राजस्थान

राजस्थान एवं जयपुर के प्रमुख मेले एवं त्यौहार

राहुल तनेगारिया


 

 

मेले का अर्थ एवं परिचय

एक विशेष स्थान पर जन समूह मिलकर उत्सव मनाता है, उसे मेला कहते हैं। राजस्थान में गांवों व शहरों में आबादी के अनुपात में मेलों का आयोजन होता है। बड़े स्थानीय मेलों में गांव के गांव, कस्बे के कस्बे व शहर के शहर उमड़ पड़तें हैं। मेलों में आदिवासी लोग वर वधु का चयन भी कर लेते हैं, जिससे विवाह सम्बन्ध भी स्थापित होते हैं। कभी-कभी प्राचीन परम्परा के अनुसार बल प्रयोग के आधार पर भी वर वधु का यचन किया जाता है। इसके अनुसार वर का दल अपने बल से वधू को एक सीमा के बाहर ले जाता है तो वधू पर वर का अधिकार माना जाता है। ऐसी कई परम्परा एवं रीति-रिवाज मेलों और त्यौहारों के समय निभाये जाते हैं।

 

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मेला ें का महत्व

राजस्थान में त्यौहारों, पवाç एवं मेलों की अनूठी परम्परा एवं संस्कृति अन्यत्र मिलना कठिन है। यहां का प्रत्येक मेला एवं त्यौहार लोक जीवन की किसी किवदन्ती या किसी ऐतिहासिक कथानक से जुड़ा हुआ है। इसलिए इनके आयाजन में सम्पूर्ण लोक जीवनपूर्ण सक्रियता से भाग लेता है। इन मेलों में राजस्थान की संस्कृति जीवंत हो उठती है। इन मेलों के अपने गीत हैं, जिनके प्रति जन साधारण की गहरी आस्था दृष्टिगोचर होती है। इससे लोग एकता के सूत्र में बंधें रहते हैं। राजस्थान में अधिकांश मेले पर्व व त्यौहार के साथ जुड़े हुए हैं। जहां पर मेला लगता है वहां दूर-दूर से लोग आते हैं। इन मेलों में कुछ का महत्व स्थानीय है तो कुछ देश व्यापी हैं।

मेलों का महत्व देवताओं एवं देवियों की आराधना को लेकर भी है। क्योंकि देर्वाचन से मानव को शान्ति प्राप्त होती है। मनुष्य देवालायों में इसलिए जाते हैं ताकि उनका मनोरथ पूर्ण हो सके और उन्हें देवकृपा प्राप्त हो। भैरुजी, शिव-पार्वती, बालाजी (हनुमान जी का एक नाम), विष्णु आदि देवताओं पर विशेष अवसरों पर मेले लगते हैं। ऐसे मेले धार्मिक दृष्टि से संस्कृति के विशेष अंग हैं। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक यह परिपाटी चलती रहती है। इन मेलों को विशेष महीनों तथा तिथियों के साथ जोड़कर प्रकृति के साथ सम्बन्ध स्थापित किया जाता है। ऐसे अवसरों का आर्थिक दृष्टि से बड़ा उपयोग है।

वैसे तो राजस्थान के विभिन्न भागों में बहुत बड़ी संख्या में मेले आयोजित किए जाते हैं, परन्तु कुछ गिने-चुने मेलों का अपना ही महत्व होता है। यहां के धार्मिक मेलों में संबंधित धर्म अनुयायियों के अतिरिक्त अन्य धर्म के लोग एवं अन्य जाति के लोग भी खुलकर भाग लेते हैं।

कुछ प्रमुख मेलों का वर्णन इस प्रकार है :-

 

कैला देवी का मेला

करौली से २० कि.मी. दूर त्रिकूट पर्वत की घाटी में कैला देवी का भव्य मंदिर है। वहां पर प्रत्येक वर्ष चैत्रमास की शुक्ल अष्टमी को मेला लगता है। जिसमें हजारों लाखों भक्त देवी के दर्शन करने आते हैं। प्रत्येक यात्री के मुंह पर एक ही भजन होता है, जिसकी पंक्तियां इस प्रकार हैं :-

""कैला देवी के भवन में फुटरन खेले लागुरिया''

इस अवसर पर पशु मेला भी लगता है।

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गणेश मेला

सवाई माधोपुर के ऐतिहासिक दुर्ग रणथम्भोर में  गणेश जी का मंदिर बना हुआ है। वहां पर गणेश चतुर्थी का मेला हर वर्ष लगता है। जिसमें हजारों लोग दूर-दूर से आते हैं।

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महावीर जी का मेला

सवाई माधोपुर के जिले हिण्डोन के पास महावीर जी का मेला वहां पर स्थित महावीर जी के मंदिर पर हर वर्ष चैत्र माह में लगता है। जिसमें लाखों जैन श्रावक, श्राविकाएं, साधु, साध्वियाँ, श्रमण, श्रमणियां, मुनि एवं अन्य जन भाग लेते हैं। इस मेले में जैन के अलावा गुर्जर, मीणा आदि जातियों के लोग भी भाग लेते हैं।

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पुष्कर मेला

अजमेर से ११ कि.मी. दूर हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल पुष्कर है। यहां पर कार्तिक पूर्णिमा को मेला भरता है, जिसमें बड़ी संख्या में देशी-विदेशी पर्यटक भी आते हैं। हजारों हिन्दु लोग इस मेले में आते हैं। व अपने को पवित्र करने के लिए पुष्कर झील में स्नान करते हैं। भक्तगण एवं पर्यटक श्री रंग जी एवं अन्य मंदिरों के दर्शन कर आत्मिक लाभ प्राप्त करते हैं।

राज्य प्रशासन भी इस मेले को विशेष महत्व देता है। स्थानीय प्रशासन इस मेले की व्यवस्था करता है एवं कला संस्कृति तथा पर्यटन विभाग इस अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयाजन करते हैं।

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इस समय यहां पर पशु मेला भी आयोजित किया जाता है, जिसमें पशुओं से संबंधित विभिन्न कार्यक्रम भी किए जाते हैं, जिसमें श्रेष्ठ नस्ल के पशुओं को पुरस्कृत किया जाता है। इस पशु मेले का मुख्य आकर्षण होता है।

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राणी सती का मेला

झूंझनू में राणी सती का मंदिर बना हुआ है। यहां पर भादवा मास में मेला लगता है। जिसमें शेखावटी क्षेत्र के हजारों लोग भाग लेते हैं तथा मंदिरों में जाकर देवी राणी सती के दर्शन करते हैं। मार्च १९८८ में भारत सरकार द्वारा सती (निवारण) अधिनियम पारित करने के पश्चात् इस मेले पर प्रतिबंध लगा दिया गया है।

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कपिल मुनि का मेला

बीकानेर जिले के कोलायत नामक स्थान पर कपिल मुनि का मंदिर बना हुआ है। जहां पर कार्तिक पूर्णिमा का मेला लगता है। इस मेले में राजस्थान व गुजरात के लाखों लोग भाग लेते हैं व कोलायत झील में स्नान करके अपने आप को पवित्र करते हैं।

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केशरिया नाथ जी का मेला

उदयपुर से ६५ कि.मी. दूरी पर केशरिया नाथ जी का मंदिर बना हुआ है, भगवान केशरिया नाथ जी को काले बाबा व धुलेवा बाबा के नाम से भी जाना जाता है। यहां पर प्रति वर्ष चैत्र बदी अष्ट्मी को मेला लगता है, जिसमें न केवल जैन अपितु भील जाते के लोग हजारों की संख्या में भाग लेते हैं व भगवान केशरिया नाथ जी के दर्शन करते हैं, व इस पुण्य कर्म से अपने आपको धन्य एवं पवित्र मानते हैं। यहां जैन के प्रथम तीर्थकर ॠषभ देव जी की काले पत्थर की मूर्ति स्थापित है और इन्हें केशर द्वारा पूजा जाता है। इसलिए ये केशरिया बाबा के नाम से पुकारे जाते हैं।

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चार भुजा का मेला

उदयपुर जिले में चार भुजा नामक स्थान पर भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की एकादशी में मेला लगता है, जिसमें हजारों की संख्या में सम्पूर्ण राजस्थान से लोग आते हैं।

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माता कुंडालिनी का मेला

चित्तौड़गढ़ जिले में राश्मि नामक स्थान पर माता कुंडालिनी का मंदिर बना हुआ है, जहां पर वैशाख सुदि पूनम को प्रतिवर्ष मेला लगता है।

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बाबा रामदेव का मेला

पोखरण के पास राम देवरा नामक गांव में बाबा रामदेव का मंदिर बना हुआ है। यहां पर भाद्रपक्ष के माह में बहुत बड़ा मेला लगता है। इसमें भारत की सभी राज्यों से लाखों लोग आते हैं। ऐसी मान्यता है कि बाबा रामदेव के दर्शन से कोढ़ तथा अन्य रोगों से मुक्ति मिलता है। इस पर भी पशु मेला लगता है, जिसमें विभिन्न नस्लों के पशु-मवेशियों का क्रय-विक्रय होता है। यह रेगिस्तान क्षेत्र का महत्वपूर्ण धार्मिक व सांस्कृतिक मेला है।

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अजमेर के ख्वाजा साहब का उर्स

अजमेर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह बनी हुई है, जहां पर प्रतिवर्ष पहली रजव से नौरजव तक एक विशाल उर्स (मेला) का आयोजन होता है।

यहां हजारों की संख्या में जायरीन जियारत करने आते हैं और ख्वाजा साहब को चादर चढ़ाते हैं व मन्नत मांगते हैं। मुसलमानों के लिए यह उर्स मक्का मदीना के हज के बराबर महत्व रखता है। इस उर्स में न केवल मुसलमान ही शामिल होते हैं अपितु हिन्दुजन भी भारी संख्या में पूरे भारतवर्ष से इस उर्स में आते हैं और ख्वाजा साहब को चादर चढ़ाते हैं। इस उर्स में सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होता है, जिसमें भारत व पाकिस्तान दोनों देशों के कलाकार भाग लेते हैं एवं अपनी सेवा ख्वाजा साहब को अर्पित करते हैं। राज्य प्रशासन भी इस उर्स के लिए उचित प्रबंध करता है। यह उर्स आपसी भाईचारे एवं सौहार्द का प्रतीक है।

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करणी माता का मेला

बीकानेर जिले में देशनोक नामक स्थान पर करणी माता का मंदिर बना हुआ है, यहां वर्ष में दो बार मेला लगता है। एक (प्रथम) तो चैत्र मास में नवरात्र के समय तथा दूसरा अश्विन मास में। करणी माता का मंदिर देश-विदेश में चूहों के नाम से प्रसिद्ध है। यहां हजारों की संख्या में चूहें हैं, जिन्हें पवित्र माना जाता है और जिन्हें "बाबा' के नाम से पुकारा जाता है। श्रृद्धालुजन पहले प्रशाद का भोग चूहों को लगाते हैं उसके बाद व जन समुदाय में बांटतें हैं। यहां एक आस्था प्रचलित है कि यदि किसी भक्तगण को सफेद चूहे के दर्शन हो जाएं तो उस पर करणी माता की असीम कृपा होती है।

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जाम्भेश्वर का मेला

बीकानेर जिले की नोखा तहसील के मुकाम गांव में जाम्भेश्वर जी का मंदिर स्थापित है, यहां पर वर्ष में दो बार मेला लगता है। प्रथम मेला फाल्गुन व दूसरा आसोज माह में लगता है। जाम्भेश्वरजी विश्नोई समुदाय के संस्थापक थे। फाल्गुन की अमावस्या पर लोग बड़ी संख्या में मंदिर पर एकत्र हो जाम्भेश्वरजी का गुणगान करते हैं।

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शीतला माता का मेला

जयपुर जिले के याकुस तहसील के गांव शील की इंगरी में शीतला माता का मंदिर बना हुआ है। यहां पर प्रतिवर्ष चैत्र में शीतला अष्टमी का मेला लगता है। शीतला माता बच्चों की सरंक्षक मानी जाती है, इसलिए इस मंदिर एवं मेले का राजस्थान की स्रियों के हृदय में एक विशेष स्थान है। स्रियां सम्पूर्ण राजस्थान से प्रतिवर्ष मेले में आती है और शीतला माता की अर्चना कर अपने बच्चों के लिए माता से प्रार्थना करती हैं कि उनकी कृपा उनके बच्चों पर सदा बनी रहे।

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बाण गंगा का मेला

जयपुर से ११ कि.मी. दूर बैराण नामक स्थान पर बैसाख माह में नदी के किनारे पर यह मेला लगता है। ऐसा माना जाता है कि यह पवित्र नदी अर्जुन (पाण्डव) के द्वारा लाया गयी थी। इस अवसर पर हजारों लोग यहां नदी में स्नान करके अपने आपको पवित्र करते हैं।

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भर्तहरि का मेला

अलवर के पास राजा भर्तहरि का आश्रम बना हुआ है, जहां प्रतिवर्ष भादों माह का मेला लगता है, इसमें हजारों लोग श्रद्धा से भाग लेते हैं।

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दशहरा मेला

कोटा में एक सप्ताह के लिए मेला भरता है। यह भारत के प्रसिद्ध मेलों में से एक है। इस मेले में विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं व रामलीला का भी मंचन किया जाता है।

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तीज का मेला

यह मेला बूंदी में तीज के अवसर पर लगता है, जो एक सप्ताह तक चलता है। इसमें विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं। यह मेला राजस्थान की स्रियों के लिए एक विशेष महत्व रखता है।

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पशु मेला

राजस्थान में धार्मिक मेलों के साथ पशु मेले भी काफी संख्या में आयोजित किए जाते हैं। पुष्कर का मेला न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है अपितु क्रय-विक्रय की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। परवतसर तथा मेड़ता (नागौर) में कार्तिक शुक्ल पक्ष के माह में तथा तिलबाड़ा (बाड़मेर), सांचौर (जालौर) में चैत्र माह में पशु मेले आयोजित किए जाते हैं। इसके अतिरिक्त चित्तौड़गढ़, करौली (सवाई माधोपुर), बहरोड़ (अलवर) आदि स्थानों पर भी पशु मेले आयोजित किए जाते हैं।

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आदिम जातियों के मेले

आदिम जातियों के जीवन में मेलों का महत्वपूर्ण स्थान है। सहरिया जाति के लोग मेलों में अपने जीवन साथई को चुनते हैं। जो युवक-युवतियां एक दूसरे को पंसद करते हैं वे भागकर शादी कर लेते हैं।

आदिम जाति में दो कि के मेले देखने को मिलते हैं। एक वे जो अन्य जातियों के पर्व या त्यौहार है, जिन्हें देखने के लिए हजारों आदिवासी एकत्रित होते हैं तथा दूसरे वे मेले जो उनकी स्वयं की मान्यताओं से स्थापित हुए हैं।

आदिवासियों के मुख्य मेले

 

मेलों का नाम

तिथि

तेजाजी

भादवा बदी २

कालाजी

आसोज बदी १०

घूघरे

चैत्र वदी ८

बड़ादीतवार

-

सीता बाड़ी

बैशीखी ३०

गोकल आठम

कृष्ण जन्माष्टमी

कपिल धार

कार्तिक १५

बैणेश्वर जी

मई पूनम

बार बीज

दीपावली के एक माह बाद

पाचम

चैत्रबदी ५

आंवली ग्यारस

फाल्गुन सुदी ११

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राजस्थान का मरुस्थल उत्सव

राजस्थान पर्यटन विभाग का एक रचनात्मक कार्य जैसलमेर का मरुस्थल उत्सव है। जैसलमेर रेत के टीलों का शहर है। जैसलमेर उत्सव १९७९ में आरम्भ हुआ। इस उत्सव ने महान सफलता हासिल की व आज यह उत्सव विदेशी पर्यटकों के आकर्षण का मुख्य केन्द्र है। प्रत्येक वर्ष फरवरी माह में यह शहर अपने विविध रंगों, संगीत एवं उत्सवों के साथ जगमगा उठता है। फरवरी की पूर्णमासी के अनुरुप ही इस उत्सव का दिन निश्चित किया जाता है। ग्राम्य कला एव संस्कृति की दुर्लभ वस्तुओं का प्रदर्शन मरुस्थल को जीवन से भर देता है। इस उत्सव की सर्वोत्तकृष्ट वस्तु मरुस्थलीय संगीत है, जो लांगाओं एवं मगंनियारों के द्वारा गाया जाता है। बाड़मेर व जैसलमेर जिलों का गारी नृत्य आदि इस उत्सव के मुख्य आकर्षण केन्द्र है। इन राजस्थानी नृत्यों के अलावा ठप गंगाने, धीरमार, भारिया, चारी एवं तिरालीताल मरुस्थल में चमत्कार प्रभाव उत्पन्न करने में सक्षम हैं।ंटोंंट

उंटों की कलाबाजियों, उनकी दौड़ो, की साज-सज्जा प्रतियोगिता, पोलो एवं रस्साकशी इत्यादि से कुछ अन्य खास रोमांचक अनुभव है। इनमें कई और प्रतियोगिताएं भी है जो भारतीय एवं विदेशी पर्यटकों के मध्य में सम्पन्न होती है। उदाहरणत: पगड़ी बांधने की प्रतियोगिता इत्यादि। मूंछ प्रतियोगिता एवं समारोह का भृव्य समापन मारु श्री के चुनने से पूरा होता है। जैसलमेर में की सवारी करना भारतीय पर्यटकों एवं विदेशी पर्यटकों दोनों ही के लिए एक मुख्य आकर्षण है। तथापि विदेशी पर्यटकों के लिए केवल जैसलमेर शहर को छोड़कर पश्चिमी भाग राजमार्ग १५ पर बसे अन्य पर्यटन स्थलों एवं गांवों की सैर के लिए मुख्य जिलाधीश से मंजूरी लेनी पड़ती है। लादुखा, अमर सागर, बड़ा बागर, कुलधारा अकाल वुड़ जीवावशेष पार्क एवं शाम के समय सरुस्थल टीले दर्शनीय होते हैं।ंटोंंट

गांव वाले विभिन्न रंग-बिरंगे परिधानों में इन पर्यटकों के साथ भाग लेते हैं। हस्तकलाएं जो बिक्री के लिए रखी जाती है, उनमें चांदी के गहने, हाथ से बुने परिधान, को सजाने के लिए काम में आने वाली वस्तुएं, बारीक चित्रकलाएं व वनस्पति रंगों का प्रयोग किया जाता है। लाख की रंग-बिरंगी बंधेज, बांधने की सूती एवं सिल्क की साड़ियां, कपड़े, कटे हुए के बालों का कम्बल एवं कालीन मुख्य होते हैं।

 

 

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