परिव्राजक की डायरी

अब्दुल गफ्फ़ार ख़ान


तीन वर्ष पहले की बात है । सीमांत गांधी अब्दुल गफ्फ़ार ख़ान तब जेल से छूटे थे । उस समय उनके पुत्र अब्दुल गनी शान्तिनिकेतन में शिल्प की शिक्षा ग्रहण कर रहे थे । हम लोगों को सूचना मिली कि जेल से छूटने के बाद ख़ान साहब सबसे पहले बोटे से मिलने बोलपुर आयेंगे । बोलपुर बहुत छोटा शहर है । अत: चोरों ओर यह बात फैलने में अधिक देरी नहीं लगा । शहर के कई मुसलमान सज्जन और कांग्रेस की ओर से हम कई लोग सुबह ही यथासमय स्टेशन पहुँचे । शांतिनिकेतन के कार्यकर्त्ता उनका अभिनन्दन करने के लिए आये थे । ख़ान साहब रवीन्द्रनाथ बाबू के अतिथि होंगे, यही तय हुआ था ।

स्टेशन पर ख़ान साहब के पुत्र गनी मियाँ से भेंट हुई । कितने वर्षों बाद उनकी अपने पिता से भेंट होगी ? सम्भवत: इसीलिए वे इतने उत्तेजित होकर स्टेशन पर इधर-उधर टहल रहे थे । उनके साथ बात करते-करते वर्द्धमान से ट्रेन आ गई । ट्रेन की प्रत्येक बोगी में हम उन्हें ढूँढ़ने लगे । इसी समय पीछे की ओर थ क्लास के डिब्बे से एक बहुत लम्बे पठान सज्जन उतरे । उन्होंने आधा मैला पाज़ामा-कुर्त्ता पहना था और उनके कंधे पर खद्दर की एक चादर झूल रही थी ।

पिता को देखकर अब्दुल गनी दौड़ पड़े । पिता-पुत्र के बीच कोई बात नहीं हुई । ख़ान साहब बोटे को केवल छाती से लगाकर रखे हुए थे । उनसे लिपटे गनी नितान्त असहाय बच्चे की भाँति दिख रहे थे । सामान उतारने के लिए मैं जब डब्बे में चढ़ा तो एक कोने में एक सुराही को छोड़कर मुझे कुछ भी नहीं तो अपने कंधे पर रखे चादर पर हाथ रखकर वे बोले कि इसे छोड़कर वे और कुछ नहीं लाये हैं । मात्र एक सुराही है और उसे उतारने की कोई आवश्यकता नहीं है । सुराही किसी और यात्री के काम आ जायेगी ।

बिना कुछ बोले मैं उनके साथ स्टेशन से बाहर निकल पड़ा । शांतिनिकेतन पहुँचने पर आश्रमवासियों ने ख़ान साहब का सादर अभिनन्दन किया । रवीन्द्रनाथ ने स्वयं उठकर उनका स्वागत किया । आश्रम की छात्राओं ने पूजनीय अतिथि को साला पहनाकर, चन्दन लगाया । वास्तव में, मैं यह कह सकता हूँ कि ऐसी स्वागत मैंने कम ही देखा है । उस दिन शाम को अब्दुल गफ्फ़ार ख़ान साहब ने बोलपुर शहर की जनसभा में एक भाषण दिया । शाम को ही हम लोग उनसे बातचीत करने शांतिनिकेतन पहुँचे । स्नानादि करने के बाद बातें करने के लिए उन्होंने खुले आकाश के नीचे ही खटिया बिछवायी । विश्वभारती के दो-चार अध्यापक और छात्रों के साथ हम लोग भी बातचीत में सम्मिलित हो गये । राजनीति विषयक बातें होने लगीं । सीमान्त प्रदेश में पठानों के साथ अंग्रेज़ों का सम्पर्क, पठान जाति की आंतरिक स्थिति, उनके प्रिय खुदाई ख़िदमतगार प्रतिष्ठान के इतिहास आदि विषयों पर ख़ान साहब बोलने लगे । मैंने देखा कि ख़ान साहब किसी भी बात पर बिल्कुल सीधा विचार करके देखते हैं । नैसर्गिक समस्याओं को वे किसी भी तरह से टेढ़े करके नहीं सोचते । उनकी दृष्टि अत्यंत तीक्ष्ण है और किसी भी समस्या का समाधान भी वे अत्यंत सहज व सरल भाव से विश्वास के साथ करते हैं । मात्र एक जगह पर वे गांधी जी से अलग हैं । गांधी जी किसी भी समस्या के आने पर मात्र अपने अनुभव से ही उनका समाधान करके निवृत्त नहीं हो जाते । वे दूसरों के विचार को अपने विचार की अपेक्षा अधिक सम्मान देने का प्रयास करते हैं । दूसरे के विचार में बिन्दु-मात्र सत्य होने पर भी वे उचित से अधिक मूल्य देने में हिचकिचाते नहीं हैं, परन्तु ख़ान साहब का एक अलग रुप है । उनकी दृष्टि विभिन्न जटिल विचारों की विडम्बना को दूर करता चलती हैं । वास्तव में, स्पष्ट और तीक्ष्ण मार्ग का अनुसरण करना ही उनका अभ्यास है ।

हमारे वार्तालाप के बीच ही एक कौतुकपूर्ण घटना घटी । उसी से उनकी चिन्तन-धारा को समझा जा सकता है । उस दिन शाम को बोलपुर में धर्म के विषय में बातचीत के प्रसंगवश उन्होंने एक मूल्यवान बात कही थी । उन्होंने कहा था, "धर्म कहने से मैं पूजा-पाठ अथवा रोज़ा या नमाज़ नहीं समझता, जो मनुष्य और मनुष्य को एक करता है वही धर्म है ।" शाम की बातचीत में उन्होंने रुस के विषय में कहा, "रुस मुझे बहुत अच्छा लगता है । मैंने रुस के निवासी मुसलमानों को देखा है । उनके बीच धनी-निर्धन का भेद नहीं है । सभी मेहनत करते हैं, आपस में द्वेष नहीं रखते । रुस ने मानव-जाति को एक करना सिखाया है, दूसरों को नीचा दिखाना या अत्याचार करना नहीं सिखाया ।" हम लोगों ने उस बात को पकड़ लिया और कहा, "रुस धनी लोगों के साथ भी ऐसा व्यवहार नहीं करता । वह पूँजीवाद के साथ पूँजीपतियों से भी घृणा करता है ।" यह बात ख़ान साहब के समझ में नहीं आई । उनके मुखमंडल पर अविश्वास की रेखा स्पष्ट दिखाई दे रही थी । वे बोले, "यह कैसे हो करता है ? मैंने जो उन्हें सभी धर्मों व सभी सम्प्रदायों के प्रति समान व्यवहार करते देख है ?" हमने कहा, "रुस में तो यह बिल्कुल सम्भव है, क्योंकि अन्यत्र जहाँ कहीं भी पूँजीवाद है, वहाँ के पूँजीपतियों से घृणा करना तो रुस की नीति है ।" थोड़ी देर तक चुप रहने के पश्चात् ख़ान साहब ने अचानक पूछा, "अच्छा, यह बात तुमने कहाँ से सीखी ?" "हमने किताबों में पढ़ा है ।" यह कहते ही वे बोले, "अंग्रेज़ी किताब ? तो फिर उस पर तुरन्त विश्वास मत करो । दूसरी जाति के लोग रुसियों के बारे में सच्ची बातें नहीं बताना चाहते ।" हम लोग हँसने लगे, परन्तु उन्होंने किसी भी तरह हमारे मत को स्वीकार नहीं किया ।

यह सब होते हुए भी मानों कोई भी यह विचार नहीं करता कि ख़ान साहब सभी विषयों पर इसी तरह से सरलतापूर्वक विश्वास कर लेते हैं । उसी दिन की इस एक घटना मात्र से ही उनकी बुद्धि की प्रखरता का यथेष्ट प्रमाण मिला । अहिंसा एवं गांधी जी के मतों के साथ समाजवाद की तुलना करते हुए वे बोले, "मेरे पास एक मत और मतों के बीच कोई बौद्धिक विचार अच्छी तरह से मन में नहीं आता । दोने पक्ष गरीबों के प्रति अत्याचार को समाप्त करने के इच्छुक हैं । उनके बीच तुलना करने पर मैं देखता हूँ कि गांधी जी उस रास्ते पर बहुत आगे बढ़ गये हैं । वे पूरी तरह से नि:स्वार्थ हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं, परन्तु जिस दिन हमें इस विषय में सन्देह लगेगा, उस दिन गांधी जी को छोड़ने में मैं तनिक भी नहीं हिचकिचाऊँगा । समाजवादी लोग कहते हैं कि वे गरीबों का भला चाहते हैं । मैं जिस दिन देखूँगा कि गरीबों का भला चाहते हैं । मैं तब उनका अनुसरण कर्रूँगा । इस कार्य में मैं पीछे नहीं रहूँगा । किसी व्यक्ति विशेष के प्रभाव में पड़कर मैंने यह रास्ता नहीं पकड़ा है, बल्कि संसार में उत्पीड़न का अंत करना ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है ।"

हमने देखा कि विचारों की शुद्धता अथवा अशुद्धता पर वे बुद्धि की सहायता से विचार नहीं करते बल्कि कार्यों के बीच उनकी प्रामाणिकता खोजते हैं ।

दो दिन शांतिनिकेतन में विश्राम करने के पश्चात् अब्दुल गफ्फ़ार ख़ान वर्धा आश्रम की ओर रवाना हो गए । उनके प्रस्थान वाले दिन रवीन्द्रनाथ ने आश्रम की ओर से अतिथि को वर्द्धमान तक विदा करके आने के लिए कहा और रास्ते में खाने के लिए बहुत सारे फलफूल साथ दिये । हम लोग भी ख़ान साहब को विदा करने के लिए वर्द्धमान तक गये । वहाँ पर थोड़ी ही देर में मुझे उनके चरित्र का जो भी आभास मिला, उससे व्यक्तिगत रुप से लज्जा का कारण होने पर भा अंतत: एक महत् चरित्र की खोज करके मैं स्वयं को धन्य समझने लगा ।

ख़ान साहब के वर्द्धमान पहुँचते ही शहर के मुस्लिम सम्प्रदाय और कांग्रेस के नेतागण उनका अभिनंदन करने आये । उन्होंने न कभी उन्हें देखा था, न सुना था, परन्तु उसी क्षण सभी के साथ वे जिस खुले रुप से कांग्रेस की कार्य-पद्धति के सम्बन्ध में बातें करने लगे कि मैं वास्तव में कुछ शंकित होने लगा, परन्तु किसी पर शंका हो, ऐसा स्वभाव उनका तो नहीं है ।

पश्चिम दिशा में जाने वाली ट्रेन के आने में तब भी देरी थी । अत: भोजन करने के लिए हम दो-तीन लोग ख़ान साहब के साथ एक छोटी-सी दुकान में घुसे । ख़ान साहब बहुत ही कम खाते थे । सभी का खाना समाप्त हो गया था, परन्तु मेरे पत्ते पर तब भी रोटी का एक टुकड़ा बचा हुआ था । बीच में सामान्य से एक बर्तन में एक रोटी पड़ी हुई थी । ख़ान साहब बोले, "जिसे-जिसे ज़रुरत है, बोले, मैं उसी तरह से उसके टुकड़े कर्रूँगा ।" मेरी भूख नहीं मिटी थी, अत: मैंने पहले ही एक टुकड़ा माँग लिया, परन्तु ख़ान साहब हँसते हुए बोले, "तुम्हारे पत्ते पर अभी भी एक रोटी है, बचाने के लिए नहीं दूँगा ।" लज्जा से मेरा सिर नीचा हो गया । परन्तु स्नेह से भरे ख़ान साहब ने रोटी का टुकड़ा सबसे पहले मुझे ही दिया । बाद में सभी को एक-एक टुकड़ा दे दिया । मुझे उस दिन जो सीख मिली उसे मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा ।

इसके कुछ देर बाद गाड़ी आकर स्टेशन पर लगी । हम लोगों ने पीछे एक छोटे डिब्बे में ख़ान साहब के लिए स्थान सुरक्षित किया । उनके चढ़ने के बाद झोले को गाड़ी पर रख दिया गया । ख़ान साहब ने तब तक फलों की टोकरी नहीं देखी थी, क्योंकि सारे समय तो वे राजनीति की बातें करने में ही मस्त रहे । बाद में फलो की टोकरी देखकर उन्होंने इसे लेने से एकदम मना कर दिया । वे बोले, "रात का खाने अभी से ही क्यों लूँगा ?" हम लोगों के बहुत जिद करने पर अपनी दोने हथेली फैलाकर वे बोले, "मात्र उतना ही दे जितना इसमें आ जाय । मैं उससे अधिक नहीं ले सकूँगा ।" फिर उन्होंने दो-तीन संतरे और सेब रख लिये । बाकी लेने के लिए वे किसी भी तरह राजी नहीं हुए । फिर बचे हुए फलों को उनके निर्देशानुसार सभी के बीच बाँट दिया गया । गाड़ी छूटते समय हमने पाँव छूकर उन्हें प्रणाम करना चाहा, परन्तु उन्होंने कहा, "क्या भाई, हाथ से हाथ मिलाओ, पैर पर हाथ क्यों दे रहे हो ?" यह कहकर उन्होंने बारी-बारी से स्नेह से भरकर सभी के साथ प्रगाढ़ आलिंगन किया ।

 

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७

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प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित

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