मगध |
मगध क्षेत्र की धार्मिक परंपराएं पूनम मिश्र |
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मगध में अनेक धार्मिक परंपराएं उत्पन्न हुई और विभिन्न कालखंड़ों में उनका विकास हुआ। यहां का लोक जीवन इन स्थानीय परंपराओं से प्रभावित हुआ। साथ ही अन्य स्थानों में उपजी और विकसित हुई परंपराओं का भी अनुगमन मगधवासियों ने किया। इसी कारण से मगध क्षेत्र बहुपरंपरा प्रेमी हैं। सुधारवादी प्रभावों को आत्मसात करते हुए समाज का अधिकांश एक पहचान के साथ जीवन व्यतीत कर रहा है तो कुछ परविरों में विभिन्न परंपराओं की स्वतंत्र पहचान भी बनी हुई है। आबादी का बड़ा भाग हिन्दुओं का है जिसे मिश्रित जीवनशैली वाला आधुनिक सनातनी समाज कहना अप्रासांगिक नहीं होगा। प्रमुख परंपराओं का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है। वैष्णव सनातनी भगवान विष्णु एवं उनके विविध अवतारी रुपों की अराधना करने वाले वैष्णव कहे जाते हैं। बारह अवतारों में राम एवं कृष्ण के अतिरिक्त महावराह, कूर्म, परशुराम एवं बुद्ध के प्रति विशेष आस्था यहां की लोक परंपरा है। इन बारह अवतारों के अतिरिक्त कई स्थानीय अवतारी रुप भी स्वीकृति हैं। जिनमें जीमूत (जीउत), कर्मा (कर्म भगवान) चतुर्दशभुवनव्यापी अनंत एवं सत्य नारायण के बिला लोक-जीवन अधूरा है। वैष्णव धर्म में मुक्ति के चार उपायों में एक उपाय यह सुझाया गया है कि पितरों का श्राद्ध कर्म संस्कार सम्पन्न किया जाए। इसका मुख्य केन्द्र मगध धरती गया ही है। यहां विष्णुपद मंदिर है जो फल्गु तट पर स्थित है। यहां भाद्रपद की पूर्णिमा के उपरान्त अश्विन कृष्ण प्रतिपदा से प्रारम्भ होकर अमावस्या तक के कुल पन्द्रह दिनों की अवधि में वि प्रसिद्ध मेला का आयोजन किया जाता है, जिसे "पितृपक्ष' के नाम से जाना जाता है। प्रतिवर्ष इस मेले के दौरान भारत के ही नहीं बल्कि वि के विभिन्न देशों यथा वर्मा, मारीशस, श्रीलंका, भूटान, नेपाल, पाकिस्तान, फिजी, बांग्लादेश, गुयाना तता सूरीनाम आदि देशों से अपने पूर्वजों पर श्रद्धा रखने वाले वैष्णव धर्मावलम्बी पितृ ॠण से मुक्त होने के लिए लाखों की संख्या में गया आते हैं तथा अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान, तपंण और श्राद्ध कर्म करते हैं। पिंडदान का प्रारंभ पटना जिला स्थित पुनपुन घाट में पूजापाठ से होता है। तत्पश्चात् गया जी धाम आया जाता है। पुनपुन को गया क्षेत्र का द्वार कहा जाता है। वैष्णव धर्मावलम्बियों का एक प्राचीन मंदिर गया जिला स्थित कोंच गांव में हैं जो क्रौंच मंदिर से प्रसिद्ध है। इसमें से विष्णु को हटाकर शिवलिंग की स्थापना कर दी गई है और आमजन उसे बुढ़वा महादेव के नाम से जानते हैं। विद्वान लोग क्रौंच गांव को वैष्णवों का प्रमुख गढ़ मानते हैं। उनके अनुसार यदि कोंच गांव की खुदाई हो तो वैष्णवों का गढ़ होने का बहुत सारा प्रमाण मिलेगा। शिव को परमेश्वर मानने वालों को शैव और उनके धर्म को शैव मत कहा जाता है। शिव का अर्थ है शुभया कल्याण। ऐसे शिव का अलग-अलग महत्व और नाम है मगर इस मगध क्षेत्र में शिव भयंकर होते हुए भी कल्याणकारी हैं। इस क्षेत्र में शैव मत मानने वालों के प्रमुख केन्द्र या मंदिर निम्नलिखित हैं - वाणेश्वर मन्दिर (बराबर पहाड़), पिता महेश्वर (गया), च्यवनाश्रम (देवकुण्ड), भृगुरारी (भेंड़ाड़ी), मधुश्रवा (मेंहदिया), शिव मंदिर (कोंच) बाणेश्वर मंदिर, बराबर शैव और वैष्णव समन्वय का प्रतीक है। वाणासुर और कृष्ण के बीच युद्ध की कथी इसी बराबर पहाड़ से सम्बन्धित है जो युद्ध रक्त संबंध में बदलकर शैव वैष्णव समन्वय का प्रमुख केन्द्र बन गया। मगध क्षेत्र में प्राय: सभी प्रकार के शिवलिंग पाये जाते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि शैव साधना की विभिन्न धाराओं का प्रभाव इस क्षेत्र में रहा है। शक्ति की उपासना करने वालों को शाक्त और उनके मत को शाक्त मत कहा जाता है। इस मत में विविध देवियों की पूजा की जाती है। शक्ति को ही मंगलागौरी, कौलेश्वरी, तारा, थगला, कामाख्या, काली, दुर्गा, संतोषी, आनन्द भैरवी, महा भैरवी, त्रिपुरसुन्दरी ललिता आदि नामों से पुकारा जाता है। शक्ति की उपासना प्राय: तीन पद्दतियों से होती है। (क) सामान्य
शिष्ट पद्धति, जिसमें अहिंसात्मक
ढंग से अन्य देवों की तरह ही
शक्ति की पूजा होती है। मगध क्षेत्र में शाक्त मत के प्रमुख केन्द्र मंगलागौरी, कौलेश्वरी, तारादेवी मंदिर (केसपा) तारादेवी (मदनपुर, उमगा पहाड़) बगला स्थान (गया) तथा कामाख्या मन्दिर (गया) है। इस क्षेत्र में यक्ष-यक्षिणियों को भी पूजने की प्रथा है। खासकर यक्षिणियां इधर देवियों के रुप में परिवर्तित हैं। लोग उन्हें देवियों के रुप में पूजते हैं, मगर वास्तव में वे यक्षणियां है। यक्षिणी के नाम पर इस मगध क्षेत्र में कई गांव देखने को मिल जाते हैं। औरंगाबाद जिले के शमशेर नगर ग्राम के बड़े तालाब में यक्ष पूजा करने की परम्परा थी जो अब लुप्त हो गयी। "कुल' शब्द शक्ति का वाचक है और "अकुल' शिव का तथा कुल और अकुल का सम्बन्ध स्थापित करने वाला मार्ग है। "सौभाग्य-भाष्कर' में कहा गया है -
यहां कौलयत के लोग हैं। कौल मत वाले लोग वामाचारी होते हैं। बाद में कौल और कापालिक बहुत करीब आ गये थे। इस क्षेत्र में कौल मार्ग की तीर्थस्थली कौलेश्वरी है जो गया जिले की दक्षिणी सीमा से सटे चतरा जिले में है। इस इलाके में मग ब्राह्मण अपने को सूर्य के वंशज मानते हैं और दावा करते हैं कि भारतवर्ष में सूर्य पूजा का प्रारम्भ इन्हीं लोगों ने कराया। अनेक गांवों में मग ब्राह्मणों के यहां सूर्य ही विविध रुपों में कुल देवता होते हैं और उन्हीं की पूजा होती है। इनके अतिरिक्त भी पर्वों पर पूरी जनता अत्यंत श्रृद्धा भाव से छठ व्रत करती है। मगध का यह मुख्य पर्व है। मगध के ये ब्राह्मण द्वादश आतित्यों की अवधारणा में विश्वास करते हैं। मग ब्राह्मण अपने को बाहर से शाकद्वीपीय ब्राह्मण कहते हैं। इसका प्रमुख केन्द्र या तीर्थ स्थल सूर्य मन्दिर (देव) है। कुछ अन्य केन्द्र भी हैं - जैसे ओलार, पांडारिक (नालन्दा) देव (औरंगाबाद) स्थित सूर्य मंदिर और तालाब का महत्व काफी है। कार्तिक एवं चैत शुक्ल षष्ठी को यहां सूर्य को अध्र्य देते हैं जिसे लोकभाष में "छठ' कहते हैं। "बिहारे प्रसिद्धम सूर्यषष्ठी व्रतम' की उक्ति इसी से सम्बन्धित है. देव मंदिर का पुरातात्विक दृष्टि से भी काफी महत्व है। यहां दूर-दूर से "छठ करने श्रद्धालु आते हैं। विभिन्न शहरी क्षेत्र में जैन मंदिर एवं उनके अनुयायी पाये जाते हैं। श्वेताम्बर व दिगंबर दोनों संप्रदाय के लोग मगध क्षेत्र में है। आचार्य तुलसी का बहुत बड़ा केन्द्र वीरायतन (राजगृह) में है। तीर्थ के रुप में राजगृह का वीरायतन क्षेत्र एवं पहाड़ियों पर बने अनेक मंदिर हैं। पावापुरी में महावीर का निर्वाण स्थली है। भेरवादी हीनयानी हीनयानी लोग पालि त्रिपिटक में आस्था रखते हैं। इन्हें ये भेरवादी भी कहते हैं। अभी कुछ नये मतावलम्बी लोग इस परम्परा में हो रहे हैं। लेकिन इसके पहले से यहां कही भई हीनयानी नहीं पाये जाते हैं। मगध क्षेत्र में भेरवादी हीनयान का प्रमुख केन्द्र मुख्य मंदिर (बोधगया) तथा लंका, वर्मा, कम्बोड़िया एवं थाइलैण्ड के बोधगया स्थित विहार हैं। महायान के लोग परोपकार करना अपनी साधना का अनिवार्य अंग मानते हैं। व्यक्तिगत कल्याण की तुलना में सामाजिक कल्याण को श्रेष्ठ मानने के कारण ये अपने मार्ग को महान मानते हैं। महायान परम्परा में देवी-देवताओं की पूजा होती है। मगध क्षेत्र में आज भी तारा, एक जटा, अंधारी, यक्षिणी आदि की पूजा की जाती है। लेकिन अपने को बौद्ध कहकर यह पूजा नहीं होती है। मगध क्षेत्र में इनका प्रमुख केन्द्र बोधगया तथा गृद्धकुट पर्वत (राजगीर) है। आज की तारीख में कोई अपने को बज्रयानी नहीं कहता लेकिन मगध क्षेत्र में बज्रयानियों के केन्द्र होने की बात इतिहास में कही गयी है। बोधगया में अब बज्रयानियों के बिहार भी बनाये गये हैं। जिनमें कर्मापा मंदिर का नाम लिया जा सकता है। सहजयान एवं सिद्ध पंथ मगध क्षेत्र में बौद्धसिद्ध पंथ, जो सहजयान के नाम से जाना जाता है, का बहुत प्रभाव रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि बौद्ध-सिह पंथ के संस्थापक सरहप्पा के आह्मवाहन पर मगध के एक उत्कृष्ट उच्चवर्गीय ब्राह्मण एवं बौद्ध समूह ने शास्र पढ़ना ही बन्द कर दिया। विवाद के भय से नामोल्लेख नहीं किया जा रहा है। इन ब्राह्मणों के घर में डोम्भी, सोम्भी आदि देवताओं की पूजा कुल परंपरा के अनुसार होती है। मनु के बाद अगर इस क्षेत्र मे किसी दूसरे व्यक्ति का प्रभाव है तो वे सरहप्पा हैं। सरहप्पा ने अनेक सामाजिक नियमों आसना शैलियों व मनोरंजन के प्रकारों का सृजन किया है। जो आज भी लोक जीवन में प्रचलित हैं। मगही में "सरह' शब्द नियम-परम्परा का पर्यायवाची शब्द है। सरहप्पा की अनुष्ठान विधियां लोक जीवन के अभिन्न अंग है। सरहप्पा के प्रमुख ग्रन्थों में दोहाकोश व चर्यागीति है। इस्लाम के अनुयायियों में सबसे अधिक तादाद सुन्नियों की है। यही इस्लाम की मुख्यधारा भी है। सुन्नी लोग अल्लाह की इबादत करते हैं और कुरान व हदीस को अपनी मार्गदर्शक किताब मानते हैं। स. हजरत मोहम्मद को ये लोग आखिरी पैगंबर मानते हैं। और सारे मामलों में शिया फिरका भी सुन्नियों के ही समान है। लेकिन शिया लोग इस्लाम की शुरुआत के चार खलोफों में से तीन हजरत अबूबक सिद्दीक, ह. उस्मान गनी तथा उमर फारुख को नहीं मानते। रोजा, नमाज, अजान आदि धार्मिक व्यवहारों में भी थोड़ा फर्क है। मगध में शिया बिरादरी के लोगों की तादाद काफी कम है लेकिन ये लोग भी यहां बहुत पहले से मौजूद हैं। अन्य धार्मिक मान्यताओं में ये लोग सुन्नी बिरादरी जैसे ही हैं लेकिन अपने मशहूर संतों की मजार पर चादर चढ़ाकर श्रद्धा दिखाने के मामले में ये उनसे भिन्न हैं। सूफियों का धार्मिक रहस्यवाद भी भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा से काफी समानता रखता है। मगध में सूफी लोगों की आबादी भी काफी कम है। पीर मंसूर, बीथो शरीफ, अयझर शरीफ आदि इनके मशहूर दरगाह हैं। कबीर पंथ "कबीर पंथ' का शाब्दिक अर्थ वह सम्प्रदाय है जिसे सन्त कबीर ने किसी समय चलाया था और जो अब तक इस नाम से प्रचलित है। पर यह बताना कठिन है कि सन्त कबीर साहब ने ऐसे किसी पंथ का कभी प्रवर्तन किया था अथवा इसके लिए उन्होंने अपने शिष्यों को कोई स्पष्ट आदेश ही दिया था। ऐसी दशा में यह अधिक संभव है कि उनके निजी विचारों के पंथ निर्माण के प्रतिकूल होते हुए भी उनके शिष्यों-प्रशिष्यों ने ऐसा करना प्रचार की दृष्टि से उचित समझ लिया हो। मगध क्षेत्र में भी कबीर का व्यापक प्रचार हुआ। गया में इसका एक प्रमुख केन्द्र कबीर बाग मठ है। गांवों में कबीर पंथी किसान कबीर दास की साखियां एवं पद सुनाते बहुतायत में मिलते हैं जो पकड़ लेंगे तो आपको जल्दी छोड़ेगें नहीं। इस क्षेत्र के कबीर पंथी दशरथ मांझी प्रेम, लगन एवं परिश्रम की एक मिसाल के रुप में उत्तरी प्रखण्ड में हैं। उन्होंने १३०० फिट लंबा और १५ फिट चौड़ा रास्ता अकेले पहाड़ काटकर बनाया है। सिक्ख पंथ सिक्ख पंथ मानता है कि परमात्मा एक अनन्त सर्वशक्तिमान, सव्य, कर्ता, निर्भय, अयोनि व स्वयंभू है। यह सर्वत्र व्याप्त है। मूर्ति पूजा आदि निरथर्क है। बाह्य साधनों से उसे प्राप्त नहीं किया जा सकता। आन्तरिक साधना ही उसकी प्राप्ति का एक मात्र उपाय है। गुरु कृपा, परमात्मा कृपा एवं शुभ कार्यों का आचरण इस साधना के अंग हैं। नाम स्मरण उसका सर्रोपरि सव्य है और "नाम' गुरु के द्वारा ही प्राप्त होता है। मगध क्षेत्र में सिक्ख पंथ का व्यापक प्रसार है। यहां खुद सिक्खों के आदि गुरु नानक आए थे। गुरु नानक की पहली "उदासी' (विचारण यात्रा) अक्टूबर १५०७ ई. से १५१५ तक रही थी। इसी यात्रा के क्रम में गया पटना आदि स्थानों की यात्रा उन्होंने की थी। गुरु तेग बहादुर ने सन् १६६५ ई. में अपनी धर्म प्रचार यात्रा आरम्भ की। इस यात्रा में उन्होंने मगध क्षेत्र के पटना, गया आदि अनेक स्थानों में विचरण किया। मगध क्षेत्र में गया शहर में गुरु तेग बहादुर की स्मृति में ही गुरुद्वारा है। पटना में पटना साहिब गुरुद्वारा है। सिक्खों के अंतिम गुरु गोविन्द सिंह का जन्म पटना में ही हुआ था। निरंकारी सिक्ख मगध क्षेत्र में इस पंथ का भी काफी विस्तार हुआ। इस पंथ के बारे में विशेष ज्ञान तत्काल नहीं है। गया जिले के डोभी व चतरा जिले के हटरगंज के समीवपर्ती गांवों में भी निरंकारी सिक्ख मिलते हैं। आर्य समाज सन् १८६७ में दयानन्द सरस्वती ने बम्बई में आर्य समाज की स्थापना की। उन्होंने आर्य समाज के लिए वेदों को आधार माना। उनके अनुसार वेद अपौरुषेय हैं और वैदिक कर्म ही सत्य और सार्वभौम है। सामाजिक और नैतिक मूल्यों को देखते हुए आर्य समाज ने एक आचार संहिता बनायी थी। इसमें जाति-भेद और मनुष्य-मनुष्य या स्री-पुरुष में असमानता के लिए कोई स्थान नहीं है। निश्चय ही आर्य समाज ने राष्ट्रीय विचारधारा को आगे बढ़ाने में आश्चर्यजनक योगदान किया। मगध क्षेत्र में भी यह आंदोलन काफी सक्रिय रहा। इस क्षेत्र में मुख्यत: मध्य वर्ग के लोग, खासकर कोइरी और चौरसिया (पनेरी) जाति के लोग इस समाज से जुड़े। महिलाओं के बीच शिक्षा के प्रसार में इसने भारी योगदान किया। आर्य समाज से विघटित होकर कोइरी जाति के लोगों ने अर्जक संघ की स्थापना कर ली है। गया जिले के डुमरिया-ईमामगंज क्षेत्र में अर्जक संघ का व्यापक प्रचार प्रसार है। कैथोलिक और प्रोटेस्टेन्ट मसीहा धर्म का मुख्य उद्देश्य आरम्भ से सेवा रहा है। इनके धर्मगुरु एवं परमेश्वर पुत्र प्रभु ईसा मसीह के शिक्षा का मुख्य विषय भी सेवा और आपसी प्रेम रहा। इसी आधार पर मगध प्रमंडल के तमाम चर्च काम कर रहे हैं, ऐसा गांधी मैदान, गया स्थित बैरिटस्ट प्रोटेस्टेन्ट चर्च के रेवरेन्ड ज्वाय मनीष विकल जी बताते हैं। मसीह धर्म शुरु में कैथोलिक ही था। कैथिलिक का अर्थ होता है सार्वभौमिक इसमें कुछ जड़तायें, कुछ रुढियां आ गयीं तो एक विद्रोह हुआ। विद्रोह के अगुआ मार्टिन लूथर थे। जिस मत ने प्रोटेस्ट अर्थात विद्रोह किया। वह प्रोटेस्टेन्ट मत के नाम से विख्यात हुआ। मगध क्षेत्र का सबसे पुराना चर्च बैप्टिस्ट प्रोटेस्टेट चर्च है जो गांधी मैदान के बीच मे स्थित है। यह चर्च १८६७ में निर्मित हुआ। इसके संस्थापक सिडनी स्मिथ सांडर्स थे। इस चर्च के तहत बैप्टिस्ट मिशन गल्र्स स्कूल भी चलाया जाता है। दूसरा रोमन कैथोलिक चर्च क्रेन है। इसके तरह क्रेन मेमोरियल स्कूल चलाया जाता है। चर्च आॅफ नार्थ इंडिया (CNI ) तीसरा चर्च है। इसके तहत नाजरथ एकैडमी चलती है। इस क्षेत्र में और भी कई ईसाई मिशनों का पदापंण हुआ है, जैसे मदर टेरेसा मिशन। ये मिशन भी अपने कार्य में इस क्षेत्र में दक्षता से लगे हुए हैं। उपर्युक्त धार्मिक परम्पराओं से परिचित होने के बाद निष्कर्ष यह निकलता है कि मगध की भूमि समन्वय की भूमि रही है। इतने सारे केन्द्रों के समानान्तर चलने के बाद भी लोग प्राय: समन्वयवादी हैं और एक ही परिवार में विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा करते हुए, भिन्न-भिन्न पंथ मत को मानते हुए भी साथ रहते हैं।
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