परिव्राजक की डायरी |
देश-सेवक |
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नरेन
घोषाल और मैं एक ही कक्षा में, परन्तु
अलग-अलग कालेज में पढ़ते थे । कॉलेज
में पढ़ते थे । दोनों का घर नजदीक
होने पर हम लोगों में यथेष्ट घनिष्ठता
हो गई थी । अच्छे खिलाड़ी होने के कारण
नरेन बाबू बहुत प्रसिद्ध थे और पढ़ाई
समाप्त होने के बाद इसी कारण उन्हें
नौकरी मिलने में कोई देरी नहीं
हुई । नौकरी मिलने के बाद कुछ
दिनों तक मुझे उनकी कोई ख़बर नहीं
मिली । आॅफ़िस के काम से उन्हें प्रायः
विभिन्न शहरों में घूमना-फिरना
होता था ।
इसके बाद फिर जब नरेन घोषाल
से अक्सर भेंट होने लगी, तब उन्होंने
असहयोग आंदोलन में मदद की थी और
कलकत्ते में कांग्रेस के केन्द्रिय कार्यालय
में किसी कार्य का भार भी ले लिया
था । कांग्रेस को सहयोग देकर नरेन
बाबू प्रबल गांधी भक्त हो गये । थोड़े
ही दिनों में अधोवस्र पहनने लगे ।
मांस, मछली खाना छोड़ दिया । इसी
बीच कुछ दिनों तक केवल कच्चे फल-फूल
खाकर ही रहने लगे । इन सब अत्याचारों
से उनका बलिष्ठ शरीर दुर्बल हो गया
। लेकिन किसी भी तरह उन्हें यह बात
समझायी नहीं जा सकती थी । समझाने
का प्रयास करने पर वे कहते कि ऐसे
में मुझे बहुत दुर्बलता का अनुभव
होता है ।
अपने ऊपर इतने अत्याचार के फलस्वरुप
हमने नरेन बाबू में धीरे-धीरे
बहुत-से परिवर्तनों को देखा । मानों
पहले की अपेक्षा वे अधिक असहिष्णु
हो गये थे । उनमें क्षमाशीलता का गुण
कम हो गया । इन सबके अतिरिक्त भी
नरेन बाबू अपने को वैसा ही समझते
थे । एक दिन उन्होंने दु:खी होकर
हमसे कहा कि शहर में बँधे रहने
पर ही उनका ऐसा अधोपतन हुआ है । देश
के नेताओं की बेईमानी देखते-देखते
वे विरक्त हो उठे । उन्होंने जान लिया
था कि शहर के नेता अपने को छोड़कर
दूसरों के दु:खों को हृदय में नहीं
उतार सकते । वास्तव में उन्होंने दूसरों
को प्यार करना सीखा ही नहीं है ।
बात सत्य है कि नहीं, यह पता नहीं,
परन्तु उस समय शहर में रहकर नरेन
बाबू की जो दुर्गति हो रही थी, उसके
विषय में हम मित्रगण प्रायः आपस में
बातचीत करते थे । कहीं बाहर जाने
से ही उनका उपकार होने की सम्भावना
थी । इसी समय कलकत्ता में सूचना आयी
कि वर्द्धमान जिले के दक्षिण भाग में दो
थाना क्षेत्र दामोदर नदी की बाढ़ में
बह गये हैं । यह सुनकर नरेन बाबू
होमियोपैथी की कुछ दवाइयाँ साथ
लेकर वर्द्धमान की ओर रवाना हो
गये । उनके साथ शिशिर नाम का एक बालक
भी गया था । कांग्रेस के निर्देशानुसार
वर्द्धमान पहुँचकर उन लोगों ने माधवी
डगंगा नामक एक गाँव में एक कमरी लेकर
रिलीफ का कार्य प्रारम्भ किया । इन
सब कार्यों में शिशिर के उत्साह का अंत
नहीं था । वह पाना और कीचड़ पार करते
हुए एक के बाद एक गाँव में प्रत्येक गृहस्थ
के घर स्वयं निरीक्षण करके टोकन बाँटकर
आता था । सप्ताह के अंत तक सात गाँव
के लोगों को टोकन बाँटकर आता था
। सप्ताह के अंत तक सात गाँव के लोगों
को टोकन के अनुसार चावल, दाल और
कपड़ा वितरीत किया गया । वह दौड़ते
हुए थकता नहीं था, बल्कि एक जगह पर
बैठकर काम करने में ही उसे परेशानी
होती थी । जब से रिलीफ का कार्य प्रारम्भ
हुआ था, तब से माधवी ड़ांगा के आश्रम
में किसी दिन भोजन बनता तो किसी
दिन नहीं । शिशिर को किसी ने कह दिया
था कि ऐसे समय नित्य भोजन बनाना
संस्कारहीनता है । जिस दिन खाना नहीं
बनता, उस दिन शिशिर और नरेन बाबू
दोनों ही पास के सतीश मुखिया जी
के घर से खाकर आ जाते थे ।
एक मध्यवर्गीय व्यक्ति होने पर भी
सतीश बाबू को अतिथि सत्कार करना
बहुत अच्छा लगता था । लगभग पंद्रह
वर्ष पहले उनकी पत्नी छोटी बेटी को
जन्म देकर स्वर्ग सिधार गई थी । उस
दिन से वे मानों सन्यासी की भाँति
ही घर में रहते थे । नरेन बाबू को
भोजन का कष्ट हो रहा है, यह देखकर
उन्होंने स्वयं कहा आप लोग देश की
सेवा करेंगे और हम लोग आपकी सेवा
करेंगे, क्या हमारा भाग्य ऐसा भी नहीं
है ? इसके बाद से शिशिर एवं नरेन
बाबू महीने में पंद्रह दिन सतीश बाबू
के घर पर ही भोजन करते थे । सतीश
बाबू की बेटी माया के संग शिशिर
की बहुत दोस्ती हो गई थी और माया
को प्रसन्न करने के लिए प्रायः ही वह नरेन
बाबू की वाक् पटुता और कर्मठता के
विषय में बातें किया करता था ।
तीन महीने पूरा होते-होते
रिलीफ का कार्य लगभग समाप्त हो
गया । तब नरेन बाबू ने माधवी डांगा
के निकट के गाँवों में खद्दर-प्रचार और
शिक्षा-विस्तार के कार्यों की ओर ध्यान
दिया । अब उन्होंने सतीश जी के घर पर
खाना छोड़ दिया और आश्रम में ही नित्य
भोजन की व्यवस्था की ।
इस बीच नरेन बाबू का मन कुछ
बदल गया था । अब वे निरामिष भोजन
करते थे और सहज भाव से कपड़े
इत्यादि पहनते थे । अब वे लोगों के
साथ सहृदयता से भी मिलते थे । उस
दौरान लिखी उनकी डायरी में मैंने
देखा था कि कठोर वृति उनके लिए अनुचित
है, वे यह समझ गये थे । देश में दरिद्रता
देखकर वह दरिद्रों के समान भोजन
नहीं करते, जीव-जन्तुओं के प्रति प्रेम
में अभिभूत होकर निरामिष नहीं
हुए, वरन् अपने विशाल स्वभाव के कारण
लोगों के गुण-दोष का विवेचन भी
विशाल चित्त से करते थे, इसीलिए उन्होंने
स्वयं को इस रुप में ढालने की व्यवस्था
की थी । वास्तव में, अभी तक वे हमेशा
अपने को अलग समझते आ रहे थे । जब
से उनके ज्ञान-चक्षु खुल गये, तभी से उन
सभी कठोरताओं का अंत हो गया । परन्तु
मुझे लगता है कि अंततः उनके मन में
प्रच्छन्न भाव से कठोरता का एक भाव
रह ही गया था, क्योंकि एक दिन उन्होंने
रुष्ट भाव से शिशिर को सतीश बाबू
के घर भोजन की बात मना करके आने
के लिए कहा । उनकी डायरी पढ़कर मुझे
ऐसा ही लगा ।
जो भी हो, माधवी डांगा के आश्रम
के कार्य-कलापों की धीरे-धीरे प्रतिष्ठा
होने लगी । देखते-ही-देखते वर्षों
बीत गये । अगले वर्ष आश्विन महीने
में वर्द्धमान ज़िले में मलेरिया ने
भीषण रुप धारण कर लिया । मात्र बुख़ार
ही होता हो, ऐसा नहीं था । बहुत जगहों
पर बुख़ार अधिक बढ़कर दो-तीन दिनों
में रोगी को अचानक कँपकँपी छूटने
लगती थी और तत्पश्चात् दो-तीन दिन
बोहोशी की अवस्था में रहने के बाद
रोगी की मृत्यु हो जाती थी ।
इधर नरेन बाबू और शिशिर अन्य
सभी कार्य रोककर रोगियों की चिकित्सा
और सेवा में लग गए । सारा दिन और
सारी रात परिश्रम करते हुए
विश्राम करने की उन्हें तनिक भी फुर्सत
नहीं थी ।
बहुत अनुनय-विनय करके सतीश
बाबू ने उनके भोजन की व्यवस्था पुनः
अपने घर पर ही कर दी । एक दिन जब नरेन
बाबू भोजन करके आये तो माया के
बारे में पूछने पर पता चला कि
वह बाउरी मुहल्ले में एक वृद्धा रोगी
की सेवा-शुश्रुषा करने गया है । वृद्धा
की उम्र काफ़ी हो चुकी है, उसके बचने
की कोई आशा नहीं है, फिर भी दिन-रात
एक करके उस अँधेरी कुटिया में रहकर
माया वृद्धा की सेवा कर रही है । एकादशी
तिथि को आधी रात में वृद्धा की मृत्यु
हो गयी । प्रातः बाउरी-वासियों के शव
लेकर चले जाने के पश्चात् माया घर
लौट आयी ।
घर आकर पता चला कि आश्रम में नरेन
बाबू भी थोड़ा बीमार हैं । संध्या काल
शिशिर आकर सतीश बाबू को कह गया
कि नरेन बाबू का बुख़ार अच्छी तरह
से पता नहीं चल रहा है । पास के गाँव
से एक एम.डी. डाक्टर को बुलाने की ज़रुरत
है । डॉक्टर बाबू उस दिन नहीं आ सके,
उसके अगले दिन भी नहीं आये, फिर तीसरे
दिन आकर रोग के विषय में सारा
वृत्तान्त सुनकर वे बोले की टायफाइड
होने का संदेह है । सतीश बाबू दु:खी
हो गये । वे यथासाध्य उनकी देखभाल
करने लगे और शिशिर को कलकत्ता
के कांग्रेस कार्यालय में सूचना भेजने
को कहा । इधर माया अपने पिता से कहने
लगी कि अकेला शिशिर कुछ भी नहीं कर
पायेगा, अतः उसे आश्रम में सेवा के लिए
जाने देना होगा ।
पहले तो लोक-लज्जा के भय से
सतीश बाबू मना कर रहे थे, परन्तु
पुत्री के मन को देखकर अंततः उन्होंने
कोई आपत्ति नहीं की । माया रात-दिन
नरेन बाबू की सेवा-शुश्रूषा करने
लगी । परन्तु आठवें दिन ही रोगी का
विकार उपस्थित हुआ । रोग बढ़ने के
साथ ही रोगी कभी-कभी अचेत हो जाता
था । अकेला शिशिर उन्हें नहीं सँभाल
पाता था । दो लोग मिलकर किसी तरह
उन्हें पकड़ कर रखते थे । फिर कभी-कभी
रोगी अचेत अवस्था में बीच-बीच में न
जाने क्या-क्या बोल पड़ता था । अकेले
रहने पर माया उनके मुँह के पास
झुककर उनकी बात को सुनने का प्रयास
तो करती थी, परन्तु कुछ भी नहीं समझ
पाती थी । एक दिन माया को लगा कि नरेन
बाबू मानों उसे बुला रहे हैं । पिछली
पूजा में पड़ोस के गाँव के शिव-मन्दिर
में माया पूजा देखने गई थी, वहीं पर
उसकी नरेन बाबू से भेंट हुई थी ।
माया की नाक बहुत लम्बी थी । महादेव-मन्दिर
में प्रवेश करते ही अचानक नरेन बाबू
ने उससे कहा था - ये नाकेश्वर महादेव
हैं अच्छी तरह से इनकी पूजा करो ।
इस उपहास को अच्छी तरह से न समझकर
माया फूल और बेल-पत्र चढ़ा रही
है, यह देखकर नरेन बाबू हँसने
लगे । यह बात माया को याद है । आज
उसे लगा कि नरेन बाबू बुख़ार में
वहीं बात कर रहे हैं । उसे लगा, जैसे
नरेन बाबू उसका नाम पुकारकर उस
शिव-मन्दिर की बात कर रहे हैं,
फिर भी माया सभी बातें अच्छी तरह
से नहीं समझ पायी । दो दिनों के बाद
डॉक्टर साहब को आने का जब पुनः समय
मिला तो वे सतीश बाबू को एक ओर
बुलाकर कह गये कि लगता है रोगी
की अवस्था ठीक नहीं है । यदि इनके नाते-रिश्तेदार
हैं तो उन्हें बुला लेना चाहिए । काशी
में नरेन बाबू की माताजी को ख़बर
भेजी गई, परन्तु उन्हें सूचना मिली
कि नहीं, यह पता नहीं चला ।
इधर कलकत्ता के कांग्रेस कार्यालय
में शिशिर का पत्र दो दिन तक रखे
रहने के बाद एक स्वयं सेवक घर खोजते
हुए शाम के समय वह पत्र दे गया । सूचना
मिलते ही मैं वर्द्धमान रवाना हो
गया, परन्तु स्टेशन से ग्यारह मील
दूर माधवी डांगा के आश्रम में मैं जब
पहुँचा तो सुबह हो चुकी थी । मैंने
देखा कि घर में कोई प्रकाश नहीं
हैं । कोई भी व्यक्ति दिखाई नहीं दे
रहा । ऐसा लगा मानों किसी ने लालटेन
कम करके दरवाज़े के बाहर रख दी
हो ।
मेरे शिशिर के नाम की आवाज़ लगाते
ही सतीश बाबू की कन्या घर से
बाहर निकली । उस धीमे प्रकाश में भी
उसकी अत्यन्त शुद्ध और उज्जवल दृष्टि देखकर
मैं विस्मित हो उठा । कुछ पूछने से पहले
ही स्वयं बोली - नरेन बाबू तो नहीं
रहे, शाम को ही उन्हें ले गये ।
मैं अभिभूत हो उठा । सुबह घाट
से जब सब लोग लौटे तब सतीश बाबू
ने बताया कि शाम होते ही नरेन
बाबू सिधार गए । शिशिर सभी लोगों
के घाट पर जाने के बाद भी आश्रम से
उनकी कन्या को नहीं ले जा पाए ।
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इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७सभी स्वत्व सुरक्षित । इस प्रकाशन का कोई भी अंश प्रकाशक की लिखित अनुमति के बिना पुनर्मुद्रित करना वर्जनीय है ।
प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित
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