Parivrajak Ki Diary |
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७ मूल्य ९५.०० रुपये |
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सूची |
परिव्राजक
की डायरी एक अन्तर्दृष्टिसम्पन्न विद्वान के
सूक्ष्म निरीक्षण और पर्यवेक्षण का ऐसा
लेखा-जोखा है जो पाठक के मन-मस्तिष्क
पर अपनी छाप छोड जाता है । निर्मल कुमार
बोस बचपन से ही अपने चारों ओर के
परिवेश के प्रति सजग थे और बहुत
कुछ जानने को उत्सुक भी । अपने पिता की
भाँति उन्हे भी डायरी लिखने का शौक
था और यही डायरी आज एक अनमोल धरोहर
बन गई है । इस डायरी में
समाविष्ट भिन्न-भिन्न स्थानों और समय
के विभिन्न अनुभव, एक चतुर चितेरे की
सूक्ष्म दृष्टि और संवेदनशील ऋदय की
अनुभूति से हमें परिचित कराते है।
मन मस्तिष्क हमेशा खुला रखने के
कारण कृत्रिमता और अंग्रेजियत भरे
शहर के माहौल में उन्हे घुटन-सी
महसूस होती थी और तब वे आश्रय
लेते थे प्रकृति की गोद में । वहाँ प्रकृति
के लाडले, भोले-भाले आदिवासियों
के बीच उन्हे कितनी शांति मिलती थी,
यह उनकी डायरी के पन्ने बताते है ।
इस डायरी को पढने के बाद ही हम
जान पाते हैं कि जाहिल और गँवार
समझे जाने वाले अनपढ आदिवासियों
के बीच रहकर किस प्रकार लेखक को
जीवन के सत्य, दर्शन और सार्थकता का
अनुभव हुआ।
आपात-दृष्टि में डायरी में लिखी उनकी
प्रत्येक सत्यकथा साधारण प्रविष्टि मात्र
लगने पर भी हमें जीवन के कुछ कडवे,
कुछ मीठे सत्यों के सम्मुख ला खडा करती
हैं।
सच्चे अर्थों मे एक मानववादी, मानवशास्री
'परिव्राजक' के जीवन भर के संचित अनुभवों
का भण्डार है यह डायरी। निर्मल
कुमार बोस, (१९०१-१९७२) कलकत्ता में जन्मे
और पले-बढे । उन्होने कलकत्ता
विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर शिक्षा और
शोध कार्य करके अपनी प्रतिभा की छाप
छोड दी थी । बहुमुखी प्रतिभा के धनी
निर्मल कुमार बोस इतिहास, राजनीतिशास्र,
स्थापत्यकला एवं भाषाओं के साथ-साथ
मानवशास्र के भी विद्वान थे । आपने अपनी
शिक्षा का उपयोग अन्य विद्वानों की तरह
मात्र शोध-प्रबन्ध लिखने और उपदेश देने
में नही किया, वरन् मानव-जीवन के
बाद भी समय और अवसर निकालकर
पुराने कलात्मक मन्दिरों की स्थापत्यकला
का सूक्ष्म निरीक्षण किया और अनेक पुस्तकों
में अपने ज्ञान के भण्डार को आने वाली
पीढयों के लिए सँजोकर रखा ।
स्वतन्त्रता संग्राम के समय गांधीवादी
विचारधारा से प्रभावित होकर आपने
गरीबों, असहायों की सेवा की और जन-चेतना
को जाग्रत किया । हिन्दी-अंग्रेजी एवं बांग्ला
में प्रकाशित उनकी पुस्तकों से उनके रुचि-वैविध्य
के बारे में ज्ञात होता है । प्रकृति से जिज्ञासु, पर्यवेक्षी और घुमक्कड होने के कारण उनको सर्वाधिक प्रिय था-ग्रामीण अंचलों में घूमना और आदिवासियों की सभ्यता-संस्कृति, उनकी बोली, उनकी सामाजिक-आर्थिक-धार्मिक आस्थाओं, विश्वासों-अंधविश्वासों आदि का सूक्ष्म पर्यवेक्षण करना । प्रकृति उन्हे जितनी प्रिय थी, उतने ही प्रिय थे प्रकृति की गोद में पलने वाले निरीह आदिवासी, जिनके सरल और अकृत्रिम जीवन तथा सहज-स्वभाव के आकर्षण ने निर्मल कुमार बोस को 'परिव्राजक' बना दिया था। |
परिव्राजक शब्द मानस-पटल पर कई दृश्य उपस्थित कर सकता है, क्योंकि परिव्रजन कई कारणों से होता है । सामाजिक परिप्रेत्क्ष्य में यह एक साधारण स्थानान्तरण है, जो स्वैच्छिक या उपार्जन के कारणों से हो सकता है; राजनैतिक परिप्रेत्क्ष्य में, संकट के समय में विवश होकर अन्यत्र जाकर शरणापन्न होना पड़ता है । आर्थिक और धार्मिक परिप्रेक्ष्य में भिक्षार्जन हेतु अथवा आश्रमावस्था का पालन करते हुए संन्यास लिया जाता है । परन्तु इसका एक मानसिक कारण भी होता है, जिसे सहज आकर्षण कहा जा सकता है । यह एक ऐसा अदम्य आकर्षण है, जो मनुष्य को बारम्बार विभिन्न स्थानों की ओर खींचता है, और वह सम्मोहित-सा खिंचता चला जाता है और जाता रहेगा, क्योंकि मानव-मन है ही ऐसा उत्सुक, जिज्ञासु । यही कारण है कि आज भी इतने लोग हमें दिखाई देते है, जिन्हें पर्यटक या सीधी बोली में घुमक्कड़ कहा जा सकता है । परिव्रजन धन, सुरक्षा, परिवर्तन, सन्तोष आदि प्रदान करता है, यह सामान्यतया सभी को ज्ञात है, परन्तु निर्मल कुमार बोस जैसे द्रृष्टा और स्त्रष्टा के लिए यह एक बहुआयामी शब्द था और इसकी सार्थकता भी उन्हे अपनी विभिन्न यात्राओं में विदित हुई । सत्रह वर्ष की किशोरावस्था से डायरी में प्रत्येक अनुभव और निरीक्षण को अपने ढंग से सँजोकर रखने का कार्य बोस ने अन्तिम दिनों तक किया । इसी डायरी के पृष्ठों को आज जिज्ञासु पाठकों के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है । समाजशास्र, राजनीति, स्थापत्य कला, मूर्तिकला और मानवशास्र के साथ-साथ उन्होंने भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास का भी अध्ययन किया । भरसक प्रयास भी किया कि भारतीयों की अन्तर्जात परम्पराओं का विकास हो, ताकि भारत की सामाजिक और सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा की जा सके। उनकी मान्यता थी कि आधुनिक शिक्षा और विकास की दौड़ में हम अपने ग्राम-बहुल समाज की उपेक्षा कर रहे है, जबकि ग्रामीण भारत ही असली भारत है । ग्रामों में बसे आदिवासी हमारी जनसंख्या का पाँचवाँ भाग हैं और उनकी अस्सी से भी अधिक बोलियाँ हैं, लिखित, मौखिक काव्य, लोकगीत, लोक नाटकों और कथा माध्यम से हमारी अनुपम संस्कृति आज भी सुरक्षित है । निर्मल कुमार बोस ने उनकी संस्कृति का भी अध्ययन किया और आस्थाओं एवं विश्वासों को भी समझा; उनकी बोलियों को सीखा और अनुभव किया कि उनकी बोलियों में जो मौखिक परम्पराएँ सुरक्षित हैं, वे हमारी अनमोल सम्पदा हैं और उन्हे हर सम्भव प्रयास से आने वाली पीढ़यों के लिए सँजोकर रखना हर भारतीय का कर्तव्य है । बोस का परिव्रजन कभी अतीव सुन्दर पुराने कलात्मक मन्दिरों की स्थापत्य और मूर्तिकला का अध्ययन करने के लिए हुआ, तो भी गांधीजी के साथ सेवा करने के लिए; कभी जन-मानस में जागृति लाने के लिए, तो कभी थके-हारे मन को अशान्ति से दूर, प्रकृति की गोद में शान्त करने के लिए, कभी गृह-त्यागी सन्यासियों की संगति में जीवन का सत्य जानने के लिए, तो कभी सीधे-सादे आदिवासियों के सरल-हृदय, निर्मल आनन्द के सागर में स्वयं को खो देने के लिए। उनकी सूक्ष्म दृष्टि और अन्तर्दृष्टि से कुछ भी छुपा नहीं रहता था, यह उनकी डायरी से हमें पता चलता है । उनके लेखन का वैशिष्ट्य यह है कि उनके साथ-साथ हम भी प्रत्येक स्थान का जैसे भ्रमण कर आते हैं । उन अनुभवों की अनुभूति हमें भी होती है । एक साधारण-से अनुभव का वर्णन पढ़ने के बाद कहीं-न-कहीं कोई-न-कोई नई बात अनायास ही हमारे सामने उजागर हो जाती है और जीवन के कई गूढ़ अर्थ, सत्य दर्शन, और रुप हमारे सामने स्पष्ट हो जाते हैं । और तो और अजय नदी भी मानव-मन के अजेय होने का संदेश दे जाती है, हिमालय के उँचे-नीचे शिखर, जीवन के मार्ग में आने वाले उँचे-नीचे पड़ावों का आभास दे जाते हैं, आदिवासियों का निश्छल प्रेम यह सांत्वना दे जाता है कि अब भी ईर्ष्या-द्वेष, प्रतिद्वन्द्विता और अहं भरे संसार में थोड़ी-सी सच्चाई, थोड़ी-सी आत्मीयता और थोड़ी-सी सुन्दरता बाकी है, जो विश्व को नष्ट होने से बचाएगी । जिन उद्देश्यों को लेकर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र अग्रसर है, उनमें निर्मल कुमार बोस जैसे भारतीय द्रष्टा के संकल्प समाहित हैं । इस केन्द्र के जनपद-सम्पदा विभाग में लोकपरम्परा और क्षेत्र-सम्पदा के अन्तर्गत जो कार्य हो रहा है वह वस्तुत: भारतीय मानवविज्ञान के सम्बन्ध में बोस के विचारों से जुड़ा है । इसी को दृष्टि में रखकर हम उनकी स्मृति में पिछले तीन वर्षों से व्याख्यानमाला का आयोजन करते आ रहे हैं । केन्द्र ने संस्कृत वाङ्गमय और लोकजीवन के अध्ययन से सम्बद्ध अब तक अस्सी से अधिक पुस्तकों का प्रकाशन किया है जिनमें आनन्दकुमार स्वामी, रोमां रोलां, हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि के पत्रों का संकलन सम्मिलित है । इसी श्रृंखला में ठपरिव्राजक की डायरी' का प्रकाशन किया जा रहा है । निर्मल कुमार बोस स्टेट के एकमात्र निर्वाहक आर.एन. बोस ने हमें मूलत: बंगला में प्रकाशित ठपरिब्राजकेर डायरी' को हिन्दी में प्रकाशित करने की अनुमति दी है । इसके लिए मैं उनके प्रति आभार प्रसट करती हूँ । युवा लेखक मनोज कुमार मिश्र ने प्रस्तुत पुस्तक का बंगला से सरल एवं प्रांजल हिन्दी में अनुवाद किया है । मैं उन्हें भी धन्यवाद एवं हार्दिक शुभकामनाएँ देती हँ । परिव्राजक की डायरी के लेख अलग-अलग समय में लिखे गए है । इन्हे पुस्तक के आकार में सजाने के लिए मैंने जिस सूत्र को ग्रहण किया है, उसे पाठकों के समक्ष रखने की आवश्यकता है, नहीं तो उन्हे लग सकता है कि सारी डायरी बिखरे रुप में सजाई गई है । शहर के जीवन की जड़ता और क्लांति को दूर करने के लिए ही सबसे पहले हमारा मन प्रकृति के स्वरुप की खोज करने की ओर आकृष्ट हुआ । इसलिए पहले पाँच लेखों में प्रकृति का रुप ही अधिक दिखाई देता है; साथ ही वनों और जंगलों में रहने वाले लोगों की संस्कृति के अपरचित और अनभ्यस्त रुप की चर्चा ने भी स्थान पाया है, परन्तु वहाँ व्यक्ति का रुप स्पष्टतर होता जाता है । दूसरे क्रम के लेखादि इसी बात को स्पष्ट करते हैं । ग्रामीण जीवन में जो कुछ भी जीवन्त है, जो कुछ भी सत्य है, वह घाउताल या चैता के समान चरित्र-सृष्टि के बीच परिपूर्णता पाता है । ऐसे मनुष्यों को खोज पाने के बाद मुझमें आशा जागी । मुझमें अपने समाज और संस्कृति की खोज करने का उत्साह हुआ । यहाँ आकर मैंने देखा, मनुष्य ने अपने को विभिन्न रुपों में विकसित किया है । कोई कवि, कोई शिल्पी, कोई देशसेवक के रुप में हमारे बीच विराजमान है । घाउताल या चैता में जंगली वृश्रों का जो सीधापन है, उनमें शायद वह नहीं है । सम्भवत: बहुसंख्यक समाज के विभिन्न प्रकार के घात-प्रतीघातों में फँसे होने के कारण सभी के शरीर पर चोट का निशान रह गया है, परन्तु जहाँ पर उनका चित्त विजयी हुआ है, वहाँ उनका चरित्र मानों आकाश को छूने में समर्थ हो सका है । इस आशा से मैं और भी मन लगाकर अपने चारों ओर के समाज के बीच अनुसंधान में लग गया । गहरी दृष्टि के फलस्वरुप मुझे अनेक दुर्बलताएँ दिखाई दी, परन्तु चोट करने की इच्छा नही हुई, मैं उपहास से आगे और कुछ नही कर सका । ठअध्यापक' से लेकर ठस्वर्ग का संवाद' तक के लेख चौथे क्रम में पड़ते है। पाचँवें क्रम के लेखों में व्यंग्य की चोट नहीं है । प्रकृति का संस्पर्श व प्राकृतिक मनुष्य के सरल व्यक्तित्व के साथ मैंने जो शक्ति पाई थी, उसके प्रभाव से मैं पहले के जीवन की ग्लानि को भी पार करने में मानों सक्षम हो गया । हमारे समाज में शहर के सांस्कृतिक वातावरण की क्षुद्रता को पार करके भी मनुष्य पूर्णतम व्यक्तित्व को पाता है, इस सत्य की खोज में मैं भक्तिभाव से तीर्थ मार्ग पर आगे चला । उसके फलस्वरुप जो लाभ हुआ वह मैंने ठस्वस्तिक' से लेकर अंत तक अंकित करने का प्रयास किया है । घाउताल या चैता की सरलता के बीच मुझे जो महत्त्व मिला, वह और भी जटिलतर बहुसंख्यक समाज के बीच पुन: दिखाई दिया । मनुष्य का व्यक्तित्व तो वातावरण के सभी प्रकार के बंधनों को पार कर सकता है, इस सत्य के समर्थन से ही मुझे सर्वापेक्ष अधिक लाभ हुआ । मनुष्य का मन अजेय है । अजय नदी के किनारे इस अत्यंत प्राचीन सत्य को मैंने अपने जीवन में एक नये तरह से पाया, साथ ही प्रकृति भी मुझे नये रुप में दिखाई पड़ी । वह ठवसंत' अथवा ठउत्सव', प्रबन्ध की प्रकृति के समान सरल नही हैं, बल्कि उसकी उपेक्षा भारी, सम्भवत: जटिल, किन्तु सत्य के गुणों को उजागर करने वाली है । तीर्थों की समाप्ति पर यह जो नया, परन्तु वास्तविक प्राचीन सत्य जीवन में मिला, यह हम सबके जीवन को शक्ति एवं समृद्धि दे, यही प्रार्थना करता हूँ ।
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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७
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प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित
नियोग्राफिक्स,
नयी दिल्ली - ११० ००३ द्वारा
ले कम्पोज
मेहरा आफसेट प्रेस, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा मुद्रित
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