आलोच्यकालीन अभिलेखों तथा साहित्यिक प्रमाणों से विदित होता है कि शासकों की धार्मिक सहिष्णुता के कारण बौद्ध एवं जैन धर्मों का भी विकास हुआ। विभिन्न विद्वानों ने बौद्ध एवं जैन ग्रंथों की रचना की। इनमें से कुछ प्रमुख विद्धानों का उल्लेख किया जा रहा है --
परमार्थ
आलोच्यकाल में चीन के धार्मिक सम्राट वूती ने ५३९ ई. में भारत से संस्कृत पुस्तकों को लाने के लिए विद्वानों का एक दल भारत भेजा। इस दल के साथ उज्जैन के निवासी एवं बौद्ध भिक्षु परमार्थ ५४६ ई. में चीन की राजधानी नैर्जिंन्कग पहुँचे। वहाँ पर लगभग बीस वर्षों तक रहकर उन्होंने अनेक संस्कृत ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया।
आचार्य सिद्धसेन दिवाकर
ये संभवतः उज्जयिनी के वासी थे। जैन साहित्य में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर का काल पाँचवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और छठी शताब्दी ई. का पूर्वार्द्ध माना जाता है। इन्होंने न्यायावतार, सम्मति तर्कसूत्र, तत्वानुसारिणी, तत्वार्थटीका, कल्याणमंदिर, स्रोत, द्वात्रिशिकास्तोत्र आदि ग्रंथो की रचना की।
जैनियों के एक आख्यान के अनुसार, ""इन्होंने अपनी प्रार्थना के प्रभाव से एक बार
उज्जयिनी के महाकाल के मंदिर में शिवजी के लिंग को छिन्न- भिन्न कर अपने कल्याणमंदिर स्तोत्र का पाठ करके उसी स्थान पर जैन तीर्थकर पार्श्वनाथ की मूर्ति उत्पन्न कर दी थी।
द्रव्यवर्धन
अवन्ति का औलिकर शासक महाराजाधिराज द्रव्यवर्धन ज्योतिष शास्र का ज्ञाता था। उसका उल्लेख वराहमिहिर के ""वृहत्संहिता'' नामक ग्रंथ से प्राप्त होता है, जिसमें कहा गया है कि द्रव्यवर्धन ने भारद्वाज की रचनाओं का अध्ययन करके ""शाकुन'' पर एक रचना की। इसके अतिरिक्त इसके संबंध में कोई जानकारी नहीं प्राप्त होती।
वराहमिहिर
विवेच्यकालीन मालवा के वराहमिहिर की गणना एवं प्रसिद्ध ज्योतिविंद के रुप में की जाती है। इनके पिता का नाम आदित्यदास था और उनका जन्म ""कापित्थक'' (उज्जयिनी के समीप) नामक स्थान में हुआ था। विद्वानों ने उनका काल शक सं. ४२७ (५०६ ई.) तथा शक सं. ६०९ (५८७ ई.) के मध्य अनुमानित किया है। वराहमिहिर ने बृहज्जातक, बृहत्संहिता, पंचसिद्धांतिक, लघुजातक आदि ग्रंथों की रचना की, किंतु इनमें ""बृहत्संहिता'' तथा ""पंचसिद्धांतिका'' की रचना उन्होंने संभवतः उज्जयिनी में रहकर की थी। ऐतिहासिक दृष्टि से इन दोनों ग्रंथों का विशेष महत्व है।
""बृहत्संहिता'' से ग्रहों- उपग्रहों की आकाशीय गति तथा मनुष्यों पर उनका प्रभाव, वास्तु- शिल्प, प्रतिमा निर्माण, विभिन्न वर्गों की स्रियों और पशुओं की चारित्रिक विशेषताओं, बहुमूल्य रत्नों आदि के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।
वात्स्यायन
विवेच्यकालीन साहित्यकारों में वात्स्यायन का भी नाम उल्लेखीय है। इनका काल चौथी या पाँचवीं शताब्दी ई. माना जाता है। संभवतः चौथी शताब्दी ई. में वे उज्जयिनी में निवास कर
रहे थे। वात्स्यायन द्वारा लिखित ""कामसूत्र'' में तत्कालीन हिंदू समाज के शौकीन नागरिकों के उत्सव- प्रिय जीवन, गृह- निर्माण, उपवन- निवेश, रन्धनशाला आदि का वर्णन मिलता है।
कालिदास
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