परिव्राजक की डायरी |
सन्तोष सिंह |
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कई दिन हुए सन्तोष ने मुझे एक पत्र लिखा, "इधर तालाब खोदने का कार्य समाप्त होने के बाद एक और भी काम है-कांग्रेस को मज़बूत बनाने का । ज़िला कांग्रेस ने हमारे हाथ में यह भार सौंपा है, इसीलिए काफ़ि प्रयास करके सदस्यों को जुटाना होगा । "यहाँ पर मैंने एक-न-एक काम हाथ में लिया है, इससे दिन ख़ूब अच्छे से कट जाते हैं । एक बहुत ख़राब आदत है कि यदि मैं लगातार कार्य न कर्रूँ तो मेरा मन स्थिर नहीं होता है । परन्तु अभी तो काम में लगा हुआ हूँ, जिससके दिन पता नहीं, कैसे कट जाते हैं । "मेरे ऊपर एक पोखर खुदवाने का भार है, इसलिए सुबह ही तीन मील दूर दूसरे गाँव जाना पड़ता है और शाम को यहाँ आकर थोड़ी देर खेत में काम करता हूँ । संध्या के उपरांत स्नान करके पेपर पढ़ते-पढ़ते खाना बन जाता है, फिर खा-पीकर रात के दस या साढ़े दस बजे तक सो जाता हूँ । रात कैसे कट जाती है, यह समझ नहीं पाता, फिर सुबह स्नान करके नलदा गाँव चला जाता हूँ । दिन इसी तरह से कट जाते हैं ।" वास्तव
मे यह सन्तोष
एक आश्चर्यजनक
लड़का है । काम
से किसी भी
दिन वह थकता
नहीं । दूसरों
के लिए बेगार
करने आलस्य
से तो संतोष
को मानों
घृणा थी । सभी
प्रकार की हीनताओं
से भी उसे घृणा
थी । जेल में
तम्बाकू चबाना
मना था । किन्तु
वास्तव में,
यह मंतोष
की एक दुर्बलता
थी । वह सिपाहियों
के मार्फ़ेत छिपाकर
साबुन वNौरह
मँगवाता ।
प्रहरी-गण भी
हमेशा उसी
के पास चिट्ठी
लिखवाने
आते थे और
इसी कारण उन्हें
संतोष का
उपकार करने
में कोई परेशानी
नहीं थी । परन्तु
संतोष के
गुणों के बीच
यह अकेला
दुर्गुण कुछ
भी महत्त्व
नहीं रखता
था । जेल में
उसके पास बहुत
सारे साबुन
और तम्बाकू
इकट्ठे हो
गये । एक दिन शाम
को मैंने देखा
कि संतोष
मुँह लटकाए
बार्डर के
निकट कँटीले
तारों के पास
बैठा है । उसके
कई गमछे और
पाज़ामे सूख
रहे हैं । क्या
हुआ है ? यह
पूछने पर उसने
फटाक अधिकांश सत्याग्रहियों के प्रति अत्यंत क्रोधित होकर बाहर आने पर भी संतोष ने कांग्रेस का कार्य नहीं छोड़ा । जेल से बाहर आकर वीरभूम के कांग्रेस-कार्यालय में उसने मेरा सहयोग किया । किन्तु कुछ ही दिनों में पता चल गया कि दो वर्षों के कारावास के बाद भी उसके स्वभाव में तनिक भी परिवर्तन नहीं हुआ है । हम
सभी को उसके
स्नेहपूर्ण
अत्याचार को
बीच-बीच में
सहन करना
पड़ता था । उससे
अड़ने का तो दम
ही नहीं था
। एक दिन मच्छरदानी
टाँगकर संतोष
और मैं एक ही
बिस्तर पर
सोये । बातें
करते-करते
नींद आने लगी
। मैं मच्छरदानी
उतारकर सोने
ही वाला
था कि संतोष
की नज़र पड़ी
कि मच्छरदानी
ठीक से नहीं
लगी है । इसका
एक खूँटा ऊपर
की ओर उठा हुआ
है । एस तरह
से आँखों की
नींद सिर चढ़
गई । संतोष
मच्छरदानी
को तख़त के सीध
में करने के
काम में लग
गया । एक बार
वह एक खूँटी
बाँधता और
भीतर आकर
देख जाता कि
कहीं ढीला
तो नहीं है,
फिर दूसरी
ओर से उसे
कस देता । ढीला
न होने पर
भी मुझे एक
ओर से पकड़ने
के लिए कहता
। इस तरह से
काफ़ी मात्र
यही नहीं,
अपने ऊपर भी
उसके अत्यातार
की सीमा नहीं
थी । एक दिन मैं
खद्दर का हिसाब-किताब
देख रहा था,
तभी मैंने
देखा कि खिड़की
के किनारे चौकी
पर लेटकर
दवाई की एक
छोटी शीशी
लेकर संतोष
कुछ उलट-पुलट
कर रहा है
। वह अचानक
एक अजीब आवाज़
कर उठा और
उठकर बैठते
हुए दोनों
हाथों से छाती
दबाकर दमे
के मरीज़ की
तरह तेज़ी
से हाँफने
लगा । घर यूक्लिप्टस
आयल के गंध
से भर उठा ।
मुझे बात कुछ
समझ में नहीं
आई । उसके चेहरे
और आँखों
को देखकर
मैं उसके चेहरे
पर पानी का
छींटा देने के
साथ ही तेजी
से हवा करने
लगा । संतोष
कुछ कह भी
नहीं पा रहा
था, साँस लेने
में उसे कठिनाई
महसूस हो
रही थी । लगभग
पंद्रह मिनट
के बाद वह
चुपचाप सो
गया । जागने
पर जब मैंने
पूछा कि क्या
हुआ था, तो
उसने रहस्योद्घाटन
करते हुए बताया
कि किसी ने
उसे बताया
कि नाक में किसी
भी तरह आधा
शीशी यूक्लिप्टस
आयल डालने
पर उसे जीवन
में फिर कभी
जुकाम नहीं
होगा । एक खाने-पीने
के सम्बन्ध में
संतोष अलग
ही रहता
था । एक बार शहर
में उसे कांग्रेस-कार्यालय
का भार सौंपा
गया, जिसमें
वह कांग्रेस
के सदस्य भर्ती
करेगा और
सूत कातने
वालों से
सूत संग्रह
करके बूनाई
घर में बुनने
के लिए दे आयेगा
। उसके साथ और
भी दो-तीन
कार्यकर्ता
थे, किन्तु वे
सभी जोश
में ही तेज़ी
से कार्य करने
के अभ्यस्त थे
। एक स्थान पर स्थिर
होकर कार्य
करने का धैर्य
उनमें नहीं था
। संतोष के
कांग्रेस कार्यालय
का भार ग्रहण
करने के दो
महीने बाद
एक दिन आकर मैंने
देखा कि वह
अकेला ही है
। उसका शरीर
भी कुछ दुबला
और पीला
हो गया है
। दूसरे कार्यकर्ताओं
के विषय में
पूछने पर उसने
बताया कि
वे कुछ नहीं
करते, यहाँ
तक कि खाना
भी नहीं बनाना
चाहते । केवल
बाज़ार जाते
हैं और इसके
उसके घर जाकर
चाय पीकर,
गप्पें मारकर
घर लौटते
हैं । मैंने उन्हें
ऊपर-ही-ऊपर
सात दिन तक
चावल और
दाल पर बाँधकर
रखा था । दाल-चावल
समाप्त हो
गया तो सभी
भाग गये । मैंने
आश्चर्यपूर्वक
उससे पूछा,
"तुम अभी भी
उनका खाना-पीना
चला रहे हो
क्या ? तुम्हारे
शरीर की ऐसी
दशा क्यों हुई
है ?" तब उसने
बताया कि
महात्मा गांधी
की पुस्तक 'आरोग्य
दर्शन' पढ़कर
उसके लिए मुझे बहुत चिन्ता हुई और उसके दुबले शरीर का उल्लेख करते हुए मैंने कहा, "परन्तु तुम्हारा शरीर तो बहुत ख़राब होता जा रहा है । यह दमन के योग्य नहीं है ।" वह बोला, "नहीं भैया, शरीर बहुत अच्छा है । ऐसा हल्का लगता है कि हमेशा काम-धंधा करने की इच्छा होती है । खाने की बात तो सोचने की भी इच्छा नहीं होती । उस दिन रमेश बाबू के घर कपड़ा देने गया था । वहाँ मैंने देखा कि भाभी भोजन पर बैठी हैं । मसाला डालकर बनाई हुई मछली की सब्जी देखकर पहले तो मुझे खाने की इच्छा हुई, परन्तु उसके बाद जानते हैं कि मैंने क्या किया ? मन से मैंने कहा, तुम्हारा लोभ नहीं जाता ? ठीक है आज रात से पालक का साग भी बंद ।" मैं
समझ गया कि
यदि इसे अकेले
छोड़ दिया
तो खाने के
बिना मर जायेगा
। आहार तत्त्व
के सम्बन्ध में
अत्यधिक ज्ञान से
सम्भवत: अनाहार
रहकर ही
यह प्राण गँवा
बैठेगा । मैं
उसके साथ लेकर
आ गया, परन्तु
हमार हरिजन
पाठशाला
में उसे और
अधिक दिन तक
बाँधकर नहीं
रखा जा सका
। नदिया में
अकाल की सूचना
मिलते ही
वह छुट्टी
लेकर चला
गया । वहाँ
विभिन्न
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इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७सभी स्वत्व सुरक्षित । इस प्रकाशन का कोई भी अंश प्रकाशक की लिखित अनुमति के बिना पुनर्मुद्रित करना वर्जनीय है ।
प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित
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