मगध

मगध प्रमंडल की परम्परागत कृषि व्यवस्था

पूनम मिश्र


ऐतिहासिक रुप से विख्यात मगध प्रमण्डल (पूर्व में गया जिला) बिहार राज्य के लगभग मध्य भाग में स्थित है। इसका क्षेत्रफल १२३४४ वर्ग किलोमीट तथा जनसंख्या ७०३८८९१ है। इसमें चार जिले गया, औरंगाबाद, जहानाबाद तथा नवादा है, जिनके क्षेत्रफल क्रमश:, ४९७६, ३३०५, १५६९ तथा २४९४ वर्ग किमीय तथा जनसंखाय क्रमश: २९६४३०९, १५३९९८८, ११७४९०० तथा १३५९६९४ है।

मगध प्रमण्डल के दक्षिणी भाग को एक पतली पट्टी छोटानागपुर के पठार से सम्बद्ध होने के कारण पठारी है, जबकि शेष बाग समतल मैदान। हालांकि बीच-बीच में कुछ पहाड़ियाँ न मैदानी भागों के बीच भी मौजूद है। प्रमण्डल की तमाम प्रमुख नदियाँ भी इन्हीं पठारी क्षेत्रों से होते हुए उत्तर की ओर गुजरी हैं। इनमें पश्चिमी सीमा पर स्थित सोन, पुनपुन, मदार, मोरहर फल्गू, तिलैयाढाढर यमुने आदि प्रमुख है।

मगध प्रमण्डल के अधिकांश क्षेतों में सिंचाई की अब भी पक्की व्यवस्था नहीं है। सोन से निकलकर औरंगाबाद के पश्चिमोत्तर भाग को सींचने तथा गया के पश्चिमी भाग को छूने वाली नहर ही प्रमंडल की एकमात्र फसली नहर है। उत्तर कोयल परियोजना की नगर से भी औरंगाबाद के कुछ हिस्सों में पानी मिलना शुरु हुआ है। शेष भाग में उपरोक्त नदियों तथा अनेक नालों को बांधकर नहर-पहन की एक हद तक व्यवस्था की गई है, लेकिन संचय की पक्की व्यवस्था न होने के कारण इनके जरिए, खरीफ फसल की सिंचाई भी मुश्किल से ही हो पाती है। शेष भागों में भी आहार पोखर यद्यपि स्वतंत्रता पूर्व से ही मौजूद है लेकिन सरकार की उपेक्षा तथा लोगों की मानसिकता में आये बदलाव के कारण इनकी स्थिति लगातार खराब ही होती गई है। भूमिगत जल भी प्रमण्डल के आधे से कम भाग में ही उपलब्ध है और विद्युत आपूर्ति की दयनीय स्थिति के कारण इनसे सिंचाई भी कोई खास लाभदायक नहीं है।

जमीन के ऊंचे नीचे तल के कारण जिले के पठारी भागों में अब भी भदई फसल को ही प्रधानता है। पूर्व से ही इस इलाके में इस मौसम की महत्वपूर्ण फसलें मकई, जिनोरा (बाजरा) मडुंआ, साठी (धान), कोदो, साँवाँ, चीना आदि रही है। इन अनाजों के अलावा अरहर, उडद, बराई, बोडा (लोबिया) आदि दलहन फसलें मिश्रित रुप में लगाई जाती रही है। नीची जमीनों में धान की फसल भी कहीं-कहीं की जाती है, किन्तु अब भी यह नाममात्र का ही है। इसके अलावा खेतों के किनारे-किनारे धोरान (झाडीदार लकडियों का ऊँचा घेरा) गाड़कर उन पर झिंगी, नेनुआ, करेला, कईंता, सेम, सीमा, कद्दुू, कोंहडा, भतुआ (पेठा), खीरा, खेकसा आदि सब्जियाँ भी उपजाई जाती रही है। खेतों में भी भिन्डी, टमाटर, बैगन आदि सब्जियाँ लगाई जाती रही हैं। परन्तु इन चीजों के उत्पादन का मकसद अपना उपयोग रहा है। बाजार में इनकी बिक्री नाममात्र की होती है।

रबी के मौसम में पठारी क्षेत्र में राई, तोरी, तीसी, सरमुजा, मलकौनी इत्यादि तेलहन, कुर्थी, बकला, चना आदि दलहन तथा जो और अपवाद स्वरुप गैहूँ की खेती होती है। बैगन, मिर्च, आलु, शकरकंद आदि की खेती भी जहां-जहां होती रही है।

मैदानी क्षेत्र की मुख्य फसल धान है। भदई की खेती भी होती है। लेकिन इसके क्षेत्र में लगातार कमी आती गई है। मकई मुख्य भदई फसल है जिसके साथ मिश्रित रुप में ऊडद, बराई, अरहर, बोडा आदि फसलें भी उपजाई जाती हैं। अनेक इलाकों में खासकर बलुआही जमीन वाले क्षेत्रों में मूंगफली की खेती भी स्वतंत्र या मिश्रित रुप में लम्बे समय से प्रचलित है। तिल की खेती भी जहां-तहां ऊडद के साथ मिश्रित रुप में होती है। सन या सनई की केती भी मिश्रित रुप में की जाती है। मँडुआ व मोठ की मिश्रित खेती भी पूर्व में काफी प्रचलित थी। इसका उद्देश्य मुख्यत: हल में चलने वाले पशुओं को चारा उपलब्ध कराना होता था। पर अब यह समाप्त प्राय है।

गहरे पानी का क्षेत्र नहीं के बराबर होने के कारण प्रमण्डल में धान की अगात व मध्यवर्ती किसमें अधिक लोकप्रिय हैं। पूर्व में धान की र्तृकड़ो किस्में उपजाई जाती थी, लेकिन अधिक उत्पादन के लालच में किसान इन्हें छोड़ते जा रहे हैं।

गेहूं मैदानी क्षेत्रों में रबी की प्रमुख फसल है। गैर सिंचित क्षेतों के किसान भी इसे काफी तरजीह दे रहें हैं। चना, मसूर, केसारी, मटर, बकला, कुल्थी, इत्यादि दलहनों तथा सरसों, राई, तोरी, तीसी इत्यादि तेलहनों की उपज भी प्रचुर मात्रा में होती है। हालांकि कम उपज के कारण इसके क्षेत्र में लगातार कमी आती गई है।

१९६७ के अकाल के बाद से पूरे प्रमण्डल में गरमा फसलों का उत्पादन तेजी से बढ़ा है। मक्का तथा मूंग इनमें सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। जहां-तहां गरमा धान, बाजरा, तिल व उडद की खेती भी होती है। सूरजमुखी की खेती भी इधर काफी लोकप्रिय होती जा रही है। सब्जियों की गरमा खेती भी काफी लोकप्रिय है।

ईख व आलू इस इलाके की मुख्य नकदी फसलें हैं। गया जिले का परैया व नवादा का करसलीगंज इलाका ईख के उत्पादन के लिए मशहूर है। गुरारु व करसलीगंज में चीनी मिलें भी मौजूद हैं। मिर्च, आदी, हल्दी, धनिया, सन, शक्करकन्द इत्यादि अन्य नगदी फसलें हैं, लेकिन इनका उत्पादन क्षेत्र बहुत कम है।

पान इस क्षेत्र की एक अन्य महत्वपूर्ण फसल है। गया, औरंगाबाद व नवादा जिलों के कुछ हिस्सों में परम्परागत रुप से इसकी खेती बरई (चौरसिया) जाति के लोग करते हैं। मगही पान की ख्याति देश भर में है और बहुत कम क्षेत्र में उपजाए जाने के बावजूद काफी अच्छी रकम उपलब्ध कराता है।

इस क्षेत्र में बैगन, सेम, किंभडी, नेनुआ, करेला, कद्दुू कोहढा, भतुआ या भूरा (पेठा), कईता, ओल रतालू,  कंदा, कच्चू, किंभडी, गोभी, पत्तागोभी इत्यादि सब्जियां तथा पालक, गेन्हारी, चौलाई, लाल साग, मेथी, सोया इत्यादि सागों की खेती विभिन्न मौसमों में होती है। खीरा, ककड़ी, तरबूज, खरबूजा लालमी आदि की खेती भी प्रचुर मात्रा में होती है।

क्षेत्र के अनेक भागों में आम, जामुन, अमरुद व पपीते के बगीचे हैं। जामुन, शरीफा, केला आदि के बागान भी जहां-तहां मौजूद हैं। सब्जी के उद्देश्य से सहिजन कहल आदि के पेड़ भी प्रचुर मात्रा में हैं। अमड़ा, नीबू, कटहल आदि पेड़ भी अचार के उद्देश्य से लगाये जाते रहे हैं।

क्षेत्र के तालाबों, पोखरों व अन्य दलदली क्षेत्रों में सिंगारा की खेती भी अनेक भागों में होती है। कुछ स्थानों पर कमल व भेंट के फूल भी लगाए गये हैं, जिनसे प्राप्त फूल व डंठल का उपयोग व्यंजन व कलल गट्टे का उपयोग दवा के रुप में किया जाता है। तालाबों में मछली पालने का प्रचलन भी बढ़ा है।

विशेषता:

मिश्रित खेती सदियों से इस क्षेत्र की विशेषता रही है। दूसरी महत्वपूर्म विशेषता अपने उपयोग की अधिकांश चीजों का स्थानीय स्तर पर उत्पादन है। इस कारण फसलों में कपास को छोड़कर शायद ही किसी कृषि उत्पद के लिए बाहर का मूँह जोड़ना पड़ता है। पान बाहर भेज कर इसकी भरपाई भी कर ली जाती है। इसके बाहर सघन आबादी और अपर्याप्त सिंचाई व्यवस्था के कारण उत्पादन जरुरत से कम है।

हल द्वारा मक्के की निराई इस अंचल के बाराचट्टी इलाके की एक अन्य स्थान देने योग्य विशेषता है। इससे श्रम की भारी बचत होती है। जबकि नुकसान नाममात्र का होता है।

असिंचित इलाके में धान के खेतों में खेसारी, मटर, चना, तीसी, बकला आदि की पैरा बुआई भी क्षेत्र की कृषि की विशेषता है। इस कारण उपज तो थोड़ी कम अवश्य होती है परन्तु सिंचाई तथा जुताई की जरुरत नहीं होती।

 

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