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छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच सामान्य जन का मसीहा "कबीर' |
जन्त्रारुढ़ वि का जीवन गीत |
कबीरीय संगीत
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छत्तीसगढ़ी
बोली में कबीर का भावसाम्य गीत |
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१. |
हम तोरे
संगवारी कबीरा हो.....
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टिप्पणी - |
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इस प्रार्थना में कबीर साहेब से संसार के बदलते रुपों की बात कही गई है यह मूल्यहीन, भोगवादी युग और अर्थवादी युग है। अत: यहां जीवन-मूल्य, भक्ति, सत्य-निष्ठा और नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं है। आज लोग कबीर के उपदेशों को भुला चुके हैं। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में केवल कबीर की कृपा ही उद्धार कर सकती है। |
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२. |
मोर मन
बस गे साहेब कबीर एक दिन
साहेब बैन बजायिस कौन गाढ़े,
कौन अंगिहन जलावे जगन्नाथ के
मंदिर के थापे
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टिप्पणी - |
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इस गीत में कबीर दास की वंदना है। उनके दैवी व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला गया है। संसार के कल्याण के लिए उनका आह्मवान किया गया है। और अपने लिए उनकी अनुकंपा मांगी गई है। |
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३. |
ये दुनियाँ
हे तोरेच खेती, ऊँचहा सरग
मचान गा।
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टिप्पणी - |
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कवि ने इसमें एक किसान के रुप में भक्ति की केती करने की बात कही है। इस ज्ञान की खेती से यह विश्व-जीवन तत्व-चिंतन की फसल पाता है। कवि यह कहना चाहता है कि कबीर दास जी ने ज्ञान का पथ इसलिए अपनाया था, क्योंकि तत्कालीन परिस्थितियों में यही एक मात्र रास्ता था जो संघर्षरत् उस युग को संभाल सकता था। यद्यपि कबीर दास जी ने सबसे अधिक प्रेम पर बल दिया, भावना पर बल दिया, पर परिस्थितियों ने उन्हें ज्ञान मार्ग का प्रवर्तक बना दिया। |
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४. |
नर तन ला
पाकें संगी, करथस गा उदीयान।
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टिप्पणी - |
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इसमें कवि ने कबीर दास जी के जीवन दर्शन को उतारा है। कबीर ने सबसे अधिक बल सत्यनिष्ठता पर दिया है। वे चिन्तन, कर्मव्यवहार, संबंध और जीवन रुप सभी में सच्चाई चाहते थे। आडम्बर, दोगला रुप के प्रति कबीर प्रचंड हो उठते थे। कर्म काण्ड के वे सख्त खिलाफ थे। सदाचारी, नैतिक, सत्यनिष्ठ-जीवन, दया, प्रेम, अहिंसा आदि जीव मात्र के प्रति भाव यही कबीर के संदेशों का आदि और अंत है। उस महान आत्मा ने कभी किसी को न तो विनाश की छूट दी और ना ही जीवन विरोधी तत्वों को कभी भी माफ किया। सादगीपूर्ण जीवन और आडम्बर से रहित जीवन कबीर को अभीष्ट था। इन सारी बातों के केन्द्र में कबीर दास ने अपने जन या आम-आदमी को रखा था। किसी भी जीच को स्वीकार या नकारने के लिये कबीर के पास केवल एक ही कसौटी थी। कमजोर वर्ग का हित या अहित? |
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५. |
चोला
रोवत हे राम बिन देखे परान। चार पैसा
के साबून लेले मल-मल धो के
काया।
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टिप्पणी - |
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मन ना
रंगाये, रंगाये जोगी कपड़ा। |
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६. |
का राखे हे
तन मां गा भैया
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टिप्पणी - |
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इसमें जीवन की निस्सारता क्षण भंगुरता और संबंधों की अर्थहीनता आदि बातों को दर्शाय गया है। साधक, को सतर्क किया गया है कि जिन दुनियादारी की चीजों में वह अनमोल जीवन को व्यर्थ गंवाता है, वे चीजें उसके साथ बहुत दूर तक नहीं चलेंगी। सारे संबेधों के पीछे स्वार्थ होता है। अत: यह अनमोल मानव जीवन सदा के लिए खत्म होने से पहले उसका सार्थक उपयोग कर ले। और इसी मानव योनी में ही आवागमन के बंधन से मुक्त हो जाय। |
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७. |
जिनगी हा
मया के संगवारी
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टिप्पणी - |
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प्रेम स्वर्ग
है, स्वर्ग प्रेम है |
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८. |
धरले रे
कुदारी गा किसान, आज डिपरा ल
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टिप्पणी - |
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एक समानता मूलक समाज की कल्पना है। गांव की उन्नति के लिए सभी वर्गों का समान रुप से विकसित होना जरुरी है। सभी का सहयोग परम आवश्यक है। बिना सतर्क प्रयास से ग्राम का विकास नहीं हो सकता। बिना ग्राम-विकास के व्यक्ति का विकास नहीं हो सकता। अत: सामूहिक विकास से ग्राम का सर्वांगीण विकास होना चाहिए। |
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९. |
मानुष के
रुप धरिके खावत हावस मास ला
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टिप्पणी - |
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लोक कवि ने संसार के मिथ्याचर का संकेत करते हुए कबीर की शरण में जाने का उपदेश दिया है। सच्चे पारखी सही और गलत का निर्णय करते हुए अपने लिए रास्ता चुनते हैं। और वे सत्यनिष्ठ, सत्यानुवेशी और सत्यव्रती कबीर की आराधना में अपना जीवन बितातें हैं। जो भ्रमित होते हैं, वे दूसरे की शरण में जाकर केवल अपना ही नाश करते हैं। जाका गुर
भी अंधला, चेला, खरा निरंध। |
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- कबीर |
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१०. |
मोरा
हीरा हिराय गयो कचरा मा
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टिप्पणी |
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इस गीत में लोक कवि ने दुनियां के बाह्याचारों की ओर हमारा ध्यान खींचा है और इनके जाल में फंस कर किस प्रकार व्यक्ति का आत्मधन को जाता है और वह पछताता ही रहता है, इसका स्पष्ट रुप से उल्लेख किया है। इसलिए कबीर की शरण में जाना चाहिए और संसार के भंवर से अपने को बचा लेना चाहिए। माया दीपक
नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवै पड़त। |
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- कबीर |
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१. |
संकलन : यादव, राजेन्द्र कुमार : छत्तीसगढ़ी लोकगीत : पृष्ठ : १ |
२. |
गबेल, श्रीमति सरोजनी : सुरति योग त्रैमासिक पत्रिका : रायपुर : मार्च २००१ |
३. |
संकलन : दास, मनोहर : भजन मुक्तावली : वही पृष्ठ : ९२ |
४. |
संकलन : दास, मनोहर : भजन मुक्तावली : वही पृष्ठ : ९३ |
५. |
तिवारी, श्रीमति भारती : छत्तीसगढ़ी लोकगीतों की परंपरा-वैविध्य के संदर्भ में गौरा-गीतों का सांस्कृतिक अनुशीलन : अप्रकाशित ग्रंथ : पृष्ठ : १७४ |
६. |
संकलन : यादव, राजेन्द्र कुमार : छत्तीसगढ़ी लोकगीत : पृष्ठ : ९ |
७. |
संकलन : यादव, राजेन्द्र कुमार : छत्तीसगढ़ी लोकगीत : पृष्ठ : ११ |
८. |
संकलन : यादव, राजेन्द्र कुमार : छत्तीसगढ़ी लोकगीत : पृष्ठ : १३ |
९. | संकलन : दास, मनोहर : भजन मुक्तावली : वही पृष्ठ : ९४ |
१०. |
संकलन : दास, मनोहर : भजन मुक्तावली : वही पृष्ठ : १०० |
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