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छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच सामान्य जन का मसीहा "कबीर' |
अन्विक्षा |
अनुसंधान संबंधी समग्र विवेचना
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जीवन की चिन्मयी धारा |
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भारतीय संस्कृति में नदियां केवल प्रकृति के उपकरण नहीं नहीं हैं, वरन् मानव की अखंड जीवन सरिता और चेतना की चिन्मयी धारा भी हैं। उनकी लोल-लहरों पर जीवन की लहरीली गीति-कथा बहती जाती है। उनकी कल-कल छल-छल ध्वनि में जीवन का संगी गूंजता है। इसलिए याहं नदियां सदा ही एक चिन्मयी शक्ति के रुप में पूजित रही हैं। मानव सदा ही उनका ॠणी रहा है, और अपनी कृतज्ञता निवेदित करता रहा है। वि की प्राचीनतम संस्कृतियों का उद्भव नदी के तट पर हुआ है। छत्तीसगढ़ की संस्कृति व इतिहास भी वहां की समृद्ध प्रकृति की देन है। उत्तर भारत में गंगा व जमुना का वहां के जीवन और संस्कृति में जो स्थान है, वही स्थान छत्तीसगढ़ में महानदी का है। प्रकृति से धनी यहां की उर्वन भूमि अनेक नदियों से अभिसिंचित है। महानदी इसकी प्राणधारा है। वह अन्य नदियों को अपनी बाहों में समेटे महासागर में समा जाने को दौड़ती चली जा रही है। छत्तीसगढ़ संस्कृति में महानदी की कमनीयता अपनी ओड़िसी-भंगिता में साथ विद्यमान है। मुख्य रुप से छत्तीसगढ़ की संस्कृति एक बहु आयामी मिश्रित संस्कृति है। उसके नाम से भी यह स्पष्ट हो जाता है। अनादि युग से असंख्य जीवन प्रवाहों और संस्कृतियों के उत्थान-पतन को अपने अंतर में छिपाये, यह पावन धरती मानवीय प्रेम, करुणा व सहिष्णुता का संदेश वि को दे रही है। अनेक जातियाँ तथा संस्कृतियां यहां आईं और महिमामयी प्रकृति की हरीभरी गोद में समा गईं। मूल रुप से आदिवासी प्रदेश होने के कारण बीहड़-सुन्दरता, दुदार्ंत जीवन संघर्ष और प्रकृति की उन्मुकत्ता आदि विशेषताएं हमें अभिभूत करती हैं। वन कुमारियों की स्वरलहरी से गहन कानन् स्पंदित व जीवनमय हो उठता है। आज फिर से मांदर बज उठे हैं। वन के वरद्पुत्रों का मदमस्त नृत्य चल रहा है। संगीत की प्राणभरी मूच्र्छना एक-एक पत्ती पर डोल रही है। बीहड़ कानन्-प्रदेश मुस्कुरा उठा है। आगन्तुक उनके साथ थिरकने को मचल पड़े हैं। प्रकृति का खुलापन व सबुजता, और जीवन्तता प्राणों को बांध लेती है। अनोखा सौन्दर्य, उमड़ता जीवन रस तथा संगीत की मादक स्वर लहरी, से वातावरण उच्छलित है। प्रकृति, जीवन, संगीत व नृत्य से स्पन्दित आज एक उच्छल जीवन में हमें बुला रही है उसके साथ शरीक होने के लिए तथा उसकी मादका में आत्महरा हो जाने के लिए। एक अकथनीय अनुभव! |
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छत्तीसगढ़ में कालजयी कबीर |
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छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की सांस्कृति विविधता के साथ यादवों की हृदय स्पर्शी सांस्कृतिक परंपरा भी विद्यमान है। यावद और आदिवासियों के बीच ""सतनाम पंथ'' दिखाई पड़ता है। इस तरह, इस क्षेत्र में आदिवासी, यादव एवं सतनाम-पंथ इन तीन संस्कृतियों का संगम दिखाई पड़ता है। सतनाम पंथ बाबा गुरु घासीदास के सामाजिक आंदोलन के फलस्वरुप प्रतिष्ठित हुआ। बाबा कबीर के अनुयायी थे। छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्रों में गुरु घासीदास जी ने कबीर की सामाजिक चेतना को फैलाया। इस तरह ""सतनाम-पंथ'' कबीर के प्रेम और ज्ञान तत्वों से युक्त युगानुरुप एक नये सामाजिक सुधारवादी आंदोलन के रुप में सामने आया। इसलिए छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक जीवन पर कबीर के व्यापक प्रभाव को देखा जा सकता है। छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्र को स्थूल रुप से तीन भागों में बांटा जा सकता है - |
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१. |
पूर्ण रुप से खुले क्षेत्र |
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२. |
आंशिक रुप से खुले क्षेत्र |
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३. |
और बंद क्षेत्र |
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प्रथम दो क्षेत्रों (पूर्ण खुले व आंशिक खुले) पर कबीर व घासीदास जी का सीधा प्रभाव दिखाई पड़ता है। अंतिम याने बंद क्षेत्र में यह प्रभाव कम और परोक्ष रुप से है। कारण इन क्षेत्रों का दुर्गम होना है। पर हो रहे विकास के कारण वे धीरे-धीरे खुल रहे हैं। अत: उसी के अनुरुप दोनों पर प्रभाव भी बढ़ रहा है। कबीर साहब देश भर में घूमते रहे और अलग जगाते रहे। ऐसी मान्यता है कि जब वे घूमते हुए मध्यप्रदेश पहुंचे तब गुरुनानक देव जी से उनकी भेंट अमरकंटक के पास हुई थी, जो बिलासपुर जिले के गौरेला क्षेत्र के समीप है। आज भी यहां कबीर चौरा है जो इतिहास की इस अभूतपूर्व घटना की गाथा समय को सुना रहा है। कबीर दास जी से प्रभावित होकर धर्मदास जी ने अपनी अपार सम्पति दान कर दी थी, और उनके अनुयायी हो गये थे। महात्मा धर्मदास साहेब मध्यप्रदेश के बांधगढ़ जिला शहडोल के निवासी थे। धर्मदास जी साहेब के छोटे लड़के चूड़ामणि नाम साहेब ने जिला कोरबा के आदिवासी गांव कुदुरमाल में कबीर आश्रम की स्थापना की थी। कुदुरमाल के बाद इनकी गद्दियां रतनपुर, मंडला, धमधा, सिगोढ़ी, कवर्धा आदि में स्थापित हुई। अंतत: बारहवें महंत उग्रमुनि नाम साहेब ने विक्रम संवत् १९५३ में रायपुर जिले के दामाखेड़ा में मठ स्थापित किया। तब से आज तक दामाखेड़ा ही धर्मदास जी की वंशगद्दी परंपरा का मुख्य केन्द्र माना जाता है। छत्तीसगढ़ में मठों का विवरण निम्नानुसार है... १ |
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इससे स्पष्ट है कि कबीरपंथ का केन्द्र उत्तर भारत में रहते हुए भी इसका व्यापक प्रभाव मध्यभारत में देखा जा सकता है, जिसमें छत्तीसगढ़ का प्रमुख स्थान है। छत्तीसगढ़ भौगोलिक दृष्टि से एक दुर्गम क्षेत्र हैं। पहाड़, पठार, घने जंगल और दुर्गम नदियों के कारण तथा आवागमन के पर्याप्त साधन के अभाव में यह क्षेत्र किसी भी प्रचार-प्रसार की दृष्टि से एक कठिन क्षेत्र है। यहां कबीर पंथ का लोक जीवन में गहराई से व्याप्त होना एक महत्वपूर्ण घटना है। समय के उतार-चढ़ाव के साथ जब लोक जीवन बाहरी प्रभावों से त्रस्त था और आत्मरक्षा के लिए उसने बीहड़ वन-प्रदेशों में शरल ली थी, तब कबीरदास जी की वाणी ने सीधे उनके हृदय को स्पर्श किया। और उन्होंने अपने लोक रक्षक को पा लिया। इसलिए छत्तीसगढ़ में कबीर पंथ बड़ी तेजी से फैला। आज अनेक प्रकार के बाहरी प्रभावों के बीच भी यह बात देखी जा सकती है। अपनी इन्हीं जानकारियों के कारण दिल्ली से लौटकर मैंने बिलासपुर में रहते हुए छत्तीसगढ़ एवं इसके आदिवासी क्षेत्रों का अध्ययन किया। लोगों से अनौपचारिक चर्चा की तथा कबीरीय प्रभाव की टोह लगाने की कोशिश की। बिलासपुर संभाग को अपने प्रारंभिक अध्ययन के लिए मैंने निम्नलिखित कारणों से चुना - |
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१. |
अमरकंटक - यह स्थान कई दृष्टि से महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह बिलासपुर जिले के गौरेला (पेंण्ड्रा) नामक स्थान के पास है। यहीं अमरकंटक से थोड़ी दूर पर कबीर आश्रम हैं। जनश्रुति है कि यहां पर कबीर जी का प्रथम आगमन हुआ था तथा उनकी गुरुनानक देव जी के साथ भेंट हुई थी। |
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२. |
कुदुरमाल - जिला बिलासपुर (वर्तमान में जिला कोरबा) में चूरामणि नाम साहेब ने सर्वप्रथम अपना आश्रम बनाया था। वहीं से प्रचार-प्रसार किया था। |
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३. |
फिर पंथ श्री सुदर्शन नाम साहब ने रतनपुर (जिला - बिलासपुर) में दूसरा आश्रम बनाया। पंथ के प्रसार में इनकी काफी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। |
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४. |
जहां से कार्य प्रारंभ होता है उसका अधिक ही महत्व होता है। साथ ही प्रभाव की दृष्टि से भी वह अधिक सघन प्रभाव वाला क्षेत्र सिद्ध होता है। |
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५. |
बिलासपुर संभाग सबसे बड़ा है। और सभी प्रकार से सबसे अधिक आदिवासी समूहों का प्रतिनिधित्व करने वाला क्षेत्र है। |
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बिलासपुर जिले के सभी विकास खंडों में कबीर संबंधी जानकारी मिल जाती है। चाहे वे कबीर पंथी हों या न हों पर "कबीर' एक महात्मा, संत और समाज सुधारक के रुप में समादूत हैं। कबीर पंथियों का जनसंपर्क भी इसमें सहायक हुआ है। कबीर जयंती तो प्राय: समाज के सभी वर्ग बहुत ही उत्साह तथा श्रद्धा से मनाते हैं। इनकी यह मान्यता है कि कबीर जी के उपदेशों से हमारा भला होगा। इसके लिए वे यह भी आवश्यक मानते हैं कि कबीर के उपदेशों का व्यापक प्रचार-प्रसार हो। अपने गांव में सभी कोई कबीर चौरा या आश्रम खोलने को इच्छुक हैं। और अपने सहयोग देने को तत्पर हैं। अधिकांश गांव में कबीर भजन मंडली पाई गई। इन भजन मंडली के गायन में गांव के समस्त लोग सम्मिलित होते हैं। लोगों का यह विश्वास है कि कबीर के उपदेशों को अपना कर भविष्य में एक अच्छा समाज बनाया जा सकता है। लोकगीतों, प्रार्थानाओं आदि में इन भावनाओं की अभिव्यक्ति हुई है। मुसलमान और ईसाई भी कबीर के प्रति आदन रखते हैं। कबीर चौरा या आश्रम के पूजन में ये सभी शामिल होते हैं। जशपुर व सरगुजा जिले के ईसाई लोग भी कबीर को मानते हैं तथा कबीर पंथियों के कार्यक्रमों में भाग लेते हैं। प्रश्नावली के उत्तरदाताओं के अनुसार बिलासपुर संभाग में कबीर को मानने वाले मुसलमान भई हैं जो कबीर पंथ के कार्यक्रमों में भी भाग लेते हैं। अत: अध्ययन क्षेत्र के अंतर्गत आदिवासियों के साथ अन्य वर्गों पर भी कबीर का प्रभाव दिखाई पड़ता है। यहां की परंपरा, रीति-रिवाज, मान्यताओं, मूल्यबोधों, आदि के साथ कबीरीय चेतना का सुन्दर तालमेल है। कहीं पर वे एक प्राण और तद्रूप भी हैं। कबीर का यह जनपदीय व्यक्तित्व मेरे इस अध्ययन का आधार है। |
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कबीर मूल्यांकन |
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कबीर दलितो का मसीहा था। पीड़तों का उद्धारक तथा, कुचले हुए लोगों का प्रवक्ता। सामाजिक अन्याय और विषमता का घोर विरोधी था। न्याय और समता का संस्थापक था। वह बरजोर वर्ग का विरोधी तथा कमजोर वर्ग का हिमायती था। उन्हें समाज में न्यायोचित हक दिलाने का पक्षधर था। वह जीवन भर उसको जगाता रहा। और उनमें जीवन भर आत्मगौरव भरता रहा। उन्हें डर प्रकार के सामाजिक जुल्मों से मुक्ति दिलाने का प्रयास करता रहा। प्रेम के धागे में सभी के दिलों को बांधने की कोशिश करता रहा। उसकी उदार मानवतावादी दृष्टि से सभी प्रभावित हुए। और कबीर के उपदेशों को अपनाने की कोशिश की। |
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वैचारिक पक्ष - |
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विविधता में एकता |
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भारतीय संस्कृति अनेकता में वि जीवन का अस्तित्व मानती है। उसके अनुसार बिना विविधता के वि जीवन संभव नहीं है। अत: वह अनेकता को वि जीवन-प्रक्रिया मानकर विविधता में एकता की बात करती है। अपनी संस्कृति के अनुसार भारत में हमें हर स्तर पर विविधता में एकता दिखाई पड़ती है। बाहरी रुप से अलग दिखने वाली वस्तुएं भीतरी रुप से एक होती हैं। इसलिए भारत जो अनेक धर्म और संस्कृतियों का देश है, वह भीतरी रुप से अखंड है। इसका कारण हमारी सामाजिक व्यवस्था है। हमारा देश जनपद समूहों में बंटा हुआ है। ये गांव स्वतंत्र या स्वावलम्बी होते हैं। कभी भी यहां पर एक ऐसा केन्द्रीय शासन नहीं रहा, जो सम्पूर्ण भारत को एक केन्द्रीय शासन के अंतर्गत ला सके। यद्यपि इन गांवों में जीवन, स्थान, स्वरुप और क्षेत्र अलग-अलग रहे, पर भारतीयता और राष्ट्रीयता के एक तार से वे सदा बंधे रहे। आज भी हमारा देश न केवल राजनीतिक राष्ट्र है, वरन् सांस्कृतिक राष्ट्र भी है। उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम चारों दिशाओं के तीर्थ स्थान उसकी सीमा रेखा हैं। संत, महात्मा, योगी, ॠषिमुनि आदि इसके सूत्रधार रहे। अपने यायावरी जीवन में वे घूम-घूम कर देश को एकता के सूत्र में बांधते रहे। पर इस बाहरी बहुवर्णी आबा के बीच राष्ट्रीयता का एक सुनहरा तार भी दिखाई पड़ता है। यही भारत की अस्मिता है, यही भारत की आत्मा है। इसलिए उसने जितनी भी जातियां और संस्कृतियां यहां आयी उन्हें अपनी पावन गोद में भर लिया। कबीर इस पावनगोद की अनुपम देन हैं। इसलिए कबीर में हम भारत की अस्मिता को पाते हैं। कबीर का (१) सर्वधर्म समन्वय, (२) सह-अस्तित्व की भावना, (३) विश्व-मानव और (४) आम-आदमी इन सईभ में भारत की इसी अस्मिता की अभिव्यक्ति हुई है। अत: कबीर ने विवधता में एकता का प्रतिपादन नहीं किया वरन् हमें यह समझाया कि विविधता हमारी भारतीयता है। विविधता हमारी विश्व-मानवता है। इसे पहचानो। कबीर का यह कार्य संजीवनी बूटी की तरह उस मुरझे हुए युग को फिर से जिला दिया। युग आते व जाते रहे। इतिहास के पन्ने उलटते-पलटते रहें। और उन्हीं से यह आवाज उठी ""वसुधैव-कुटुम्बक्म'' |
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सर्वधर्म-समन्वय |
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जिस भारतीय अस्मिता की बात ऊपर कही गई है, वह धार्मिक सहिष्णुता, उदारता, सह-अस्तित्व और सर्व-धर्म समन्वय तथा वि बंधुता की परिकल्पना के बिना संभव नहीं है। कबीर का युग सांस्कृति और धार्मिक संकट से गु रहा था। जीवन चरमरा उठा था। जीवन मूल्य और आदर्श रिक्त हो गये थे। कबीर को नये आदर्श और नूतन जीवन मूल्यों की खोज करनी पड़ी। कबीर को जमीन भी तोड़नी पड़ी, बीज भी बोना पड़ा और सींचना भी पड़ा, ताकि वह अँकुआ सके। कबीर ने अपनी अक्खड़-फक्खड़ वाणी से उस युग की जमीन को तोड़ा, ज्ञान का बीज बोया, प्रेम का जल सींचा, अपने शरीर का ताप उसको दिया और अपने महाप्राण की छाया भी। मानवता की बेल अंकुआ उठी। उसको बढ़ने के लिए अनुकूल वातावरण चाहिए था। कबीर ने सह-अस्तित्व और सर्वधर्म समन्वय के द्वारा उस वायुमंडल को बनाया और हमें दो शब्दों का उपहार दिया। (१) निरपख भगवान (२) पंचतत्व का पुतला। साथ ही एक दृष्टि दी सर्वात्मवाद की। |
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लाली
मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल। |
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- कबीर |
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सह-अस्तित्व |
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इस बूढ़े देश में जहां पर अनादि काल से अनेक जातियों एवं प्रजातियों का समागम रहा है, वहां सह-अस्तित्व की विचारणा के बिना जीना दुष्कर है। कबीर ने इसे अविशेष-विशेष मानव के द्वारा चरितार्थ कराया। |
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दिल में खोजि, दिलही में मां खोजो, इहैं करिमा रामा। |
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- कबीर |
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जेहि खोजत कल्पौ गया, घटहि माहि सो मूर | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
- कबीर |
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प्रेम |
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पासा
पकड़ाया प्रेम का, सारी किया
शरीर। |
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- कबीर |
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यदि भक्ति ज्ञान का रसात्मक बोध है तो प्रेम उसका द्रव-रुप रस है। कबीर इस रस को पीकर मतवाले हो उठे। दीन-दुनियां की सुधबुध नहीं रही और उस प्रेम रस को पीकर कबीर मानव शरीर में देवता बन गये। आकाश में एक स्वर लहरी गूंज उठी - |
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प्रेम
स्वर्ग है, स्वर्ग प्रेम है। प्रेम रुप
भगवान। |
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कबीर की इस रहस्यमय आभा को कौन कब समझ सका है? वह रुखा-सूखा युग प्रेम से भीग उठा। कबीर जिस प्रमुख कार्य को करने चले थे, वह संभव हुआ। और वह कार्य है - मानव के मन को गढ़ना तथा एक नई दुनिया बनाना। कबीर का संदेश और प्रयास अकारथ नहीं गया। इससे संघर्ष मिटा और दिल पास आये - |
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उड़ा बगुला
प्रेम का, तिनका उड़ा आकास। |
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- कबीर |
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इस प्रेम से भीग कर रक्त-स्नान धरती हरी-भरी हो उठी - |
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बरस्या
बादल प्रेम का, हम पर बरस्या
आयी, |
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- कबीर |
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मानवतावाद |
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कबीर का मानवतावाद एक कर्म-दर्शन है। वे वाक्वीर नहीं, कर्मवीर चाहते थे। उन्होंने कभी-भी कोरी पण्डिताई में विश्वास नहीं रखा। कबीर ने दुनिया के दो रुप देखे थे - शास्र-सम्मत और मानव-सम्मत। कबीर ने अपने लिए और अपने जैसे लोगों के लिए मानव-सम्मत दुनिया चुन ली। शास्र-सम्मत दुनिया से न तो उनका सरोकार था, और न तो वे सरोकार रखना चाहते थे। उसके लिए बहुत पहले ॠषि मुनियों ने ""नेति नेति'' कहा था। |
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१. |
पण्डित मुल्ला जो लिख दिया, छांडि चले हम कछु न लिया। |
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२. |
मैं कहता अंखियन की देखी। तू कहता कागद की लिखी। |
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- कबीर |
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कबीर निरपख-भगवान और अविशेष-विशेष मानव का एक मंदिर बनाना चाहते हैं। और वहां अपने आम आदमी की प्रतिष्ठा करना चाहते हैं। उनके आम-आदमी (MICRO COSM ) में कोई भेद नहीं है। उनकी - |
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१. |
सामाजिक क्रांति |
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२. |
निषेध का स्वर। |
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३. |
तीखा प्रतिवाद |
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४. |
क्रांति चेतना |
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५. |
और विद्रोह का बिगुल |
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सभी उनके विराट् मानवतावाद के अंश है। यहां तक की उनके राम भी। कबीर बार-बार अंतर में बस राम की ओर संकेत करते हैं। यह राम उनका जीवनबोध और आत्मबोध है। यही कबीर का मानवतावाद है। मानव का ऐसा गौरवगान अन्यत्र दुर्लभ है। |
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मन ऐसा
निर्मल भया, जैसे गंगा नीर। |
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- कबीर |
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सत्यान्वेषण - (सत्य की पूजा) |
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कबीर ने जीवन भर सत्यान्वेषण किया और परम सत्य के रुप में अपने राम को पाया। जिसकी निम्नलिखित विशेषतायें हैं- |
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१. |
वह निरपख है। |
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२. |
वह आत्म स्वरुप है। |
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३. |
वह अद्वेैत है। |
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४. |
वह सर्वव्याप्त है। |
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५. |
मानव राम का अंश है इसलिए वह निर्विशेष-विशेष है। |
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उसके आत्मबोध में सृष्टि का अनुभव समाहित है, उससे परे कोई अनुभव नहीं। सत्यबोध, आत्मबोध, ज्ञान बोध तीनों उसके आत्मानुभव के स्वरुप है। |
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वेद
कुरान सब झूठ है, हमने उसमें
पोल देखा। |
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- कबीर |
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कबीर का यह सत्यबोध सतनाम से अभिव्यक्त होता है। सतनाम के द्वारा कबीर दास जी ने शब्द ब्रह्म की ओर संकेत किया है। समस्त कर्मकाण्डों को नकार देने वाला यह महान तत्वचिंतक बार-बार कहता है- |
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राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट। |
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-कबीर |
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इसका अर्थ यह है कि कबीर ने केवल नाम स्मरण को ही महत्व दिया है। इस नाम स्मरण के द्वारा उन्होंने नाद ब्रह्म की ओर संकेत किया है, जो शब्द रुप ब्रह्म है। नाम स्मरण के द्वारा शब्द ब्रह्म की उपासना होती है। इसलिए आत्मबोध या आत्मज्ञान ही सबसे बड़ा सत्यबोध है - |
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१. |
""जाके
मुख माथा नाहीं, नाहीं रुप कुरुप। |
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- कबीर |
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२. |
""मृगा
की नाभि कस्तूरी, मृग ढूंढ़े बन
मांहि। |
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- कबीर |
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३. |
""तूँ
तू करता तूॅ भया, मुझ में रही न
हूं। |
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- कबीर |
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कबीर का यह सत्यबोध सब प्रकार की परिभाषाओं एवं मान्यताओं से परे है। केवल आत्म प्रकाश से वह दीप्त है। कबीर के अनुसार आत्मनुभव में ही सृष्टिबोध है। व्यक्ति अजपा जाप के माध्यम से अपने भीतर के अनहदनाद को समष्टि - नाद में बदलकर प्रणव को प्राप्त करता है और सत्यनाम के द्वारा शायद यही समझाया जाता है। वह मानता है इस अद्वेत धव्नि से सृष्टि का विकास हुआ है। इन महापुरुषों की अमृतमयी वाणी का जीवन पर बहुत ही गहन असर होता है। और अनायास ही व्यक्ति अपने को भक्ति-संगीत में तल्लीन पाता है- |
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""ऐसा
कोई ना मिल्या, राम भगति का
मीत। |
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- कबीर |
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सामाजिक पक्ष - |
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इसके अंतर्गत हमने उन तत्वों को लिया है, जो एक स्वस्थ रचनात्मक सामाजिक जीवन से लिए अनिवार्य हैं और सदा रहेंगे। |
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सदाचार |
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सदाचार वह गुण है, जो किसी भी समाज का आधारभूत तत्व है। इस पर व्यक्ति का चरित्र, समाज का चरित्र और भविष्य का स्वरुप तीनों निर्भर हैं। सच तो यह है किसी भी समाज की वास्तविक शक्ति का आधार भी यही है। दुराचारी, दुष्ट व दुर्दान्त व्यक्तियों से बना समाज न तो कभी सुखी रह सकता है और न ही कभी उन्नति कर सकता है। सदाचार के लिए संस्कार चाहिए और अच्छा वातावरण चाहिए, पैसा या शिक्षा की जरुरत नहीं है। सदाचार से मनुष्य अपराध से बचता है और सदाचार से वह सज्जन कहलाता है। सदाचार से उच्चकोटि के जीवन मूल्य और जीवन रुप प्राप्त होते हैं। सदाचारी व्यक्ति किसी भी समाज के गौरव चिन्ह होते हैं। कबीर दास जी ने सबसे अधिक बल सदाचार पर दिया है। वे स्वयं भी सदाचारी व्यक्ति थे। जब समाज के चरित्र का आधार नैतिक होता है तब वह समाज केवल बाहरी दृष्टि से शक्तिशाली नहीं होता वरन् आंतरिक रुप से भी अनंत शक्ति स्रोत से जुड़ जाता है। |
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परोपकार |
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परोपकार का अर्थ है - |
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कबीर
सोई पीर है, जो जाने पर पीर। |
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- कबीर |
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बिना भावना के परोपकार के लिए व्यक्ति तैयार नहीं होता। परोपकार के बिना समाज में व्यक्ति एक दूसरे की मदद नहीं करते। इसके बिना सामाजिक चेतना का भी विकास नहीं होता। वस्तुत: मानवीय समाज का आधार परोपकार है। तभी यह सभ्य समाज होता है। जब इसके सदस्य एक-दूसरे से रागात्मक रुप से जुड़े होते हैं। सामाजिक जीवन के अनेक प्रकार की बाधायें एवं रुकावटें परोपकार के कारण आसानी से हल हो जाती हैं। क्षमा, परोपकार आदि गुण मानव के आभूषण हैं। तथा उसकी पहचान है। गांधी, कबीर और सभी संत महात्मा परोपकार पर सबसे अधिक बल देते रहे हैं। |
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सहिष्णुता |
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सहिष्णुता का अर्थ है - व्यक्ति चरित्र का वह तत्व जो दूसरों की गलती और ज्यादती को धैर्य के साथ सह लेता है, और क्षमा भी कर देता है। उसमें सहन शक्ति आती है, और वह सामाजिक जीवन के लिए अपने को प्रस्तुत कर लेता है। समाज में अनेक प्रकार के लोग होते हैं। असहिष्णुता से संघर्ष, क्लेश और अलगाव होता है। सामाजिक जीवन दुर्वह हो जाता है। कबीर के जमाने में धार्मिक-संघर्ष और टकराहट आदि बातें चरम सीमा पर थीं। कबीर दास जी ने उन्हें वहां से लाकर एक सहिष्णु समाज का रुप दिखाया तथा सर्वधर्म-समन्वय का रास्ता बताया। तब शांति की स्थापना हुई। लोक-जीवन निर्माण के पथ पर चल पड़ा। आज के वि जीवन में बस सहिष्णुता की कमी है। |
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दया |
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कबीर का राम दीनबन्धु और दरिद्र नारायण है। गांधी जी ने भी इस पर सबसे अधिक बल दिया। इससे समाज के कमजोर वर्ग का जीवन सहज सुलभ हो जाता है। दया पर हर धर्म ने जोर दिया है।हमारे यहां तो दयावीर, दानवीर आदि के रुप में उसे रस के अंतर्गत रखा गया है। राम दयावीर थे, कृष्ण दयावीर थे, राम के भक्त भी सच्चे दयावार होते हैं। अत: सामाजिक जीवन में इस गुण का सही विकास जरुरी है। गांधी और कबीर ने इस वि को अपनी ओर से "एक-दर्दीला-दिल' उपहार में दिया। |
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बुराइयों से निराकरण |
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कबीर ने बुराइयों के साथ कभी भी समझौता नहीं किया। और ना ही उसके सामने झुके। स्वस्थ सामाजिक जीवन के लिए उन्होंने बुराईयों का पर्दाफाश किया। बुराइयों के खिलाफ चिरंतन संघर्ष छेड़ दिया। कबीर के जमाने में सामाजिक जीवन के हर स्तर पर इतनी बुराइयां थी कि कबीर को अक्खड़-फक्खड़ और कठोर हो जाना पड़ा। सामाजिक बुराइयों का शिकार उनका "आम-आदमी' अपने सारे मानवीय अधिकारों से वंचित रहा। अभाव और जुल्मों में जीने के कारण, जन में भी अनेक बुराइयां आ गई थी। और सामाजिक जीवन अस्त व्यस्त हो गया था। अत: फिर से समाज को गढ़ने के लिए कबीर ने व्यक्ति के मन को गढ़ने की ठानी। इसलिए व्यक्ति और समाज को बुराइयों से मुक्ति दिलाने के लिए वे सदा प्रयास करते रहे। बराइयों को बुराइयों से दूर नहीं किया जा सकता। बुराई को अच्छाई से दूर किया जा सकता है। और कबीर ने यही रास्ता सुझाया है - |
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""माखई
रहे कुबास में, पुष्पवास नहीं
लेय। |
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- कबीर |
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साधू
ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय। |
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- कबीर |
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जो
तुझको कांटा बोये, ताही बोउ तू
फूला। |
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- कबीर |
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बुरा
जो ढूंढ़न में चला, बुरा न
मिलिया कोय। |
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- कबीर |
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निंदक
नियरे राखिये, आंगन कुटी छबाये। |
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- कबीर |
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उपभोगवाद का बहिष्कार |
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आज के वि जीवन का अभिशाप है - भोगवाद। यही सबसे बड़ी समस्या है। उसकी समस्त बुराइयों का कारण यही है। इस भोगवाद का केन्द्रीयतत्व पैसा है। आज सारी दुनिया पैसा के लिए मरने-मारने को तैयार हैं। कबीर जी ने सदा ही इस उपभोगवाद की ओर ध्यान खींचा और उससे बचने के लिए जोरदार शब्दों में चेतावनी दी। तकनीकी वि ने मनुष्य की आवश्यकताओं में इतनी वृद्धि कर दी है कि मनुष्य की आवश्यकताएं अनंत हो गई हैं। सीमित साधनों के द्वारा असीमित जरुरतें पूरा नहीं होती है, और इनका परिणाम होता है भोगवाद। बस आज यही प्रलय की छाया बनकर आकाश में मंडरा नही है। क्या कोई कबीर आयेगा? हमें सचेत करने के लिए? क्या कबीर आयेगा? हमें मूल्यवादी बनाने के लिए? क्या तुलसी फिर आयेगा, राम के सन्यस्त रुप को दिखाने के लिए? और इसके बिना रावण पर विजय कौन पायेगा? मनुष्य के ॠतित्व को कौन दिखाएगा? राम और कृष्ण परमयोगी थे और अनासक्त थे। आज के वि को केवल इसी के आधार पर सर्वसंहार से बचाया जा सकता है - |
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सुखिया
सब संसार है, खाये और सोये। |
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- कबीर |
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सामाजिक विषमता का निराकरण |
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कबीर जार-जार रोने के लिए विवश था, क्योंकि वह जन्म से सामाजिक विषमता का शिकार बना। अपने जीवन के जहर को पीते हुए उसने अपने जैसे आम लोगों को उस जहर से मुक्त रखने के लिए प्रण कर लिया और जीवन भर इससे जूझता रहा। कबीर के व्यक्तित्व, जीवन और साहित्य तीनों का केन्द्रीय अभिप्राय है - सामाजिक क्रांति। जो कबीर को भक्त मानते हैं, वे कबीर के सबसे प्रबल पक्ष को हासिये में डाल देते हैं। वस्तुत: कबीर की जूझारु, धार्मिक चेतना उनकी जुझारु सामाजिकता की देन है। कबीर उच्चतम वर्ग का आंखों का कांटा तथा निम्नतम वर्ग का मसीहा था। बरजोर वर्ग से सामान्य जन को मानवीय हक दिलाने के लिए कबीर तिल-तिल मर मिटा है। कबीर वि मानवता के मंदिर में इस आम-आदमी को एक मानव के रुप में स्थान दिलाना चाहता था। इसी क्रांति चेतना के कारण वह मूर्ति-भंजक बना। इसी के कारण वह अराजकतावादी हुआ। और इसी के कारण वह अक्खड़-फक्खड़ और कठोर हो उठा। इतना बड़ा सामाजिक दायित्व लेकर अपने भीतर की कोमलता को वह कभी व्यक्त नहीं कर पाया। फिर भी सब कुछ भस्म कर देने को तैयार कबीर अपनी शुभकामना हमें देता है - |
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कबीर
खड़ा बाजार में, सबकी मांगे खैर। |
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- कबीर |
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समानता |
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सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए समाज में सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक आदि की समानता स्थापता करनी होगी। इसलिए समाज में हाव्स (Haves ) और हैव नाट्स (Have Notes ) दो वर्ग नहीं होना चाहिए। मानवीय और प्राकृतिक समानता सभी मानवों का जन्म सिद्ध अधिकार है। उसे छीनने का हक किसी को भी नहीं। जब यह समानता नष्ट होती है तभई द्वेष और घृणा की आग भभक उठती है, और समाज खाक हो जाता है। बिना समानता के किसी भी समाज में शांति स्थापित नहीं हो सकती, और न विध्वंस से बचाया जा सकता है। अत: समानता जीवन की रक्षा के लिए पहली आवश्यकता है। कबीर दास जी ने साफ कहा है - |
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दुबल
का न सताइये, जाकि मोटी हाय। |
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- कबीर |
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माटी
कहे कुम्हार सो, तू क्या र्रूंदे
मोहि। |
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- कबीर |
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इसलिए कबीर चाहते है जो बरजोर वर्ग है, वह सावधान हो जायें और अपना फर्ज निभायें। |
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व्यावहारिक पक्ष - |
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शिक्षा |
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""मसि कागद छुयौ नही, कलम गहयौ नहीं हाथ।'' |
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- कबीर |
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कहने वाला कबीर अपने युग का प्रखर बौद्धिक, तत्वचिन्तक तथा स्वप्नदर्शी महात्मा था। उसने शास्र-सम्मत दुनिया छोड़ दी, तथा अपने लिए मानव-सम्मत दुनिया चुन ली थी, और एक सीधी डगर पर तथा एक सरल जीवन के लिए, वे अपने जैसे लोगों के साथ चल पड़े थे। वे साफ कहते हैं- |
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""मैं कहता अंखियन के देखि, तू कहता कागद की लिखि।'' |
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- कबीर |
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और वे सारी उलझनों को काट कर अपने सुलझे हुए जीवन-पथ पर चल पड़ते हैं। यदि कबीर की शिक्षा-संबंधी कोई अवधारणाएं हैं, तो वह है - सामाजिक न्याय, प्रेम, सदाचार, सत्यनिष्ठा, नैतिकता आदि। जो शिक्षा दिलों को पास न लाये, मनुष्य के मन को न गढ़े, और राम से न मिलाये तो वह शिक्षा किस काम की? जो जीवन की शिक्षा प्रत्यक्ष रुप से मिलती है, उससे परे और कोई शिक्षा नहीं हो सकती। |
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वेद
पुराण सब झूठ है, हमने इसमें
पोल देखा। |
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- कबीर |
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कबीर तो यहां तक कहते हैं - |
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सुमृति
वेद पढ़े असरारा, पाखण्ड रुप करे
हंकारा। |
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- कबीर |
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पोथी
पढि-पढि जगमुवा, पंडित भया न
कोय। |
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- कबीर |
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प्रश्नावली के उत्तरदाताओं का मत है कि अशिक्षा व्यक्ति को रुढ़ीवादी, अंधविश्वासी और आडम्बर-प्रिय बना देती है। इसलिए हरेक को शिक्षित होना चाहिए। शिक्षा के बिना देश विकास नहीं कर सकता और ताकतवर नहीं बन सकता। कबीर जिस उच्चकोटि की मानवता की ओर संकेत करते हैं, उसे प्राप्त करने में शिक्षा मददगार हो सकती है। कबीर के लिए शिक्षा का अर्थ उच्चकोटि की मनुष्यता है, केवल विद्यालीय पढ़ाई या डिग्री नहीं, जो आज शिक्षा से तात्पर्य लिया जाता है। इसलिए कबीर की मूल्यवादी-शिक्षा परिकल्पना और आज की सूचनात्मक-शिक्षा की बुनियादी मान्यता भिन्न है। |
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स्वास्थ्य |
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धर्म की साधना, एक स्वस्थ शरीर से होती है। स्वस्थ शरीर के लिए एक स्वस्थ मन और निरोग शरीर चाहिए। देश की वास्तविक ताकत वहां के निवासी होते हैं। एक रोगी और कमजोर देश बहुत दिनों तक टिक नहीं सकता। अत: देश के स्वास्थ्य की चिंता सभी को होनी चाहिए। स्वास्थ्य पर विचार करते हुए सबसे पहले हमारा ध्यान शुद्ध पानी पर जाता है। हमारे देश में सभी के लिए इसका प्रबंध नहीं हो पाया है। सरकारी, गैर सरकारी और वैयक्तिक सभी स्रोतों से इसकी अविलंब व्यवस्था होनी चाहिए। |
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ग्रामोन्नति |
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ग्रामों की उन्नति के बिना देश की उन्नति की कल्पना नहीं की जा सकती है। गांव की ओर ध्यान देना जन चेतना और देशप्रेम दोनों है। उन्नति दो प्रकार की होती है - |
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१. |
चारित्रिक उन्नति | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
२. |
और व्यावहारिक उन्नति |
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चारित्रिक उन्नति - |
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चारित्रिक उन्नति में वैचारिक उन्नति आती है, अर्थात् उच्चकोटि के विचार, आदर्श, व्यवहार, मानवयीता, नैतिकता, सदाचार आदि बातें आती है। किसी भी देश की सच्ची उन्नति वहां के लोगों की चारित्रिक उन्नति है। इसलिए कबीर दास जी ने मानव के मन को गढ़ने का बीड़ी उठाया था। |
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व्यावहारिक उन्नति |
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व्यावहारिक पक्ष में गांव की नैतिक, सामाजिक, स्वास्थ्यगत उन्नति आदि बातें आती है। बाहरी उन्नति, भीतरी उन्नति के लिए एक रास्ता बनाती हैं। आज की दुनिया में बिना बाहरी उन्नति के भीतरी उन्नति का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। सभी कोई बाहरी उन्नति में लगे हुए हैं। भीतरी उन्नति की ओर कोई भी ध्यान नहीं देता। तन में कपड़ा नहीं, यह तो सभी को दिख जाता है, पर मन बेपर्द है यह किसे दिखता है? कबीर दास जी बार-बार इसलिए - "घट का परदा खोल देखा।' ""तेरा साईं तुझमें बसे'' आदि बातें कहते रहते है। फिर भी कबीर ने भौतिक उन्नति को नकारा नहीं है। इसके प्रमाण स्वरुप कबीर की निम्नलिखित पंक्तियां है - |
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भूखे भजन न होय गोपाला, ले ले अपनी कंठीमाला। |
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- कबीर |
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कबीर
क्षुधा है कुकरी, करत भजन में भंग। |
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- कबीर |
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श्रम
ही ते सब कुछ बने, बिन श्रम मिल
ने काही। |
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- कबीर |
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ॠषि मुनि एवं संतो की वाणी का प्रभाव |
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उत्तरदाताओं में से अधिकांश लोगों ने इस युग की मूल्यहीनता की ओर संकेत किया है। महान-संत महात्माओं के वचनों के व्यापक प्रचार की ओर हमारा ध्यान खींचा है। इससे कबीर दास जी ने जो मन गढ़ने का कार्य उठाया था, वह पूरा हो जाता है। साथ ही यह वि समाज जो दिशाहीनता में भटक रहा है, वह सही रास्ता भी पा लेगा। यह यंत्र-युग है। यह मशीन युग है। यह अमानवीय-करण-प्रक्रिया का युग है। यह लौहयुग है। यह निर्जीवता का युग है। आदर्श व जीवनमूल्य मानवता के द्योतक है। सजीवता के प्रतीक हैं। अत: यदि रोबोट की जगह पर हम मानव को वि में स्थापित करना चाहते हैं तो संतों और महात्माओं की वाणी, आदर्श और प्रेम की ओर ध्यान देना होगा। |
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कबीर और गुरु घासीदास जी का वैचारिक पक्ष - |
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वैचारिक समानता - |
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दोनों का वैचारिक पक्ष एक समान है। दोनों में सामाजिक समानता का भाव समान है। दोनों ही कमजोर वर्ग को समाज में उसका सही स्थान दिलाने के पक्ष में है। वे सतनाम के द्वारा वर्गविहीन और जातिविहीन मानव समाज की स्थापना करना चाहते थे - |
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(अ) |
विश्व-मानव। |
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(ब) |
विश्व-बन्धुत्व। |
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(स) |
वसुधेव-कुटुम्बकम्। |
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यही उनका लक्ष्य था। वे समाज में घृणा, द्वेष और अलगाव आदि बातें दूर कर शांति स्थापित करना चाहते थे। सतनाम पंथ के अनुयायी कबीरदास के प्रति गहरी श्रद्धा रखते हैं। वे कबीर को अपना गुरु भी मानते हैं। व्यावहारिक रुप से सतनाम का अर्थ समझ में आता है। वह यह है कि प्रभु के नाम का स्मरण ही सत्य है। यह एक ऐसा तत्व है जिससे सगुण और निर्गुण का सारा झगड़ा मिट जाता है। इसके अलावा नाम स्मरण से विभिन्न धर्मावलंबियों को भी पास लाया जा सकता है। |
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राष्ट्रीयता संबंधी धारणाएं तता नागरिक अवबोध |
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उत्तरदाताओं में से प्राय: सभी ने राष्ट्रीय प्रश्नों पर विचार किया है। जैसे राष्ट्रीय एकता, राष्ट्रीय चरित्र, राष्ट्रीय दायित्व, राष्ट्र प्रेम तथा उनके उपाय। सभी का यह मानना है कि राष्ट्र की मजबूती उसकी सुरक्षा और विकास में है। इसलिए उन्हें सर्वोच्च स्थान मिलना चाहिए। जिस प्रकार कबीर जी ने जन-चेतना दिखाई, कमजोरों के लिए संघर्ष किया, सामाजिक न्याय दिलाने के लिए जी तोड़ मेहनत की तथा शक्तिशाली वर्ग को उसके गलत काम के लिए फटकारा, यही नागरिक अवबोध है। राष्ट्रीय चरित्र है, तथा राष्ट्रीय दायित्व की भावना है। सर्वधर्म समन्वय, वर्गविहीन समाज आदि राष्ट्रीय चेतना और सामाजिक चेतना का द्योतक है, केवल एक संत का वाणी नहीं। |
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१. |
""बड़ा
हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर। |
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- कबीर |
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२. |
""साधू
ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय। |
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- कबीर |
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अंत में चेतावनी देते हैं कि कमजोर वर्ग को न सताओ, नहीं तो सुरक्षित नहीं रह पाओगे। |
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""लकज़ी
कहे लूहार से, तू क्या जालिहौं
मोही। |
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- कबीर |
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निष्कर्ष - |
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इस यंत्र युग के पास न आकाश है, न धरती, न हवा, न पानी, न प्रकृति, न वायुमण्डल। आज पाताललोक भी सुरक्षित नहीं है। वहां विस्फोट है। सब कुछ दूषित, सबकुछ जीवन-नाशक है। सब कुछ मानव, उसके जीवन, उसके इतिहास और उसकी संस्कृति के खिलाफ हैं। मशीनी-सत्ता का बोल-बाला है। कम्प्यूटर-कल्चर (क्दृथ्रद्रद्वेद्यeद्ध क्द्वेथ्द्यद्वेद्धe) धरती से आसमान तक व्याप्त है। भोगवाद, लोभवाद, साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के साथ अब अंतरिक्षवाद भी जूड़ गया है। पता नहीं भूमण्डलीयकरण में और क्या समा जाएगा। अंतरिक्ष युग में छोटी सी धरती / बौना सा मानव / उसका नन्हा सा घरौंदा / और दुर्वा-दलों का शबनबी बुलावा / महाकाश के अनंत विस्तार में कहां स्थान पाएंगे, कौन जाने? केंप्सुल में बंद अंतरिक्ष यात्री को नया दिगन्त मिलेगा या नहीं, यह भी कैसे कहें? यह इस्पाती अजरता-अमरता और यह अंतरिक्षीय-जीवन क्या एक बूंद आंसू के भार से कंपित तृण की सजलता दे सकेंगे? क्या आज दिशाहीन, घबराया, हारा-थका और विकल मानव, अपने लिए कोई नयी दुनिया ढूंढ़ पाएगा? यह तो समयाधीन है। इस युग की चल रही, इस अमानवीयकरण की प्रक्रिया में मनुष्य के संसार, उसके जीवन, उसके आदर्श, उसकी भावनाओं, उसके कोमल रिश्तों तथा नन्हें-नन्हें सुख-दुखों के लिए कोई स्थान नहीं है। वह अपना मालिक भी नहीं है। वह विराट् मशीन का पुर्जा मात्र है। उसके जीवन के साथ मशीन नहं चलती, पर मशीन के साथ उसका जीवन चलता है। ऐसे समय में छत्तीसगढ़ की आरण्यक-संस्कृति मानव को एक पल विश्राम लेने के लिए अपनी हरी-भरी वादियों में बुला रही है। यहां की उदारमानवता, सरल जीवन, धार्मिक सहिष्णुता, समावेशी चरित्र, मूल्यवादी दृष्टि और मानवीय संबंधों की सजलता आदि बातें इस जले-भुने वि को एक हरित-निकेत की ओर बुला रही हैं। अभी यह प्रदेश व्यापारिक दुनिया की होड़ा-होड़ी और सौदेबाजी से काफी दूर है। यहां के बनवासी अपने हरे-भरे वातावरण, सीमित आवश्यकता, क्षीण आर्थिक स्रोत और एक अंतहीन दुर्दान्त संघर्ष के बीच भी प्राण भरा और खुशनुमा जिन्दगी जीते हैं। सच उन्हें देखकर रहीम जी की वाणी याद हो आती है - |
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गोधन,
गजधन, बाजीधन और रतनधन खान। |
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- रहीम |
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छत्तीसगढ़ की शस्य-श्यामला धरती जन्त्रा-रुढ़-विश्व को हरियाली दे रही हैं। उसकी नदियां उसका गौरवगान कर रही है। उसके फूलों से सुवास लेकर बनमाली इस बासन्ती बहार में तनिक विश्राम के लिये सभी को बुला रहा है। लोगों की सहजता और उनकी सहृदयता सभी को सरल ढंग से अपना बना लेती है। संघर्षरत इस वि को छत्तीसगढ़ की संस्कृति अपने वनफूलों का एक गुलदस्ता उपहार के रुप में देती है। ""प्राकृतिक जीवन में लौट आने के लिए।'' अपनी परंपरा, जीवनधारा और मान्यताओं को सदा सुरक्षित रखने वाली यह धरती हमें केवल अतीत के रहस्यलोक में नहीं ले जाती है वरन् आज के जीवन की समस्याओं को सुलझाने के लिए एक समाधान भी देती है। समय के साथ जितनी सांस्कृतिक व धार्मिक धाराएं यहां आई वे सब इराकी जीवन-धारा के साथ मिलकर एकाकार हो गई है। इन्हें अलग कर पाना कठिन है। आज आतंकवाद और हिंसावाद के नाम पर न जाने मनुष्य के कितने गलत चेहरे दिखाई पड़ रहे हैं। संस्कृति और धर्म के नाम पर न जाने कितना, अनुचित व्यापार चल रहा है। ऐसे समय में छत्तीसगढ़ की धार्मिक-सहिष्णुता, सह-अस्तित्व, सामंजस्य पूर्ण जीवन, एक संतुलित-दृष्टि आदि बातें वि के लिए एक जीव स्वप्न है। यदि हमारा यह छोटा सा प्रयास छत्तीसगढ़ की इस प्रकृति या भूमिक को विश्व-समाज के सामने प्रस्तुत कर सका तो हमारा प्रयास सार्थक हो जायेगा। पर चिंता की बात यह है कि आज उस पर हर ओर से प्रहार हो रहा है। छत्तीसगढ़ की इस चेतना और विशेषता को हम किस प्रकार संरक्षित रख पायेंगे। और भविष्य में मानव जीवन के विरोधी तत्वों के खिलाफ एक प्रतिबल के रुप में खड़ा कर पायेंगे। यह हमें गम्भीरता से सोचना होगा और प्रयास करना होगा। यह आज की स्थितियों में असम्भव को सम्भव करना है। न जाने भविष्य के अंतर में हमारे लिए क्या संचित है? |
जन संपर्क विभाग : मध्य प्रदेश सरकार : संत कबीर और उनकी बाणी : पृष्ठ ११ |
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