कबीर
विचारणा
|
जुलाहा
|
|
कबीर
व गांधी
|
|
स्पुतनिकयुग
और कबीर
|
|
कबीर
की प्रासांगिकता
|
|
कबीर
की क्रांतिचेतना
|
|
सहज
ज्ञान और सरल उपासना
|
|
कवि
कबीर और काव्य परंपरा
|
|
|
जुलाहा
-
|
|
|
सबकी
गठीर लाल है, कोई नहीं
कंगाल।
गठरी खोलो तो जानियै, ना
खोले अनजान।। |
|
-
कबीर |
|
सुदुर
अतीत के धुंध कुहासे को
चीरती एक कोमल रागिनी आ
पहुंचती है - ""स्पुतनिक
युग'' में। एक जुलाहे के
प्राणोच्छवास से झंकृत हो
उठता है - यंत्र युग के जुलाहे
का अन्तर - |
तन्मय
विभोर उसका चरखा काल चक्र
के साथ चलता जा रहा है सदा -
चलते रहने के लिए। |
|
रथचक्र
कब रुका है?
समय कब थमा है? |
नहीं,
सृष्टिचक्र एक बार सदा के लिए
चलता है और सदा चलते जाता
है। |
दोनों
न हिन्दु हैं और न मुसलमान।
केवल जुलाहे थे। जीवन के
नंगेपन को ढांकने के लिए एक
चदरिया बुनते रहे। |
जब
अंत समय आया, एक की चदरिया
चीरी गई, अंतिम संस्कारों के
लिए - दूसरे को गोली लगी
देख काटकर राह देने के लिए। |
|
""हे
! राम'' |
|
नंगापन
ढका या बेनकाब हुआ। कौन
जाने? पर हां महा शून्य से एक
आवाज अनंत में तरंगित हो उठी
- |
|
हिन्दु
मैं हूं नाहीं, मुसलमान भी
नाहीं।
पंच तत्व का पुतला हूं, गैबि
खेले माहीं।। |
|
-
कबीर |
|
सोने
चांदी के तारों से बनी वह
चदरिया शेष थी जिसे - |
|
दास
कबीर जतन से ओढ़ी।
ज्यों की त्यों धरि दीन्ह
चदरिया।। |
|
-
कबीर |
|
कबीर
की वाणी में हमारी जातीय
अस्मिता बोलती है। अनेक जाति,
धर्म आदि के रेशमी तारों से
बड़े मनोयोग से बनी वह
चदरिया अपनी वंश परम्परा
को सौपते हुये मानों
कबीर कह रहे हों - |
|
सम्भाल
कर रखना
तार टूटने न पाये
दाग लगने न पाये
दूधिया पन मलीन न हो। |
|
करुणा
प्लावित हृदय से एक हूक उठी - |
|
अरे!
इन दोऊन राह न पाई।
हिन्दू की हिंदुॅवाईन देखी,
तुरकन की तुरकाई।। |
|
-
कबीर |
|
कबीरीय
संगीत के इस स्थाई पर
मानों सब कुछ करुणार्द्र हो
उठा हो सब कुछ भीगा-भीगा,
सब कुछ सजल-सजल। पर कबीर
का यह अश्रु-गीत राह दिखा सका
यह कैसे कहें? |
|
|
|
कबीर
व गांधी
|
|
""भारत
की उन्नति में हिन्दू-मुस्लिम एकता
भी एक खास मुद्दा है। इस बात को
मुगल सम्राट अकबर और महात्मा
गांधी अच्छी तरह समझ गये थे। ये
दोनों महापुरुष इस देश के ही
उत्तराधिकारी हैं। जहां एक ओर
कबीर अकबर के मानसिक पिता
माने गये हैं, वहीं दूसरी ओर
महात्मा गांधी ने कबीर की शिक्षा
को माता के दूध के साथ ग्रहण
किया था। ये दोनों जीवन पर्यन्त
हिन्दू-मुस्लिम-एकता के लिए जूझते
रहे। इसी कारण अकबर को
कट्टरपंथी मुसलमानों का तथा
महात्मा गांधी को कट्टरपंथी
हिंदुओं का कोप-भाजन बनना
पड़ा।''... १
क्रांतिदूत
युग पिता गांघी का जीवन
दर्शन कबीरीय था। राजनीति
को मूल्यवादी व मानवीय
बनाने के लिए गांधी ने कबीर
के ""निरपख राम'' को
अपनाया। जनता-जनार्दन को
जगाया। दरिद्र नारायण की
सेवा की। उपेक्षित और उत्पीड़ित
दलित वर्गों में आत्मगौरव की
संस्थापना की। समाज को उनकी
महत्ता का एहसास कराया तथा
उन्हें उनका सामाजिक स्थान व हक
दिलाया। "आम-आदमी' (Common
man ) को अपनी
चिन्तना की धुरी बनाया।
व्यवस्था को तोड़ा। क्रांति का
आह्मवान किया। सूक्ति शैली में
कहा जन भाषा को अपनाया। लक्ष्य
व साधन दोनों को मानवीय
व नैतिक बनाया। सहज ज्ञान
और सहज साधना पर बल
दिया। अहिंसा, असहयोग,
सत्याग्रह आदि को साधन
बनाकर क्रांति को रचनात्मक
बनाया। आतंकवाद को पनपने
नहीं दिया।
|
१. |
अपने
मिशन पर अटूट विश्वास |
|
२. |
फकड़ाना
मस्ती |
|
३. |
लक्ष्य
के प्रति सर्व समपंण |
|
४. |
जन -
प्रतिबद्धता |
|
५. |
अथक
प्रयास |
|
६. |
अमोध-आत्म-विश्वास |
|
७. |
अन्त्योदय
अथवा सर्वोदश (Low-entropy-value-system) |
|
८. |
चिन्तन
व तर्क में एकता |
|
९. |
कर्म
- दर्शन |
|
१०. |
निर्विशेष-विशेष
मानव |
|
११. |
निरपख
- भगवान |
|
१२. |
नाम
स्मरण का भक्ति दर्शन |
|
१३. |
सर्वोपरि
एक वैष्णवीय - मन
(दर्दीला-दिल) |
|
सभी
कुछ कबीरीय है। |
|
|
""वैष्णव
जन तो तेन कहिये, जो पीर
पराई जानी रे।।'' |
गांधी
ने आधुनिक युग को केवल
जन-आंदोलन, स्वतंत्रता व
वैचारिक क्रांति ही नहीं दी,
वरन उसे वह जीवन दर्शन
दिया, जो आज के प्रलय
प्रवाह के बीच जीवन की
आस्था व भविष्य का आश्वासन
दे सके। ह्रासोन्मुख युग में
मूल्यवादी प्राण चेतना जगा
सके। मानव की पहचान को
अक्षुण्ण रख सके। अर्थ मानव को
संजीदा मानव बना सके।
असहाय भ्रमित व विकल
वि मानव को (cosmic
man ) उसका
जीवन गीत दे सके - |
|
हम
न मरिहै, महिरै संसारा,
हमको मिला है, सिरजन
हारा। |
|
|
-
कबीर |
|
वैज्ञानिक
और औद्योगिक युग ने अपना
खोया जीवन लय पाया।
मानव की दिक्भ्रमित चेतना,
प्रचण्ड वात्याचक्र के बीच
खोई अपनी संकल्प शक्ति व
आत्म विश्वास को प्राप्त करती
है - |
|
|
मन
ऐसा निर्मल भया, जैसे
गंगा नीर।
पीछे-पीछे हरि फिरे, कहत
कबीर कबीर। |
|
|
-
कबीर |
|
दोनों
क्रांति के अग्रदूत थे। दोनों
ने वि मानव को
वैचारिक स्वतंत्रता दी - |
|
|
""खुली
खेलो संसार में, बांधि न
सकै कोई।
घाट जागति का करै, जो सिर
बोझा न होई।।'' |
|
|
-
कबीर |
|
कबीर
की राष्ट्र की अवधारणा
गाँव-गणराज्य (Village
Republic ) की
रही। इसका श्रेय भारत की
जनपद संस्कृति,
लोकतांत्रिक परम्परा और
लघु समाज व्यवस्था को है।
स्वयं कबीर और उनका
जीवन-दर्शन भारतीय
जनातांत्रिक चेतना की देन
है। उनका सब कुछ सच्चे अर्थों
में "जनपद सम्पदा' थी।
कबीर भारत की सदियों
पुरानी परम्परा की जीवन्त
प्रतिमूर्ति थे। उनकी
राष्ट्रीयता की भावना कभी
भी राष्ट्र राज्य (State
Nation ) के
रुप में नहीं पनपी। क्योंकि
कबीर और गांधी कभी भी
शक्ति के केन्द्रीयकरण के
समर्थक नहीं रहे। दोनों
ने शक्ति व संसाधनों के
पिरामिड की तरह नहीं
वरन् जन-लहर की तरह
देखा जो फैलते-फैलते जन
सागर में समा जाती है।
शक्ति व केन्द्रीयकरण के
दुष्परिणाम को वे समझ
रहे थे। सामाजिक शक्ति के
बिखराव को देख रहे थे।
हिंसा, घृणा, द्वेष, संघर्ष
आदि सामाजिक प्रवृतियों
को पनपने से रोकना चाह
रहे थे। दोहन शोषण
जुर्म व अत्याचार का खुला
प्रयोग होगा व जीवन
टूटेगा - यह समझ रहे थे।
इसलिए दोनों ने - |
|
१. |
शक्ति
के अकेन्द्रीयकरण (Non
Centralisation ) |
|
२. |
जन -
केन्द्रीय - चेतना |
|
३. |
लघु
अर्थव्यवस्था (Micro
Economic )
(कुटिर उद्योग धंधे, छोटी
सामूहिक योजना आदि) |
|
४. |
अन्त्योदय
आदि की बात कही। गांधी के
आधारभूत सिद्धांत हैं। |
इनके
द्वारा दोनों ने विषमता,
(वर्ग संघर्ष), विभ्राट
(नक्सलवाद, आतंकवाद,
अलगाववाद) आदि को रोकने
की कोशिश की है। गांव
स्वतंत्र और स्वावलम्बी
होते थे।कृषि उद्योग,
पंचायती राज, भागवत गृह,
आदि बातें उसकी जनतांत्रिक
व्यवस्था की विशेषताएं थीं।
ॠषिमुनि, महात्मा, गुरु
आदि इसके सूत्रधार व
संचालक होते थे। चारों
तीर्थ - स्थल इसकी सीमा थे।
सन् १८५७ ई. में स्वतंत्रता
संग्राम की प्रारंभिक लड़ाई
में साधु संतों की अहम्
भूमिका रही है। भारत
राजनीतिक नहीं, सांस्कृति
राष्ट्र है। सांस्कृतिक
चेतना ही भारत को राष्ट्र
के रुप में बांधे रही।
ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था
में भारतीयता की चेतना,
अंत: सलीला पयस्विनी
सरस्वती की तरह व्याप्त
रही। कबीर
के जीवन व कर्मदर्शन का
आशय है - "आम - आदमी या
सामान्य - जन'। कबीर अपने
यायावरी जीवन में पूरे
देश का परिचय पाते रहे,
उससे जुड़ते रहे, व अलख
जगाते रहे। उसने अनुभव
किया कि- |
|
|
""भारत
माँ ग्रामवासिनी'' |
|
उसकी
आत्मा जनपदों में बसती है।
इन जन को अपनाये बिना
भारत देश को सुदृढ़
बनाना असम्भव है। यह
"सामान्य - जन' ही इसका
आधार है। भारत कृषि प्रधान
देश है। ये "सामान्य-जन'
ही इसका आधार है। भारत
कृषि प्रधान देश है। ये
"जनपद ऐश्वर्य शालिनी
निसर्ग' सुन्दरी की क्रोड़ में
निवास करते हैं। भारत की
अखण्डता, एकता व शक्ति इन्हीं
जनपदों में केन्द्रित है। वह
अपने "सामान्य-जन' को
उसका हक, स्थान व सम्मान
दिलाने के लिए कटिबद्ध हो
गया। उसने दलितों में आत्म
संस्थापन करने के लिए
जीवन भर संघर्ष किया।
उन्हें उनका न्यायोचित हक व
स्थान दिलाने का प्रयास
किया। यही प्रयास गांधी की
जनक्रांति का आधार बना।
जिसका परिणाम है -
भारतीय गणतंत्र। कबीर
ने केवल भारत की अस्मिता
को ही वाणी नदी दी वरन्
"अनेकता में एकता' की
स्थापना की और भारत की
सदियों पुरानी जीवन
प्रणाली को प्रमाणित किया।
कबीर ने कोई नई बात
नहीं की पर जिस मोड़ पर
कहा तथा जिस रुप में कहा
तथा उसका जो प्रभाव पड़ा
वह अत्यंत महत्वपूर्ण है।
कबीर की बातों की जड़े बड़ी
गहरी थी। संस्कृति व
साहित्य में (जनता जनार्दन /
नरसिंह - अवतार) की कल्पना
अकारण नहीं थी। कबीर ने उसे
जगाया। युगीन हिरण्यकश्यप
को निर्दीण कर दिया और जन
शक्ति ने इतिहास की रचना
की। "गांव
गणराज्य' भारतीय ॠषि
संस्कृति की देन है। यह
राष्ट्रवाद कभी भी उग्र
राष्ट्रवाद का रुप नहीं लेता
और न ही साम्राज्यवाद व
उपनिवेषवाद का रुप धारण
करता है। इसका सम्पूर्ण
आधार गणतांत्रिक चेतना और
सह - अस्तित्व है। आज की अति
केन्द्रित शक्ति और तदजनित
वि जीवन पर पड़ने वाले
दुष्प्रभाव को देखते हुये
गांधी और कबीर द्वारा
भारतीय जनतांत्रिक चेतना
का जो चित्र प्रस्तुत किया गया
है वह स्वयंमेव अपनी
महत्ता सिद्ध कर देता है।
किसी व्याख्या की जरुरत नहीं
है। "आम-आदमी'
को हक दिलाने के लिए
कबीर राजनीतिक,
सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक आदि
सभी प्रकार की व्यवस्थाओं
से जूझते रहे। देश की एकता
के लिए उन्हें उनकी गलतियां
बताकर पास लाने की
कोशिश करते रहे। उनकी
सधुक्कड़ी, पंचमेल भाषा
इसमें सहायक सिद्ध हुई।
फलत: जन जागरण व
राष्ट्रीय एकता का कारण
बनी। यही गांधी जी की
स्वतंत्रता संग्राम की सम्पर्क
भाषा थी। आज वह राष्ट्र
भाषा हिन्दी के रुप में
प्रतिष्ठित है। कबीर
ने ५०० वर्ष पहले इस देश
के जीवन प्रश्न को समझ
लिया था व उसे अपना मिशन
बना लिया था। यह गांधी जी
का मिशन बन गया। कबीर
जानते थे कि यदि हिन्दू और
मुसलमान दोनों पास नहीं
आये तो यह देश के लिए
घातक होगा। कबीर जीवन
भर इसका प्रयास करते
रहे। गांधी जी का भी यही
प्रधान लक्ष्य रहा। दोनों
भली-भांति जानते थे कि
उनका सपना तभी पूरा होगा
जब "विविधता में एकता' की
स्थापना होगी। भारतीय
अत्यंत जटिल, अंतग्रस्त समाज
में समन्वय, सामन्जस्य,
संकलन व एकता की स्थापना
असाध्य-साधन है। कबीर व
गांधी सदा यही करते रहे।
समाज व देख को विघटन से
बचा लिया - |
|
१. |
निरपख
राम |
|
|
२. |
अविशेष
विशेष मानव |
|
|
३. |
वर्ग
विहीन समाज |
|
|
४. |
समानता |
|
|
५. |
प्रेम |
|
|
६. |
धार्मिक
सहिष्णुता व सह-अस्तित्व |
|
|
७. |
विराट्
मानव धर्म |
|
|
८. |
सदाचार
व सत्यनिष्ठा आदि बातें
समाज को समझाते रहे।
राम के रुप में एक
जीवनादर्श व अवलम्ब दिया।
यही गांधी का क्रांतिदर्शन
बना। |
हमने
कबीर को भुला दिया।
हमने गांधी को भी अपना
पूर्ण सहयोग नहीं दिया।
गांधई अपना पूर्ण जीवन
देकर भी हमें समझा नहीं
पाये। देश विभाजित हुआ।
अलगाववाद की जड़े
गहराई, परिणाम -
""इतिहास की बात
इतिहास जीने।'' |
|
|
""जित
देखो तित पूरण काज, कबीर
का स्वामी गरीब नेवाज़।'' |
|
|
-
कबीर |
|
गांधी
का "राम' भी "दरिद्र
नारायण' व "दीनबंधु'
है। बात वही है पर शैली
युगानुरुप भिन्न है। यह
कहकर दोनों ही क्रांति को
रचनात्मक और मानवीय
बना देते हैं। कबीर (मानव
के मन को गढ़ना) चाहते थे।
क्योंकि वे जानते थे कि -
समस्या और समाधान
दोनों के दो छोर हैं।
(व्यक्ति व समाज) कबीर
दोनों ही स्तरों पर
युगजीवन और समाज को
साधने की कोशिश करते
रहे। गांधी जी की भी यही
नीति थी। वे व्यक्तिमन और
समूह मन में परिवर्तन
लाना चाह रहे थे। कबीर
का उद्देश्य ही गांधी का उद्देश्य
बना।
दोनों
वाक्बीर नहीं शूरवीर
थे। उपदेशक ही नहीं,
कर्मवीर थे। दोनों ही
सत्यवीर और धर्मवीर भी
थे। इसलिए असम्भव को
सम्भव कर दिखाया। दोनों
ने इतिहास की धारा बदल
दी। वे एक ही चेतना के दो
स्फुलिग थे। युगानुरुप
किंचित भिन्न। कबीर आज
होते तो गांधी होते।
गांधी तब होते वो कबीर
होते।
""सबै
भूमि गोपाल की'' भारत की
इस प्राचीन उक्ति को दोनों
ही मानते थे। प्रकृतिक
नैसर्गिक अधिकार को मानव
के लिए राज्य प्रदत्त अधिकार से
ऊंचा मानते थे। जमीन
किसी की "कृतदासी' नहीं।
राजा को भी जमीन दान
देने का हक नहीं था। वे
केवल गांव दान में देते
थे। जो जमीन की सेवा करे
जमीन उसी की थई।
कबीर
मूर्ति भंजक था। वह सब कुछ
भस्मकर, कफनबांध कर
निकल पड़ा था। उसने अपने
लोगों से कहा - |
|
|
कबीर
खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी
हाथ।
जो घर फूकैं आपना, सो
चलै हमारे साथ।। |
|
|
-
कबीर |
|
कबीर
का युग सांस्कृतिक संकट
से गु रहा था। उसने
जीवन मूल्यों की खोज की।
जन मानस को जगाकर
सोचने और समझने को
कहा। कबीर का
सम्बोधन-काव्य बेजोड़ है।
उनका अधिकांश काव्य सिद्धान्त
कथन या आत्म-सम्बोधन नहीं
वरन् लोक सम्बोधन है।
साधु, अवधूत, भाई, पाण्डे,
मुल्ला, दरवेश, जोगी,
माया आदि। यह उपदेश काव्य
नहीं वरन् उद्बोधन,
आलोचना और आत्मानुभूति
से भरा है। कबीर अपना हक
नहीं मनुष्य का हक चाहता
है। अकेले की मुक्ति नहीं जगत
की मुक्ति चाहता है। उसका
यह धर्म दर्शन, कोरे
उपदेशकों के प्रवचन के
विरुद्ध एक चुनौती है तथा एक
इंसानी धर्म है।
कबीर
का समाज दर्शन अध्यात्म
दर्शन परस्पर गुथे हुये
हैं। गांधी जी का राजनीतिक
दर्शन और धर्मदर्शन
दोनों एकाकार हैं। दोनों
का यह प्रयास कठोरतम
तंत्र व्यवस्था को मानवीय
बनाना है। दोनों ने मध्यम
वर्ग को सचेत किया और
उसे समाज में अपनी भूमिका
पूरा करने का आह्मवान दिया।
और इस प्रकार अपने में
डूबे हुये लोगों को
उठाकर उन्हें उनकी मनस्विता
से जोड़ा क्योंकि इसके
बिला सांस्कृति अभ्युदय
नहीं हो सकता और
अवश्यम्भावी दुखद
परिणामो को रोका नहीं
जा सकता।
इस
का में उन्हें सम्पर्क भाषा के
रुप में हिन्दी से बड़ी मदद
मिली। वह स्वतंत्रता संग्राम
की भाषा रही। उसका अखिल
भारतीय हिन्दुस्तानी रुप
लोगों को एकात्मकता का
अनुभव कराता रहा। पास
लाता रहा। पर आज की स्थिति
भिन्न है। आज हिन्दी ही
सबसे अधिक विवादास्पद
वस्तु बन गई है।
गांधी
जी ने कबीर के सह - अस्तित्व
के सिद्धान्त को अपनाया और
अपने कार्यकाल में उसे सफल
बनाने की चेष्टा की। यही
सह अस्तित्व का जीवनादर्श
पंचशील में दिखाई पड़ता
है। दोनों ने भारतीय
समाज को हर ओर से
सम्भालने की कोशिश की।
भारतीय समाज की अध्यात्मिक
और धार्मिक भावना को
ध्यान में रखते हुये अपनी
सामाजिक व राजनीतिक
क्रांति को उसके साथ जोड़ने
की कोशिश की।
पर
दोनों सफल नहीं हो
पाये। और देश को उसका
अंजाम भोगना पड़ा। क्या
इतिहास से सीख लेकर
हम सब भी अपनी भूल
सुधारने का प्रयत्न करेंगे? |
|
|
|
अंतरिक्ष
युग और कबीर
|
|
खगोल
पिण्डों की टोह में भटकते हुये
पृथ्वी वासी से यदि किसी अन्य
पिण्ड के किसी ने परिचय पूछा तो
वह क्या कहेगा? मानव या
रोबोट्? उसकी पहचान क्या है?
|
१. |
यान्त्रिक
प्रक्रिया, या दर्दीला दिल? |
|
२. |
जरा
मरणहीन इस्पाती जिस्म, या
क्षणभंगुर मटमैला लघु
मानव? |
|
३. |
अतिकाय
सुपरमैन, या तीन पगों में
ब्रह्मांड नापने वाला वामन? |
|
४. |
अपरिमित
भौतिक शक्ति या प्रज्ञा पार
मिता? |
|
५. |
प्रकृति
विजय अभियान या "तथागत'
का मुत्यु-विजय-अभियान? |
|
६. |
जीवन
रागिणी तीन चौके बारह, या
बिहाग की मूच्र्छना? |
|
७. |
कार्तिकेय
गरुड़ की प्रचण्ड गतिशीलता या
गणपति मूसक की विश्वनाथ की
परिक्रमा? |
|
८. |
अनियंत्रित
चुनौति पूर्ण बेताल या धीर
गंभीर अविजित विक्रम? |
|
९. |
परती
धरती या सुजलाम् -
सुफलाम्? |
|
१०. |
मध्यान्ह
में अन्धकार, या तमसो माँ
ज्योतिर्गमय? |
|
११. |
इतिहास
यात्रा द्वेन्द्वात्मक भौतिकवाद या,
"संभवासी युगे-युगे'? |
|
१२. |
मनुजता
का रुप - मत्स्य न्याय या, जो
"पीर पराई जाणी रे'? |
|
१३. |
पदार्थ
मयता, या महाभिनिष्क्रमण? |
|
१४. |
भोगी
जैविक धर्मी मानव, या प्रतीक
स्त्रष्टा योगी मानव? |
|
१५. |
अश्वस्थामा
या युगसारथी कृष्ण? |
|
|
मानव
का रुप क्या है |
|
|
१. |
एक
यांत्रिक प्रक्रिया? |
|
|
२. |
एक
पदार्थमय अस्तित्व? |
|
|
३. |
एक
इस्पाती अमरता? |
|
|
४. |
एक
मशीनी विराट्ता? |
|
|
निर्जिव
और सजीव के बीच चल रही
इस लड़ाई में - |
|
१. |
मनुष्य
का रुप क्या होगा? |
|
|
२. |
स्थान
कहां होगा? |
|
|
३. |
धरती
या आसमान? |
|
|
४. |
मेधावी
मानव को क्या चाहिए? निरपेक्ष
ज्ञान या मानव सापेक्ष ज्ञान? |
विज्ञान
ने सम्वेदना के स्तर पर हमें
इतर जगत से अलग कर दिया।
मशीन ने सजीव को निर्जिव
बना दिया। फिर - रागमय,
सम्वेदनामय और भावनामय
ज्ञान कौन देगा? |
|
|
पोथी
पढि-पढि जग मुआ, पण्डित भया न
कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो
पण्डित होय।। |
|
|
-
कबीर |
|
|
|
पढि-पढि
के पाथर भया, लिखि लिखि
भया जूँ ईंट।
ढाई आखर प्रेम का, लगि न अंतर
छींट।। |
|
|
-
कबीर |
|
कबीर
की वाणी मेधावी मानव को
उसके निरपेक्ष - ज्ञान को -
रागमय होने के संदेश देती
है - |
|
|
कबीर
कोई पीर है, जो जाने पर
पीर।
जो पर पीर न जानिये, ते
काफिर बेपीर।। |
|
|
-
कबीर |
|
कबीर
की वाणी मेधावी मानव से
पूछ रही है कि कैप्सूल में
बंद हो अंतरिक्ष यात्री
(एस्ट्रोनट) बन तुझे
महाशून्यता में विहार करना
है या फिर "पंचत्तव' का
पुतला बनकर तुझे धरती और
आसमान के बीच में संचरण
करना है? |
|
|
हिन्दु
मैं हूं नाहीं, मुसलमान भी
नाहीं।
पंच तत्व का पुतला, गैबि खेले
माहीं। |
|
|
-
कबीर |
|
|
|
तन
रति करि मैं, मन रति करिहौं,
पंचतत्व बाराती
राम देव मोहि पाहुने आये,
मैं जोबन मदमाती।।
सुर तैंतीस कोटिक आये,
मुनिया सहस अठासी।
कह कबीर हम व्याहि चलें,
पुरुख एक अविनासी।। |
|
|
-
कबीर |
|
यह
प्रतिस्पर्धामय वि अपनी प्रगति
व शक्ति की होड़ा-होड़ी में
आत्महन्ता व आत्मघाती हो गया
है। पर कहां तक प्रगति? किस
सीमा तक इसके लिए मूल्य
चुकाया जायेगा? क्या धरती को
खत्मकर अंतरिक्ष में बसा जा
सकता है? |
|
|
कितनी
चिडिया उडे आकाश
दाना है धरती के पास। |
यदि
प्रगति-प्रगति के लिए नहीं, मानव
के लिए हो तो वह असीम नहीं
हो सकती। मानव और उसकी
धरती ससीम और सीमित हैं।
लघु और बौने हैं। अपनी सीमा
रेखा में ही प्रगति कर जीवन
को सुन्दर व सार्थक बनाया जा
सकता है - |
|
|
साईं
इतना दीजिए, जामें कुटुम्ब
समाय।
मैं भी भूखा न रहूं, साधू न
भूखा जाय।। |
|
|
-
कबीर |
|
आज की
दुनिया की एक ही समस्या है -
भोगवाद। सीमित मानव -
असीम आवश्यकताओं की पूर्ति
नहीं कर सकता। तब विभ्राट
होना - स्वाभाविक है। कबीर
का कहना है कि बुनियादी
आवश्यकताओं से परे
आवश्यकताओं को बढ़ाना ठीक
नहीं है। इससे समाज में
विषमता की सृष्टि होती है - |
|
|
उदर
समाता अन्न लै, तनहिं समाता
चीर।
अधिकहि संग्रह ना करै, ताको
नाम फकीर।। |
|
|
-
कबीर |
|
लोभ
व भोग के दो पहियों पर
प्रगति का रथचक्र कहां
पहुंचेगा? गांधी जी ने कहा है
-
""प्रत्येक
व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति के
लिए इस वि के पास पर्याप्त
है। किन्तु सम्पूर्ण वि एक
व्यक्ति के लोभ की पूर्ति के लिए
अपर्याप्त है।'' |
|
|
-
महात्मा गांधी |
|
|
कबीर
कहते हैं कि - |
|
|
|
आधी
जो रुखी भली, सारी सोग
सन्ताप।
जो चाहेगा चूपड़ी, तो बहुत
करेगा पाप।। |
|
|
-
कबीर |
|
श्रम की
महत्ता को कबीर से अधिक कौन
समझ सकता है? क्योंकि कबीर
स्वंय एक श्रमिक है कामगार
है, इससे ज्यादा वह होना
भी नहीं चाहता। |
|
|
श्रम
ही ते सब होत है, बिन श्रम
मिले ना काही।
सीधी अंगुली घी जमों, कबहुं
न निकसे नाहीं।। |
|
|
-
कबीर |
|
|
कबीर
इसलिए बार-बार भोगवाद
पर रोक लगाने को कहते हैं - |
|
|
""रुखा
सूखा खाय के, ठंडा पानी पीव।
देख पराई चूपड़ी, मत
ललचावै जीव।'' |
|
|
-
कबीर |
|
इस
वि की समस्त समस्यायें
भोगवाद की देन है, ----------
युद्ध, साम्राज्यवाद,
उपनिवेशवाद, आतंकवाद,
हिंसा, घृणा, खून खराबा आदि
सभी के मूल में यहीं
भोगवाद है, यही मूल्य
हीनता है। पागल प्रगति मनुष्य
को भकस जायेगी। यह ज्ञनार्जन
एक बौद्धिक विलास है जो
धरती को लील लेगा। उसकी
सीमा निर्धारित करनी होगी।
कबीरीय मूल्यवादी
साम्यवाद और गांधी का
अन्त्योदय अथवा सर्वोदय और
माइक्रो इकनामिक्स इसी
जीवन प्रश्न को हल करने के
प्रयास हैं।
मेधावी
मानव ने प्रगति के लिए विज्ञान
व तकनीकी को जन्म दिया।
भौतिक उन्नति की। प्रबल भौतिक
शक्ति का स्वामी बन गया। पर
अपने अपराजेय आत्मबल और
मानव पर को खो बैठा।
विज्ञान ने उसे उसकी नगन्यता का
एहसास कराया तथा तकनीक ने
उसे रोबट बनाया। वह
भस्मासुर बन बैठा।
मूल्यहीन मानव नें अपने
विराट् रुप को विसरा दिया।
वह "विक्रम' नहीं जो बेताल
साध सके। वह "भीष्म' नहीं
जो मृत्यु को आदेश दे। वह
"कर्ण' नहीं जहां आकाश भीख
मांगने आये। वह अभिमन्यु
नहीं जो चक्रव्यूह का भेदन
मरने के लिए करे। वह गोपाल
नहीं, जो गोवर्धन धारण कर
इंद्र को परास्त करे। वह कृष्ण
नहीं जो कालिया दमन करे।
वह "नीलकण्ठ' नहीं जो
हलाहल का पान कर चन्द्रमौली
बने। वह त्रिनेत्रधारी शिव
शम्भू नहीं जो काम देव का
दहन कर अनंग में बदल दें।
फिर उसकी जटा-जूट से
निकलकर गंगा की पावन धारा
धरती को कैसे सीचेंगी? और
उसकी कल-कल, छल-छल में जीवन
संगीत कैसे मुखरित होगा?
वह महाकाल है या
मृत्युंजयी?
उसे
यह जानना होगा कि वह
बेतालजयी "विक्रम' है। उसके
पास अमोध आत्मविश्वास है।
वह अनंत सम्भावनाओं का धनी
चेतन मानव है। प्राकृतिक
नियमों से परिचालित
प्राणीमात्र नहीं। सभ्यता व
संस्कृति उसकी जययात्रा है,
मृत्यु यात्र नहीं। वह
रश्मीरथी है। इस युग को
पुनर्जीवित होना ही होगा।
रोबट से मानव, स्वर्ण -
प्रतिमा से चल-चंचल बेटी,
अर्थयुग से वात्सल्य भरा पिता,
हार्टलंग से दर्दीला दिल,
कम्प्यूटर दिमाग से भूल चूल
वाला पर असीम सम्भावनाओं
वाला दिमाग, सुपर मैन से
मटमैला बौना मानव - तभी
वह चिन्मय और चिर सुन्दर
बन सकेगा और अपने
सच्चिदानंद रुप को पा सकेग।
नहीं वह फ्ैंक्रास्टाइन के समक्ष
हार नहीं मानेगा। वह बाली
को पाताल लोक भेजेगा और
बेताल को अपना बनायेगा। |
|
|
वह
योगी है
वह तपस्वी है
वह प्रतीक स्त्रष्टा मानव है। |
|
|
""कर्रूँ
बहियॉ बल आपनी, छाँड़
बिरानी आस।
जाके आँगन नदिया बहै, सो
कस मरे पियास।।'' |
|
|
-
कबीर |
|
आज
मनुष्य की नियति राजनीति है।
कठोर व दुर्दान्त तन्त्र व्यवस्था
में वह रुद्रश्वास है। जब तक
तंत्र व्यवस्था मूल्यवादी नहीं
होती, मानव की रक्षा असंभव
है। गांधी ने कबीर का राम
लिया और राजनीति को
मूल्यवादी बनाया। सब प्रकार
के शक्तिस्रोत व संसाधनों को
अकेन्द्रीयकरण करना पड़ेगा।
प्रगति की कसौटी और उसका
लक्ष्य आम - आदमी है। उसी को
धुरी बनाकर दोनों नें सब
कुछ देखा, सुना और कहा।
दोनों "सामान्य जन' के
समीहा थे। उसे ही सम्बोधित
करते रहे। फिर स्वयं भी
"सामान्य जन' बन गये।
पौरुष / ओज / दपं / चुनौती /
संघर्ष / प्रचण्ड - विरोध /
तीक्ष्ण-प्रतिवाद / सम्पूर्ण - निषेध
/ उग्र - प्रखर - ललकार आदि सभी
बातें उनकीं असाध्य साधना के
साथ मिल गईं, पर किसी
आतंकवाद या अलगाववाद का
संकट दिकाई नहीं पड़ा। प्रभुता
/ शक्ति / प्रतिस्पर्धा व भोगवाद
की अंधी दौड़ में जीत और हार
का अर्थ क्या है? क्या धरती की आत्म
- पीड़ा को रोबट समझेगा?
आरण्यक संस्कृति की ॠषि-दृष्टि /
अहम् ब्रह्मास्मी / को कम्प्यूटर
कलचर का कान्टेक्ट लैंस पा
सकेगा? क्या धरती और आसमान
की इस खींचतान में केन्द्रीय
अभिप्राय त्रिशंकु बन जायेगा?
मानव
अपने भविष्य का निर्माता स्वयं
है। समाधान व सर्वनाश
दोनों उसी की रचना है।
सुकर्मी कुकर्मी व्यक्ति में मानव
है। इस युग को उस मानव को
ढूंढना होगा, अपनाना होगा।
उसे स्थापित करना होगा।
बीसवी सदी का इक्कीसवीं सदी
को क्या अवदान होगा?
अन्तरिक्ष
के अनंत विस्तार में विचरण
करता हुआ क्या अंतरिक्ष यात्री
धरती के लाल कबीर के साथ
गा सकेगा? |
|
|
""हम
सब माहिं - सकल माहिं, हम
है औ दूसर नाहीं।
तीनों लोक में हमर पसार,
आवागमन यह खेल हमार।।'' |
|
|
-
कबीर |
|
|
|
|
कबीर
की प्रासांगिकता
|
|
मध्ययुग
में कबीर की आवश्यकता जितनी थी,
उससे कहीं ज्यादा आवश्यकता इस
अंतरिक्ष युग को है। जो व्यक्ति
अपने परिवेश के प्रति सजग होता
है और अपने वर्तमान के प्रति
तीव्रतम सजगता रखता है - वही
आधुनिक है। आधुनिक वह है जो
मृत परंपराओं, रुढियों, शास्रों
और विचारणाओं को युग जीवन
के साथ परीक्षा करता है और
अनुपयोगी होने पर छोड़ देता
है। समसामयिक जीवन के साथ
गहन रुप से जुड़ना और
समस्याओं को सुलझाने की
कोशिश करना आधुनिकता है। वह
बौद्धिकता, वह चिन्तना जो
वर्तमान को सम्हालने के साथ
भविष्य की सम्भावनाओं को
खोले आधुनिकता है। जो अपने आप
को व्यापक युग जीवन के साथ
जोड़े वह आधुनिक है। जो
वैज्ञानिक मानववाद को, प्रत्यक्ष
जीवन को, और प्रत्यक्षानुभूति को,
अपनी सर्जना का उपादान बनाये वह
आधुनिक है। इस दृष्टि से जब हम
देखते हैं तब यह कहना असंगत न
होगा कि कबीर आधुनिक हैं, तथा
यह युग कबीर का युग है और
कबीर इस धरती के "प्राणाश्य'
हैं।
जिस
व्यक्ति के पास महनीयता का एक भी
तत्व नहीं था, वह स्वयं महनीय
कबीर हो उठा और उसने अपने युग
को नई दृष्टि दी, यह आश्चर्य की
बात हो या न हो पर कबीर की
प्रासंगिकता को सिद्ध अवश्य करती
है। और उसकी सबसे बड़ी
प्रासंगिकता यह है कि उसने शास्र
वाक्य को नहीं मानुष वाक्य को
माना।
|
|
""जो
मोहि जाने, ताहि मैं जानौं,
लोक वेद का कहा न मानौं।'' |
|
|
-
कबीर |
|
जिसने
प्रत्यक्षनुभूति को प्रमाण माना
तथा धार्मिकता के नाम पर
फैली अनर्गलताओं को नकार
दिया, उस कबीर ने व्यक्ति को
समस्त उलझाव और जंजालों से
मुक्त कर केवल मात्र मनुष्य के
रुप में स्वीकार किया। इसीलिए
वह परम आधुनिक हैं। किसी भी
महान पुरुष का दैवीयकरण
उन्हें अनुचित लगता है। इससे
साम्प्रदायिकता आती है। और
व्यक्ति की सामाजिक भूमिका
खत्म हो जाती है। फिर वह
समाज का सदस्य नहीं रह जाता।
दैवीकरण से रुढियां उत्पन्न
होती हैं और अवांछित तत्व
पनपने लगते हैं। वैज्ञानिक
तकनीकि युग में केवल
मेधावी मानव ही रह सकता
है। कबीर स्वयं मेधावी थे
और उन्होंने अपने सामान्य जनों
को मेधावी बनाने का प्रयत्न
किया। उनका यह मानना कि -
कोई भी मत-पंथ ईश्वरीय
नहीं है। धर्म ग्रंथ ईश्वरीय
नहीं है। महापुरुष ईश्वरीय
नहीं है। सब कुछ मानव द्वारा
निर्मित है। मानव द्वारा रचित
है, महापुरुष भी मानव है, न
कोई छोटा न कोई बड़ा।
राम
भी अन्तरआत्मा की आवाज है और
अंतर आत्मा की आवाज सुनने
वाला ही और पर का
निर्णय ले सकता है। कबीर का
बहु आयामी व्यक्तित्व हर नये
मोड़ पर एक नवीन रुप में
सामने आता है। जो रचनाकार
अपने युग जीवन के साथ व्यापक
रुप से उपस्थित होता है, वही
प्रासंगिक होता है।
कबीर
की प्रासंगिकता की चर्चा करने
से पहले से पहले केवल
इतना ही कहना चाहेंगे कि यह
एक ह्रासोन्मुख और यांत्रिक युग
द्वारा एक मूल्यवादी और
मानवीय युग पर प्रश्नचिन्ह है।
मानव को हर ओर से तोड़ने
वाले, उसे निष्काषित व
विस्थापित करने वाले और
उसे यान्त्रिक और अमानवीयकरण
की प्रक्रिया (De-humanisation-process )
में डालने वाले ज्ञान / विज्ञान /
तकनीकी / और विकास / जब
सर्वाधिक प्रासंगिक हो उठे
हो तब मूल्य-वादिता /आदर्श /
ऊंचाइयों / तथा मानव की
सम्भावनाओं / का अप्रासंगिक हो
उठना लाज़मी है।
सवाल
यह हे कि यह प्रचण्ड भौतिक
यान्त्रिक शक्ति जो मानव व उसकी
अब तक की उपलब्धियों को भकस
जाने को तैयार है, उससे
मानव की रक्षा कैसे हो? क्या
जैविक, भौतिकवादी व
भोववादी मानव कर सकेगा?
या मूल्यवादी, योगीमानव
को सामने आना पड़ेगा?
कबीर
तब भी प्रासंगिक था। कबीर आज
और भी अधिक प्रासंगिक है और
कबीर कल सदा-सदा के लिए
प्रासंगिक हो उठेगा। इसमें
कोई शक नहीं। कबीर की मुक्त
चेतना उस सार्थक जीवन
स्थितयों का संकेत कर रही
हैं जहां आज का विमूढ़ व्यक्ति
अपनी ऐतिहासिक और मानवीय
भूमिका की खोज कर सके। वही
व्यक्ति प्रासंगिक है, जो इस
दुनिया को मानव को फिर
लौटा सके। कबीर की
प्रासंगिकता की चर्चा में कतिपय
बातें हमें देखनी होंगी - |
|
१. |
कौन
यंत्र युग को मानवीय युग
बना सकेगा? |
|
२. |
कौन
सांस्कृतिक संकट के बीच
मूल्यान्वेषण कर सकेगा? |
|
३. |
कौन
मुर्दा मानव को उसका
मृत्युंजयी रुप दिखा सकेगा? |
|
४. |
सौन
सब प्रकार के बाह्याचारों से
परे मानव की मनुष्यता की
स्थापना कर सकेगा? और धर्म
संस्कृति के नाम पर जो
विश्व-संघर्ष चल रहा है उसे
जीवन की सही दिशा दिखा
सकेगा? |
विज्ञान
/ तकनीकी / धर्म और संस्कृति
सभी ओर से गुमराह आज के
दिशाहीन मानव को एक
सहीदिशा ढूंढने में मदद कर
सकेगा।
इस
दृष्टि से कबीर का काव्य हमें
पुकार-पुकार कर, जोर-शोर
से, अकेले और समूह में अपनी
बात कह रहा है। इतना बड़ा
सम्बोधन-काव्य केवल उसी
व्यक्ति का हो सकता है, जिसने
अपने को विराट् जनसमूह में
मिला दिया है, जो समानता
और समन्व्य को सामाजिक
जीवन की बुनियादी आवश्यकता
के रुप में स्वीकार कर रहा
हो, और जिसे यह विश्वास
हो कि उसकी निजी वाणी
लोकवाणी है और लोकवाणी
उसकी निजीवाणी है।
कबीर
ने हमें निपरख राम और
निर्विशेष-विशेष मानव
दिया। बिना इसके न तो
विश्व-जीवन की रक्षा हो सकती
है, न विश्व-शांति की स्थापना
हो सकती है और न भविष्य
का निर्माण हो सकता है।
जिसका दिल सम्पूर्ण युग जीवन
में फैल गया हो वही कह
सकता है - |
|
|
""कबीर
खड़ा बाजार में, सबेकी मांगे
खैर।
न काहू से दोस्ती, न काहू से
बैर।।'' |
|
|
-
कबीर |
|
|
और
आज की इस मृत्युमीत दुनिया
को यह जीवनगीत दे सके - |
|
|
""हम
न मरैं मरिहैं संसारा,
हमको मिला है जियावन
हारा।।'' |
|
|
-
कबीर |
|
क्या
इससे भी परे इस जली-भूनी
दुनिया का और कोई जीवन
गीत हो सकता है? और यदि
यह भी अप्रासंगिक है तो हम
कबीर के शब्दों में कहना
चाहेगें - |
|
|
जुगुन
जुगुन समझावत हारा, कहि ना
मानत कोई रे। |
|
|
|
-
कबीर |
|
|
|
मेरा
तेरा मनुआ कैसे एक होई रे।
मैं कहता अँखियन की देखी, तू
कहता कागद की लिखी।
मैं कहता सुरझावन हारी, तू
राख्यो उरझाई रे।
मैं कहता तू जागत रहियों, तू
जाता है सोई रे। |
कबीर
के पास इतिहास के आंसू के
अलावा कुछ भी नहीं है - |
|
|
घाव
काहि पर घालों, जित देखो
तित प्राण हमारो।
मैं रोवों यह जगत को। |
|
|
-
कबीर |
|
|
|
तू
जाग मुसाफिर भोर भई, अब
रैन कहां सो सोवत है।
जो सोवत है वह खोवत है,
जो जागत है, वह पावत है।। |
|
|
|
कबीर
की क्रांतिचेतना
|
|
कबीर
विद्रोही थे। क्योंकि वे
स्वप्नदर्शी थे, लोक चिंतक थे,
लोक नायक थे, युग पुरुष थे।
सामाजिक क्रांति उनका साध्य
नहीं है। वरन् उनका काम्य है - |
|
१. |
मानव
मन को गढ़ना। |
|
|
२. |
मानव
मात्र की मुक्ति। |
|
|
३. |
विश्व
मानवता के मन्दिर में अपने आम
आदमी को गौरवपूर्ण स्थान
दिलना। |
|
४. |
प्रेम
की स्थापना व दिलों को
जोड़ना। |
|
|
५. |
संकीर्णता
/ मत-मतांतर / असत्य /
बाहृयाचार / धार्मिक-कट्टरता
/ व्यवस्था की अनमीयता व
अमानवीयता / आदि के खिलाफ
जेहाद का संदेश। |
|
६. |
सर्वधर्म-समन्वय
/ धार्मिक-सहिष्णुता / सब प्रकार
की विशेषताओं से परे व्यक्ति
को उसके मानव पन का परिचय
देना। |
|
७. |
आत्मबोध
और जीवनबोध के द्वारा
निराशा और मृत्युबोध को
दूर करना। |
यही
कबीर की रचनात्मक क्रांति थी।
इसने अलगाववाद या
आतंकवाद को पनपने नहीं
दिया। कबीर को अपने युग की
गहरी पहचान थी। साथ ही
कबीर का विशाल अनुभव /
असाधारण प्रतिभा / महाप्राणता /
तथा एक संजीदा दिल / आदि बातें
कबीर को अपनी समसामयिक
युग चेतना के साथ बड़ी
गहराई से जोड़ती है।
युगीन परिस्थितियां जिस
सामाजिक विषमता की रचना
करती हैं, कबीर उनके कारणों
को ढूंढते हुये अपने
"सामान्य जनों' के साथ जुड़
जाते हैं। कबीर का विद्रोह
उनकी धार्मिकता का बाई-प्रॅडक्ट
नहीं है, वरन् उनकी जुझारु
आध्यात्मिकता ही उनके इसी
सामाजिक विद्रोह से उपजी है।
उनके भक्त रुप को वास्तविक
मानना उनके विद्रोही रुप को
हासिये में डाल देना है।
कबीर की वाणी का मूल स्वर
है - (बरजोर वर्ग) से दमित
दलिन वर्ग की करुण पूकार और
लोक - मानस की क्रुद्ध ललकार
"सामान्य जन' की सम्पूर्ण
मुक्ति ही कबीर की केन्द्रीय
चिंता है)
कबीर
की कविता ऊपर से शांत पर
भीतर से ज्वालामुखा का
विस्फोट है। उसकी बुनावट ते
सरल है, पर उसकी अनेकार्थी
व्यंजना जटिल है। उनका अन्त:
स्वर इतना प्रबल है कि २१वीं
सदी का आकाश भी झंकृत हो
उठता है। कबीर अपने को दलित
वर्ग का अंग मानता है। अपने
वर्ग के लिए इंसाफ का वह
दावेदार है। हो रहे
सामाजिक जुल्मों के खिलाफ
वह जेहाद छेड़ता है। दो टूक
लहजे में साफ इस
बेइंसाफी का चित्रण करता है।
वह अपने मानवीय अस्तित्व व
गरिमा को पाना चाहता है
और अपने जन को दिलाना
चाहता है। इतिहास के सारे
जख्म / अन्तग्रस्त समाज की धूमिल
छाया / तथा समाज के उपेक्षित
वर्ग को मानवीय दर्जा
दिलाने का प्रयास / ये तीन
आयाम ही कबीर के काव्य का
समग्र परिचय हैं।
जनम
का दुखियारा कबीर सामाजिक
- विषमता का जहर तो पी
लेता है, पर अपने राम को
आड़ो हाथ लेने से चूकता नहीं
- |
|
|
""दो
जख तो हम आंगिया, यह दुख
नाहीं मुज्झ।
भिश्त न मेरे चाहिए, प्राण
प्यारे तुज्झ।'' |
|
|
-
कबीर |
|
व्यवस्था,
धर्म, समाज व सत्ता के
धूरीहीन चरित्र को वे देख
रहे थे - पढ़ रहे थे। वे देख
रहे थे दुनियां दो भागों में
बंटी है - (१) शास्र-सम्मत और (२)
मानव-सम्मता धर्म, सम्प्रदाय,
जाति आदि के दुहरे रुप को
देखकर कबीर अपने को रोक
नहीं पाता, बोल उठता है - |
|
|
"वेद
कुरान सब झूठ है, इसमें
हमने पोल देखा।
अनुभव की बात कहे कबीर, घट
का परदा खोल देखा।' |
|
|
-
कबीर |
|
कबीर
मनुष्य की समग्र मुक्ति को ही
शब्द देते हैं - |
|
१. |
अत्यंत
संवेदनशील मन |
|
|
२. |
संतुलित
विवेक |
|
|
३. |
गहन
चिंतन |
|
|
४. |
अंतर्दृष्टि |
|
|
५. |
दुर्लभ
प्रतिभा की रचना है - उनकी
कविता। |
कबीर
ईश्वर में डूबकर न तो
तत्काल से कटे न दिक्काल से।
प्रेम भक्ति ने उन्हें आत्म केन्द्रित
नहीं बनाया। उनकी आध्यमिकता
की दुनियां सामाजिक
व्यवहार की दुनियां से
कतई भिन्न नहीं है। समाज के
कमजोर वर्ग के संतों ने जिस
क्रांति-चेतना का परिचय दिया
उसका फल भी मिला। संत - काव्य
कमजोर वर्ग के आत्म प्रस्थापना
का काव्य है। सिद्धों ने रुढि
ध्वंस की परम्परा चलाई थी।
कबीर ने उसे अधिक तीखा और
पैना बना दिया। मध्य युग में
सगुण और निर्गुण विवाद
वस्तुत: उच्चवर्ग और कमजोर
वर्ग के तनावपूर्ण संबंधों
को बताता है।
कबीर
ने अपनी मुक्ति नहीं जगत की
मुक्ति चाही। अपना हक नहीं
विशाल कमजोर वर्ग का हक
चाहा। साधारण मानव की मुक्ति
कबीर की कविता का मुख्य स्वर
है। वैदिक रुढियों का विरोध
कर कबीर अनजाने ही अवैदिक
रुढियों के प्रति किंचित झुकाव
का परिचय देते हैं, और सारी
अनर्गलतायें वहीं से बनती
गई। इसका कारण शायद यह
है -
१. उन
रुढियों का जनता में अधिक
प्रचलन तथा कबीर का जनता से
गहरे रुप से जुड़ना।
२.
कबीर में जीवनादर्श और
भावादर्शों की बहुलता है।
हर बड़े कवि में इस प्रकार की
अति व्याप्ति (Over-Lapping)
मिलती है। कबीर का उद्देश्य इन
रुढियों के द्वारा जनमानस का
अध्ययन कर उसकी शक्ति और
सीमा को टटोलना। कबीर के
काव्य में प्रयुक्त यौगिक
क्रियाओं का केवल इतना ही अर्थि
है कि मानवीय अंत: शक्ति को
विकसित कर उसकी चरम
ऊंचाई और उसकी
सम्भावनाओं को पाना।
कुण्डलिनी
आदि के जागरण द्वारा कबीर
सुप्त अन्त: शक्ति का जागरण
चाहता है। उसकी खोज और
परख चाहता है। आत्मशोधन ही
मनुष्य के परिष्कार का साधन
है। मन बदला तो सब बदला।
फिर समाज को बदलने में
कितना वक्त लगता है? मानव मन
को बदलना कबीर की क्रांति
चेतना का आधार है। |
|
|
""मन
न रँगाये, रँगाये जोगी
कपड़ा'' |
|
जैसी
उक्तियां इस ओर संकेत करती
है।
|
|
|
आपुहिं
देव आपु है पॉती, आपुहि कुल
आपु हैं जाती।
सर्व भूत संसार निवासी,
आपुहिं खसम आपु सुखवासी |
|
|
-
कबीर |
|
कबीर
ने निरपख राम और समस्त
विशेषणों से परे
अविशेष-विशेष मानव को
बड़े जतन से संवारा और
जीवंत किया है। कबीर, धरती
और आकाश में संचरण करने
वाला एक पंचतत्व का पुतला
मात्र है। जिसके विवाह में
पंचतत्व ही बाराती बनकर
आते हैं। और पंचतत्व का यह
पुतला पार्थिव मानव पंचतत्व
रुपी राम से महा मिलन के
लिए अनंत सफर पर निकल पड़ता
है - |
|
|
तन
रति करि मैं, मर रति करहूं
पंचतत्व बाराती।
रामदेव मोहि पाहुनै आये,
मैं जोवन मदमाती।।
सुर तैंतीस कौटिक आये,
मुनिया सहस अठासी।।।।
कहैं कबीर हम ब्याही चले
हैं, पुरिष एक अविनासी।।।। |
|
|
-
कबीर |
|
धरती
आसमांन के इस महामिलन
पर वि जीवन की अनंत
चित्रावलियां मानस - क्षितिज
पर तरंगित होती चली जा
रही है। विश्व-जीवन के इस
अनंत सफर की कब कौन थाह ले
सहा है? जीवन अनंत है, जीवन
अगाध है। संतरण सम्भव नहीं
और इसका परिज्ञान असाध्य
साधना है। कबीर के लिए मानव
मात्र राम का अंश है। वहां
कोई भी वर्णगत् भेद सम्भव
नहीं है। |
|
|
""कहत
कबीर यह राम को अंशु। जस
कागद पर मिटे न मंशु।।'' |
|
|
-
कबीर |
|
इसलिए
कबीर ने जांत-पांत, छुआछूत,
धर्म मत आदि पर कठोर आघात
किया है, क्योंकि इन्हीं गलत
धारणाओं के कारण व्यक्ति जीवन,
समाज जीवन, ध्वस्त होते जा
रहा था। केवल अपने ही देश
में उन्हें शांति की स्थापना नहीं
करनी थी वरन् इस पृथ्वी पर
मानव जीवन को सम्भव बनाना
था। निरपख राम और निरपख
इंसान दोनों सब प्रकार की
सीमाओं को पार कर वहां
पहुंचते हैं जहां जीवन का
मेला लगा है। उनके
छोटे-छोटे भोले-भाले प्रश्न
का कितना टेढ़ा उत्तर है और
कितना दुष्कर व्यवहार है,
यह सहज ही अनुमेय है। |
|
|
तू
कस ब्राह्मण हम कस सूद? हम कस
लोहू तुम कस दूध? |
|
|
-
कबीर |
|
|
|
एकै
त्वचा हाड़ मास मूत्रा, एक रुधिर
एग गूदा।
एक बून्द से सृष्टि रची है, को
ब्राह्मम को शूद्रा? |
|
|
-
कबीर |
|
धर्म
के नाम पर जितनी बर्बरता
दिखाई पड़ती है, शायद किसी
अन्य क्षेत्र में ऐसी बात न हो।
धर्म के नाम पर सबसे अधिक
अनर्थ होता आया है और होता
रहेगा और उसकी रौरव
कथाओं से इतिहास अनुगूंजित
रहेगा। सभ्यता - संस्कृति के
जितने आयाम हैं (धर्म, दर्शन,
कला, संस्कृति, साहित्य-विज्ञान
आदि) तभी उन्नत हो सकते हैं जब
मानव उन्नत होगा। यह एक ऐसा
अहम् सवाल हमारे देश के
साथ है कि आज तक हम उसका
समाधान नहीं पा सके हैं।
अकबर ने कोशिश की थी
"दीन-ए-इलाही' के द्वारा। पर
वह सफल नहीं हो पाया।
गांधी ने कोशिश की और वे
भी धार्मिक-असहिष्णुता से बच
नहीं पाये। दाराशिकोह भी
अपने ही भाई कट्टर पंथी
औरंगजेब का शिकार हो
गया। धर्म के नाम पर धरती से
आकाश तक मिथ्याचार का ही
प्रसार है, जिसने सारे जीवों
को घेर लिया है। प्रबूद्धता
कहीं भी दिखाई नहीं पड़ती।
मनुष्य की सारी उपलब्धियों,
उसकी सारी उच्च धारणाओं और
पवित्र जीवनमूल्यों पर यह
कठोर आघात है। सारा संसार
विवेकहीन भटक रहा है। सत्य
के लिए कहीं जगह नहीं है।
कबीर कहते हैं कि उस अलख
निरंजन को मस्जिद और
मंदिर में बांटकर जिस
त्रासदी की कथा आपने बनाई है
वह किस सभ्यता और किस
मनुष्यता की पहचान और
परिभाषा है? जो शब्दातीत है
/ जो अनुभव गम्य है / जो
अनिवर्चनीय है / जो कलातीत
है / उसके लिए यह वितंड़ाबाद
क्या ठीक है? कबीर सीधे-साधे
पूछ रहे हैं - |
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जो
खुदाय मसजीद बसतु है, औ
मुलुक केहि केरा।
तीरथ-मूरत राम निवासी,
बाहर करे को हेरा।
पूरब दिसा कही को बासा,
पश्छिम अलह मुकामा।
दिल में खोज दिलहि में
खोजौ, इहैं करीमा - रामा। |
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कबीर |
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इसलिए
कबीर ने अपने सारे मारग
पंथों को छोड़ दिया - |
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पण्डित
मुल्ला जो लिका दिया, छाँड़ि
चलै हम कछु न लिया। |
अपने
और अपने जैसे अनपढ़ लोगों के
लिए एक सीधी सरल वनवीथी
चुन ली। और निकल पड़े - |
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जंह
जंह डोलौं सो परिकरमा,
जो कुछ करों सो पूजा।
जब सोवों तब करौं दण्डवत्
भाव मिटावों दूजा।। |
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कबीर |
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सुमृति
वेद पढ़ें असरारा, पाखण्ड रुप
करें हंकारा।
जस खर चंदन लादेउ भारा,
परिमल बास न जानु गंवारा।। |
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-
कबीर |
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कबीर
सीधे-साधे पूछते हैं - |
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कांकर
पाथर चुनि के, मस्जिद लिया
चुनाय।
ता चढि मुल्ला बांग दे, क्या
बहरा हुआ खुदाय? |
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कबीर |
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पाथर
पूजै हरि मिलै, तो मैं पूजूं
पहार।
याते वह चक्ती भली, पीस खाय
संसार।। |
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-
कबीर |
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और
उसका मानुथ जाति को संदेश
है - |
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कबीर
जेते आत्मा, तेते सालिग राम।
बोलन हारा पूजिये, पाहन
सो क्या काम? |
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-
कबीर |
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उनकी
धार्मिक भावना मानव सम्मत
और विवेक-सम्मत है,
शास्र-सम्मत कतई नहीं। क्योंकि
कबीर की यह निभ्रान्त धारणा
है चाहे वह शास्र हो या
दर्शन, चाहे धर्म हो या
अध्यात्म, सब मानव निर्मित और
मानव-सम्मत हैं। उनका स्वर्ग,
मोक्ष, परमतत्व सब कुछ इस
धरती पर है। वह
सदव्यवहार और प्रेम से
फलित होता है। मोक्ष तथा
परमात्मा व्यक्ति का अपना रुप है।
इस धरती पर चलते-फिरते
इंसान और प्राणी मात्र ही
देवी-देवता हैं जो कबीर के
विवाह में बाराती बनकर
आते हैं। कबीर का आराध्य
सातवें आसमान पर रहने
वाला नहीं वरन् संत गुरुजन,
ॠषि और मुनि हैं। ईश्वरीय
वाणी का मुल्लमा लगा कर
समाज के वर्ग विशेष के
लोगों ने किस प्रकार अपने
अधिकारों को सुरक्षित रखा था
कबीर ने उस षड़यंत्र को
पहचाना और परदाफाश किया।
इसलिए उन्होंने देववाणी
संस्कृत के लिये कहा है - |
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संस्कीरत
है कूप जल, भाथा बहता नीर। |
दबे,
कुचले, शोषित लोगों की नींद
टूटी। जड़ता दूर हुई और नव
जागरण आया। इस वर्ग ने
मानव समाज को अपने संत
दिये। कबीर ने धार्मिक,
सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर
पर ही केवल विरोध नहीं
किया, बल्कि उन्होंने साहित्य,
भाषा-शैली, काव्य-रुप,
साहित्यिक रुढियों आदि सभी
क्षेत्रों में क्रांति चेतना दिखाई।
इसलिए कबीर का विद्रोह
साधारण विद्रोह नहीं एक
युगान्तकारी विद्रोह है।
धार्मिक
रुढियों के खिलाफ केवल
इतना ही उदाहरण देना पर्याप्त
होगा कि जिसका सारा जीवन
काशी में राम जपते बीता, वह
मगहर में प्राण त्यागना चाहता
है। |
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क्या
काशी क्या मगहर ऊसर, जो
पैं हृदय राम बसै मोरा।
जो काशी तन तजै कबीरा, तो
रामहिं कहु कौन निहोरा? |
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कबीर |
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भक्ति
की परिभाषाओं से हमारे
साथ शास्र और ग्रंथ पटे पड़े
हैं। निरक्षर अनपढ़ कबीर की
वहां गति नहीं है। वह तो
केवल एक भोला नन्हा-सा
सवाल करता है और हमसे
उत्तरा चाहता है। जिसके पास
उत्तर है, वह दे दे। |
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ऐसा
कोई जन ना मिला, राम भगति
के मीत।
तन मन सौपे मृग ज्यूँ, सुनै
बधिक का गीत |
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कबीर |
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कबीर
तो केवल इतना ही जानता है - |
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धर्म
कथा जो कहतहि रहई,
लाबरि उठि जो प्रातहि कहई।
लाबरि बिहाने लाबरि संझा,
एक लाबरि बसे हृदया मंझा।
रामहु केर मर्र नहिं जाना,
ले मति ठानिनि बेद पुराना।
बेदहु केर कहल नहिं करई,
जरतई रहे सुस्त नहिं परई।
साखी गुणातीत के गावतें,
आपुहिं गये गंवाय,
माटी का तन माटी मिलि गये,
पवनहि पवन समाय। |
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कबीर |
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सहज
ज्ञान और सरल उपासना
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सहज ज्ञान
और प्रत्यक्षानुभूति कबीरीय
व्यक्तित्व की शक्ति हैं। यह अँखियन
देखा ज्ञान है, कागज लिखी विद्या
नहीं।
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मेरा
तेरा मनुआ, कैसे एक होरे
रे।
मैं कहता आँखिन की देखि, तू
कहता कागद की लिखी। |
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कबीर |
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कबीर
वाक्वीर नहीं शूरवीर थे।
ॠषि मुनियों ने जिसे
"नेति-नेति' कहा है उसमें
मरने खपने से फायदा?
शूरवीर वही है जो सिर का
सौदा करने को सदा तैयार
हो। |
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खरी
कसौटी राम की, खोटा टिकै ने
कोई।
राम कसौटी सो टिके, जो
जीवित मृतक होई। |
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-
कबीर |
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जीवित
- मृत होना बड़ा आसान है।
बस अपना आपा मेट दो। ज्ञान,
साधना आदि बातें तभी
आम-आदमी तक पहुंचेगी और
उसके काम आयेंगी, जब सहज
हों, सरल हों। अन्यथा साधारण
आदमी उन्हें अपना नहीं सकेगा व
व्यवहार में नहीं ला सकेगा।
बिना ज्ञान और धर्म को स्वायत्त
किये वह साध्य तक पहुंचेगा
कैसे?
पेशे,
रहन-सहन व सामाजिक
हैसियत से कबीर ठेठ
"आम-आदमी' थे। उन्हें गर्व था
कि वे कामगर हैं। उन्हें
आत्मबोध था कि वे अभिजात्य
समाज के अंश नहीं है। उनका
काव्य आत्म विश्वास से
ओतप्रोत है। क्योंकि उसमें वह
आत्म प्रतीती है जो जन साधारण
से जुड़कर अपने अनुभव को
व्यापक बनाने के बाद आती है।
शास्र के कान्तार में भटकने की
न तो उन्हें जरुरत थी और न
अवकाश ही। वे जानते थे कि
मुक्ति का मार्ग न ब्राह्मण के घर
से जाता है न मुल्ला के घर
से। आत्म ज्ञान के लिए एक ही चीज
चाहिए और वह है प्रेम। |
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तू तू
करता तू भया, मुझ में रही न
हौं।
वारि केरि बलि गई, जित
देखौं तित तू। |
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-
कबीर |
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नैनों
की कर कोठरी, पुतली पँलक
बिछाय।
पकलन की चिक जार कै, पिउ को
लिया रिझाय। |
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-
कबीर |
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मध्ययुग
में भक्तो व संतों ने नर में
नारायण नहीं वरन् नारायण
में नर ढूढा।
धर्म
और अध्यात्म जैसे लोकातीत
तत्वों को ठेठ मानवीय रुप
दिया। क्योंकि, हमारे यहां
ये तत्व मानवीयकरण की एक
प्रक्रिया के रुप में ही स्वीकृत
हुये थे। |
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चिन्तन
की प्रक्रिया =
विश्वातीत > विश्वचर
> विश्वमूर्त
= धारा
उपासना की प्रक्रिया =
विश्वमूर्त
इ
विश्वचर इ विश्वातीत
=
राधा |
मध्ययुगीन
कवियों का संसार फंतासी
मूलक होकर भी न तो
अतिन्द्रीय था और न मनुष्यातीत
ही। देवता को मनुष्य बनाकर
साधकों ने प्रकारान्तर से
मानव को ही गरिमा प्रदान की
है - |
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- १ |
कबीर
ने प्रेम दिया। |
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- २ |
निरपख
राम दिया। |
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- ३ |
अविशेष
- विशेष मानव दिया। |
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- ४ |
एक
दृष्टि दी, लय-विलय की। |
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- ५ |
वयष्टि
- समष्टि की। |
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- ६ |
दीन-दुनियां
की। |
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|
- ७ |
आत्मा
- परमात्मा की। |
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कबीर
ने सदियों से दबे कुचले
और शोषितों के लिए जीवन
भर संघर्ष किया। लोगों के
बुनियादी मानवीय अधिकारों
के लिए वे जीवन संघर्षमय
रहा। दुनियां के कृत्रिम
दोमुँहा रुप के खिलाफ
कबीर ने सदा आवाज उठाई।
उनका सीधा कहना था - |
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जियत
न तरेउ, मुये का तरिहों।
जियत हि जो न तरे। |
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|
-
कबीर |
|
समाज
में व्याप्त बुराइयों का कबीर
के काव्य में अभिव्यंजना पा
लेना एक संयोग की बात नहीं
है। वह नीलकण्ठ कबीर की
अमृतवाणी है। उनके व्यक्तित्व में
साधक, संत, सिद्ध, योगी, कवि,
दार्शनिक और महात्मा आदि की
छबि एक साथ दिखाई पड़ती है।
अत: कबीर का क्रांतिकारी
जन-नायक, लोक नायक, युग
पुरुष का रुप वास्तविक रुप है।
बाकि सब रुप उसके
(बाय-प्रॉडक्ट) हैं, फोकट का
माल हैं। कबीर का हर रुप
"ऐवरेस्ट' है। अत: कौन सा
रुप प्रधान है? और कौन सा रुप
गौण? यह निर्णय करना कठिन
है। कबीर महान हैं। कबीर
विलक्षण हैं। |
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कवि
कबीर और काव्य परंपरा |
|
२१वीं सदी
का कवि जब अपनी परंपरा को
देखता है तो अपने को कबीर से
जुड़ा हुआ पाता है, क्यों? हद को
बेहद कर, युग की सीमा का
अतिक्रमण कर, व्यक्ति को जन बना, स्व
को अखिल बना कबीर का मिथकीय
व्यक्तित्व अशेष समय प्रसार में
फैल जाता है। हर युग उसमें अपने
जीवन का रुप पाता है और अपने
प्रश्नों का उत्तर। वह सबका प्राणाशय
बना बोल उठता है -
|
|
हद
चले ते मनवा, बेहद चले ते
साधु।
हद-बेहद दोउ तजे, ताकी मती
अगाधु।। |
|
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-
कबीर |
|
योग
परक रुप कों, उलट वासियों व
रहस्यवादी प्रतीकों में रची
बसी उनकी कविता इसलिए
मानवीय सरोकार की कविता
लगती है। उनकी कविता हमारी
आज की कविता है। जंत्रारुढ़
वि का कवि उसमें २१वीं सदी
के लिए जीवनलय ढूंढ़ता है।
उनकी प्रचंड बौद्धकता में
मेधावी मानव को एक सहयात्री
मिलता है। उसकी व्यवस्था के
विरुद्ध जेहाद में इस युग की
मुक्ति देखता है। उसकी विश्वास
भरी वाणी में अपने टूटे व
हारे मन का खोया बल फिर
से पाता है। उसकी अक्खड़-फक्खड़
फटकार में इस युग का
पर्दाफाश देखता है। उसके
सदाचार व मूल्यवाद में
भोगी व अर्थयुग के जीवन प्रश्न
का समाधान पाता है। उसके प्रेम
व करुणा में राग-रहित
वैज्ञानिक युग के जीवन स्पंदन
का अनुभव करता है। उसकी मस्ती
में झूमता है। उसके साथ
बंजारा बनकर गाता फिरता
है - |
|
|
सतगूरु
हमसो रीझि करि, इक कहिया
परसंग
बरस्या बादल, प्रेम का,
भीजिगया सब अंग।
बरसा बादल प्रेम का हम पर
बरस्या आई।
अंतर भीगी आतमा, हरि भई
बनराई। |
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|
-
कबीर |
|
बंजर
धरती सुजलाम् सुफलाम्
होती है। लोहे के पेड़ अंकुआ
उठते हैं। रोबट में एक दर्दीला -
दिल दिल धड़कता है। यंत्र युग
पर नीरद प्रेम की वर्षा करता
है। मध्यान्ह का अंधकार भोर
की लालिमा में बिंहस उठता है।
युद्ध-विदीर्ण-मृत्यु-भीत-विश्व
अपना जीवनगीत गाता है - |
|
|
हम न
मरै मरि है संसारा, हमको
मिला है सिरजनहारा। |
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|
-
कबीर |
|
मृत्युभीत
धरती फिर से मृत्युजयी
भीष्म को कबीर की वाणी में
पाती है। |
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|
मन
मुवा माया मुई, संशय
मुवा शरीर।
अविनाशी जो ना मारे, तो क्यों
मरे कबीर? |
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|
-
कबीर |
|
जैसे
कबीर का व्यक्तित्व सामाजिकों
को हिलाता रहा, उसी प्रकार
कबीर का कवित्व
साहित्यकारों को झकझोरता
रहा। वह कवि है या नहीं, यह
प्रश्न ही साहित्य के इतिहास
का सर्वाधिक विवादास्पद
प्रसंग है। कबीर के लिए कविता
फोकट का माल है। कविता
जबरदस्ती उसके पीछे पड़ी थी।
कबीर को उस ओर ध्यान देने
की फुरसत ही नहीं थी। यदि
उसकी वाणी में कविता है तो
वह सहज - सिद्ध है। शायद
स्वयं कवि ही उससे अनजान है।
यदि काव्य का अर्थ भावों का
उच्छलन है? तो यहां अथाह
सागर लोल लहरों से
अटखेलियां कर रहा है। यदि
कविता का अर्थ सहज उन्मेष है?
तो कबीर की कविता बसंत
ॠतु की ललछौंही किसलय है।
यदि वह सौन्दर्य - तुलिका की
बहुवर्णी छबि है तो कबीर की
वाणी मानस - क्षितिज की
इन्द्रधनुषी आभा। यदि वह
जीवन की रागिणी है? तो
कबीर की वचनावली सप्त
स्वरों की तरंगीणी। जीवन का
मेला ही उसका रचना संसार
है। जीवन लय ही यहां छंद
रुप में व्याप्त है। मन की उत्साह
भरी वाणी अलंकार के रुप मे
चटक पड़ी है। उसका रचना
संसार रस - सिद्ध है या नहीं
पर प्रेम - सिद्ध अवश्य है। अत:
जन - सिद्ध भी है। काल-सिद्ध भी
है। इस निरक्षर कामगर को
यह खिताब जनता ने और
इतिहास ने दिया है। |
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मसि
कागद छूवो नहीं, कलम गत्यो
नहीं हाथ।
चारिउ युग का महातम, कबीर
मुखहि जनई बात। |
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कबीर |
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आचार्य
परशुराम चतुर्वेदी लिखते
हैं ""संत कबीर एक
उच्चकोटि के संत तो थे ही,
हिन्दी साहित्य में वे एक श्रेष्ठ
एवं प्रतिभावान कवि के रुप में
भी प्रतिष्ठित हैं तथा हिन्दी
साहित्य के बाहर भी उनकी
रचनाओं का पर्याप्त आदर हैं।''
रेवन्ड
जी. एच. वेसकट ने लिखा है
""कबीर हिन्दी-साहित्य के
पिता माने जाते हैं।''... २ |
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लम्बा
मारग दूर घर बिकट पंथ बहु
मार।
कह कबीर क्यूं पाइये, दुर्लभ
हरि दीदार।। |
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कबीर |
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