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भारत के सुदूर पश्चिम
में स्थित धार के मरुस्थल में जैसलमेर की स्थापना
भारतीय इतिहास के मध्यकाल के प्रारंभ में ११७८ ई. के
लगभग यदुवंशी भाटी के वंशज रावल-जैसल द्वारा की गई थी।
रावल जैसल के वंशजों ने यहाँ भारत के गणतंत्र
में परिवर्तन होने तक बिना वंश क्रम को
भंग किए हुए ७७० वर्ष सतत शासन किया, जो अपने आप
में एक महत्वपूर्ण घटना है। जैसलमेर
राज्य ने भारत के इतिहास के कई कालों को देखा व सहा है। सल्तनत काल के
लगभग ३०० वर्ष के इतिहास में गुजरता हुआ यह
राज्य मुगल साम्राज्य में भी लगभग ३०० वर्षों तक अपने अस्तित्व को
बनाए रखने में सक्षम रहा। भारत में अँग्रेज़ी
राज्य की स्थापना से लेकर समाप्ति तक
भी इस राज्य ने अपने वंश गौरव व महत्व को
यथावत रखा। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात यह
भारतीय गणतंत्र में विलीन हो गया।
भारतीय गणतंत्र के विलीनकरण के समय इसका
भौगोलिक क्षेत्रफल १६,०६२ वर्ग मील के विस्तृत
भू-भाग पर फैला हुआ था। रेगिस्तान की विषम परिस्थितियों
में स्थित होने के कारण यहाँ की जनसंख्या
बींसवीं सदी के प्रारंभ में मात्र ७६,२५५ थी।
जैसलमेर राज्य भारत के पश्चिम भाग
में स्थित थार के रेगिस्तान के दक्षिण पश्चिमी क्षेत्र
में फैला हुआ था। मानचित्र में जैसलमेर
राज्य की स्थिति २०००१ से २०००२ उत्तरी अक्षांश व ६९०२९
से ७२०२० पूर्व देशांतर है। परंतु इतिहास के घटनाक्रम के
अनुसार उसकी सीमाएँ सदैव घटती बढ़ती रहती थी। जिसके
अनुसार राज्य का क्षेत्रफल भी कभी कम
या ज्यादा होता रहता था। जैसलमेर का क्षेत्र थार के
रेगिस्तान में स्थित है। यहाँ दूर-दूर तक स्थाई व अस्थाई
रेत के ऊंचे-ऊंचे टीले हैं, जो कि हवा, आंधियों के
साथ-साथ अपना स्थान भी बदलते रहते हैं। इन्हीं
रेतीले टीलों के मध्य कहीं-कहीं पर पथरीले पठार व पहाड़ियाँ
भी स्थित हैं। इस संपूर्ण इलाके का ढाल सिंध नदी व कच्छ के
रण अर्थात् पश्चिम-दक्षिण की ओर है।
जैसलमेर राज्य का संपूर्ण भाग रेतीला व पथरीला होने के कारण यहाँ का तापमान मई-जून
में अधिकतम ४८० सेंटीग्रेड तथा दिसम्बर-जनवरी
में न्यूनतम ४० सेंटीग्रेड रहता है। यहाँ
संपूर्ण प्रदेश में जल का कोई स्थाई
स्रोत नहीं है। वर्षा होने पर कई स्थानों पर वर्षा का
मीठा जल एकत्र हो जाता है। यहाँ अधिकांश कुंओं का जल खारा है तथा वर्षा का एकत्र किया हुआ जल ही एकमात्र पानी का
साधन है।
प्रागऐतेहासिक काल - प्रागऐतेहासिक कालीन
भू-वैज्ञानिक दृष्टि से इस प्रदेश में उपलब्ध
वेलोजोइक, मेसोजोइक, एवं सोनाजाइक कालीन अवशेष इस प्रदेश की प्रागऐतेहासिक कालीन स्थिति को प्रमाणित करते हैं। ज्यूटालिक चट्टानों के अवशेष इस
संपूर्ण क्षेत्र को प्राचीन काल में यहाँ
समुद्र होने का प्रमाण देते हैं। यहाँ
से विस्तृत मात्रा में जीवश्यों की होने
वाली प्राप्ति में भी यहाँ समुद्र होने का प्रमाण
मिलता है। जब यह प्रदेश सागरीय जल
से मुक्त हो गया, तो यहाँ मानव ने रहना प्रारंभ किया।
यद्यपि जैसलमेर क्षेत्र की मुख्य भूमि
में अभी तक कोई उल्खनन कार्य नहीं हुआ है, परंतु इसके पश्चिम
में मोहनजोदाड़ो व हड़प्पा, उत्तर-पूर्व
में कालीबंगा व पूर्वी क्षेत्र में सरस्वती के उल्खनन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि नि:सन्देह इस क्षेत्र
में आदि मानव का अस्तित्व अवश्य रहा होगा।
जैसलमेर का पौराणिक इतिहास - बाल्मिकी
रामायण में किष्किन्धा कांड में पश्चिम दिशा के जन पदों के
वर्णन में मरु स्थली नामक जनपद की चर्चा की गई है। डॉ ए.बी.
लाल के अनुसार यह वही मरु भूमि है।
महाभारत के अश्वमेघिक पूर्व में वर्णन है कि
भगवान श्रीकृष्ण हस्तिनापुर से जब द्वारका जा रहे थे तो उन्हें
रास्ते में बालू, धूल व काँटों वाला
मरुस्थल (मरुभूमि) का रेगिस्तान पड़ा था। महाभारत के
वन पूर्व में इस भू-भाग को सिंधु-सौवीर कहकर
सम्बोधित किया गया है। महाभारत के
समापर्व के अध्याय ३२ में वर्णित है कि पाण्डु पुत्र नकुल ने अपने पश्चिम दिग्विजय
में मरुभूमि, सरस्वती की घाटी, सिंध आदि प्रांत को विजित कर
लिया था। मरुभूमि आधुनिक माखाड़ का ही विस्तृत क्षेत्र है।
पौराणिक काल की सीमा से निकल कर ऐतिहासिक काल के प्रांरभ में इस क्षेत्र को
माडमड़ प्रदेश के नाम से जाना जाता था। इरान के नागेश-ए-रुस्तम नाम स्थान पर प्राप्त
शिलालेख की २२वीं पंक्ति से ३०वीं पंक्ति
में दिए विभिन्न प्रदेशों के नामों से ज्ञात होता है। इस
लेख के अनुसार ये प्रदेश ५२२-४८६ बी.सी.
में परसियन शासक जेरियास के अधिकार क्षेत्र
में था। इसके उपरांत शक संवत ७२ (१५० ई.) के
रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख में इस
भू-भाग को "मरु" सम्बोधित करते हुए सिंधु-सौवीर के
साथ प्रयुक्त किया गया है। इस प्रदेश के
लिए माड़ शब्द का प्रयोग हमें पुन: प्रतिहार
शासक कक्कुट के घटियाला अभिलेख से प्राप्त होता है। इसमें इसे त्रवणी तथा वल्ल के
साथ प्रयोग किया गया है "येन प्राप्ता महख्याति स्रवर्ण्यो वल्ल
माड़ ये"। इस लेख में वल्ल तथा माड़ को
समास के रुप में प्रयोग किए जाने से तात्पर्य निकलता है कि वल्ल तथा
माड़ समीपवर्ती राज्य रहे होंगे। माड़ प्रदेश उस
समय भारत का समीपवर्ती राज्य था, इसका उल्लेख "अलविलाजूरी" के विवरण
से प्राप्त है, जिसमें इस प्रदेश को अरब
राज्य की सीमा पर स्थित होना बताया गया है। अल-विला जूरी ने उल्लेख किया है कि जुनैद ने अपने अधिकारियों को
माड़मड़ मंडल, बरुस, दानत्र तथा अन्य स्थानों पर
भेजा था व जुर्ज पर विजय प्राप्त की थी। यहाँ पर
माड़माउड का प्रयोग मरु प्रदेश माड़ व
मंड मंडल (मारवाड़) के लिए किया गया है ये दोनों प्रदेश एक दूसरे के
सीमांत प्रदेश हैं। जैसलमेर क्षेत्र का कुछ
भाग त्रवेणी क्षेत्र का हिस्सा भी रहा है जिसका उल्लेख प्रतिहार
बाऊक के जोधपुर अभिलेख से प्राप्त होता है। इन विवरणों
से यह पता चलता है कि मरुमंडल के प्रतिहारों की
राज्य सीमाओं पर वल्ल, माड़ एवं स्वेणी प्रदेश स्थित थे। इस आधार पर यह कहा जा
सकता है कि मरुमंडल के पश्चिम में
माड़ प्रदेश का जो कालान्तर में जैसलमेर क्षेत्र कहलाया।
माड़ प्रदेश के पश्चिम-उत्तर में सौवीर प्रदेश था तथा दक्षिण-पूर्व
में त्रवेणी और वल्ल प्रदेश था। इन सभी प्रदेशों की
सीमाएँ राजनितिक दृष्टिकोण के कारण घटते-बढ़ते रहती थी। प्रतिहारों के चरमोत्कर्ष काल (७००-९०० ई.)
में यह सारा प्रदेश जिसमें माड़ ही था,
उनके सम्राज्य का अंग था। कालातंर में जब प्रतिहारों की
शक्ति क्रमश: क्षीण हो ही गई तथा इस क्षेत्र
में विभिन्न क्षत्रिय व स्थानीय जातियों जिनमें
भूटा-लंगा, पुंवार, मोहिल आदि प्रमुख थे ने छोटे-छोटे क्षेत्रों पर अपना अधिकार जमा
लिया। सातवीं सदी के आरंभ काल में इस क्षेत्र
में पश्चिमोत्तर दिशा से भाटी जाति का आगमन प्रांरभ हुआ एवं इस जाति ने स्थानीय जातियों
से संघर्ष कर धीरे-धीरे समूचे क्षेत्र को अपने अधिकार
में करके भाटी राज्य की स्थापना की। यही
भाटी राज्य कालांतर में जैसलमेर
राज्य के रुप में प्रसिद्ध हुआ।
जैसलमेर राज्य की विशेषता तथा इसका महत्व - जैसलमेर
राज्य भारत के मानचित्र में ऐसे स्थल पर स्थित है जहाँ इसका इतिहास
में एक विशिष्ट महत्व है। भारत के उत्तर-पश्चिमी
सीमा पर इस राज्य का विस्तृत क्षेत्रफल होने के कारण अरबों तथा तुर्की के प्रारंभिक
हमलों को यहाँ के शासकों ने न केवल सहन किया
वरन दृढ़ता के साथ उन्हें पीछे धकेलकर शेष
राजस्थान, गुजरात तथा मध्य भारत को इन बाहरी आक्रमणों
से सदियों तक सुरक्षित रखा। राजस्थान के दो
राजपूत राज्य, मेवाइ और जैसलमेर
अनय राज्यों से प्राचीन माने जाते हैं, जहाँ एक ही वंश का
लम्बे समय तक शासन रहा है। हालाँकि
मेवाड़ के इतिहास की तुलना में जैसलमेर
राज्य की ख्याति बहुत कम हुई है, इसका
मुख्य कारण यह है कि मुगल-काल में
बी जहाँ मेवाड़ के महाराणाओं की
स्वाधीनता बनी रही वहीं जैसलमेर के
महारावलों द्वारा अन्य शासक की भाँती
मुगलों से मेलजोल कर लिया जो अंत तक चलता रहा। आर्थिक क्षेत्र
में भी यह राज्य एक साधारण आय वाला
पिछड़ा क्षेत्र रहा जिसके कारण यहाँ के
शासक कभी शक्तिशाली सैन्य बल संगठित नहीं कर
सके। फलस्वरुप इसके पड़ौसी राज्यों ने इसके विस्तृत
भू-भाग को दबा कर नए राज्यों का संगठन कर
लिया जिनमें बीकानेर, खैरपुर, मीरपुर,
बहावलपुर एवं शिकारपुर आदि राज्य हैं। जैसलमेर के इतिहास के
साथ प्राचीन यदुवंश तथा मथुरा के
राजा यदु वंश के वंशजों का सिंध, पंजाब,
राजस्थान के भू-भाग में पलायन और कई
राज्यों की स्थापना आदि के अनेकानेक ऐतिहासिक व
सांस्कृतिक प्रसंग जुड़े हुए हैं।
सदियों तक आवागमन के सुगम साधनों के आभाव में यह
राज्य देश के अनय प्रांतों से लगभग कटा
सा रहा। इस कारण बाहर के लोगों के जैसलमेर के
बारे में बहुत कम जानकारी रही है।
सामान्यत: लोगों की कल्पना में यह स्थान धूल व आँधियों
से घिरा रेगिस्तान मात्र है। परंतु
वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है, इतिहास एवं काल के थपेड़े खाते हुए
भी यहाँ प्राचीन, संस्कृति, कला, परंपरा व इतिहास अपने
मूल रुप में विधमान रहा तथा यहाँ के
रेत के कण-कण में पिछले आठ सौ वर्षों के इतिहास की गाथाएँ
भरी हुई हैं। जैसलमेर राज्य ने
मूल भारतीय संस्कृति, लोक शैली,
सामाजिक मान्यताएँ, निर्माणकला, संगीतकला, साहित्य, स्थापत्य आदि के
मूलरुपंण बनाए रखा।
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