आदिवासियों
के बीच कबीर
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भूमिका |
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विवेचन |
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निष्कर्ष
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भूमिका |
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छत्तीसगढ़
मूलभूत रुप से आदिवासी क्षेत्र
है। यहां की गिरि कन्दराएं व
कानन कुंज आदिवासी जीवन रुपों
से स्पन्दित हैं। आदिवासी
संस्कृति की नैसर्गिक छटा
अतुलनीय है। वह एक सरल-सहज
जीवनधारा और चेतनाधारा है।
उसमें धरती की खुशबू, प्रकृति की
विविधता और रमणीयता,
नदियों की गतिशीलता, पहाड़ों
की अदम्यता, एक सरल मानवीय
संबंध दिखाई पड़ता है। प्रकृति
के साथ उनके जीवन का केवल
तालमेल ही नहीं वरन् तद्रूपता
और नैसर्गिकता विद्यमान है। हर
बदलता मौसम, हर बदलते
त्यौहार उनके जीवन में एक नई
मूच्र्छना, ताललय नृत्य और
जीवन की अनूठी भंगिमा लेकर
आते हैं। ये प्रकृति पुत्र प्रकृति से
कटकर रह नहीं सकते। अपने में
ये आत्मतुष्ट और स्वावलंबी
होते हैं।
जैसे
हर मोड़ पर नदी एक बंकिम
भंगिमा लेती है, ठीक वैसे ही
यहां भी हर मोड़ पर
आदिवासी जीवन की एक लई झांकी
देखने को मिलती है। एक नई
भाषा सुनने को मिलती है। ये
आत्मतुष्ट व्यक्ति कभी भी
विस्तारवादी नहीं रह हैं। मुख्य
रुप से यहां की आदिम जाति गोंड़
है, जिसके अनेक प्रकार दिखाई
पड़ते हैं। साथ ही विकास और
पारस्परिक आदान-प्रतिदान के
द्वारा जातियां-उपजातियां,
शाखाएं-उपशाखाएं मिलती जाती है।
पर ऐतिहासिक विकास से यह
स्पष्ट है कि -
१. समय
चक्र ने इन्हें बाहरी शक्ति के
सामने आत्मसमपंण करने के लिए
विवश किया और वे आत्मरक्षा व
आत्मगोपन के लिए विवश हुये।
२. इनका
सहज सरल यह राज्य बाहरी
आक्रामण शक्तियों के सामने टिक
नहीं पाया और उन्हें खूंखार
जंगली जानवरों के साथ
बीहड़ वन प्रदेशों में शरण
लेनी पड़ी। बाहरी लोगों की
प्रभुता शक्ति और फैलाव से
इनमें सभी बातें ढकती चली
गईं। किसी को कुछ पता नहीं
चला। जंगल में फूल खिला, चटका,
महका और झड़ गया। आज उसका
सूखा मुरझाया अवशेष एक करुण
कहानी कहता है।
बाहर
से आने वाले लोगों के आधीन
रहकर उनकी संस्कृति को लेने
के लिए ये विवश हुए। मेल
मिलाप हुआ। कुछ दोनों के
संयोग से नवीन रुप उभरे पर
प्रमुखता बाहरी संस्कृति की
रही। अपनी गठरी को छिपाएं,
विकल अंतर लिए, अपनी लाचारी में
ये सब सहने को बाध्य हुए।
इन्हें जीने के लिए आत्मसमपंण
करना पड़ा। न तो इनका राज्य
बचा, न इतिहास, न भूगोल, न
जीवन और न ही सम्मान। सब कुछ
गर्त में समा गया।क्योंकि, वह
इतिहास यहां की आदिम
जातियों ने नहीं लिखा था। उसकी
रचना बाहरी आने वाली
जातियों ने की थी। अत: बाहरी
लोगों की दृष्टि, व्याख्याएं, निहित
स्वार्थ और उसकी पूर्ति यही
इतिहास रचना की संचालक
वृत्तियां रहीं।
ऐसे
समय में लोक-नायक कबीर की
अमृतयी वाणी सुनाई पड़ी।
शोषित और उत्पीड़ित जनता की
हृदय वीणा झंकृत हो उठी। कबीर
की वाणी प्राण रस बनकर इन
धरतीपुत्रों की नशों में बहने
लगी। नवजीवन का संचार हुआ।
तन्द्रा टूटी, जागरण आया। यहां की
गिरि कन्दराओं में एक प्रभात
रागिणी बज उठी।
तू जाग
मुसाफिर भोर भयी, अब रैन
कहा जो सोवत है।
जो सोवत है वह खोवत है,
जो जागत है वह पावत है।।
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विवेचन |
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आत्म
संस्थापन, आत्म गौरव की प्रतीति
तथा अपने मानवीय रुप की पहचान
के साथ वे फिर से उठे। उन्होंने
अपने को पाने और संभालने की
कोशिश की। साथ ही मानवीय
सुकुमारता के साथ, अपने
आस-पास परिवेश को लेते हुए,
वे रचनात्मक रुप से और
संतुलित रुप में बढ़ने की
कोशिश करते रहे। कबीर का
मूल स्वर कभी भी विनाशी,
अमानवीय या मूल्यहीन नहीं
रहा है। नैतिक और मानवीय
मूल्यों के आधार पर मन
परिवर्तन, चरित्र परिवर्तन और
व्यवहार परिवर्तन के द्वारा
उन्होंने परिवर्तन लाने की
कोशिश की।
गांधी का
सब कुछ कबीरीय है। गांधी जी
ने जिस प्रकार अहिंसक रुप से,
असहयोग, सत्याग्रह, आत्मदान और
सदाचारी ढंग से स्वतंत्रता ली
और अंग्रेजों को पराभूत किया,
वह वि के लिये एक अचंभा था।
कबीर की रचनात्मक क्रांति
छत्तीसगढ़ की जातियों में एक
प्रेरणा के रुप में प्रकट हुई।
कबीर व गांधी दोनों में काफी
समानता है। दोनों में ही सहज
ज्ञान, सहज साधना, सरल धर्म,
सरल जीवन व सरल व्यवहार
दिखाई पड़ता है। दोनों का ही
स्वर जनवादी और मूल्यवादी
है।
कबीर
की वाणी बड़ी तेजी से फैली,
क्योंकि समय को उसकी जरुरत थी।
इस प्रचार प्रसार में जो केन्द्र
बने वे कबीर-पंथ के आश्रम बन
गये। कबीर-पंथ अर्थात् कबीरीय
विचारणा के आधार पर बना
मार्ग। इन्हीं केन्द्रों में कबीर-पंथ
का विकास हुआ और उनमें आश्रम
चौरा आदि बने। एक मान्यता के
अनुसार "कवर्धा' अर्थात्
"कबीर - धाम' का अपभ्रंश है।
नाम से ही इसका महत्व स्पष्ट
है। कभी यह कबीर - पंथ का
प्रमुख केन्द्र रहा होगा। फिर
कुदुलमाल, करैहापारा
(रतनपुर), खरसियां, दामाखेड़ा
आदि आश्रम बने। फिर तो आश्रम
चौरा आदि विकसित होते गये।
इनमें दामाखेड़ा सर्वोपरि है।
जहां आज धर्मदास जी के वंशज
"श्री प्रकाशमुनि नाम साहेब'
प्रधान आचार्य है, और कबीर पंथ
का संचालन कर रहे हैं। इस
प्रकार आदिवासी जीवन और
संस्कृति में कबीर पंथ
परिव्याप्त है। प्रभाव स्वाभाविक
है।
कबीर
के संदेश - (प्रेम, उदारता,
मानवता, साहस, निडरता, आत्म
विश्वास, सहिष्णुता,
मूल्यवादिता आदि) बातें
आदिम जीवन में सहज रुप में
व्याप्त हैं। दोनों ही धरती पुत्र
हैं और प्रकृतिमयता इनकी
पहचान है। अत: दोनों परस्पर
से अनुप्रमाणित हैं या आत्मवत्,
यह कौन कहेगा?
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निष्कर्ष |
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जो
सहज है, जो सरल है, जो
नैसर्गिक है, जो जीवन्त है, जो
उन्मुक्त है, जो जल प्रपात बनकर
गिरता है, जो जीवन सरिता
बनकर बहता है, जो पारवी
बनकर आकाश को संगीत से
भरता है, जो गिरि कान्तर में
जीवन का सौंदर्य फैलाता है,
जिसकी किलकारियों से गहन
कानन मुखरित होता है, जिसकी
थिरकन से प्रकृति झूमती है,
वही निसर्ग सुन्दरी की वरद
संतानें, आदिम जातियों के रुप
में अपनी बहुरंगी आभी से
छत्तीसगढ़ी संस्कृति को
इन्द्रधनुषी आभा दे रही है। |
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