परिव्राजक की डायरी |
कहानी सुनाओ |
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बुण्डू
की छोटी बहन थी रत्ना । बुण्डू तब
बड़ी हो गई थी । उसकी बहन रत्ना
ने भी पाँच वर्ष पूरे करके छठे
वर्ष में कदम रखा था ।
कई दिनों से रत्ना
को बहुत बुखार है । बुखार
१०४०-५० तक चला जाता है । १०२ के नीचे
तो उतरता ही नहीं । डॉक्टर बाबू
कह गए हैं कि टायफाइड है और
उसी के अनुसार चिकित्सा भी चल
रही है ।
रत्ना बहुत शांत
लड़की है । लाल नीली पेन्सिल से
चित्र बनाने का अभ्यास उसके तीन
वर्ष के होने पर ही प्रारम्भ
हो गया था। कॉलेज से मैं जो
भी खड़िये का टुकड़ा ला देता, उससे
वह मेज पर अनेक प्रकार की रेखाएँ
खींचती । उनमें कोई पक्षी या किसी
लड़की का नाट होता । कौन क्या
है, वह चित्र बनाने के बाद स्वयं
ही बता देती थी ।आजकल चित्र थोड़ा
और भी अच्छा बनाती है । महादेव
का चित्र, काली माँ खप्पर पकड़े
हुए हैं, उनका चित्र, घर, द्वार, बगीचे
का चित्र-ऐसे विभिन्न प्रकार के चित्र
बह बनाती है । महादेव का चित्र
तो न बोलने पर भी पता लगता
है । रत्ना के चित्र की यदि कोई
निन्दा करता है तो उसे बहुत दु:ख
होता है । वह हमारे पास आकर
रोने लगती है । पढ़ते-लिखने के
बीच में यदि किसी दिन बात नहीं
करने को कहता हूँ तो उस लड़की
को उस दु:ख को भूलने में पाँच-सात
दिन
लग जाते हैं। शाम को कहानी सुनने
के लिए हमारे पास लेटती है तो
पुरानी बातों का उल्लेख करके प्रत्येक
दिन रोती है कि क्यों मैंने उसे
उस दिन डाँटा, न डाँटने पर भी
तो चलता-में अभी पढ़ रहा हूँ,
थोड़ा चुप हो जाओ । ऐसे ही रत्ना
के मान-अभिमान का सिलसिला चलता
। रत्ना की बहन गीत गाती तो रत्ना
को भी गीत गाने की इच्छा होती
। छोटे बच्चों को पढ़ायो जाने
वाला सत्येन दत्त का पालकी गीत
उसे बहुत अच्छा लगता है । ठजन गण
मन' गीत भी उसे बहुत अच्छा लगता
है, परन्तु लम्बी-लम्बी कहानियाँ
उसे याद नहीं रहतीं, केवल याद
दिलाना पड़ता है ।
उस दिन जब बुख़ार
बहुत चढ़ आया था, तब से उसे केवल
खिलौने से खलने की इच्छा
बहुत बढ़ गई । बुख़ार के ताप
से उसका चेहरा लाल हो उठा था
। सिर के बाल छोटे करके कटे
थे । उस पर बार-बार ठंडे जल की
पट्टी दी जा रही थी, परन्तु लेटे-लेटे
भी उसका खेल रुकता नहीं था । आजकल
तो प्लास्टिक के विभिन्न प्रकार के
खिलौने बिकते हैं । उससे बगीचे
और घर बने थे । कुत्ता पहरा दे
रहा है । सामने घूमने वाली
कुर्सी पर छोटा गुड्डा बैठा
हुआ है - ऐसे ही सभी को सजा
दिया जाता । उसके सामने मैदान
के बीच में चूल्हा बनाया जाता
। उस पर कड़ाही में छोटे से हाथों
से दाल उबाली जाने लगती । सामने
रोटी बेलना, चावल की थाली
में चावल को बीनना आदि भी करना
पड़ता । यह सब वह स्वयं नहीं
सजा पाती तो उसी की फ़रमाइश
के अनुसार मुझे सजाना पड़ता ।
स्टूल के ऊपर, जहाँ
यह सब सजाया गया है, वहाँ
एक जगह ख़ाली थी । मुझे प्लास्टिक
का छोटा ग्रामोफोन वहाँ पर
रखना पड़ा । रत्ना गुन-गुन करके
गाने लगा :
"पालकी चली पालकी
चली
आकाश तले आग लगी
सूखा चेहरा नग्न
शरीर
जा रहा कहाँ धूप
सारी
ढोलक की ताल पर
नाच-करे ।"
जिन्होंने घर के
सामने बगीचे में भोजन बनाकर
भोज का आयोजन किया हे, उनके
मनोरंजन के लिए रत्ना यह गीत
गाकर एकदम चुप हो गई ।
फिर आँख बन्द करके बोली, "तुम
मुझे गुड़ियों की कहानी सुनाओ
।" मैंने गुड़ियों के घर द्वार की
तैयारी से लेकर गौरैयों के
भोजन तक सारी कहानियाँ सुना
दी । बुख़ार के ज़ोर से रत्ना आँख
बंद किये हुए ही सो गई । कई
दिनों से सुबह और शाम को
बुख़ार तेज़ रहता है । जब भी कॉलेज
से लेक्चर देकर आने पर उसके पास
बैठता, वह एक ही बात कहती,
"कहानी सुनाओ, कहानी सुनाओ
।" कहानी सुनाते-सुनाते उसके
शरीर पर हाथ फिराने पर रत्ना
सो जाती थी और फिर बुख़ार के
कारण बीच-बीच में चौंक पड़ती थी
। कहानी सुनने की इच्छा का उसमें
अन्त नहीं था । अपने बिस्तर पर
वह पूरी तरह से क़ैद हो गई
थी । उसके हाथ-पैर पकड़कर उसे
करवट बदलना पड़ता था, परन्तु
शरीर का सारा कष्ट, सारी दुर्बलता
को वह
कल्पना के ज़ोर से कहानी के जादुई
मंत्र से मन में ही समेटे रखना
चाहती थी । उसका मन वर्तमान वेदना
को कल्पनालोक के आश्रय के द्वारा
पराजित करना चाहता था ।
रत्ना का बूख़ार प्रत्येक
दिन एक समान ही चल रहा है ।
रोग से लड़की बिल्कुल लकड़ी की
तरह हो गई है । मेरी भी दुश्चिन्ता
का कोई ठिकाना नहीं । रोग से
छटपटाते हुए या शरीर के कष्ट
के लिए उसे क्रोध या विरक्ति कुछ
भी नहीं था । वह शांत हरी दूब
के समान जैसे मिट्टी में गड़ी
हुई है । केवल मन के राज्य में
उसके कितने ही चित्र जैसे बह-बहकर
चले जाते हैं । मन की खुराक़ देने
से उस और जैसे कोई भी अभाव
नहीं रहता था ।
घर की दीवार की
ओर सिर उठाकर देखा, वहाँ पर
एक-एक जगह पर बाँधकर चित्र टँगे
हुए हैं । मैं अन्नपूर्णा भिखारी
महादेव को भिक्षादान कर
रही हैं, श्री राधा अभिसारिका के
वेश में कृष्ण की प्रतीक्षा में खड़ी
हैं, या किसी घर में स्विट्ज़रलैंड
का हिम से आच्छादित पर्वत श्रृंखला
का चित्र बना हुआ है । नीचे
हरे रग के खेतों में श्वेत गाएँ
घूम रही हैं । मन में हुआ मानों
सफ़ेद दीवार हमारे मन को पीड़ा
पहुँचाती हैं, इसीलिए हमारा
मन भी रत्ना के समान ही अपने अंदर
कल्पना की सृष्टि करने के लिए जैसे
बार-बार कह रहा हो, "कहानी
सुनाओ, कहानी सुनाओ । इस
रक्त-विहीन दीवार को मैं सहन
नहीं कर पा रहा हूँ । कहानी का
आवरण मेरे चारों ओर से आवृत
कर दो ।"
बाहर आया । चारों
ओर मनुष्य के दु:खों की सीमा
परिसीमा नहीं है ।
आजकल वैशाख का महीना चल
रहा है । तेज़ धूप के ताप से मानों
शहर दग्ध हो रहा हो । इसी
बीच फुटपाथ पर एक घर की छोड़ी
छाया के आश्रय में प्राय: अस्थिचर्म
एक हुए, नग्न शरीर, गृहविहीन,
मध्य आयु का एक व्यक्ति के भरोसे
पर ही टिका है । छोड़े अन्न और उससे
भी छोड़े आश्रय की आशा में मनुष्य
होने पर भी वह गरीब व्यक्ति
रास्ते पर रह रहा है । उसे अन्न
नहीं मिला है, उसे प्यार नहीं
मिला है । इस अवहेलना और अनादर
के बीच भूख से व्याकुल तथा भोजन
के व्यंजनों के ढेर के निकट
वह मात्र अस्थिचर्म वाला दुर्बल
व्यक्ति और शिशु कितनी सांत्वना
पर सकते हैं । नींद उनके दु:ख को
कितनी देर तक ठगकर रख सकती
है । भूख और अवहेलना की, कष्ट
अथवा मृत्यु की, जो कराल छाया
प्रति क्षण उसके मन के सामने आती
है, महानगर के एक कल्पित रुप का
आश्रय करके वे इस भय से बच
जाते हैं । घोंघा जिस प्रकार आत्म-रक्षा
के लिए अपने चारों ओर से एक घेरा
बनाता है, मनुष्य भी वैसे
ही वास्तविकता के आक्रमण से अपने
जीवन की रक्षा के लिए कल्पना के घेरे
से अपनी दृष्टि को घेरकर रखना
चाहता है । मृत्यु के भय से बचने
के लिए ही मानों मनुष्य युग-युग
तक कल्पना के इन्द्रजाल की रचना
करता है । श्रीकृष्ण ने अर्जुन के
समक्ष जब अपने सत्य रुप को प्रकाशित
किया, तब अर्जुन ने जो रुप देखा,
वह रुप भयावह, भयंकर व अंतरात्मा
को व्यथित करने वाला था
:
नभ:पृशं दीप्तमानेक
वणर्ं व्यक्तासनं दीप्त विशाल नेत्रम्
।
दृष्टाहित्वां प्रव्यथितान्तरात्मा
धृतिं न विन्दामि सशं च भिक्षा ।।
हे विष्णो, तुम्हारा
शरीर गगनस्पर्शी और दीप्तमान
है । तुम्हारा अंग विभिन्न प्रकार
का है । तुम मुखव्यादान करते
हो । तुम्हारी आँखें अति विस्तृत
और दीप्तिमान हैं । तुम्हें देखकर
हमारी अंतरात्मा व्यथित हो
रही है । मैं धैर्य और शांति
लाभ नहीं कर पा रहा हूँ ।
दंष्ट्वकरालनि
च ते मुखानि, दृष्टैव कालानलसन्निभानि
।
दिशो न जाने न लक्षे
च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास
।।
तुम्हारा मुख
समूह दंत-पंक्तियों के कारण अति
भयंकर लग रहा है । ये सारे
ही मुख मानों प्रलयकालीन अग्नि
के समान प्रज्वलित हो रहे हैं
। इन सारे मुखों को देखकर मुझे
दिशा का भ्रम हो रहा है । मुझे
किसी भी तरह सुख नहीं मिल
रहा है । जगत् में व्याप्त, हे देवेश
! तुम प्रसन्न होओ ।
यही सत्य रुप है
। किन्तु अर्जुन का मन सत्य की
विभीषिका को पूरी तरह नहीं
झेल पा रहा था । अत: चोरों दिशाओं
में प्रणाम करके वे श्री भगवान
से बोले-मैं तुम्हारा यह रुप
सहन नहीं कर पा रहा हूँ । तुम
मित्र के समान हो, बंधु के समान
हो अत: ऐश्वर्ययुक्त होकर प्रसन्न
रुप से हमारे सामने प्रकट
होओ । हमारी प्रार्थना
है कि तुम अपने सत्य स्वरुप का
संवरण कर लो । हमारा मन तुम्हें
जिस रुप में चाहता है, उसी रुप
में तुम पुन: आ जाओ । कल्पनालोक
की जय हो नहीं तो हमारी दृष्टि
अग्नि में प्रज्वलित हो जायेगी ।
किरीटिनं गदिनं
चक्रहस्तं इच्छामि त्वां द्रष्टमहं
स्तथैव ।
तेनैव रुपेण चतुर्भुजेन
सहस्त्रबाहु भव विश्वमूर्ते ।।
हमें आपको पहले
के समान ही न्याय मुकुट पहने,
गदाधर एवं हाथ में चक्र लिए देखने
की इच्छा है । है विश्वमूर्ति, हे
सहस्त्रबाहु, आप पुन: पहले के
समान ही अपने चतुर्भुज रुप में
प्रकट होओ । यही मनुष्य की चिरंतन प्रार्थना है । इसी इच्छा के रहते विजय होगी । इच्छा की नौका ही सत्य के दोनों किनारों के बीच हमारे आश्रय के रुप में वहन करके ले चले । |
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इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७सभी स्वत्व सुरक्षित । इस प्रकाशन का कोई भी अंश प्रकाशक की लिखित अनुमति के बिना पुनर्मुद्रित करना वर्जनीय है ।
प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित
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