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छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच सामान्य जन का मसीहा "कबीर' |
सामान्य
जन का मसीहा कबीर |
जनवाणी - उनकी जुबानी
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गांव - डुगडुगिआ, (कुनकुरी) जिला - जशपुर, गोरखदास महंत, पनिका (OBC ) |
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गांव - डुगडुगिया, (कुनकुरी) जिला - जशपुर, अजय कुजुर (उरांव - ST ) |
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ग्राम - देवगढ़, (सीतापुर), जिला-सरगुजा, राजेन्द्र पैकरा (कंवर ST ) |
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गुदुम देंवरी, मरवाही, जिला - बिलासपुर, उदय सिंह (गोंड़ - ST ) |
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अमेरी, अकबरी, (बिल्हा), जिला - बिलासपुर (छ.ग.), श्री समयदास निर्मलकर (धोबी OBC ) |
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(कबीर आश्रम) करैहा पारा (रतनपुर) जिला - बिलासपुर, रामभगत पटेल (मरार OBC ) |
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ग्राम - कनई कोन्द्रा, कु, मीना सिंह (गोंड़ - ST ), पी.एम.टी.अनु. जनजाति कन्या छात्रावास, जरहाभाठा, बिलासपुर |
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ग्राम-कोलबिर्रा, भगवतिया (गोंड़ - ST ), पी.एम.टी.अनु. जनजाति कन्या छात्रावास, जरहाभाठा, बिलासपुर |
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दुर्गापुर (धरमजयगढ़) जिला - रायगढ़, वीर सिंह राठिया (कंवर - ST ) |
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ग्राम-टिकारी, वि.खं. - मस्तूरी, विनोद कुमार टण्डन (कक्षा ८वीं) (सतनामी - SC ), अनु. जाति छात्रवास, जरहाभाठा, बिलासपुर |
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मैं कबीर पर कुछ लिखना चाह रही थी। दिल्ली विश्वविद्यालय के अपने अध्यापकीय लंबे जीवन में बारम्बार चाहकर भी कतिपय लेखों के अलावा और कुछ नहीं कर पायी थी। अवकाश के बाद छत्तीसगढ़ आने पर लोक जीवन में व्याप्त कबीरीय प्रभाव को अनुभव करते ही लगा शायद लोक-नायक कबीर के इसी रुप को मैं देखना चाह रही थी। |
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घाव
काहि पर घालौं, जित देखौं तित प्राण
हमारो। |
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- कबीर |
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हां कबीर के प्राणांश सर्वत्र बिखरे पड़े हैं। फिर कबीर किसी को कैसे दूर रखे? यह भेद-बुद्धि, यह दूरी, कबीर को सालती है। मन में एक हूक उठती है और कबीर रो पड़ता है। कबीरीय प्रभाव को देखने व अनुभव करने की इच्छा से मैंने आदिवासी बहुल क्षेत्रों में घूमना प्रारंभ किया। मन में एक आशंका भी थी कि हाथ कुछ आयेगा या नहीं। अपने को समझाती रही, जहां जन-जन में कबीर फैले हों वहां संशय सही नही हैं। आज मानस - पटल पर असंख्य चित्र उभर व मिट रहे हैं। सभी को पकड़ पाना संभव नहीं है, कुछ झाँकियां कबीरीय प्रभाव को दर्शाने के लिए "अलम्' होंगी - |
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बेलगहना
(कोटा) जिला - बिलासपुर |
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प्रश्न : क्या आप अपने गांव के सभी वर्गों के लोगों के लिए एक विशाल मंदिर में सम्स्त ईष्ट देवों की स्थापना चाहेंगी? या अलग-अलग मंदिर में। आप के मत से क्या ठीक है? उत्तर : मैं सभी से मिलकर रहना चाहती हूं। मेरा मन ही एक ऐसा स्थान है, जहां सभी भगवान और साथ में कबीरदास जैसे कवि एक साथ रहते हैं। फिर मंदिर क्यों? मेरे मन - मंदिर से बड़ा और कौन सा स्थान हो सकता है? मैं निरुत्तर। उस आत्म-दीप्त मुख को देखकर मैंने सिर झुका लिया। दिल्ली विश्वविद्यालय में लंबे अरसे तक कबीर पढ़ाती रहीं। इस अध्यापकीय जीवन की पढ़ाई हुई कबीर की कुछ पंक्तियां याद हो आयीं। |
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""मन
गोरख मन गोविन्दौ, मन ही औघड़
होई। |
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- कबीर |
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क्या कबीर पढ़ने व पढ़ाने वालों को भी कभी ऐसी आत्म-प्रतीति हुई है? पता नहीं। |
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बेलगहना
(कोटा) जिला - बिलासपुर |
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प्रश्न : आप कबीर जी को क्यो मानते हैं? उत्तर : कबीर को मैं इसलिये नहीं मानता कि वे मेरी रक्षा करें या मुझे धनवान बनाये। मैं इसलिए उनको मानता हूं कि उनकी वाणी से मैं प्रेरणा लेकर आज की अपनी समस्याओं को सुलझा सकूं। चुनौतियों का सामना कर सकूं। टिप्पणी - कबीर की वाणी केवल शिक्षा की वस्तु नहीं है, वरन् स्वाध्याय की वस्तु है। वह सभी प्रकार की सांसरिक उपयोगिताओं से परे व्यक्ति को उसके भीतर के शक्ति - स्रोत से जोड़ती है। उसका प्राणाशय बनकर प्रकट होती है। व्यक्ति को संकल्पवान व अविजित बनाती है। आज जब पैसा, बाजार व यंत्र - सत्ता के सामने मनुष्य अपने को असहाय पा रहा है, भैरवदास जी की यह आत्म-प्रतीति हमें आज के सूचनात्मक ज्ञान पर पुनर्विचार के लिये विवश करती है। |
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""कर्रूं
बहियां बल आपनी, छाँड़ विरानी
आस। |
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- कबीर |
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बिरगहनी
(कोटा), जिला - बिलासपुर |
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प्रश्न : आप पूछती हैं कि कबीर जी को मैं कितना मानता हूँ? कब से मानता हूं? और क्यों मानता हूं? उत्तर : क्या कहूं। पता नहीं क्यों मानता हूं? इतना ही कहूंगा कि मेरा मन उन्हें मानता है। गांव में कबीर पंथी भी हैं। चौरा भी है। स्कूल में बच्चे पढ़ते भी हैं। गांव में भजन गाये जाते हैं। मैं कबीर पंथी नहीं हूं। पर मैं सबसे ज्यादा कबीर को मानता हूं। कब से? नहीं जानता। क्यों? नहीं बता सकता। केवल इतना ही जानता हूं कि कबीर साहब के उपदेशों के कारण मैं कभी मंदिर नहीं जा सका। किसी देवता को फूल नहीं चढ़ा सका। प्रश्न : भला क्यों? ऐसा तो कबीर जी ने कहा नहीं है। उत्तर : कबीर साहेब कहते हैं - कण-कण में भगवान हैं। फूल में भी भगवान है। फिर मैं एक भगवान को दूसरे भगवान पर कैसे चढ़ा सकता हूं? मुझे लगा जैसे मैंने फिर से किसी ""एकलव्य'' को देख लिया हो। जहां गुरुद्रोण, माटी की मूर्ति, धनुर्विद्या एवं एकलव्य सभी एकाकार हैं - अद्वेैत हैं - ""एक मेवद्वितीयम्''। एकलव्य ने गुरुद्रोण से सबकुछ ले लिया पर गुरुद्रोण को पता नहीं चला। अर्जुन उनका प्रिय शिष्य देखता रहा - |
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""लाली
मेंरे लाल की, जित देखूं तित लाल। |
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- कबीर |
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बिरगहनी
(कोटा), जिला - बिलासपुर |
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मैं और मेरे कार्यकर्ता सभी मिलकर गांव वालों को एकत्रकर कबीर व कबीर-पंथ पर बात कर रहे थे। लोगों का प्रतिउत्तर अच्छा था। हम सब मग्न हो गये थे। देखा दूर कमरे से बाहर बरामदे पर एक व्यक्ति खड़ा है और उसके चेहरे पर एक शिकायत है। कुछ खीज भी है व तनाव भी। पता चला वह मानिकपुरी है, और हमारी परिचर्चा में एक भी मानिकपुरी नहीं है। मैं सतर्क हो गई। उसे बुलाया। वह आकर दरवाजे के बाहर खड़ा हो गया। भीतर बार-बार आग्रह के बावजूद नहीं आया। तब मुझे कहना पड़ा। मैं आपके गांव में आई हूं, आप मेरा स्वागत नहीं करेंगे? उत्तर था - आपने तो हमें काट दिया। बुलाया ही नहीं। फिर भला हम आपका स्वागत कैसे करेंगे? मैंने कहा - ""भैया मैं नई हूं। यहां पहली बार आई हूं। कुछ जानती नहीं। गलती होना स्वाभाविक है और लोग मन से आ गये। आपको भी उन्हीं की तरह मन से आ जाना चाहिये था। खैर अब बुला रही हूं। अब आ जाओ। भीतर आकर उसने प्रश्न किया - हम मानिकपुरी लोगों को छोड़कर आप कबीरदास पर कैसे कर सकती हैं? हम लोग कबीर - पंथी हैं। तथा कबीर साहेब के सबसे अधिक निकट हैं। हमें "पनिका' भी कहा जाता है - |
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पानी
से पनिका भये, बूंदों रचा शरीर। |
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उनकी मान्यता है कि पनिका का उद्भव पानी से हुआ है - उनका शरीर पानी से बना है। पनिका मार्ग का नेतृत्व करते हैं और संत कबीर उनका अनुशरण। प्राय: सर्वत्र सभी पनिका कबीर पंथी हैं। पनिका शब्द की उत्पत्ति (पानी + का) से हुआ है। किवदंती है कि जनमते ही उनकी मां ने कबीर को त्याग दिया था। मां ने एक पत्ते से कबीर को लपेटकर एक तालाब के पास छोड़ दिया था। बच्चे के रोने की आवाज सुनकर किसी और मां ने उठा लिया और उसने अपनी संतान की तरह उन्हें पाला - पोषा। क्योंकि वह शिशु पानी की सतह पर मिला था, जो आगे चलकर कबीर के नाम से प्रसिद्ध हुआ, इसलिए पनिका अपने को पनिका (पानी + का) कहने में गर्व का अनुभव करते हैं। "पनिका' अन्य प्रदेशों में भी मिलते हैं। जैसे - मण्डला, छोटा नागपुर, ओड़िसा आदि। पर छत्तीसगढ़ में अपनी संख्या व राजनीतिक प्रभाव की दृष्टि से यह समाज बहुत अधिक महत्व रखता है। इसलिए शायद बुद्धूदास मानिकपुरी को हमारी परिचर्चा असंगत लगी थी। |
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गांव
- डुगडुगिआ, (कुनकुरी) जिला -
जशपुर |
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परिचय : कबीर आश्रम के महंत हैं। महंत जी - यहां के लोग (उरांव, गोड़, कंवर) आदि सभी ने ईसाई धर्म को स्वीकार कर लिया है। पर अब भी वे कबीर को मानते हैं, और कबीर - पंथ को आदर की दृष्टि से देखते हैं। आश्रम के सभी कार्यक्रमों में उल्लास के साथ भाग लेते हैं। फादर ने भी मेरे सहयोगियों को यही कहा। यहां के आदिवासी ईसाई धर्म आपना लेने के बाद भी कबीर जी को मानते हैं। कबीर के इस अप्रतिम प्रभाव को देखकर मैं फिर से एक बार गुनगुना उठती हूं - |
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""जित् देखो तित प्राण हमारो।'' |
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गांव
- डुगडुगिया, (कुनकुरी) जिला -
जशपुर |
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प्रश्न : आप कबीर जी को मानते हैं? उत्तर : कबीर जी जैसे संत पुरुष को कौन नहीं मानता? वे सभी के हैं। किसी खास वर्ग के नहीं हैं। उन्होंने सभी के लिए कल्याणकारी बात कही है। कबीर के निरपख भगवान व अविशेष-मानव का इससे अच्छा और क्या उदाहरण हो सकता है - |
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""एक
समाना सकल में, सकल समाना
ताहि। |
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- कबीर |
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ग्राम
- देवगढ़, (सीतापुर), जिला-सरगुजा |
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कबीरीय प्रभाव जानने के लिए प्रश्नावली भरी जा रही है। साथ ही परिचर्चा भी चल रही है। सभी इस बात पर एक मत हैं कि कबीरदास जी ने मानव मात्र के लिए कहा, किसी एक धर्म या जाति के लिए नहीं। समाज के विभिन्न वर्णों के अपने देवी-देवता, पर्व, त्यौहार, रीति-रिवाज आदि हैं पर सभी मिलकर सामाजिक जीवन के समस्त अनुष्ठानों को पूरा करते हैं। राजेन्द्र पैंकरा ने टोका। कहा - देव तो सभी एक हैं। अलग कहां? केबल नाम अलग हैं। उपासना का मार्ग भिन्न है। सभी को उसी एक बिन्दु पर पहुंचना है। कबीर जी हम सबों को यही सिखाया है। |
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जाति
हमारी आत्मा, प्रान हमारा नाम। |
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- कबीर |
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राम
रहीम एक हैं, नाम धराय दोय। |
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- कबीर |
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गुदुम
देंवरी, मरवाही, जिला -
बिलासपुर, |
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प्रश्न : क्या सत्य पुरुष एवं सत्यनारायण एक हैं? उत्तर : हां, दोनों एक हैं। प्रश्न : आप दोनों की पूजा करते हैं? उत्तर : हां। प्रश्न : फिर अलग-अलग पूजा क्यों करते हैं? उत्तर : यह तो सामाजिक रीत है। उनकी पूजा तो हमारे दिल में होती है। वहां वे अलग कहां? इसलिये हम सब गांव वाले मिलकर सभी पूजा और त्यौहार साथ-साथ मनाते हैं। |
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दिल में खोजि, दिलही मां खोजो, इहै करीमा रामा। |
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- कबीर |
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अमेरी,
अकबरी, (बिल्हा), जिला - बिलासपुर
(छ.ग.) |
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प्रश्न : निर्मलकर जी आप तो दीक्षित कबीर पंथी हैं। फिर आप सभी देवी-देवताओं की पूजा अर्चना क्यों करते हैं? उपवास, ब्रत का भी पालन करते हैं किसलिए? निर्मलकर जी गंभीर हो गये। आत्मलीन भाव से मानो, अपने आप सेकह रहे हों - बोले उत्तर : हम समाज में एक दूसरे से मिलते हैं तो बन्दगी व नमस्कार आदि करते हैं। मैं पूछता हूं क्या ये देवोपम व्यक्ति हमसे कम हैं? जब हम उनसे भेंट करते हैं, तब यदि प्रणाम कर लेते हैं, तो उसमें गलती क्या है? मुझे बड़ा अच्छा लगता है। मैं कण्ठीधारी कबीर पंथी हूं। पर मुझे सभी को मानने और वन्दना करने में कोई दिक्कत नहीं जाती वरन् खुशी होती है। और निर्मलकर जी मेरी ओर देखने लगे। मैं बस चुपचाप उनके उस प्रसन्न चेहरे को देख रही थी। पता नहीं क्या पढ़ना चाह रही थी। |
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१. |
क्या यह कबीर के मानववाद, उदार चेतना, धार्मिक सहिष्णुता तथा निरपख भगवान आदि का प्रभाव है? |
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२. |
क्या निर्मलकर जी कबीर के अविशेष-विशेष मानव हैं? या यह शंकराचार्य के अद्वेैत दर्शन का प्रभाव है? |
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३. |
अथवा
आरण्यक संस्कृति के इस कथन - का
कि |
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की उच्छ्ल अभिव्यक्ति है। शायद जीव के इसी मनोमुग्धकारी रुप पर ही कबीर की प्रशंसा भरी वाणी फूल पड़ी थी। |
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आपुहि
देव आपु है पाँती, आपुहि कुल आपू
है जाति। |
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- कबीर |
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बक्साही,
जिला - कोरबा |
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हमारे बच्चे स्कूल में कबीर वाणी पढ़ते हैं। उनसे घर में कबीर-वाणी सुनना अच्छा लगता है। जो कबीर पंथी नहीं है, वे भी कबीर को मानते हैं। कबीर भू बूढ़े देवता व ठाकुर देवता की तरह गांव की रक्षा करते हैं। अत: ग्राम देवता के पास हम कबीर चौरा चाहते हैं। यह अच्छा होगा यदि ठाकुर देव कबीर एवं घासीदास के उपदेशों को एक ही पुस्तक में प्रकाशित करें। क्योंकि बच्चे पढ़ेंगे तो उनमें प्रेमभाव बढ़ेगा। जिससे गांव की उन्नति होगी। टिप्पणी- इस उत्तरदाता ने प्रेम को गांव की उन्नति के लिए आधारभूत तत्व माना है। अत: ग्रामोन्नति का मार्ग प्रेम से होकर जाता है। |
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हमन
हैं इश्क मस्ताना, हमन को
होशियारी क्या। |
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- कबीर |
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(कबीर
आश्रम) करैहा पारा (रतनपुर) जिला -
बिलासपुर, |
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सत्य प्राचीन हो या आधुनिक समाज को उसका सम्मान करना पड़ता है। अन्यथा समाज नष्ट हो जाये तो कोई हानि नहीं। सत्य ही हमारे सारे प्राणियों और समाज का मूल आधार है। अत: सत्य कभी भी समाज के अनुसार अपना गठन नहीं करेगा। कबीर दास जी ने इसी सत्य पर ही बल दिया है। एक सत्यनिष्ठ इंसान बनने की बात उन्होंने सदा कही है। संसार के झूठ, ढोंग, कृत्रिमता, प्रपंच आदि सबसे कबीर का उग्र विरोध था। प्रेम, उदारता करुणा आदि में कबीर हरी दूब की तरह शबनमी दिखते हैं पर झूठ पाखंड आदि के सामने कबीर रुद्र प्रखर और उग्र हो उठते हैं। और कबीर दास जी यह मानते हैं कि संसार की समस्त विडम्बनाओं का कारण यही, असत्य, नकलीपन, झूठ आदि तत्व हैं। इसलिये वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि यदि सत्य को आधार बनाया जाये तो संसार की बिडम्बनाओं का अंत हो जायेगा - |
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साँचे
श्राप न लागै, साँचे कालन खाय। |
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- कबीर |
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ग्राम -
कनई कोन्द्रा, कु, मीना सिंह (गोंड़ - ST ) |
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""गांधी कबीर के राम को और कबीर के बताए मार्ग को अपना कर ही महान कार्य कर गए।'' लोक-नायक गांधी का जन व्यक्तित्व बरबस ही प्रबुद्ध मनीषा को कबीर की याद दिला देता है। भारत के विशाल साहित्य में से गांधी ने केवल कबीर के राम को चुना। अत: लोगों के मन में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि गांधी जी जैसे व्यक्ति ने ऐसा क्यो किया? कबीर का जन व्यक्तित्व, समान्य जन में आत्म संस्थापना, दलितों में जागृति, वि मानवता के मंदिर में सामान्य जन की स्थापना, उत्पीड़ित मानवता के प्रवक्ता के रुप में अपनी वाणी का उपयोग करना, और जन के लिए जीना, जन के लिए मरना, जन के लिए सब कुछ करना। आदि वे बातें है जो कबीर को पीड़ित मानवता के उद्धारक और मसीहा के रुप में स्थापित करती हैं। इस जननायक को गांधी का अपना लेना स्वाभाविक है। किसी आदिवासी लड़की का गांधी और कबीर की समानता को पहचानना एक सुखद अनुभव है। क्या आनेवाला समय भी इसे पहचानेगा? |
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ग्राम -
कोलबिर्रा, भगवतिया (गोंड़ - ST ), |
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गांधी कबीर के पथ पर चलकर महान कार्य कर गये। कबीर गांधी, गुरुघासीदास और प्रकाशमुनि नाम साहेब सभी मेरे आदर्श हैं। सभी आदिवासी उनके बताए मार्ग पर चलती हैं। कु. भगवतिया ने भी कु. मीना सिंह के मत की पुष्टि की है। गांधी का जीवन और दर्शन, राजनीतिक दृष्टिकोण और कार्य पद्धति सभी कुछ कबीरीय है। इन दोनों लड़कियों का मेरी तरह सोचना मुझे अच्छा लगा। उपरोक्त चारों महान विभूतियां भगवतिया के आदर्श हैं, और होना भी चाहिए। क्योंकि सभी जन नायक हैं। जन प्रतिनिधि हैं। जन सेवक हैं। तथा लोक कल्याण उनका लक्ष्य है। ऐसे जनपदीय व्यक्तित्व को जनता से सम्मान मिलना स्वाभाविक है। सभी आदिवासी जातियां इनके मार्ग पर चलती हैं। यह कथन काफी सान्तवना देने वाला है। पारस्परिक आदान-प्रदान को नाप जोख या विश्लेषण कर लेना संभव नहीं है। क्योंकि यह पारस्परिक मिलन और उन्मीलन संवेदना और चेतना के स्तर पर होता है। ये अमूर्त वस्तुएं होती है। इनका केवल एहसास तो हो सकता है, लेकिन व्याख्या नहीं। हां, किसी आदिवासी लड़की से यह सुनना अच्छा लगता है कि सभी आदिवासी जातियां कबीर के बताए मार्ग पर चल रही हैं। |
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तुम हो
कौन और मैं क्या हूं? |
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धरमजयगढ़,
जिला - रायगढ़ (छ.ग.) |
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""यदि कबीर हिन्दुओं का सद्गुरु है, तो मुसलमानों का पीर। कबीर को सभी मानते हैं। क्योंकि कबीर महान संतपुरुष थे। उन्होंने अपने युग में जाति-पांति के भेद को मिटाया था। इस संत पुरुष की वाणी का प्रचार होना चाहिए तथा जन-जन तक पहुंचना चाहिए।'' श्याम पटेल ने ठीक कहा है। कबीर हिन्दू और मुसलमान दोनों के पथ-प्रदर्शक थे। दोनों उनको श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे। कबीर दोनों को सन्मार्ग पर लाना चाहते थे, तथा गलत कामों से हटाना चाहते थे। धर्म का और मानवता का सही रुप दिखाकर उन्हें एक सच्चा इंसान बनाना चाहते थे। कबीर का राम न तो एक है और न तो दो। न अरुप और न रुप। न तो धरती वासी है और न आकाशवासी। न मंदिर में है, न तो मस्जिद में। वह तो - |
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पाँणी
ही तौं पातला धुंवां ही तै झीण। |
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- कबीर |
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अत: कबीर हिन्दु भी है और मुसलमान भी है। वहीं संसार में जितने भी मत-मतान्तर हैं वे सभी कबीर में हैं, और कबीर उनमें हैं। कबीर की चेतना के आकाश में सब कुछ हवा की लहर की तरह समा जातें हैं। और महाकाश के नील अंतर में खो जाते हैं। अत: श्याम पटेल का कथन ""सभी उनके हैं, वे सभी के हैं। सभी उन पर श्रद्धा रखते हैं और वे सभी पर प्यार'' सच है तथा अनुमेय है। |
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दुर्गापुर
(धरमजयगढ़) जिला - रायगढ़ |
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""मैं सभी धर्मों का समन्वयात्मक रुप देख सकूं और सभी धर्मों और जाति के लोग आपस में समानता व प्रेमपूर्ण व्यवहार करें, यहीं मैं चाहता हूं।'' वीर सिंह राठिया ने कबीर के दो प्रमुख सिद्धांतों को, जिन्होंने इतिहास के पन्ने उलट दिये थे, बड़े सहज रुप से हमारे सामने प्रस्तुत किया है। |
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१. |
समानता और समन्वय |
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२. |
प्रेम और मानवता |
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कबीर की विचारणा के ये आधारभूत सिद्धांत हैं। सामाजिक, धार्मिक, ऐतिहासिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि सभी क्षेत्रों में कबीर ने इन दो सिद्धांतों को लागू किया था। कोई भी युग और कोई भी समाज इन दो सिद्धांतों छोड़कर किसी स्वस्थ समाज एवं किसी स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सक सकता। इन सिद्धांतों की आवश्यकता कबीर के जमाने में जितनी थी आज उससे कहीं अधिक है और कल इससे भी ज्यादा रहेगा। मध्ययुग में कबीर ने कहा। आधुनिक युग में गांधी ने और आगे आने वाले युगों में कोई और कहेगा, कबीर पुनर्नवा होकर आयेगा। अकबर के "दीन-ए-इलाही' का यह केन्द्रीय अभिप्राय था। दाराशिकोह के ""मंजूल-ए-बहेरीन'' का वह सपना था। गांधी का यह युगान्तकारी दर्शन था। आगे उसका नवीन रुप क्या होगा? यह तो समय ही बताएगा। पर जो कुछ होगा, उसकी चेतना कबीरीय होगी। |
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हम
सब माहिं, सकल माहिं, हम हैं और
दूसर नाहिं। |
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- कबीर |
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ग्राम-टिकारी,
वि.खं. - मस्तूरी |
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विनोद के अनुसार "प्रेम' सबसे बड़ा तत्व है, जिससे दीन और दुनिया, भगवान और मानव दोनों ही सध जाते हैं। सचराचर जगत प्रेम के अधीन होता है। प्रभु भी प्रेम से मिल जाते हैं। प्रेम से ज्ञान की प्राप्ति भी हो जाती है। प्रभु केवल प्रेम चाहते हैं, कर्मकांड नहीं। विनोद का मत है कि दुनिया की सबसे बड़ी पूजा प्रेम भावना है। अत: ईश्वर को कहीं भी रखें और कैसे भी रखें, कोई फर्क नहीं पड़ता। केवल हृदय में प्रेम होना चाहिए। अत: ग्राम देवता, गुरुघासीदास जी, कबीर जी आदि तीनों को एक साथ मंदिर में रखने व पूजा करने में कोई आपत्ति नहीं है। कबीर ने प्रेम को सर्वोपरि महत्व दिया है। आज इस प्रेम तत्व की संसार में कमी है। विज्ञान ने मनुष्य को राग के स्तर पर सारी दुनिया से काट दिया। और मशीन ने उसे जड़ बना दिया है। ऐसे समय में २१वीं सदी के बालक के मुख से कबीर के प्रेम तत्व की चर्चा आश्वस्त करती है और भविष्य के लिए आशा जगाती है। आज के सूचनात्मक ज्ञान एवं लिखित सभ्यता के लिए कबीर के शब्दों में हम कहना चाहेंगे। |
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""पढि-पढि
के पाथर भया, लिख-लिख भया जू
ईंट। |
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- कबीर |
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विनोद ने किसी अज्ञात कवि की बात दुहराई है - |
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""अर्थ है
कबीर का प्रेम की उपासना। |
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निष्कर्ष |
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विवेचित प्रसंगों से जन-मानस पर कबीर का प्रभाव स्पष्ट हो जाता है। इतिहास के एक विशेष काल खंड में संतों का ऐसा प्रादुर्भाव स्वत: अपनी कथा कहता है। ऐसी बातें समय की मांग व युगजीवन की परिणति हुआ करती हैं। और इनका आधार जन-शक्ति होती है। इस जन-शक्ति के द्वारा इन लोगों ने इतिहास को एक नई दृष्टि दी थी। यह प्रभाव लिखित रुप में सामने आने से पहले अलिखित रुप में युग - धर्म बनकर पहले ही जन-जन में फैल गया था। ऐसी बातें मिटती नहीं हैं वरन् कालान्तर में दब जाती हैं। और समय आने पर फिर से अँकुआ उठती हैं। कोई घटना धूल की पर्तों को हटा देती है और वह अवदात्त आनन दीपालोक में दमक उठता है। कबीर का छत्तीसगढ़ में आगमन ऐसी ही अभूतपूर्व घटना थी। संपूर्ण भारत में व्याप्त उनका युगान्तकारी प्रभाव पूँजीभूत होकर यहां चला आया था, क्योंकि छत्तीसगढ़ की परिस्थितियां उसका आह्मवान कर रही थीं। और उसके कारण एक नई जागृति फैल गई थी। इस अध्ययन के दौरान इस सत्य की अनुभूति बारम्बार होती रही है। समाज का हर वर्ग आज भी उससे प्रभावित है। परिस्थितियों के कारण अन्य धर्म अपना लेने के बाद भी जन-मानस पर कबीरीय प्रभाव मिटा नहीं है। यह इस कामगर जन - नेता की अभूतपूर्व ऐतिहासिक भूमिका के कारण है। |
प्रसाद, जयशंकर : लहर : भारती भंडार लीडर प्रेस : इलाहाबाद : संवत २०२६ वि. : पृष्ठ १० |
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२. |
दास, धर्मेन्द्र : कबीर के ज्वलंत रुप : पृष्ठ : १३८ |
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