मगध |
आयुर्वेद में मगध का योगदान पूनम मिश्र |
मगध में आयुर्वेद एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में
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भारतवर्ष के प्राचीन ॠषियों को पंचमवेद की संज्ञा से विभूषित किया है। चिकित्सा पद्धति में आयुर्वद की जितनी भी प्रशंसा की जाय कम है। आयुर्वेद ही दक्षिण भारत में सिद्ध विज्ञान के रुप में विकसित हुआ। अरब के हकीमों ने भी भारतीय मनिषियों के समान प्रकृति से अपना तारतम्य स्थापित करते हुए प्रकृति की गोद में पड़े जड़ी-बूटियों एवं अन्य वस्तुओं के मिश्रण एवं निरन्तर प्रयोग से युनानी चिकित्सा परम्परा की शुरुआत की। फिर क्या था समस्त बृहत्तर भारत, अरब एवं अगल-बगल के देश के लोगों में आयुर्वेद एवं युनानी दवाओं की धूम मच गई। मगध में भी प्राचीन विद्याओं के साथ-साथ आयुर्वेद का विकास भी प्रत्येक ऐतिहासिक समय में तीव्र गति से होता गया। यहां के वैद्यौ ने इस क्षेत्र में प्रयोगात्मक एवं अति प्रशंसनीय कार्य किये हैं। यहां के वन एवं पहाड़ी क्षेत्रों में जड़ी-बूटियां प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। बौद्ध परम्परा के अनुसार भगवान बुद्ध के समय आजीविक कौमारभृत्य (जिन्हें पालि में ""आजीवकोकोमार'' कहते हैं) का नाम उल्लेखनीय है, जो अजातशत्रु के राजवैद्य थे। आयुर्वेद में बाल चिकित्सा का नाम कौमारभृत्य के नाम पर ही है। आज भी बाल चिकित्सा को कौमारभृत्य कहा जाता है। महायान परम्परा में लोकसेवार्थ नालन्दा आदि महाविहारों में आयुर्वेद को अनिवार्य बनाया गया। मगध प्रदेश में इस महाविद्या आयुर्वेद के प्रकाण्ड ज्ञाता ""मग'' बिरादरी के लोग मुख्य रुप से हैं यह विद्या या धन्धा (आजीविका) इसी बिरादरी की परम्परागत विद्या है। आज भी आयुर्वेद शिक्षा के सरकारीकरण के बावजूद यही बिरादरी मगध क्षेत्र में मुख्य रुप से ज्योतिष, तंत्र एवं आयुर्वेद का काम करती है। इसके मूल ग्राम इसी मगध में हैं। अपने समूह के भीतर ये अपने को ""मग'' कहते हैं और बाहर शाकद्वीपीय ब्राह्मण कहते हैं। "मग' ब्राह्मण अपने को कृष्ण के पौत्र साम्ब की चिकित्सा के लिए भारत में आ बसने की बात कहते हैं। इसके अलाबा मगध में एक और बिरादरी है माहुरी। यह जाति भी भैषज्य के क्षेत्र में अपना अलग पहचान रखती थी। माहुरी जाति के लोग अपने को ब्राह्मण एवं वैश्य दोनों श्रेणियों में रखतें हैं, पर समाज इन्हें ब्राह्मण न मानकर वैश्य ही मानता है। माहुर अर्थात् (विषविद्या) जहर के ये परम्परागत ज्ञाता थे, पर इनका सम्बन्ध इस जीवनोपयोगी एवं प्राणरक्षक विद्या से पूर्णत: समाप्त हो चला है। ये अपने को मथुरा का पूर्व निवासी मानते हैं। दूसरी ओर शाकद्वीपीय ब्राह्मण के यहां यह परम्परागत चिकित्सा पद्धति आज भी जीवित है। शारङ्गधर संहिता , भावप्रकाश इत्यादि परम्परागत ग्रन्थों पर यह बिरादरी अपना दावा करती है। इनके यहां से संकलित अनेक पांडुलिपियां देश के अनेक ग्रन्थगारों में सुरक्षित है। पारम्परिक आयुर्वेद चिकित्सा में तंत्र ज्योतिष का ज्ञान होना यह बिरादरी आवश्यक मानती है। च्यवनप्राश नामक आयुर्वेदीय औषधि को कौन नहीं जानता? इसके खोजकर्ता एवं प्रणेता च्यवन ॠषि मगध क्षेत्र में ही रहते थे। आज भी यह स्थान ""च्यवनाश्रम'' कहलाता है जो ""देवकुण्ड'' नामक मगध के प्रसिद्ध तीर्थस्थल के अन्तर्गत है। सम्प्रति यह स्थान औरंगावाद जिले के हसपुर प्रखण्ड में है। संस्कृति के महाकवि बाणभ ने च्यवनाश्रम का उल्लेख हर्षचरित में किया गया है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व ही आयुर्वेद क्षेत्र में तीन धारायें चल पड़ी थीं। पहली धारा के लोग आयुर्वेद के प्रति हीनभावना रखते थे और आधुनिक चिकित्सा पद्धति के साथ इसका रिश्ता जोड़ना अनिवार्य मानते थे। इसी विचारधारा के वर्च के कारण सरकारी आयुर्वेद महाविद्यालय पटना में स्थापित हुई। सम्प्रति एक आयुर्वेदिक महाविद्यालय गया में भी है। उपरोक्त विचारधारा के लोगों की दृष्टि मे आयुर्वेद चिकित्सा के साथ तंत्र एवं ज्योतिष का ज्ञान अनिवार्य नहीं है।ये संस्थागत प्रशिक्षण में विश्वास करते हैं। इन्हें ग्रेजुएट आॅफ आयुर्वेदिक मेडिसिन एण्ड सर्जरी (GAMS) की डिग्री प्राप्त होती थी जो आजकल B.A.M.S. के रुप में बदल गया है। इस प्रकार यह पहली विचारधारा हुई। दूसरी धारा के लोगों मे "आर्यसमाज' के लोग थे। इन्होंने आयुर्वेद के ऊपर से ब्राह्मण वैद्य बिरादरियों एवं "जीवकिया' औषध निर्माणकर्ता बीरादरियों का जातीय एकाधिकार तोड़ने का निर्णय लिया। इन्हें परम्परागत औषध निर्माण पद्धति पर विश्वास नहीं है। इसकी जगह आधुनिक यंत्रों एवं धमन भट्ठियों का इन्होंने सहारा लिया। कोयले की बड़ी भट्ठियों पर बड़ी पिसाई मशीनों से उत्पादित दवाओं की गुणवत्ता का विवाद अपने समय में काफी चर्चित रहा और पारंपरिक वैद्यों ने इस प्रणाली को मान्यता नहीं दी। सहस्रपुटी दवाएं विशेष चर्चा का विषय रहीं। इसी धारा के समर्थन में मगध में ""वैद्यनाथ'' आयुर्वेद भवन, जैसी औद्योगिक पूंजी प्रधान संस्था का उदय हुआ। देश के अनेक भागों में भी ऐसी कंपनियां खुली। परम्परागत औषध निर्माण विधियों के पक्ष में पूर्णत: नही होने के कारण प्रारम्भ में काफी विवाद हुआ, लेकिन अन्तत: आयुर्वेद औषध निर्माण बड़ी पूंजीवाले औद्योगिक घरानों के रुप में स्थापित हो गया। इन लोगों ने पहली धारा के लोगों का परोक्षत: समर्थन किया। उपर्युक्त दोनों धाराओं के समानांतर शुद्ध पारम्परिक धारा भी चलती रही। इन धारा के लोगों की शिक्षा-दीक्षा गुरु-परम्परा से होती थी। पारम्परिक संस्कृत विद्यालयों में पढ़कर लोग आयुर्वेद शास्री या आयुर्वेदाचार्य की डिग्री प्राप्त कर लेते थे। यह उपाधि बिहार, बंगाल, उत्कल समिति और बाद में दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय से मिलती थी। लेकिन व्यवहारिक शिक्षण की अनिवार्यता के कारण आयुर्वेद की शिक्षा किसी वैद्य ब्राह्मण आचार्य की संगति में ही हो पाती थी। यह धारा इस बात में विश्वास करती थी कि ज्योतिष और तंत्र आयुर्वेद चिकित्सा के अनिवार्य अंग है। आयुर्वेद के विभिन्न विषयों को तंत्र नाम भी दिया है। जैसे प्रसूति तंत्र। इस धारा में कमी यह आई कि आयुर्वेद की शास्रीय औधधियों की जगह लोगों ने सिद्ध या पारिवारिक सूत्रों को सर्वाधिक महत्व दिया। गोपनीयता के कारण प्रमाणिकता संकट में पड़ी। अंतत: १९७९-८० के समय में पूर्ववर्ती दोनों धाराओं ने राजसत्ता के साथ मिलकर आयुर्वेद चिकित्सा परम्परा पर एक तरह से अपना एकाधिकार कर लिया और आयुर्वेद ही नहीं, सम्पूर्ण परम्परागत चिकित्सा पद्धतियों को पूर्ववर्ती दोनों धाराओं ने अवैद्य घोषित कराया और चिकित्सा करने पर कठोर दण्ड की व्यवस्था कराई। इन तीनों धाराओं के संघर्ष में मगध के चिकितक शामिल रहे और आज आयुर्वेद चिकित्सा भयानक हीनभावना का शिकार है। अधिसंख्यक लोग आयुर्वेद के नाम पर एलोपैथी चिकित्सा करते हैं। एलोपैथी से निराश रोगियों के लिये आज की तारीख में विशुद्ध आयुर्वेदीय चिकित्सा करने वाले चिकित्सक को खोज पाना दुर्लभ कार्य है। पूर्ववर्ती धाराओं ने न केवल चिकित्सा पर एकाधिकार किया, अपितु विभिन्न कानूनी उपबंधों के तहत औषध निर्माण को लाइसेन्स (प्रमाणपत्र) राज के अधीन कराया। आसव, आरिष्ट से लेकर खनिजों से बनने वाली दवाओं पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया गया और क्रमश: चूर्ण आदि के व्यवस्या में भी हीनभावना ग्रस्त परम्परागत औषधि निर्माण विधि विरोधी सरकारी आयुर्वेद स्नातक की निगरानी को अनिवार्य बता दिया गया। इस राज्य सम्पोषित षडयन्त्र के कारण मगध की आयुर्वेद परम्परा की कमर टूट गई। परिणामत: वैद्य बिरादरी के लोगों के सामने आजीविका के अन्य क्षेत्रों में जाने की समस्या खड़ी हो गई। इस सरकारी निर्णय से न केवल मगध की वैद्य बिरादरी, बल्कि हकीम और जनजातीय क्षेत्रों के परम्परागत वैद्य भी अपमानित, तिरस्कृत एवं रोजी-रोजी के लिये संकटापन्न हो गये। ऊपर वर्णित तीनों विचारधाराओं के अतिरिक्त एक विचारधारा और भी है, जिसे कि चौथी विचाराधारा का नाम दिया जा सकता है। इस चौथी विचारधारा स्वत: स्फूर्त एवं स्वयंबू व्यवसाय की धारा का नाम देना अधिक तर्कसंग्त प्रतीत होता है। प्राचीन गया जिले एवं वर्तमान नवादा जिले में कतरी सराय नामक एक गांव है, जहां पता नहीं कब एवं किसने गुप्तरोगों, एवं असाध्य रोगों का इलाज करने का सिलसिला शुरु किया। आज यह गुप्त फार्मूलों वाली दवाओं के निर्माण का केन्द्र है। औषध निर्माण ने यहां कुटीर उद्योग का रुप ले लिया है। मूलत: यह आयुर्वेद के नाम पर चल रहा व्यवसाय घटिया एवं तृतीयस्तरीय विज्ञापनों पर आधारिक है और इनकी प्रमाणिकता एवं वैज्ञानिकता के सम्बन्ध में टिप्पणी असंभव है। जैसा कि इस लेख के प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर दिया गया है, मगध क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में जड़ी-बूटी एवं औषधीय वनस्पतियां पाई जाती हैं। हालांकि हाल के वर्षों में जंगलों के क्षय के कारण कुछ वनस्पतियां लुप्त हो गई हैं, फिर भी बहुत सारी आज भी मौजूद हैं। आजकल आयुर्वेद एवं हर्बल के प्रति लोगों में आए अचानक आकर्षण एवं आयुर्वेद में शोध व विकास के फलस्वरुप नए बाग-बगीचे तथा वनस्पति उद्यान भी लगने शुरु हुए हैं। यह एक शुभ और उत्साहजनक संकेत है। नीचे के टेबल में मगध क्षेत्र (सांस्कृतिक क्षेत्र) में उपलब्ध औषधीय वनस्पतियों के स्थानीय, संस्कृत, तथा लैटिन नाम दिये जा रहे हैं :- वृक्ष
मगध में ग्रामीण क्षेत्र में निवास करने वाली सामान्य जनता को भी जड़ी-बूटी का अच्छा ज्ञान है। भारत के अन्य भू-भागों के समान यहां भी नीम, आंवला, तुलसी आदि का दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। यहां तुलसीदल का धार्मिक महत्व के साथ-साथ औषधीय महत्व भी है। यहां के लोग इसे प्राणरक्षक आयुर्वेदिक दल मानते हैं। ग्रामीण अंचल में तुलसी के गीत गाये जाते हैं। लोगों की यह मान्यता है कि तुलसीचौरा में भगवान विष्णु का निवास है, इसी कारण वैष्णव इसे विष्णुप्रिया कहते हुए कर्मकाण्ड में इसका विशेष महत्व देते हैं। तुलसीदल बुखार, मलेरिया एवं जुकाम, नजला आदि की प्राथमिक सर्वमान्य औषधि के रुप में मगध के ग्रामीण अंचल में आज की लोकप्रिय है। वनस्पति विज्ञान के आधार पर तुलसी के निम्नलिखित प्रकार हैं :-
तुलसी एक शाकीय पौधा है। मूसला के जड़ के साथ-साथ चौकोर, सीधा काष्ठीय तना पाया जाता है जो ठोस होता है। तुलसी की पत्तियां २-५ सेन्टीमीटर की अनुपर्णी होती है। तुलसी के फूल जामुना, फल अत्यन्त छोटे तथा बीज अभ्रूणपोषी होते हैं। पुष्पक्रम "वर्टीसिलास्टर' होता है। तुलसी अपने स्वभाव से एन्जियोस्पर्मिक पौधा है। तुलसी में ७० प्रतिशत यूजोनॉ पाया जाता है। ईथरयुक्त होने से यह मलेरिया व खाँसी के लिए राम-रसायन है। वाष्पीय तेल होने के कारण इससे मनमोहक सुगन्ध होता है। मगध क्षेत्र के ग्रामीण अंचलों में तुलसी का स्थान काफी ऊंचा है। दही के साथ तुलसी के पत्ते का सेवन करने से चर्बी दूर भागती है। मगध में आयुर्वेद एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में महान धार्मिक ग्रन्थ महाभारत में स्पष्टत: मगध देश का उल्लेख होते हुए भी किसी ग्रन्थकार या आयुर्वेदज्ञ का मगघ में होना अंकित नहीं किया गया है। परन्तु जीवक को ही यदि काश्यपसंहिता का प्रणेता मान लिया जाय तो स्पष्ट है कि राजा परीक्षित को सांप के काटने से विष से मुक्ति दिलाने वाला ॠषि काश्यप ही थे जिन्हें मागध माना जाना ज्यादा श्रेयस्कर होगा। हालांकि ऐसी मान्यता है#ै कि तक्षक से बचने के लिए परीक्षित ने सुदूर से मांत्रिकों व औषधिनिपुण वैद्यों को बुला रखा था, परन्तु अन्तिम सफलता काश्यप को ही मिली थी। पाणिनी की अष्टाध्यायी में वर्णित जनपदों में ""मगध'' का नामोल्लेख मिलता है। बौद्धकाल के सोलह जनपदों में मगध की गणना की गई है। रीजवे डेविड्स ने ई. पूर्व सातवीं शदी के नगरों की सूची दी है, जिसमें अयोध्या, राजगृह, रोरुक, सागल, श्रावस्ती, वाराणसी, चम्पा, काम्पिल, मथुरा, उज्जैयन व वैशाली नाम हैं। परिनिर्वाणसूत्र में भगवान गौतम बुद्ध का प्रबुद्ध शिस्य आनन्द ने बुद्ध के निर्वाण के लिए जिन स्थानों को उपयुक्त बतलाया है उनमें भी राजगृह का उल्लेख चम्पा, श्रावस्ती, साकेत, कौशाम्बी आदि के साथ हैं। बौद्धकालीन सोलह जपनदों में चार विशेष महत्व के थे। ये चार निम्नलिखित हैं :-
इसमें किसी शक की गुञ्जाइश नहीं है कि बौद्धकाल तक मगध अपने पूर्ण यौवन में आर्यावर्त के भूगोल एवं इतिहास के धरातल पर प्रादुभूत हो चुका था। इसका क्षेत्र कभी विस्तृत तो कभी संकुचित होता रहा है। कभी इनका विस्तार सम्पूर्ण आर्यावर्त के अतिरिक्त पश्चिमोत्तर सुदूर अन्यदेशों तक हो जाता है, तो कभी कमजोर शासक पाकर संतुलित होता दृष्टिगोचर होता है। परन्तु आयुर्वेद के विकास में मगध का योगदान विषय की दृष्टि से मगध साम्राज्य की देन के अवलोकन में सौकर्य हेतु इस साम्राज्य को निम्न कालों में बांटा जा सकता है। :-
बिम्बिसार का समय ई. पूर्व ५४७ से लेकर ४९४ तक माना जाता है और बुद्ध का समय ई. पूर्व ५६६ से ४८६ तक तथा किंवदन्ती के अनुसार ६२४ ई. पूर्व से लेकर ५४४ ई. पूर्व तक मान् गया है। बौद्धकाल में आयुर्वेद का विस्तार हो चुका था। मध्य एशिया में प्राप्त नावनीतकम् इसका प्रमाण है, जिसकी रचना कविराज वलवन्त सिंह मोहन वैद्य वाल रचित ६०० ई. पूर्व मानते हैं। अन्य विद्धान शब्दद रचना, बौद्ध देवताओं के स्तूप आदि इसे बौद्धकालीन सिद्ध करने में सहायक हैं। इसी क्रम में सद्धर्म पुण्डरीक नामक अन्य ग्रंथ को भी बौद्धकालीन बतलाया गया है जिसके पांचवे औषधि वरिवर्त में आयुर्वेद से सम्बन्धित तथ्यों का महत्वपूर्ण उल्लेख आया है। विनयपिटक में आचरम सम्बन्धी जो भी निर्देश दिए गए हैं वे आयुर्वेद पर ही आश्रित हैं। राजगृह के वेणुवन में कलन्दक निवास में रहने वाले भिक्षुक को भगन्दर रोग से मुक्ति शस्रकर्म द्वारा आकाशगोत्र वैद्य ने करायी, ऐसा उल्लेख है। भगवान बुद्ध ने गुदस्थान जैसे मर्मस्थल पर शस्रकर्म करने का निषेध किया था, क्योंकि वहां का धाव भरने में कठिनाई होती है। इसी काल में जीवक जैसे सिद्धहस्त वैद्य का प्रादुर्भाव हुआ। जीवक का जन्मस्थल मगध ही है, भले ही उसके ज्ञान का लाभ मगध सम्राट बिम्बिसार एवं अवन्ती नरेश राजा चन्द्रप्रदौत दोनों को प्राप्त हुआ। जीवका का व्यक्तित्व अपने आप में विलक्षण है। जीवक प्रणीत काश्यप संहिता विश्वप्रसिद्ध है। परन्तु इस ग्रन्थ के वास्तविक प्रणेता के रुप में आयुर्वेद के इतिहासकारों ने वृद्ध जीवक को स्थापित करने का प्रयास किया है। यह ग्रन्थ विशेषत: ""कौमार भृत्य'' विषय की दृष्टि से अपूर्व है। जीवक के आयुर्वेदज्ञ के रुप में स्थापित होने के समय भगवान बुद्ध राजगृह के वेणुवन में कालन्दक निवास में बिहार कर रहे थे। उस समय वैशाली से लौटे नैगम (नगर सेठ) ने अपने राजा बिम्बिसार से वैशाली के वैभव का वर्णन किया और प्रस्ताव किया कि ""देव! अम्बपाली की तरह हम भी एक राजगणिका रखे।'' उसके बाद राज्यादेश के अनुसार राजगृह की ही अत्यन्त रुपवती सात्वती को नृत्य-गीतादि की विधिवत शिक्षा देकर गणिका रुप में स्थापित किया गया। परन्तु उसकी लोकप्रियतावश ग्राहकों की संख्या अधिक हो गई और वह अल्प समय में ही गर्भवती हो गई। गर्भवती होने के कारण पुरुषों की चाह कम हो जायेगी, ऐसा मानकर प्रसवकाल तक बीमारी का बहाना बनाकर प्रच्छन्न रुप में रहने लगी। समयानुसार काफी प्रसववेदना के उपरान्त उसने एक पुत्र को जन्म दिया। लेकिन उसे कूड़े में फेंक दिया। काक समूह से घिरा होने पर भी राजकुमार अभय ने उसे जीवित पाया, अत: उसका नाम जीवक रखा गया और मगध साम्राज्य के अन्तपुर में उसका लालन-पालन हुआ। यही बालक आगे चलकर आयुर्वेद विज्ञान का अद्भूत ज्ञाता हुआ। तक्षशिला में आयुर्वेद की शिक्षा लेने के बाद उसे कोई ऐसा पौधा नहीं मिली जो उसकी न में चिकित्सकीय गुणों से भरपुर नहीं हो। इसी निष्कर्ष पर परीक्षित होने के बाद आचार्य द्वारा स्नातक घोषित हो जीवक मगध लौट आए। तक्षशिला से लौटने के बाद अपने आश्रयदाता श्रोणिक बिम्बिसार की चिकित्सा उसने की। गर सेठ के मस्तिष्क का शल्य कार्य कर उसमें स्थित कीटाणुओं को निकाला जिसके फलस्वरुप नगर सेठ को शिर: शूल से मुक्ति मिली। इसी प्रकार काशी के नगर सेठ के पुत्र की आँत में गांठ पड़ गई थी। जीबक ने उसके उदर को खोलकर शल्य कार्य द्वारा उसको रोग मुक्त किया। उज्जयिनी के राजा चन्द्रप्रधोत को पाँडु (पेल) रोग से मुक्ति दिलाने मे सफल हुआ। राजगृह में ही भगवान बुद्ध के शारीरिक दोष को विरेचन चिकित्सा कर हटाया। जीबक की जोग्यता एवं दक्षता सर्वत्र प्रचलित थी। वर्तमान समय में भी राजगृह के आम्रवन में जीवक की रसायनशासा का ध्वसांवशेष है। इससे यह स्पष्ट है कि बुद्ध काल में मगध का चिकित्सा के विकास में अद्भुत योगदान रहा है। मौर्यकाल में भी मगध में आयुर्वेद का सर्वत्र विकास हुआ था। इतिहासकारों एवं पुरातत्वेत्ताओं ने मौर्यकाल का समय ३६३ ई. पूव्र से २११ ई. पूर्व तक निर्धारित कीया है। इस अवधि में आयुर्वेद के विकास में मगध के योगदान को सिद्ध करने के दो मुक्य आधार हैं :-
ई. पूर्व ३२५ में भारतवर्ष के पश्चिमोत्तर भाग से सिकन्दर के प्रस्थान कर देने के बाद मौर्यवंश के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य (ई. पूर्व ३२४-३००) नन्द वंश के राजा को गद्दी से हटाकर चाणक्य की सहायता से मगध की गद्दी पर आसीन हुए। कालान्तर में मगध साम्राज्य की सीमा चन्द्रगुप्त ने उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिम में मैसूर तक, पूर्व में बंगाल से पश्चिम में अरब सागर और अफगानिस्तान तक विस्तृत कर दी। उस समय आयुर्वेद का विकास चरम सीमा पर रहा होगा, ऐसा अनुमान कौटिल्य के अर्थशास्र के अवलोकन से होता है। यह ग्रंथ मूलत: राजकीय व्यवस्था का आदर्श है, परन्तु आयुर्वेदीय तत्व भी इसमें निहित है। विषकन्या का प्रथम प्रयोग अर्थशास्र में ही निहित है। यत्र-तत्र औषधाय वनस्पतियों का भी वर्णन किया गया है। इसमें पशु चिकित्सा की प्रथम व्यवस्था की झलक मिलती है। मेगास्थनीज ने यह सूचना दी है कि उस समय तक पशुचिकित्सा भी विकसित हो चुकी थी। इसीलिए पशुओं के चिकित्सक को अनिकस्थ और मनुष्यों को चिकित्सा करने वाले को चिकित्सक कहा गया है। ब्राह्मणों की तरह चिकित्सकों को भी करमुक्त भूमि दी जाती थी। अर्थशास्र का सामिप्य भाषा के आधार पर भी जुड़ता है। इसकी शैली में गद्य और पद्य दोनों का अपूर्व समन्वय है। कामसूत्र की भाषा शैली कौटिल्य के अर्थशास्र से मिलती-जुलती है। आयुर्वेदशास्र को समझने की दृष्टि से आयुर्वेद के ग्रंथकारों ने जिस तंत्रयुक्ति को आधार बनाया है उसकी नींव कौटिल्य के अर्थशास्र में पड़ चुकी थी। कौटिल्य के अर्थशास्र में वर्णित ३२ तंत्रयुक्तियों सुश्रुत ने ३२ को ही संख्या में स्वीकार किया है, जबकि चरकसंहिता में इसकी संख्या ३६ बताई गई है। अच्छी सन्तान की उत्पत्ति की परिस्थिति का भी वैज्ञानिक वर्णन किया गया है। कौटिल्य के अर्थशास्र में विषदाता की पहचान भोजन में विष की परीक्षा, रत्न और धातुओं की परीक्षा आयुर्वेदीय दृष्टीकोण से वर्णित है। अनेक औषध द्रव्यों का आयुर्वेदीय दृष्टिकोण से वर्णन किया गया है। तौल के बटखरे मगध या मेकल देश में उपलब्ध पत्थर से बनाने के लिए उपयुक्त बतलाए गए हैं। आज भी गया के पत्थर की खरलें ताम्र पत्थर या उड़दिया पत्थर की प्रसिद्धि है। मृतक की जाँच के जो आधार कौटिल्य के अर्थशास्र में पड़ चुके थे वे आज के मेडिकल ज्यूरिस्प्रूडेंस का अपूर्व उदाहरण हैं। किन हथियारों से आघात लगा है इसकी भी जाँच उस समय हो जाया करती थी। वय परीक्षा का भी प्रावधान अर्थशास्र में किया गया है। औषधि और मंत्रों के रहस्य को अर्थशास्र के औपनिषादिक अधिकरण में दिया गया है। आज की तरह औषधियों का प्रथम प्रयोग पक्षियों या पशुओं पर करने का निर्देश किया गया है। इस प्रकार अर्थशास्र में वर्णित तथ्य आयुर्वेद के विकास में मगध के योगदान के अपूर्व उदाहरण हैं। चन्द्रगुप्त मौर्य के बाद उसके पुत्र विन्दुसार ने कौटिल्य के अर्थशास्र का अनुसर करते हुए राज्य व्यवस्था में विशेष परिवर्तन नहीं किया, किन्तु महत्वाकांक्षी, महान सम्राट अशोक ने अपने पूर्वज चन्द्रगुप्त की तरह अपना पराक्रम दिखलाया। अशोक ने अपने शासकीय एवं प्रशासनिक व्यवस्था को यत्र-तत्र शिलालेखों के रुप में उत्कीर्ण कराया ताकि उसकी राज्यसीमा के निवासी (या प्रजा) उसकी व्यवस्था से अवगत हो सकें। मगध सम्राट अशोक अपने पिता विन्दुसार की मृत्यु के उपरान्त अपने बड़े भाई सुशील का अन्त कर (लोकमान्यता के अनुसार १०० भाईयों को मारकर) २७२ ई. पूर्व में मगध साम्राज्य पर अधिकर किया और साम्राज्य की अव्यवस्थाओं का शमन कर २६८ ई. पूर्व में अपना राज्याभिषेक करवाया। सम्राट अशोक का भेरी घोष धर्मधोष में बदल गया। उसने बौद्ध धर्म को अपनाकर धर्मप्रचार के माध्यम से वि विजय की परिकल्पना की। फिर भी तत्कालीन अन्य सम्प्रदायों के प्रति भी उसके मन में सद्भावना रही। उसकी यह हृदय परिवर्तनशीलता प्राणिमात्र के लिये हितकर बन गई। अशोक ने मनुष्यों का ही नहीं पशुओं का भी ध्यान रखा। मानव की चिकित्सा तो किसी न किसी रुप में वैदिक काल से ही होती आ रही थी, किन्तु पशुओं की चिकित्सा का व्यवस्थित रुप में श्रीगणेश अशोक ने ही किया। उसने देश-विदेश में जो औषधालय खोले उसमें मूक और रुग्न पशुओं की चिकित्सा का भी अलग इन्तजाम किया। अशोक ने अपने साम्राज्य में ही नहीं बल्कि दक्षिण के स्वतंत्र राज्यों, यूरोप, एशिया, अफ्रीका, ग्रीक आदि देशों में सर्वत्र मानव और पशु चिकित्सा की व्यवस्था की। जहां-जहां चिकित्सीय औषध द्रव्य या वनस्पतियां अप्राप्त थी। वहां-वहां अन्य स्थानों से जड़ी-बूटी के बीज व कलम मंगवा कर लगाए गए। द्वितीय शिलालेख के अनुसार मनुष्य एवं पशुओं, दोनों की चिकित्सा की व्यवस्था सम्पूर्ण राज्य में हो, इसके लिए देश-विदेश में अस्पताल बनवाये गये। सारे चिकित्सीय प्रबन्ध दक्षिण के पड़ोसी राज्यों यथा, चोलों, पाण्ड्य, सात्मिपुत्रों, केरलपुत्र और ताम्रपर्णी एवं यवन राज्यों में कराए गए। राज्यमार्ग में प्रत्येक कोस पर कूप और विश्रामगृह बनवाये गये। कूप बनवाने का अभिप्राय है कि जनता को स्वास्थ्यकर जल मिले, आरामगार में क्लान्त व्यक्ति की थकान मिट सके। जहां पर औषधियों के पौधे नहीं थे वहां पर दूसरे स्थानों से पौधे मंगवाकर लगवाये गए। दूसरों की भलाई के लिये सम्राट अशोक की ओर से दूत नियुक्त किए गए थे, ताकि वे प्राणियों के प्रति अपने ॠण से मुक्त हो सकें। सम्राट अशोक के पश्चात् मौर्यवंश में क्रमश: कुणाल, दशरथ, बृहद्रथ इत्यादि राजा हुए। किन्तु उनके काल में कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं हुए, बल्कि मौर्य शासन व्यवस्था चरमरा गई। दिव्यावदान में एक कथानक है जिसके अनुसार अशोक के उर्ध्वभुद रोग से ग्रस्त होने की सूचना है। अन्य आर्युर्वेदीय तत्व भी भरे पड़े हैं। हालांकि यह ग्रंथ मिनाण्डर के समय में ग्रंथित हुआ था। यह उल्लेखनीय इसलिए हो गया कि सम्राट अशोक के रोगग्रस्त होने की बात तथा उसकी चिकित्सा व्यवस्था के चिन्तन की सूचना है। कुषाणकाल में भी मगध एक विकसित साम्राज्य था। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भी मगध विख्यात एवं प्रबल था। कुषाणराजा कनिष्क ने आक्रान्त के रुप में मगध को जीता। इतना ही नहीं पाटलिपुत्र के अश्वघोष, पातञ्जलि आदि जैसे मूर्द्धन्य विद्वानों को अपनी राजधानी उज्जयिनी लेता भी गया। इन आचार्यो में पातञ्जलि का व्यक्तित्व अद्भूत रहा। यही पतञ्जलि और चरक को एक मानने वाले इतिहासकारों की बात स्वीकार कर ली जाती है, तो आयुर्वेदीय ग्रंथ चरकसंहिता , व्याकरण शाखा का महाभाष्य और पातञ्जल योगदर्शन के परम प्रणेता पतञ्जलि ही थे :
किन्तु पतञ्जलि के कृतित्व का पूर्ण विकास शुंगवंशीय पुष्यमित्र के काल में हुआ। समय चक्र चलता रहा। पुराने राजा जाते रहे नए राजाओं का प्रादुर्भाव होता रहा। अन्तिम मौर्य सम्राट वृहद्रथ का वध कर वाह्मण सेनानी पुष्यमित्र का मगध के सिंहासन पर आसीन होना भारतीय इतिहास की अपूर्व घटना थी। सच है कि वैदिक संस्कृति के सम्पूर्ण इतिहास में यह प्रथम उदाहरण था कि सम्राट वध जैसे दु:साहसिक कार्य के बावजूद भी रक्त की एक बूंद भी नहीं टपकी। कतिपय इतिहासकारों की मान्यता है कि पतञ्जलि ने लौहशाला की रचना की। उसी काल में नागार्जुन का प्रादुर्भाव अद्भुत रसशास्र के साथ हुआ। इनके लौहशास्रीय ज्ञान का लोहा आज भी समस्त संसार मानता है। दिल्ली का कुतुब मीनार के करीब स्थित लौह स्तम्भ हजारों वर्षों बाद भी विकाररहित होकर स्थित है। इस प्रकार चरकसंहिता जैसे चिकित्सा ग्रन्थ और नागार्जुन जैसे रसशास्रज्ञ, दोंनो मगध की ही देन है। थोड़ी देर के लिये यदि चरक और पतञ्जलि, दोंने का अलग-अलग अस्तित्व स्वीकार करने पर भी पतञ्जलि के महाभाष्य में शरी, शारीरिक सौन्दर्य, रोग और औषधि आदि के विषय में अनेकश: उल्लेख किये गये हैं, जिससे स्पष्ट होता है कि भाष्यकार पतञ्जलि निश्चित रुप से आयुर्वेदीय ज्ञान के सागर थे। पतञ्जलि काल (शंगु काल) में भी शतायु ही औसत आयु मानी जाती थी। आयुर्वेद शासन के अनुसार धृत को आयु का पर्याय कहा गया है। वे चिकित्सक, व्यवस्था या उपचार से भी सुपरिचित हैं। महाभाष्यकार ने औषधि को चन्द्रमा का पर्याय माना है। ये उदाहरण मात्र है। वस्तुत: महाभाष्य में आयुर्वेद एक अलग निबन्ध का विषय हो सकता है। पातञ्जलयोगदर्शन तो मन और शरीर दोनों से सीधा सम्बन्ध रखता है। सद्वृत दोंनो की आवश्यकता है। अत: चरकसंहिता के अतिरिक्त भी पतञ्जलि ने आयुर्वेदिक ज्ञान गंगा की धारा को अजरता प्रदान की है। पुष्यमित्र के बाद शंगु वंश में अग्निमित्र, वसुज्येष्ठ, वसुमित्र आर्द्रक, कुलिन्दक, घोष, वज्रमित्र, मार्गछत्र और देवभूति क्रमश: उत्तराधिकारी बने। शंगु वंश के अन्तिम राजा देवभूति की हत्या कर उसका मंत्री वसुदेव कण्व वंश की स्थापना करते हुए राजगद्दी पर बैठा। इस वंश का ऐतिहासिक प्रमाण विष्णुपुराण और हर्षचरित्र में प्राप्त होता है, परन्तु इस ब्राह्मण राज्य में मगध साम्राज्य अवनित की ओर अग्रसर था। आयुर्वेदीय दृष्टि से चिन्तन करने पर इस काल में बहुत अधिक क्रान्तिकारी विकास के उदाहरण नहीं मिलते। फलत: राजनीतिक ह्यास के साथ ही साथ मगध का साम्राज्य शक और सातवाहनों का शिकार बना। मगध की राजधानी पाटलिपुत्र या राजगृह का महत्व समाप्तप्राय हो गया। पुन: मगध अपने अंधकार के लगभग ५०० वर्ष बिताने के बाद गुप्तवंश की स्थापना के साथ प्रकाशमान होकर उभरा और यह समय भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल बन गया। गुप्त साम्राज्य की स्थापना तथा समय की खोज अनेक इतिहासकारों ने की है जिनमें श्री वासुदेव उपाध्याय, डॉ. के.पी. जयसवाल, डॉ. आर.के. मुखर्जी, डॉ. दाण्डेकर, डॉ. आर.सी. मजुमदार आदि उल्लेखनीय हैं। मगध की शासकीय या राजनैतिक जयघोष की दुंदभि गुप्त साम्रज्य की स्थापना के साथ ही मध्य भारत अथवा पूरे भारत में विस्तार पा चुकी थी, परन्तु चन्द्रगुप्त द्वितीय, जिन्हें इतिहासकारों ने विक्रमादित्य की संज्ञा से सुशोभित किया है, का समय आयुर्वेद विकास की दृष्टि से सर्वाधिक महत्व रखता है। नालन्दा विश्वविद्यालय में स्थित रसायनशाला तथा कुम्हरार, पटना से स्थित पाटलिपुत्र के भग्नावशेषों में आरोग्यशाला तत्कालीन विकसित चिकित्सालयों के अपूर्व उदाहरण हैं। इस समय भी दो मंजिले चिकित्सालयों का निर्माण होता था। प्राचीन भारत के इतिहासकारों की दृष्टि से कुम्हरार स्थित आरोग्यशाला मौर्यकालीन न होकर गुप्तकालीन है। आश्चर्य है कि एक नागार्जुन इस शास्र के उद्गाता के रुप में गुप्तकाल में प्रतिष्ठित होते हैं, जिनकी पुस्तक रसचिकित्सा मानी जाती है। उन्होंने पारद् का आविष्कार किया एवं रसौषधियों का विशेष प्रचलन किया। फिर भी कतिपय इतिहासकारों ने नागार्जुन का समय कुषाण या शुंगकाल में माना है। विक्रमादित्य के नवरत्नों में धन्वन्तरी का नाम आया हा। धन्वन्तरी शल्यशास्र के प्रणेता माने जाते हैं। वैसे धन्वन्तरी के प्रति भी अनेकश: मत-मतान्तर हैं। वे काशीराज दिवोदास के रुप में अधिक स्वीकृत हैं। पुराणों के अनुसार समुद्रमंथन से निकलने वाले चौदह रत्नों में से एक धन्वन्तरी भी थे। परन्तु पाटलिपुत्र में स्थित आरोग्यशाला का चिकित्सक चन्द्रगुप्त द्वितीय के नवरत्नों में से एक धन्वन्तरी भी था। धन्वन्तरी नाम से अनेकश: ग्रन्थ आज भी उपलब्ध हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय इतिहास के क्षितिज पर जगमगाता मगध साम्राज्य कभी-कभी घटाटोप से आछन्न हुआ, किन्तु धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, वैज्ञानिक, दार्शनिक और सामाजिक अर्थात् ज्ञान-विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में मगध ने प्रथम शंखनाद किया। आयुर्वेद के विकास में यदि समग्र रुप से चिन्तन किया जाय तो इसपर हजारों पन्ने लिखे जा सकते हैं। आयुर्वेद के विकास में मगध का योगदान आश्चर्यजनक है।
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