आदिवासियों
की सामाजिक व्यवस्था एवं कबीर
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अर्थव्यवस्था
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सहज
ज्ञान और प्रत्यक्षानुभूति
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राजनीति
में मूल्यवादिता
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श्रम
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नागरिक
स्वतंत्रता
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रागात्मकता
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न्यायिक
व्यवस्था
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वीरता
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धर्म
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नश्वरता
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आदिवासी
- समाज में कबीर के प्रभाव के
चार स्तर दिखाई पड़ते हैं -
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१.
प्रत्यक्ष > गोचर
> मान्य |
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(मठ,
आश्रम, चौरा) |
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२.
प्रत्यक्ष - पर स्पष्टत: कबीर से
संबंध नहीं |
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(सतनाम
- पंथ) |
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३.
अप्रत्यक्ष - जो सुस्पष्ट रुप से
कबीर से संबंधित है - |
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(अन्य
वर्ग, ईसाई, मुसलमान
आदि) |
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४.
अप्रत्यक्ष - जो स्थानीय संस्कृति
में पूर्णत: आत्म सात् हो
गई है - |
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(जन्म,
मुत्यु, विवाह पर्व,
त्यौहार, व्रत आदि) |
कबीर
स्वयं जन था। अत: उसके पास
जन-व्यक्तित्व था। वह जन बनकर
मार्ग-प्रदर्शक बना था, और
जननायक बना था। वह जन नायक
बनकर जन के पास नहीं गया था।
उसका यह जन व्यक्तित्व उसकी अपार
जनशक्ति का आधार था. सबसे बड़ी
बात उसे अपने जन होने का गर्व
था। कहीं भी आत्महीनता का भाव
नहीं; वरन् महाप्राणता का
औदात्य है।
जीवन का
जहर उसने पिया था। इसलिए वह
बहुत संजीदा हो उठा था। उसका
पर-दुख-कातर मन उसे अथाह
जन-समुद्र में सहज ही मिला
देता था। और तब बुल-बुला फल
कर समुद्र बन जाता था। कबीर था
कहां वहां तो जन समन्दर गरज
रहा था।
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हेरत
हेरत हे सखी, रह्या
कबीरा हिराई।
बून्द समाना समन्द में, सो
कत हेर्या जाई।
हेरत हेरत हे सखी, रह्या
कबीरा हिराई।
समन्द समाना बून्द में, सो
कत हेरया जाई। |
इसलिए
वह भारत की अस्मिता का प्रतीस
बन गया।
एक
साधारण जन बनकर, जन का जीवन
जीकर, कामगर के रुप में जीविका
उपार्जन कर, कबीर ने जो क्रांति
की उसमें एक विशाल आत्मा के
दर्शन होते हैं। कबीर महामना
था। उसके व्यक्तित्व की दिगंत
प्रसारी शक्तियों का आकलन नहीं
हो सकता। केवल इतना ही
कहना चाहेंगे कि वह अद्भुत था।
आदिवासियों
के साथ उसका संबंध जन्म
जन्मांतर का था। इसलिए वह जाने
अनजाने उनका हो गया। सब प्रकार
की विषमताओं को समाप्त करने
और एक न्यायोचित, संतुलित
व्यवस्था को कायम करने के
उद्देश्य से कबीर संघर्ष करता
रहा। समानता की स्थापना हर
स्तर पर होनी चाहिए - सामाजिक,
धार्मिक, आर्थिक, राजनितिक आदि।
इसी समानता की स्थापना के लिए
कबीर अपना साम्यवाद देता है
जो प्लेटो (Plato )
के साम्यवाद और माक्र्स के
साम्यवाद से सर्वथा भिन्न है।
कबीर का साम्यवाद - मूल्यवाद
और मानववाद पर आधारित है।
कबीर के साम्यवाद से
सामाजिक दायित्व-बोध,
पारस्परिक सहयोग एवं
सामाजिक समानता आदि बातों की
वृद्धि होती है। व्यक्ति और
समाज के बीच टकराहट व
तनावपूर्ण संबंध नहीं; वरन्
सौहार्द्रपूर्ण संबंध स्थापित
होता है। व्यक्ति अपने निजी जीवन
से अधिक सामाजिक जीवन में जीना
चाहता है। उसी में अपने जीवन की
पूर्णता एवं सुख मानता है। जहां
व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं, लोभ नहीं,
वहां सामूहिक रुप से सभी एक
दूसरे की मदद करते हैं, और
दुख कठिनाइयों को दूर करते
हैं। कबीर की इन्हीं बातों की
समानता हम आदिवासी समाज
में देखते हैं। आदिवासियों की
जो कम्यूनिटी लाइफ है
अर्थात् सामुदायिक जीवन
उसमें रागात्मक सहयोग,
समानता, सामूहिक जिम्मेदारी
और सामाजिक रुप में दायित्व की
पूर्ति आदि तत्व सहज रुप से
विद्यमान होते हैं। अत:
आदिवासी सामाजिक संरचना व
कबीर की सामाजिक दृष्टि में
काफी समानता है।
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अर्थव्यवस्था |
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कबीर
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उदर
समाता अन्न लै, तनहि समाता
चीर।
अधिकहिं संग्रह ना करै, ताकों
नाम फकीर। |
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कबीर
- |
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आदिवासी
- इनकी समाज व्यवस्था में
सामूहिकता एवं रागात्मकता का
ऐसा ताना बाना है कि वे समूह
में जीना पसंद करते हैं। इनकी
अर्थव्यवस्था का आधार सहकारिता
है। वे पर्यावरण के दोहन पर
नहीं उसमें आजीविका पालन में
विश्वास रखते हैं। इनमें लाभ
अर्जित करने की परम्परा नहीं
रहती है। वे सहज, सरल है
और लोभ से दूर हैं।
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साईं
इतना दीजिए, जामें कुटुम्ब
समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न
भूखा जाय।। |
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कबीर
- |
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आदिवासियों
की मूल पारंपरिक अर्थव्यवस्था
कबीर के इस मूल विचार के
समीप खड़ी है। वे आर्थिक संग्रहण
से दूर हैं। उनकी आर्थिक नीति निजी
आवश्यकता तक सीमित है। जहां
साधु (सत्जन व्यक्ति, अथवा
सामाजिक जिम्मेदारी) के
दायित्व की बात आती है, इसे भी
वे सामाजिक रुप से पूरा करते
हैं। अर्थात इनकी
सामाजिक-व्यवस्था, आवश्यकता से
अधिक संग्रहण पर, सीधे तौर पर
अंकुश लगाती है। इनकी
अर्थव्यवस्था साम्यवादी व्यवस्था
के अनुरुप है।
इस
तरह कबीर की आत्मतुष्ट जीवन
नीति आदिवासी समाज व्यवस्था
का सार है।
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सहज
ज्ञान और प्रत्यक्षानुभूति |
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कबीर
- |
मेरा
तेरा मनुवाँ, कैसे एक होई
रे।
मैं कहता आंखन की देखी, तू
कहता कागद की लेखि।
मैं कहता सुरझावन हारी, तू
राख्यो उरझाई रे।।
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आदिवासी
- |
आदिवासी
कागजी संस्कृति से अपरिचित
है। वे नहीं जानते कि लेखी
और अंगूठा की छाप का क्या अर्थ
होता है। उनका ज्ञान तो सिर्फ
प्रत्यक्षनुभूति पर आधारित
होता है। जो हुआ सो देखा।
जो देखा सो सच है। फिर सच
को प्रमाणित करने की क्या
जरुरत है?
आज
आदिवासी समाज इसी सच एवं
इसी सच के प्रमाणीकरण के
बीच उलझ कर शोषण का
शिकार हो गया है। और
शायद यही कह रहे हैं -
मेरा
तेरा मुनंवा, कैसे एक
होई रे।
इस
तरह कबीर एवं आदिवासी
दोनों ही अंखियन देखी बात
को सच मानते हैं कागज लिखी
विद्या को नहीं। |
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राजनीति
में मूल्यवादिता |
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कबीर
- |
एक न
भूला, दोऊ न भूला, भूला
सब संसार।
एक न भूला दास कबीरा, जाके
राम अधार।।
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आदिवासी
- |
आदिवासी
समाज में यह मूल्यवादिता
उनके प्रत्यक्षज्ञान और
प्रत्यक्षनुभूति के कारण आज भी
जीवित है। इनकी परम्परागत
पंचायत में किसी भी विवाद
पर निर्णय सामूहिक होता
है। जिससे एक न्यायपूर्ण और
संगतिपूर्ण प्रशासन आदिवासी
समाज में मौजूद रहा है -
यही कबीर का "जनवाद' है। |
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श्रम |
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कबीर
- |
श्रम
ही ते सब कुछ बने, बिने श्रम
मिले न काहि।
सीधी अंगुलि घी जमो, कबहूँ
निकसै नाहि।।
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आदिवासी
- |
आदिवासी
लाभ की प्रवृति से दूर है।
इनके लिये परोपजीवी व
परावलम्बी होना अनुचित है।
यहां तक इस समाज में भीख
मांगने की प्रथा भी नहीं है।
श्रम इस समाज की पूंजी है।
पुरुष, स्री, बच्चे सभी
अपने-अपने अनुकूल कार्य करते
हैं। अत: परिवार में श्रम
विभाजन का उदाहरण देखने
को मिलता है। इसा का
परिणाम है कि - आदिवासी,
गांव और समाज अपनी
आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं
कर लेते हैं। इन गांवों में
आर्थिक साधनों का केन्द्रीयकरण
भी नहीं हुआ है। अत:
आदिवासीयों के द्वारा श्रम
को प्रमुखता देना - कबीर के
साम्यवाद की छवि को ही
उभारता है। क्योंकि कबीर का
साम्यवाद सदा से ही चली
आने वाली भारतीय सामाजिक
आर्थिक-नीति को ही अभिव्यक्ति
है, जिसमें संसाधनों का
अकेन्द्रीयकरण (Non-centralisation )
मिलता है। यही गांधी जी की
दृष्टि भी है। |
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नागरिक
स्वतंत्रता |
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कबीर
- |
Jֱ
खेलो संसार में, बांधि न
सके कोय।
घाट जागति का करे, जो सिर
बोधा न होय।।
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आदिवासी
- |
+nɺ
समाज राजनितिक स्वतंत्रता के
साथ वैचारिक स्वतंत्रता के
भी हिमायती है। उनकी
राजनीतिक स्वतंत्रता इस हद
तक आदर्श है कि यहां
मत-विभाजन से चुने जाने का
कोई प्रावधान ही नहीं रहा
है। अर्थात यहां सभी कार्य
सर्व-सम्मति से होता हैं।
यहां की राजनीति स्थिति
सहज-सरल एवं स्पष्ट रही है।
अत: यहां प्रत्यक्ष लोकतंत्र की
आधारशिला के रुप में स्वतंत्र
नागरिकों की ग्राम सभायें
कार्यरत हैं। |
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रागात्मकता |
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कबीर
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उड़ा
बगुला प्रेम का, तिनका उड़ा
आकास।
तिनका तिनके से मिला, तिनका
तिनके पास।।
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आदिवासी
- |
आदिवासी
मौन वातावरण में गाते हैं
तथा अंधेरे में नृत्य करते हैं।
वे अपने कष्टों, दुख और
दुर्दशा को गीत एवं संगीत
में ही डुबा देना चाहते हैं।
यदि वे अलग-अलग नातचे तो
मानो उन्हें एक दूसरे की
जरुरत नहीं होती। इस तरह
आदिवासी समाज में प्रेम तत्व
की ही प्रमुखता है। यह प्रेम
ही उनकी सरलता और सहजता
में परिलक्षित होता है। |
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न्यायिक
व्यवस्था |
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कबीर
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यह
मन तो ऐसा निर्मल भया,
जैसे गंगा नीर।
पीछे-पीछे हरि फिरै, कहत
कबीर कबीर।।
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आदिवासी
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आदिवासियों
की न्यायिक व्यवस्था
अनौपचारिक होने के कारण
अत्यंत सहज एवं सरल है। इस
समाज में व्यक्ति अपने वचन से
बंधा हुआ होता है। अत:
खुला हुआ है। न्यायिक
व्यवस्था, सदाचारी एवं
मूल्यवादी है।
इस
ह्रास शील युग में (आदिवासी
मूल्यवादी न्यायिक चेतना
ठीक उसी तरह है जैसे समाज
में कबीर के पद) |
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वीरता |
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कबीर
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खरी
कसौटी राम की, खोटा टिकै न
कोई।
राम कसौटी जी टिके, सो
जीवित मृत होई।।
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आदिवासी
- |
पर्यावरण
की चुनौतियों ने
आदिवासियों को पाठ पढ़ाया
है कि यदि वे इन
चुनौतियों को पराभूत नहीं
करेगें, उसे समाप्त कर देंगी।
अत: इस समाज में बच्चों से
यह अपेक्षा रखी जाती है कि जब
वह मवेशी चराने के लिए
जंगल ले जायें और किसी
जावनर का आक्रमण हो उस
स्थिति में जानवर को भगाने
की वीरता उस बालक में होनी
चाहिए। क्योंकि यहां कोई
खोटा टिका नहीं रह सकता। |
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धर्म |
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कबीर
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जहं-जहं
डोलौ सो परिकरमा, जो
कुछ करों सो पूजा।
जब सोवों तो करौं दण्डवत,
भाव मिटावों दूजा।।
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आदिवासी
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आदिवासियों
का धर्म अत्यंत सहज धर्म है।
वे प्रकृति की पूजा करते हैं।
इनका मूलधर्म प्रकृति से
जुड़ा है। प्रकृति के जिन रुपों
को और चमत्कारों को वे
नहीं समझ पाते हैं, उसकी पूजा
शुरु हो जाती है। इनकी पूजा
में न कोई कर्मकाण्ड होता
है और न कोई आडम्बर। वे
कबीर की तरह मानवतावादी
हैं, और नर (समाज) में
नारायण (जीवन अस्तित्व) को
देखने की उनकी दृष्टि भी है। |
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नश्वरता |
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कबीर
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चंदा
मरिहैं, सूरज मरिहै,
मरिहैं सब संसार।
एक न मरिहैं दास कबीरा,
जाके राम आधार।।
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आदिवासी
- |
आदिवासी
भी जीवन की नश्वरता को
पूरी तरह स्वीकार कर
गृहस्थ-जीवन की गरिमा को
कम स्वीकार करते हैं। वे
कबीर की तरह मुक्त एवं
वीतरागी हैं। मृत्यु की
सार्वभौमिकता को स्वीकार
कर वे गाते व नृत्य करते हैं।
यहां मानव जाति का निवास
है। यहां सभी मरणशील है।
कबीर
ने जिस वैचारिक स्वतंत्रता की
बात कही है - वह
आदिवासियों का
जीवनानुभूत सत्य है। क्योंकि
गिरिजन, प्रकृति के खुले
प्रांगण में रहते हैं। प्रकृति की
उन्मुक्तता, सहजता, जीवन्तता
और विस्तार आदिवासी जीवन
में निसर्गत: विद्यमान है।
उनकी जीवन सरिता जलप्रपात
बनकर गिरती है। तो कभी
कांटों से उलझती है, कभी
गहन उपत्यकाओं में से गुजरती
है, तो कभी समतल-भूमि पर
अपनी धीर-मन्थर गति से जीवन
सफर की रहस्यभरी गाथाओं
को रुपायित करती है। यह
शैवालिनी कभी शैशव की
कोमल छटा बनकर प्रकट
होती है, तो कभी अल्हड़
किशोरी बनकर कुसुमित
कानन से उलझती, लरजती
बहती है, तो कभी यौवन के
उन्माद से उफनती उन्मादिनी
बनकर सब कुछ बहा ले जाती
है, तो कभी श्वेत कुन्तल सी
निरमल जल की लड़ियों से
जीवन का गंभीर आशय
खोलती है।
यदि
इन्होंने फूलों से हंसना
सीखा तो भौरों से गाना।
सूरज से जीवन की ऊष्मा ली
तो चांद से जीवन की
शीतलता। इस तरह
प्रकृति-सुन्दरी उनके जीवन को
संवारती और बनाती है।
महाकाश और महाप्रकृति का
यह खेल इनके जीवन में
लाइट एण्ड शैडो की रचना कर
जीवन का रहस्य भरा
भावभीना अनुभव कराते हैं।
कबीर
की ही तरह आदिवासियों के
पास शास्र ज्ञान की अपेक्षा
अनुभव ज्ञान की पूंजी है। वे
भी कबीर की तरह शास्र वाक्य
का नहीं मानुषी वाक्य का
प्रयोग करते हैं। वे भी
शास्रीय दुनियां में नहीं
माटी दुनियां में रहते हैं।
उनकी दुनियां भी नन्दन कानन
नहीं वरन् पथरीला वन
प्रान्तर है। अत: इन
प्रकृति-पुत्रों की कबीर के साथ
संगति नहीं होगी तो और
किस के साथ होंगी? किसी अन्य
के साथ होन अत्यंत कठिन है।
कबीर जैसा जन यदि
आदिवासियों के साथ मिलकर
तद्रूप नहीं हुआ तो फिर और
कौन होगा? अत: यदि कबीर
आदि संत हुये तो यह आदि
समाज। |
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