहा जाता है कि सबसे पहले संतों में गुरुनानक ने ही पंथ रचना का सूत्रपात किया था और उन्होंने ही उसके लिए कुछ नियम भी बनाये थे। इस प्रकार सम्भवत: नानक देव के अनन्तर संवत् १५७५ के बाद ही, कबीर पंथ की स्थापना हुई थी तथा कबीर के शिष्य धर्मदास ने १७वीं शताब्दी के प्रथम चरण में पंथ को व्यापक बनाने के लिये सर्वप्रथम ठोस कदम उठाया था। १८वीं शताब्दी में कबीर-पंथ में साहित्यिक ग्रन्थों की रचना होने लगी थी, जिनमें कुछ तो पौराणिक ढंग के थे, जिनसे सामान्य जनता की मनस्तुष्टि होती थी और कुछ ग्रंथ विशेष प्रकार के दर्शन ग्रंथ थे, जिनसे ऊंचे बौद्धिक स्तर वाले व्यक्ति लाभान्वित हुए।''... ६ ""सद्गुरु कबीर अत्यन्त उच्चकोटि थे। वे सांप्रदायिक संस्कारों तथा किसी पुस्तक के अंधप्रमाणों की पक्षधरता से सर्वथा विमुख थे। उनकी दृष्टि बड़ी पैनी थी। वे सत्य के द्रष्टा तथा उसके स्पष्ट प्रवक्ता थे। वे पूर्ण अनासक्त जीवन्मुक्त पुरुष थे। अत: वे अपने नाम से स्वयं पंथ की रचना कर उसे चलायें हों, यह बात नहीं जंचती। इतना फक्कड़ मस्त संत पंथ चलाने के चक्कर में क्यों पड़ेगा? (वे सत्य अनुसंधाता, सत्य आचरण कर्ता एवं सत्य के उपदेष्टा थे और वे जीवन पर्यन्त यही करते रहे।) वे पंथ बनाने और उसे चलाने के चक्कर में कभी नहीं पड़े। जो सब पंथ एवं सम्प्रदाय को समाप्त कर शुद्ध मानवता का प्रकाश चाहता हो, वह स्वयं एक नया पंथ क्यों खड़ा करना चाहेगा? कोई भी महापुरुष अपने सुंदर विचारों एवं पवित्र आचरणों के कारण कुछ लोगों की श्रद्धा का पात्र हो जाता हैं, फिर जो संत और सद्गुरु के रुप में उभरकर समाज में आता है उसके अद्वितीय विचार एवं व्यक्तित्व भी रहते हैं, तो अनुगामी एवं शिष्यों के रुप में उसके पास एक परिमाण में जन समूह का एकत्र हो जाना स्वाभाविक-सी बात है। फिर कबीर साहेब जैसे अत्यंत उच्चकोटि के महापुरुष के लिए तो कहना ही क्या! वे जन समाज द्वारा अपने जीवन काल में ही बहुत ऊंची दृष्टि से देखे जाने लगे थे। जब किसी भी स्वतंत्र सद्गूरु के पास थोड़ी मात्रा में शिष्य होते हैं, तो वहां बिना पंथ एवं सम्प्रदाय की रचना के भी काम चल जाता है, परंतु जब उनके पास हजारों की भीड़ होने लगती है, तब उन्हें उस नव-दीक्षित समाज को चलाने के लिए जीवन की एक नियमावली, एक शुद्ध वेष, शिष्ठाचार की परिपाटी, पूजापद्धति, संस्कार सिद्धान्त को समझने के लिए पारिभाषिक शब्द एवं उस समाज का एक नाम रखना पड़ता है। और वे सब जब उपस्थित हो जाते हैं, तब एक पंथ या सम्प्रदाय बन जाता है। सद्गूरु कबीर किसी सम्प्रदाय में दीक्षित होते या किसी परम्परा के पोषक होते, तो वे तथा उनके अनुमामी इसी सम्प्रदाय के नाम से जाने जाते; परंतु वे स्वतंत्र विचारक थे। उनके पहले उनके लिए कोई सांप्रदायिक परंपरा न थी। वे स्वयं स्वतंत्र थे। अतएव उनके विचारों के अनुगामियों के लिए एक स्वतंत्र संप्रदाय एवं पंथ की रचना की आवश्यकता हुई। वही कबीर-पंथ के नाम से फलित हुआ। प्रश्न यह है कि पंथ का निर्माण स्वयं कबीर देव ने किया कि उनके शिष्यों ने? इसका कोई लेखा-जोखा न होने से कुछ साफ कहा नहीं जा सकता। बहुत कुछ उम्मीद है उनके शिष्यों ने ही किया हो। हो सकता है कि सद्गुरु के उपस्थित-काल में ही उनके शिष्यों ने पंथ की रचना की हो या उनके शरीरांत के बाद। जो बात साफ न हो उसके विषय में बाल की खाल काढ़कर कुछ कहना उचित नहीं है। इतनी बात साफ है कि कबीर देव के जीवन काल में ही उनके अनुगामी शिष्यों की काफी भीड़ हो गई थी। अतएव पंथ की संरचना चाहे उनके जीवन के अंत में उनके शिष्यों द्वारा हुई हो और चाहे उनके शरीरांत के तत्काल बाद, परंतु इसे बहुत पीछे घसीटना उचित नहीं प्रतीत होता।""... ७ निष्कर्ष -
पर समय ने करवट ली। पंथ का मूल स्वर बदल गया। जिन विसंगतियों, विद्रूपताओं, संगीर्णता, सांप्रदायिकता, अन्याय व अतिचारों के खिलाफ उसका धर्म-युद्ध था, वे सब पंथ में स्थान पा गये। उसका इन्कलाबी, जनवादी स्वर दब गया। जो मूर्ति भंजक था, स्वयं उसकी मूर्ति देवतुल्य व संपूज्य हो उठी। असहमति और निषेध का स्वर कर्मकांड, बाह्याचार और मिथ्याचार में डूब गया। उसका जीवन-स्वप्न जाने कहां महाशून्य में विलीन हो गया। तत्वदर्शिता धूल-धूसरित। वह जननायक युग पुरुष और इतिहास पुरुष पंथीय देव बन गया। वह मृण्मय मानव, चिन्मय देव में बदल गया। उसका लोक चमत्कार और अद्भुत लोकातीत विलक्षणताओं से भर गया। वह चिरग्ध मानवता का उद्धारक, पंथ का उद्धारकर्ता बन गया। आकाश पर पहुचकर धरती का गीत गाने वाला, धरती पर रहकर आकाशवासी हो गया। सब समय का फेर है। आज पंथ की सीमाएं स्पष्ट हैं। इस अध्ययन के दौरान प्रत्यक्ष व परोक्ष, दोनों रुपों से, इसका सामना करना पड़ा। कारण अनेक हैं।
पर इस यंत्रयुग, अर्थयुग, पदार्थयुग और अमानवीयकरण के युग को कबीरीय चेतना की जरुरुत है। और भारतीय आस्था मानव की जय-यात्रा पर विश्वास करती है। कबीर-पंथ की आज की सीमाओं के बावजूद समाज उसका ॠणी है तथा कृतज्ञ है। क्योंकि कबीरीय चेतना को संजोकर एक कड़ी के रुप में उसने वर्तमान को अतीत से जोड़ दीया है। कबीर वाणी का विशाल रचना संसार सुरक्षित रखकर आज हमें उपलब्ध करा दिया है। प्रतिकूलताओं के बीच उस जोत को प्रज्ज्वलित रखने की कोशिक करता रहा है। इतना ही संतप्त मानवता के लिये जीवनदायी सांत्वना है।
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