मगध

मैथिली लोक गीतों की संरचना वर्गीकरण एवं विशेषता

पूनम मिश्र


जीवन चक्र को दर्शाते गीत ले
वार्षिक क्रिया कलाप को दर्शाने वाले गीत
ॠतु गीत
ज्ञान-परक-लोक-गीत
भक्ति गीत
प्यार एवं सौन्दर्य के गीत
गौरव गीत

 

मिथिला विश्व के महान सांस्कृतिक धरोहर क्षेत्रों में से एक प्रमुख क्षेत्र है। यहाँ की धरती खादान के लिए उर्वरा तो है ही संतान गर्भा भी है। इसका सांस्कृति खासकर शैक्षणिक इतिहास हजारों साल का है। इस विद्या क्षेत्र का गौरव वेदों में वर्णित है। जनक, सीता, जगवल्क्य, कपिल, पक्षधर मिश्र, चण्डेश्वर, गार्गी, मैत्रेयी, लखिमादई और विद्यापति जैसे संतान को जन्म देने का गौरव इस धरा को है, जिन्होंने अपने कृति से विश्व को हमेशा-हमेसा के लिए ॠणी बना दिया। विद्यानुराणी यह क्षेत्र सदा से रहा है। विद्वान और सामान्य जनता को बीच जैसा तारतम्य और आपसी समझदारी यहाँ है, शायद ही कहीं मिले। यहाँ के रीति-रिवाज में लोक और शास्र का बेजोड़ संगम देखने को मिलता है। दुर्भाग्य से लोक जीवन के अधिकांश आयामों की चर्चा या तो नहीं किया गया है या फिर उस ढंग से नहीं किया गया है, जैसा इसका महत्व है। इस आलेख में मैथिली लोक जीवन के एक प्रमुख पक्ष "लोकगीत' को आधार बनाकर इसकी सामाजिक संरचना तथा संचालन में इसके महत्व इत्यादि बिन्दुओं पर मानवशास्रीय दृष्टिकोण से समझने एवं उसका विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है।

लोकगीत, लोक जीवन का प्राण है। कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है जिसे गाना गाना या कम से कम गुनगुनाना न आता हो। दर्द और प्रीति की अधिकता को सहजता से उढेलने का काम अगर कोई करता है तो वह है गीत गाना। मिथिला में असंख्य लोक गीत अनादि काल से चले आ रहे हैं। इनका संचार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में सामान्यतया मौखिक परम्परा द्वारा होता रहा है। तिरहुत गीत एवं यहाँ की महिला दोनों एक दूसरे के बिना पूर्ण नहीं है। किसी ने ठीक ही कहा है।

कोकटा धोती पटुआ साग।
तिरहुत गीत बड़े अनुराग।।
भाव भरल तन तरुणी रुप।
तइयो तिरहुत होइछ अनूप।।

और लोक गीत की परम्परा सदा से चली आ रही है। "वर्णरत्नाकर' के रचेता ज्योतिरिश्वर ठाकुर ने "लोक नाचों' जैसे शब्दों का प्रयोग यथास्थान कियी है। इससे पता चलता है कि लोक गीत की परम्परा कितनी प्राचीन है।

कभी-कभी बदलते परिवेश को देखकर कुछ लोग विचलित हो जाते हैं। उन्हें कुछ क्षण के लिए ऐसी संभावनाएँ दिखाई देने लगती हैं कि फिल्मी गीत के युग में और गाँव से शहरों में पलायन के रफ्तार में कहीं लोक गीत समाप्त न हो जाए लेकिन ऐसी बात नहीं है। परम्परा तो परम्परा है। परम्परा प्रत्येक काल मे जीवित रहती है। परिवर्तन को समेट लेना परम्परा की विशेषता है लोक गीतों की परम्परा को समझने वके लिए भागवत गीता का वह कथ्य जब अर्जुन भगवान कृष्ण से पूछते है कि हे प्रभो ये भागवत गीता का कथ्य जो आप मुझे समझा रहे हैं वह क्या है? भगवान कृष्ण इस पर बहुत ही सहजभाव से अपने सखा एवं भक्त अर्जुन को समझाते हैं : ""हे अर्जुन यह योग का विधान अर्थात भागवत् गीता सर्वप्रथम सूर्यदेव को बतलाया गया भगवान सूर्यदेव ने इसे मनु को बताया, मनु ने पुन: इक्ष्वाकू को समझाया, और इस तरह एक के बाद दूसरे द्वारा एक वक्ता से दूसरे वक्ता में यह आता रहा। किन्तुव समय के चलते प्रवाह में यह आता रहा। किन्तु समय के चलते प्रवाह में यह कहीं कुछ क्षण के लिए खो गया और इस तरह से श्रीकृष्ण को एक बार पुन: कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन से इस योग को कहना पड़ा।

मैथिली लोग गीतों की अवस्था भी यही है। आज मिथिला के तमाम बुद्धिजीवियों एवं सामान्य नर-नारी को इसके बारे में विचार करना है। और परम्परा को जीवित रखना है। वैसे परम्परा अभी भी अक्षुण्ण है।''

लोक गीतों का चरित्र ही ऐसा होता है कि इसे कोई चाहकर भी समाप्त नहीं कर सकता। लोक गीत के शब्दों में कम की तस्वीर दिल के कागज पर खिंच गयी है। इतिहास के पन्नों पर काइयाँ पुत जाएँगी युग-युग के संस्कार धुल जाएँगे और तकदीर की लिपि भी मिट जाएगी लेकिन लोक-हृदय की संवेदनशील वाणी युग-युग तक अमर रहेगी।

प्रेम की सहजता को ही अगर उदाहरण के तौर पर लिया जाए तो एक गाँव की निश्छल महिला जो अपने पति का इन्तजार कर रही है। कहती है :-

""फोरबइ में शंखाचुरी फारबई में चोलिया।
से धरबई जोगिनिया के वेष हे सखी।।''

अर्थ यह है कि गाँव कवीव गोरी अपने प्रवासी प्रियतम के इन्तजार में शंख की चूडी फोड़कर, कंचुका को फाड़कर जोगन बन रही है और अगर प्रियतम आ गया तो फिर क्या कहना, क्या वह प्रियतम को फिर आजाद करेगी? लेकिन प्रियतम यकायक जब जाने लगता है तो उसे मलाल सी होने लगती है-

""इहो हम जनितौ प्रिय। जेचिन्ह परदेशबा बांचितौ में रेशमक डोर।''

अर्थात् नायिका अपने प्रियतम को रेशम की डोर में बांध कलेजे में छुपा रखने का इरादा कर रही है। रेशम की डोर टूट जाएगी इसलिए कोई अपने प्रियतम को चुँदरी के आँचर में बांच रही है-

""रेशम केर बंधनमा दुटिए - फारि जेतई
बांचितौ में अँचरा लगाय।''

और कोई अपने आँचट को फाड़-फाड़ कर कागज बनाती है और अपने निर्मोही प्रियतम को प्रणय का संदेश भेजती है-

""अँचरा के फारि-फारि कगदो बनइतौं
लिखतऊँ में निर्मोहिया के सनेश।''

यह लोक गीत एवं लोक भाषा का चरित्र ही है कि महाकवि विद्यापति जैसे बहुभाषी विद्वान ने लोक भाषा या "देसिल बयना' में ही अपने अधिकांश पदावलियों की रचना की। कवि जल्द ही जननायक बग गए। मथुरा से धूलधुसरित राधा और वंशीधर कृष्ण को विद्यापति ने अपने गीतों के माध्यम से मिथिला की भूमि में ले आए। यहाँ कृष्ण माधव बन गए यही राधा साँवरी एवं अल्हड नायिका बन गयी। खैर विद्यापति के सम्बन्ध में बहुत कहने की जरुरत नहीं है।

मैं लोक गीत के कला शब्द विन्यास, राग जाल, लय इत्यादि चीजों का वर्णन नहीं करते हुए लोक गीतों की सामाजिक संरचना का मानवशास्रीय विश्लेषण करने जा रही हूं।

लोक गीत केवल गीत ही नहीं है। सामाजिक व्यवस्था को संचरित करने का एक प्रमुख आधार भी है। लोक गीत केवल अनुष्ठानिक, संस्कार, खुशी, उमंग एवं वेदना में गाने या गुनगुनाने वाली चीज नहीं एक समाज की समस्त जीवन शैली का दपंण भी है। अगर लोक गीत को सही ढंग से विवेचन किया जाए तो इतिहास, राजनीति, धर्म, दर्शन, पारिवारिक सम्बन्ध, ज्ञान-विज्ञान, संस्कार इत्यादि सभी चीज की जानकारी लोक गीत के द्वारा किया जा सकता है। उदाहरण के लिए बंगाल की तरह मिथिला में भी जब १४वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध एवं पंद्रहवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में कुलीन परम्परा का फैलाव होने लगा तो उसका सर्वाधिक दुष्परिणाम महिलाओं को भुगतना पड़ा। कुलीन ब्राह्मणों ने १०-१५-२० तक शादी करना प्रारंभ कर लिया। बहुत सी लड़कियाँ शादी के कुछ दिनों बाद ही विधवा होने लगी। ऐसी ही विधवा का दर्द एक लोक गीत जिसे विद्यापति द्वारा लिखा माना जाता है में दिखलायी पड़ता है-

""एकसरि तारा केओ नहिं देख
लिखल अकास अमंगल लेख।''

या फिर यह भी कहा गया है कि बहुत ही भाग्यशाली लड़कियों को सही पति मिल पाता है।

इस आलेख में मैंने अपने मानवशास्रीय विधा के अनुभव एवं लोकशास्र (Falklore ) के मंथन के आधार पर मैथिली लोक गीतों का वर्गीकरण करने का अकिंचन प्रयास किया है। हालांकि किसी भी देश, जाति, भाषा, समुदाय अथवा क्षेत्र के लोक गीतों को चन्द भागों में वर्णन करना बहुत ही दुश्कर कार्य होता है, खासकर जब मैथिली लोक गीतों का वर्गीकरण करना हो तो यह कार्य असंभव नहीं तो महाक अवश्य हो जाता है। हालांकि मैथिली लोक गीतों को अजय कान्त मिश्रा (१९४८) एवं माखन झा (१९७९) जैसे विद्वानों ने वर्गीकृत करने का प्रयास किया है। जहाँ श्री मिश्रा ने अपने वर्गीकरण में साहित्यिक पक्ष को अधिक उजाकर किया है, वहीं माखन झा ने इसे ""धार्मिक गीत'', ""ॠतु गीत'', ""सामाजिक समस्याओं को उजागर करने वाले गीत'', ""काम और श्रृंगार के गीत'', ""विवाह सम्बंधी गीत'', ""अनुष्ठानिक गीत'' इत्यादि के रुप में वर्णन किया है। माखन झा के द्वारा वर्णित वर्गीकरण में कुछ की नितान्त आवश्यकता है। श्री झा ने जैसा कि उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है। अपने १५ दिन के छोटे से समय में मिथिला क्षेत्र के एक या दो गाँव में रांची विश्वविद्यालय के मानव-विज्ञान के उच्चतर स्नातक के छात्रों के साथ के अनुभव के आधार पर वर्गीकरण किया है। इस दृष्टिकोण से मैंने इस लेख को एक सम्पूर्ण रुपेण मानव शास्रीय परम्परा के आधार पर अर्थात् ४५ दिन के क्षेत्र अध्ययन के आधार पर लेखन एवं गीतों का वर्गीकरण करने का प्रयास किया है।

संसार में शायद ही किसी अन्य भाग में लोकगीतों का इतना परत दर परत मिलता है। जितना मैथिली लोक गीत में। उदाहरण के लिए मेरे तीन सूचनादाता : मेरे साथ एक सप्ताह तक लगातार आठ से दस घंटा तक बैठकर १७५ प्रकार के गीतों का उल्लेख किया। महत्वपूर्ण तथ्य यह कि सभी सूचनादाता निरक्षर थे। उनका इस तरह का भागीरथी प्रयास ने मुझे प्रेरित किया कि मैं भी मैथिली लोक गीतों का अपने गृहन शक्ति के अनुरुप समझू एवं इसका मानवशास्रीय तरीके से वर्गीकरण कर्रूँ। कोई भी वर्गीकरण अपने आप में सम्पूर्ण या अन्तिम नहीं है। इतना स्पष्ट कर देना में आवश्यक समझता हूँ। यह वर्गीकरण भी उद्देश्यमूलक एवं मेरी अपनी समझ एवं मानवशास्रीय अध्ययन तथ इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली के ट्रेनिंग के आधार पर आधारित है। अन्तत: मैंने मैथिली लोक गीत को ७ भागों में, जो कि १८४ प्राथमिक लोक गीत जो मैंने स्वयं एकत्रित किये, और १२८३ अन्य गीत जो बहुत से संकलन के रुप में पहले से छपे हैं, के आधार पर वर्गीकरण किया है ये ७ वर्गीकरण इस प्रकार है-

१. जीवन चक्र को दर्शाते गीत ले।

२. वार्षिक क्रिया कलाप दर्शाने वाले गीत।

३. ॠतु गीत

४. ज्ञान-परक गीत

५. भक्ति गीत

६. प्यार और सौन्दर्य गीत तथा

७. गौरव गीत।

अब संक्षेप में प्रत्येक वर्गीकरण का वर्णन अनिवार्य हो जाता है। वर्णन से ही गीतों की संरचना को सहज रुप में समझा जा सकता है।

Top

१. जीवन चक्र को दर्शाते गीत ले : बहुतेरे लोक गीत जीवन चक्र के विभिन्न क्रिया कलापों यथा जन्म, नामकरण संस्कार, मुण्डल संस्कार, उपनयन संस्कार, विवाह संस्कार, कुँवारी लड़कियों के हेतु विभिन्न अनुष्ठानिक संस्कार इत्यादि में गाये जाते हैं और इन लोक गीतों से इस बात का भी आभास होता है कि संस्कार विशेष में अनुष्ठान के विभिन्न चरणो पर किस तरह का गीत किस भास और छन्द में गाया जाए। ग्रामीण ललनाएँ बच्चे के जन्म के छठें दिन पर सोहर गाकर मातृ देवी षष्टि के प्रति अपना धन्यवाद ज्ञापित करती है। सोहर गीतों को सामान्य रुप से दो भागों में यथा जन्म संस्कार से सम्बन्धित सोहर और धार्मिक सोहर के रुप में विभक्त किया जा सकता है। धार्मिक सोहर में भगवान कृष्ण और राम के जन्म की कथा और उनके जन्म से पूर्व देवकी एवं कौशल्या की वेदना को मार्मिक ढंग से गीतों के शब्द में पिरोया जाता है। जन्म से सम्बन्धित सोहर और कभी-कभी धार्मिक। सोहर उपनयन मुण्डन एवं विवाह संस्कार में भी गाया जाता है। कुछ सोहर ऐसे भी हैं। जो कि एक गर्भवती महिला के सन्तान होने के पूर्व की वेदना एवं उसके प्रति अकुलाहट को दर्शाते हैं। कुछ बाल गीत कॉया लोरी बच्चों को खुश करने के लिए खासकर महिलाओं द्वारा गाया जाता है। इस तरह के गीत सामान्यतया लय में लय मिलाने वाले होते हैं। उन का खास अर्थ नहीं होता जैसे :-

धधुआ मना उपाजे धरा
बौचा के छेदा देव कान दूनू सोना

या

चान माम्- चान माम् हँसआ द

या

अटकन-भटकन दहिया चटकन

लेकिन कभी-कभी बालगीत भी सारगर्भित अर्थ लिए होते हैं, परन्तु ऐसे गीतों की संख्या बहुत कम है। विवाह एक ऐसा संस्कार है जिसमें विवाह के तीन चार दिन पूर्व से लेकर द्विरागमन के चार-पाँच दिन पश्चात तक असंख्य गीत विभिन्न चरणों में गाए जाते हैं। मिथिला में विवाह के गीत सुहाग से प्रारम्भ होकर समदान या विदाई गीत के साथ समाप्त होता है।

Top

२. वार्षिक क्रिया कलाप को दर्शाने वाले गीत :- भारत एक कृषि प्राधन एवं ---------------- गांवों का देश है। इसके सनातन जीवन के अधिकांश पहलू गाँव की परम्परा से सम्बन्धित होते हैं। लोक गीत बी सहजभाव से उसी परम्परा की जीवन्तता को दर्शाते हैं। ऐसे गीत ग्रामीण जीवन में विभिन्न ॠतुओं के महत्व को दर्शाने का काम करते हैं। इन्हें दो भागो (क) कृषि से सम्बन्धित गीत एवं (ख) त्यौहार एवं व्रत से सम्बन्धित गीतों के रुप में समझा जा सकता है। कृषि गीत, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कृषि के विभिन्न चरणों यथा खेत की जुताई, बोआई, बीज का छिड़काव, फसलों का काटना इत्यादि के समय में गाये जाते हैं। मिथिला के गाँवों में ऐसे बहुतेरे ग्रामीम दोहे एवं पंक्तियाँ हैं जो लोगों को हवा की रुख, वर्षा, सूर्य की रोशनी, पशु-पक्षियों के आवाज अर्थात् मनुष्य का उसके प्रकृति के साथ सम्बन्ध के आधार पर अच्छे और बुरे फसल के बारे में पूर्वानुमान करने में मदद करते हैं। उनमें से अधिकांश दोहे एवं पद दो लोक कृषि वैज्ञानिक डाक एवं घाघ द्वारा रचित बताये जाते हैं। इस तरह के गीत ग्रामीण किसानों एवं महिलाओं का प्रकृति एवं प्रकृति के क्रिया कलापों के साथ आश्चर्यजनक तारतम्य स्थापित करने में मदद करते हैं। एक उदाहरण को अगर देखें :

धन ओ नगरी धन ओ देस।
जहाँ बहिसल अगहन मेघ।।

वह स्थान एवं राज्य धन्य है अगर अगहन अर्थात् दिसम्बर के उत्तरार्द्ध एवं जनवरी के पूर्वाध में वर्षा हो जाए। इस तरह की बारिस धान के पौधे जो कि लगभग पक रहे हों को पुष्टिकारक बनाता है, जिससे फसल बहुत ही अच्छी मात्रा में कृषकों को मिल जाती है। इसी तरह से किसानों को इन गीतों से यह भी मालूल हो जाता है कि किस-दिन-महिने एवं क्षण में वर्षा प्रारम्भ हो तो वह कब तक और किस मात्रा में पानी बरसाएगा। :

शुक्रवार की बादरी रहे शनीचर छाए।
कहे घाघ सुन घाघरी बिन बरसे नहिं जाए।।

अग्रलिखित दोहे जो घाघ के द्वारा रचित बताए जाते हैं, में यह कहा गया है कि अगर आकाश में मेघ के बादल शुक्रवार के दिन छा जाए और शनिवार तक मंडराते रहे तो घाख अपनी पत्नी से कहता है :

""ऐ मेरी घाघरी - सुन। वह मेघ बिना मूसलाधार वर्षा किए कभी भी नहीं जा सकता।'' और दोहे में प्रकृति के कुछ खास स्वभाव को देखकर लोक-वैज्ञानिक अपनी कवित्व की कला से अपने गरीब किसान को अकाल (सूखे के कारण) के लिए पूर्व में ही तैयार रहने को एवं उसके निदान ढूंढने को अगाह करते हैं :

सावन शुक्ला सप्तमी, हट, टह रैन करन्त।
तुम जाओ पिया मालवा, मैं जाऊँ गुजरात।।

इसका अर्थ यह है कि अगर सावन महिने के शुक्लपक्ष के सप्तमी तिथि की रात्रि बिल्कुल साफ हो मेघ एवं बादल का नामोनिशान न हो, तारे बहुत ही मोहक अवस्था में स्पष्ट दृष्टिगोचर हो तो यह भयंकर (अकाल) सूखे का परिचायक है। प्रकृति के इस स्वरुप को देखकर किसान की पत्नी परेशान हो जाती है और बहुत ही अग्रसोची होकर अपने पति को अन्य प्रदेश (मालवा) में जाकर मेहनत कर अर्थोपार्जन करने के लिए मंत्रणा देती है। वह स्वयं भी अपनी मातृभूमि को छोड़कर अन्य प्रदेश (गुजरात) में चली जाना चाहती है।

मिथिला के लोग, भारत के अन्य प्रदेशों के लोगों की तरह ही स्वभाव से धार्मिक एवं उत्साही स्वभाव के होतें हैं और साल भर विभिन्न व्रत, त्यौहार एवं अन्य उत्सवों का आयोजन बड़े ही धूमधाम एवं अनुष्ठानिक कृत्यों के द्वारा किया करते हैं। इन कृत्यों का निर्धारण प्रतिवर्ष पतरा या पंचाग के द्वारा किया करते हैं। इन त्यौहारों का सिलसिला प्रतिवर्ष चैत्र महिने से प्रारम्भ होता है। इन त्यौहारों में विभिन्न प्रकार के गीत गाए जाते हैं। मिथिला के त्यौहारों में प्रमुख हैं - रामनवमी, जुडिशीतल, वटसावित्री, नागपञ्चमी, मधु श्रावणी, दुर्गापूजा, कोजागरा, दीपावली, सागाचकेवा, तुसारी, भरद्वितीया, दाहा इत्यादि।

Top

३. ॠतु गीत :- ॠतु गीत किसी भी क्षेत्र, भाषा एवं मानवीय संवदेना की एक महत्वपूर्ण कडी है। चाहे पारम्परिक श्रृंगार की रचना हो, विरह की वेदना को दर्शाना हो, अभिसार को साकार करना हो, लोक कवि से लेकर लिखित साहित्य के कवि समस्त भाषाओं में अपनी सर्जनात्मकता के माध्यम से ॠतु गीत की रचना करते हैं और यह परम्परा शास्वत है, अत: आगे भी निर्माण की प्रक्रिया अबाध रुप से चलती रहेगी। मैथिली लोकगीतों में भी वर्ष के हरेक महिने या फिर हरेक अवस्था का वर्णन विभिन्न संदर्भों में किया गया है। रहेक महिने की अपनी एक विशेषता है जो गीतों में दृष्टिगोचर होता है। कभी-कभी किसी खास महिने का विशेष महत्व हो जाता है। इन गीतों में निराशा या प्यार में विफलता, सामान्यतया प्रेमी या पति के अनुपस्थिती के कारण की अधिकता होती है। ॠतु गीतों को सामान्यतया बारहमासा, छैमासा, एवं चौमासा तीन श्रेणियों में गाया जाता है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है बारहमासा में बारह महिने का वर्णन, छैमासा में छै महिने का वर्णन एवं चौमासा में चार महिने का वर्णन होता है। प्रेम, करुणा, विरह, अभिसार, नोंक-झोंक, भक्ति, ज्ञान, इत्यादि सभी चीजों का समावेश इन गीतों से होता है। इन गीतों का छ: मुख्य भागों में विभक्त कर समझा जा सकता है :

 

(क) धार्मिक गीत, जिसमें प्रत्येक महिने का वर्णन धार्मिक पृष्ठभूमि में किया जाता है,

(ख) कृषि एवं कृषकों से सम्बन्धित गीत, जिसमें किसानों को कब, क्या और कैसे करना चाहिए, इसका वर्णन होता है,

(ग) व्याख्यान परक गीत जो माने हुए लोक एवं धर्म महाकाव्यों के हिस्से होते हैं,

(घ) ऐसे गीत की श्रृंखला जो एक असहाय महिला या पुरुष की वेदना, अकेलेपन, विकलांगता, लाचारी, विवशता, इत्यादि को कारुणिक शब्दों एवं लय में दर्शाते हो,

(च) चरित्रवाण महिला के चरित्र की परीक्षा, या फिर कुचरित्र महिलाओं के प्रेम-प्रसंग (या काम के प्रति आसक्ति) को दर्शाने वाले गीत,

(छ) परम्परागत ज्ञान को शाश्वत करने के दृष्टिकोण से रचित प्रयोगवादी गीत।

Top

४. ज्ञान -परक-लोक-गीत :- प्रत्येक गीत में ज्ञान के तत्व विद्यमान होते हैं, फिर गीतों की अलग श्रेणी-ज्ञानपरक-लोक गीत बनाने की जरुरत क्यों? यह एक महत्वपूर्म प्रश्न है। इसका उत्तर यह है कि मिथिला में असंख्य लोक गीत ऐसे हैं जो लोंगो को दिशा-निर्देशन करने के लिए रचित हैं एवं उनके लिए मार्गदर्शक के कार्य कर रहे हैं। इन गीतों की रचना, श्रृंगार, भक्ति, प्रेम, करुणा, वात्सल्य, कृषि, प्रकृति वर्णन इत्यादि से ऊपर उठकर ज्ञान की परम्परा को अक्षुण्ण बनाने एवं एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानान्तरण करने के उद्देश्य से किया गया है। इस बात का स्पष्टीकरण एक उदाहरण के आधार पर सहज रुप से किया जा सकता है, जब मैं अपने अध्ययन क्षेत्र में भ्रमण कर रही थी तो एक युवक बीमार पड़ गया। चिकित्सक को बुलाया गया। चिकित्सक ने दवाई दी। चिकित्सक के चले जाने के बाद युवक के पितामह जो कि करीब पच्चासी वर्ष के थे, कहने लगे ""कभी भी संयम से नहीं रहता है। न समय से सोना, न समय उठना। अकर-बकर खाना, कभी भी किसी भी चीज का परहेज नहीं करता।'' उन्होंने मेरी ओर देखते हुए कहना प्रारंभ किया ""मैं पच्चासी वर्ष का हो गया हूँ और आजतक जीवन में मात्र तीन बार चिकित्सक के पास गया हूँ। कारण स्पष्ट है मैं आज भी रात आठ बजते-बजते सो जाता हूँ और प्रात: साढे चार बजे बिस्तर से उठ नित्य क्रिया में संलग्न हो जाता हूँ। मैं इस अवस्था में भी अपना कार्यो स्वयं करता हूँ एवं कार्य के सम्पादन के लिए किसी की आवश्यकता का अनुभव नहीं करता। और मेरा पोता, जो कि अभी केवल २७ वर्ष का है हरेक महिने में दो बार चिकित्सक के पास जाता है। बारह बजे रात से पहले यह कभी नहीं सोता और नौ बजे दिन से पहले बिस्तर छोड़ना इसके बस की बात नहीं। अश्विन-कार्तिक महिने में दिन में भी सो जाता है। जानते हैं अश्विन-कार्तिक में दिन में सोने वाले पर विधाता भी बाम हो जाते हैं।''

आसिन-कार्तिक जो कोई सोवे।
ताके लिये विधाता रोवे।।

अब आप ही बताइये, यह बीमार नहीं पड़ेगा तो क्या होगा?''

मैंने उन बुजुर्ग से प्रश्न किया : आप कह रहे थे खास महिने में खास चीज का परहेज। यह क्या है? क्या आप मुझे इन परहेज से सम्बन्धित बातों की जानकारी दे सकते हैं? मेरे इस प्रश्न पर कुछ देर तक सोचने के बाद उन्होंने मुझे एक बारहमासा सुनाया, जिसमें प्रत्येक महिने एक परहेज बतलाया गया है :

सावनक साग ने भादवक दही।
आसिनक ओस न फागुनक मही।।

माधक मिसरी न फागुनक चना।
अगहनक जीर न पूसक धनी।।

चैतक गुड़ ने बैसाखक तेल।
जेठक चलव न असाढक बेल।।

कहे धन्वन्तरि अहि बचे।
बैद्यराज काहे पुरिया रचे।।

इसका अर्थ स्पष्ट है कि मिथिला के लोगों को सावन में साग में भादव महिने में दही नहीं खाना चाहिए। इसी तरह से आसिन में ओस से बचने एवं कार्तिक में मट्ठा काने की मनाही है। माघ में मिसरी एवं फाल्गुन में चना खाने की अनुमति नहीं है। अगहन में जीर खाना, पूस में धनी खाना, चैत में गुड़ खाना एवं वैसाख में सरसों तेल का प्रयोग वर्जित है। इसी तरह से जेठ में चलने की एवं असाढ में बेल खाने की मनाही है। धन्वन्तरि ॠषि कहते हैं - अगर कोई व्यक्ति इस बात को अक्षरस: मानकर चले तो किसी चिकित्सक को बुलाने एवं दवा लेने की जरुरत नहीं है। पच्चासी वर्षीय बुजुर्ग के दो अनुभव इस बात को दर्शाने के लिए पर्याप्त हैं कि किस तरह से लोक कवियों ने लोग गीतों एवं समाज के लोगों में ज्ञान को अक्षुण्ण बनाने में अपना योगदान दिया है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि लोक कवि ने अग्रलिखित बारहमासा में जान-बूझकर महान ॠषि एवं चिकित्सक धन्वन्तरि का नाम अन्त में डाल दिया है, जिससे लोग इस परहेज का पालन आदर के साथ नि:संकोच होकर करें। इस तरह से और भी बहुत से लोक गीत हैं जो लोगों में ज्ञान को संचरण करने का कार्य करते हैं।

Top

५. भक्ति गीत :- मैथिल अपनी भक्ति भावना, धार्मिक संस्कार और धर्म के प्रचार में विद्या के माध्यम से योगदान के लिए विख्यात हैं। अत: यह स्वाभाविक है कि यहाँ के लोक गीतों में भक्ति गीत का एक महत्वपूर्ण स्थान बना हुआ है। मिथिला के लोग वैसे तो शक्ति के पुजारी के रुप में विख्यात है परन्तु शिव उनके आदर्श देव हैं। राम की पूजा में भी उनका जवाब नहीं है। विद्यापति ने अपने लोक गीतों के माध्यम से राधा एवं कृष्णा को मथुरा से मिथिला ले आए। जहाँ मिथिला की राधा वय: संधि पर खड़ी अल्हड़, सांवरी बनकर धुलधुसरित राहों पर कृष्ण का इन्तजार करती है, वहीं कृष्ण मुरली बजाकर कभी कदम्ब तो कभी यमुना के तट पर राधा एवं अन्य गोपियों के साथ अटखेलियाँ करते हैं। कभी-कभी गंभीर बनकर मीरा के प्रभु बन जाते हैं। काली, दस, विद्या, दुर्गा, जाया इत्यादि मातृदेवी का स्थान तो मिथिला में बना हुआ ही है। इसके अलावा सूर्य देव, गणेश एवं अन्य देवताओं की पूजा होती है। मिथिला के मुसलमान भी मैथिलि लोक गीतों के माध्यम से मरसिया गीत एवं विवाह के समय सोहर गाते हैं। मैथिली लोक गीत के भक्तिगीतों को निम्नलिखित भागों में विभक्त कर समझा जा सकता है :

(क) भजन और कीर्तन : जो सामान्यता भगवान विष्णु (राम एवं कृष्ण), गंगा, शिव और शक्ति के गुणगान से सम्बन्धित होते हैं।

(ख) प्राती : इन गीतों का प्रात: कालीन भक्त अपनी भक्ति भावना से प्रेरित होकर अपने भगवान एवं देवी (भगवती) को प्रसन्न करने के उद्देश्य से गाते हैं। प्राती के अन्दर आने वाले गीतों को पुन: भैरवी, जाजयन्ती, बिहाग इत्यादि भागों में विभक्त किया जाता है।

(ग) सांझ : जैसा कि नाम से स्पष्ट है, इस तरह के भक्तिपरक लोकगीतों को सांय काल गाया जाता है। सांझ गीतों में लक्ष्मी एवं शक्ति के विभिन्न स्वरुपों - काली, भवानी, गोसाउनि, ज्वालामुखि, भगवती इत्यादि की अर्चना अधिक की जाती है। अन्य देवी-देवताओं के भी गीत गाए जाते हैं।

(घ) गो साउनिक गीत : गोसाउनिक गीत ऐसे भक्तिपरक गीत हैं जिसके माध्यम से लोग अपने कुल देवी को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं।

(च) भगवती गीत : भगवती गीत भी गोसाउनिक गीत की तरह कुल देवी को प्रसन्न करने के लिये गाये जाते हैं।

(छ) शिव भक्ति गीत : मिथिला में सर्वाधिक गीत शिव को प्रसन्न करने के लिए गाये जाते हैं। प्राती के अधिकांश गीत भी शिव को समर्पित होते हैं। शिव गीत के मुख्य दो प्रकार हैं-

(१) नचारी - जिसमें एक भक्त नाचकर अपनी लाचारी एवं विवशता को बहुत ही सहज एवं कारुणिक ढंग से अपने अंतस की आवाज से गाकर देवाधि-देव-महादेव शिव को रिझाता है।

(२) महेशबानी - जैसा कि नाम से स्पष्ट है, महेशबानी में भगवान शंकर का दैनिक जीवन, उनका योगी का रुप, परिवार, पत्नी, बच्चे इत्यादि के जवाबदेही से निश्चिन्त होकर घुमकर की तरह वन, जंगल, पहाड़ो, कंदराओं में भटकना, भूत-प्रेत की माला, सांप को गले में लपेटे रहना, ताण्डव नृत्य करना, बसहा बैल का दूसरे के खेत में चरने पर खेत के मालिक एवं मालकिन के द्वारा पार्वती से शिकायत, बसहा-बैल, चूहा सांप, मयूर, बाघ इत्यादि विपरीत चीजों का एक समागम शंकर के बारात आने पर पार्वती की माँ मैना द्वारा पश्चाताप कि अब मेरी बेटी इस भंगेरी, जटावाले, अर्धनग्न जोगी के साथ कैसे जीवन व्यतीत करेगी इत्यादि का वर्णन होता है। नचारी एवं महेशबानी के सम्बन्ध में मिथिला के लोगों में ऐसी धारणा है कि शिव भक्ति से सम्बन्धित गीतों को दो विधा का प्रारंभ महाकवि विद्यापति ने शुरु किया। नचारी एवं महोशबारी के अतिरिक्त कमरभुआ गीत भी शिव-भक्ति से सम्बन्धित हैं। कमरभुआ गीत ऐसे गीतों को कहते हैं जो लोग गंगा के सिमरिया एवं सुलतानगंज धार से गंगाजल लेकर अपने कंधों में लेकर बैद्यनाथधाम (देवधर) जो अब नवगठित राज्य झारखण्ड में आता है, जाकर भगवान शिव को चढ़ाते हैं, पूरे रास्ते में कांवरियां कमरभुआ गीत गाते हैं। कंवरियों को मेथिली भाषा में कमरभुआ कहा जाता है।

(झ) भिखारियों एवं अनाथों के गाये जाने वाले गीत : ये गीत जैसा कि नाम से स्पष्ट है भिकारियों एवं असहायों द्वारा गाए जाते हैं। इन गीतों में गाए जाने वालों की विवशता एवं करुणा का आभास होता है। रोकर अपनी समस्या को उजागर करना इन गीतों की विशेषता हैं।

Top

६. प्यार एवं सौन्दर्य के गीत :- सच कहा जाए तो समस्य मिथिला क्षेत्र ज्ञान के साथ-साथ भक्ति, प्यार एवं सौन्दर्य के लिए विख्यात है। जनकपुर का नगर वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसी दास ने भी लिखा है :

बनै न बरनत नगर निकाई।

प्यार, सौन्दर्य एवं भक्ति का सम्बन्ध चोली एवं दामन का है। विद्यापति ने भक्ति के अगाधभाव को राधा-कृष्ण, महेशबानी नचारी, गंगा-गीत, भगवती गीत जैसे,

जय-जय भैरवि असुरभयावनि
पशुपति भमिनि माया

के माध्य से उजागर किया है वहीं दूसरी ओर प्रेम प्रसंग, प्यार एवं सौन्दर्य का सर्वाधिक उन्नत वर्णन भी विद्यापति ने ही किया है। यह परम्परा आज भी विद्यमान है। प्यार एवं सौन्दर्य भरे गीतों में प्यार की सहजता, प्रेमीमन की अकुलाहट, नायिका एवं नायक का अभिसार के लिए छटपटाना एक नायिका एवं नायक के मन में प्रेम के प्रति उभरते विचारों की तांती, सौन्दर्य इत्यादि का वर्णन होता है। इन गीतों के प्रमुख प्रकार में तिरहुत को सर्वाधिक प्रचलित माना गया है। तिरहुत गीत उत्सव संस्कार एवं अनुष्ठानिक अवसरों में तो गाए जाते ही हैं, चर्खा चलाते हुए, आटा पीसते हुए, सीकी बिनते हुए, खाना पकाते हुए एवं अन्य कार्यों को सम्पादित करते हुए मैथिली ललना इन गीतों को गाते-गुनगुनाते रहती है। खेतों में कार्य करने वाले किसान, मजदूर, स्री, पुरुष, ग्वाले, चरवाहे भी प्यार श्रृंगार और सौन्दर्य के गीत गाते रहते हैं। तिरहुत मिलन का गीत है। तिरहुत विरह का भी गीत है। तिरहुत गीतों को निम्नलिखित उपवर्गों में विभक्त कर समझा जा सकता है :

(क) बटगमनी : जैसा कि नाम से स्पष्ट है, बटगमनी रास्ते में चलते हुए गाए जाने वाले गीतों के संकलन का नाम है। ऐसे गीत खास तौर से नायिका के अपने नायक के अभिसार को दर्शाते हैं। विशेषकर जब वह उससे मिलने के लिए जा रही होती है। ऐसे गीत बहुत ही अपूर्व अंदाज एवं स्वर में सामान्यतया बिनी किसी बाद्ययंत्र के सहारे गाये जाते हैं।

(ख) ग्वालरी : ये गोपियों के गीत हैं जो कृष्ण के बचपन की गोपियों के साथ अटखेलियाँ एवं प्रेमपूर्ण शरारत को प्रदर्शित करता है।

(ग) रास : रास भी ग्वालरी की तरह कृष्ण की शरारत एवं गोपियों के साथ उनकी लीला को दर्शाता है।

(घ) मान : इस तरह के गीत एक प्रकार की नाटकीयता लिए हुए स्री के अपने प्रति नाराजगी को दर्शाता है। जब पत्नी या नायिका अपने पति या नायक से नाराज हो जाती है तो वह उसे गुहार करके मनाने का प्रयास करता है। इस तरह के गीत गो स्रीमान कहते है। इसी तर से जब प्रेमी अथवा पति अपनी प्रेमिका अथवा पत्नी गीत गाकर प्रसन्न करना चाहती है तो उसे पुरुषमान कहते हैं। स्रीमान को मानिनि तथा पुरुषमान को मान के रुप में भी जाना जाता है।

इसके अलावे बैलगाडियों के झुण्ड में गाने वाले गाड़ीवान अथवा कारवां के गीत, लोक नाटकीय गीत इत्यादि भी इसी श्रेणी में रखे जा सकते हैं।

Top

७. गौरव गीत :- इस श्रेणी के अन्तर्गत वैसे गीतों को रखा जाता है जो मिथिला भूमि एवं यहाँ के लोगों की ऐतिहासिक, आध्यात्मिक, धार्मिक, माइथोलोजिकल महानता की गाथा कहते हैं। ऐसे गीतों में मिथिला भूमि की महानता यहाँ के ऐतिहासक एवं पौराणिक पात्रों की महानता की गाथा को गाते हैं, को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। उदाहरण के लिए एक गीत में गायक चंचंल, मंद, सुगन्ध, गतिमान हवा से निवेदन करता है कि ""हे हवा तुम मिथिला के रास्ते से चलो। क्योंकि यहाँ आठों पल सुरभित होता है। यहाँ सीता का जन्म हुआ था। यहाँ के तान्त्रिकों ने श्मशान स्थल को भी सम्मान दिया है। यहाँ बसन्त मानो रुक सा गया है और हमेशा सौन्दर्य सुगन्ध से ओतप्रोत होकर बसन्ती हवा का वयार चलते रहते हैं। यहाँ आकर भगवान भी अपने आपको धन्य समझते हैं इत्यादि।''

इसी तरह से एक अन्य गीत में मैथिल एक सुंदर सी युवती जो यात्रा कर रही होती है, से निवेदन करता है कि "तुम मिथिला नामक ग्राम में कुछ दिनों के लिए रुको। क्यों रुको? क्यों कि यह भगवान शिव का ससुराल एवं सीता का ग्राम है। यह ऐसी धरा है जहाँ सरके पास सीताजी तुम्हें अपने हाथों पंखा हिलाएंगी और दाहिने भाग में भगवान राम स्वयं आकर बैठेगे। यहाँ आना गंगा और यमुना नहाने में भी ज्यादे फलदायक है, तुम यहाँ की पुण्य नदियों - कमला, बागमती, कोसी में भी नहाकर अपने को धन्य समझ सकती हो। यहाँ के अशोक वृक्ष के नीचे एक बार बैठ तो जाओ, फिर देखों वो किस तरह तुम्हारे दुख का निवारण करता है।' इत्यादि इत्यादि। कथा-गाथा को कहानी की तरह सुनाया जाता है। कथा गाथाओं में प्रमुख है : राजा सलहेश, अल्हाऊदल, दीनाभद्री, कारिख महाराज, कोइला बीर, नेवार, अजुरा, गोपीचन्द और मैनावती इत्यादि।

ऊपरवर्णित वर्गीकरण डॉ. कैलाश कुमार मिश्र ने अपनी मानवशास्रीय विश्लेषण के आधार पर सुविधा के लिए किया है। यद्यपि इस विषय पर अभी और भी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। प्रत्येक विषय के विद्वान या शोधार्थी अपने विषय के ज्ञान, प्रशिक्षण, क्षेत्रीय अनुभव, विषय में अभिरुचि आदि के आधार पर इसे पुन: वर्गीकृत कर सकता है। इनता अवश्य है कि मैथिली लोक गीतों के विस्तृत वर्गीकरण एवं संरचनात्मक अध्ययन से मिथिला के इतिहास, कला, सामाजिक व्यवस्था इत्यादि सभी वस्तुओं की जानकारी, संस्कार, रीति-रिवाज, प्रेम, सौन्दर्य, अर्थगौरव इत्यादि को भी सहजता एवं वैज्ञानिक के कसौटी पर समझा जा सकता है। यहाँ के लोकगीतों के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि लोकगीतों के ८५ऽ से भी ऊपर के हिस्से पर यहाँ की महिलाओं का वर्च है। रीति-रिवाजों में उनका वर्च स्पष्ट परिलक्षित होता है।

अन्तत: यही कहा जा सकता है कि ये लोक गीत केवल लोक गीत न होकर सार्वभौमिक सर्जनता, मानवीय सृजनशीलता के सार्वजनिक प्रतिमान हैं। ये गीत एक बच्चे के गर्भ में आने से प्रारंभ होकर जीवन के अन्तिम सांस तक प्राणवान रहते हैं। सांसों के लेने और छोड़ने की प्रक्रिया की भांति ये सजीन है। समाज अपने ज्ञान की समस्त विद्यया को एक तरह से उन असंख्य गीतों की भांति संजोये रखता है। मिथिला जैसा कि प्रारंभ में ही कहा जा चुका है, एक महान सांस्कृतिक एवं विद्या-क्षेत्र है, जहाँ लोक गीतों की परम्परा गंगा में पवित्र गंगाजल की धारा के समान प्रवाहमान है।

पिछला पृष्ठ | विषय सूची |


Top

Copyright IGNCA© 2003