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बीकानेर राज्य का पुराना नाम
"जंगल' देश था। इसके उत्तर में कुरु और मद्र देश थे, इसलिए महाभारत में जांगल नाम कहीं अकेला और कहीं कुरु और मद्र देशों के साथ जुड़ा हुआ मिलता है। बीकानेर के राजा जंगल देश के स्वामी होने के कारण अब तक
"जंगल धर बादशाह' कहलाते हैं।
बीकानेर राज्य तथा शहर की स्थापना राव बीका ने १४८८ ई. में करवायी थी। राव बीका जोधपुर के शासक एंव स्थापक राव जोधा के १४ पुत्रों में से एक था। ऐसा कहा जाता है कि नेरा नामक व्यक्ति इस संपूर्ण जगह का मालिक था तथा उसने राव बीका को यह जगह इस शर्त पर दी की उसके नाम को नगर के नाम से जोड़ा जाए। इसी कारण इसका नाम बीकाअनेर, बीकानेर पड़ा। राव बीका राठौड़ राजपूत था। इस राज्य का फैलाव वर्तमान के गंगानगर, चुरु, हनुमान और बीकानेर जिले में था।
बीकानेर राज्य के उत्तर में पंजाब का फिरोजपुर जिला, उत्तर-पूर्व में हिसार, उत्तर-पश्चिम में भावलपुर राज्य, दक्षिण में जोधपुर, दक्षिण-पूर्व में जयपुर और दक्षिण-पश्चिम में जैसलमेर राज्य, पूर्व में हिसार तथा लोहारु के परगने तथा पश्चिम में भावलपुर राज्य
थे।
वर्तमान बीकानेर जिला - वर्तमान
बीकानेर जिला राजस्थान के उत्तर-पश्चिमी भाग में स्थित है। यह २७ डिग्री ११ और २९ डिग्री ०३ उत्तर अक्षांश और ७१ डिग्री ५४ और ७४ डिग्री १२ पूर्व देशांतर के मध्य स्थित है। इसका कुल क्षेत्रफल २७२४४ वर्ग किलोमीटर है। बीकानेर के उत्तर में गंगानगर तथा फिरोजपुर, पश्चिम में जैसलमेर, पूर्व में नागौर एंव दक्षिण में जोधपुर स्थित है।
पर्वत - बीकानेर राज्य में सुजानगढ़ को छोड़कर और कहीं पर्वत श्रेणियाँ नही हैं। ये पर्वत श्रेणियाँ दक्षिण में जोधपुर और जयपुर की सीमाओं के निकट स्थित है। इनमें से गोपालपुरा के पास की पहाड़ी समुद्र के सतह से १६५१ फुट ऊँची है अर्थात् आस-पास की समतल भूमि से इसकी ऊँचाई केवल ६०० फुट के करीब है।
जमीन की बनावट - राज्य के दक्षिणी और पूर्वी भाग वागड़ नाम की विशाल मरुभूमि का और कुछ हिस्सा उत्तर-पश्चिमी भाग भारत की मरुभूमि का अंश है। इसका केवल उत्तर-पूर्वी भाग ही उपजाऊ है। इसका अधिकांश हिस्सा रेत के टीलों से भरा है, जो २० फुट से लेकर कहीं कहीं १०० फुट तक ऊँचे हो जाते है। यह कहा जा सकता है कि एक प्रकार
से यहां की भूमि सूखी और हर प्रकार
से ऊजड़ ही है। किन्तु वर्षा ॠतु में घास उग आने पर यहां का प्राकृतिक सौन्दर्य देखने योग्य होता है।
नदियां - यहां पर साल भर बहने वाली नदी एक भी नही है। केवल दो नदियां ऐसी हैं, जो वर्षा ॠतु में बीकानेर राज्य में प्रवेश कर इसके कुछ हिस्सों में जल पहुँचाती है।
(i )
काटली - यह वास्तव में जयपुर राज्य की सीमा में बहती है। उक्त राज्य के खंडेला के पास की पहाड़ियों से निकलकर उत्तर की तरफ
शेखावटी से लगभग साठ मील तक बहती हुई यह बीकानेर राज्य में प्रवेश करती है। अच्छी वर्षा होने पर यह राजगढ़ तहसील के दक्षिणी हिस्से में १० से १६ मील तक बहकर रेतीले रेगिस्तान में लुप्त हो जाती है।
(ii )
धग्गर (हाकड़ा) - इसका उदगम स्थान सिरमोर राज्य के अंतगर्त हिमालय पर्वत के नीचे का ढलुवा भाग है । पटियाला और हिसार जिले से बहकर यह टीबी के निकट बीकानेर में प्रवेश करती है। यह प्राचीनकाल में राज्य के उत्तरी भाग में बहती हुई सिंधु नदी से जा मिलती थी। पर अब यह वर्षा ॠतु को छोड़कर सदा सूखी रहती है और इस समय भी यह हनुमानगढ़ के पश्चिम एक दो मील से आगे तक नही जाती है।
बीकानेर में नहरों द्वारा सिंचाई
का प्रबंध किया जाता है। जिले की प्रमुख नहरों में धग्गर नहर, पश्चिमी यमुना नहर, गंग नहर इत्यादि महत्वपूर्ण है।
बीकानेर राज्य में कोई बड़ी
झील नही है। मीठे और खारे पानी की
झीलें निम्नलिखित हैं।
१) गजनेर -
बीकानेर से २०
मील दूर दक्षिण पश्चिम में यह मीठे पानी की
झील उल्लेखनीय है। इनमें पश्चिम के ऊँचाई
वाले प्रदेश का आया हुआ वर्षा का पानी जमा होता है और इसकी
लंबाई-चौड़ाई क्रमश: आधा और चौथाई
मील है। इसका जल रोगोत्पादक है। ऐसा प्रसिद्ध है कि महाराजा गज सिंह के
समय जोधपुर वालों की चढ़ाई होने पर
गजसिंह ने इसमें विष डलवा दिया था, जिसका प्रभाव अब तक विधमान है।
लगातार कुछ दिनों तक इन जल का सेवन करने
से लोग बीमार पड़ जाते हैं। इसके पास ही
भव्य महल, मनोहर उद्यान और शिकार की ओदियाँ
बनी हुई हैं। इस झील से कुछ दूर दूसरा
बांध बांधा गया है, जिसमें आवश्यकता होने पर जल इस
झील
में लेने की व्यवस्था की गई है।
२) कोलायत -
गजनेर से १०
मील दक्षिण-पश्चिम में कोलायत नामक पवित्र स्थान
में एक और छोटी क्षील है। इसे पुष्कर के
समान पवित्र माना जाता है। यह भी वर्षा के जल पर निर्भर है और कम वर्षा होने पर
सूख जाती है। इसके किनारों पर मंदिर, धर्मशालाएँ और पक्के घाट
बने हुए हैं। यहां पर कपिलेश्वर मुनि का आश्रम था, ऐसा
माना जाता है। इसी कारण इसका महत्व और
बढ़ गया है। कार्तिकी पूर्णिमा के अवसर पर होने
वाले मेले में दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं।
३) छापर -
सुजानगढ़ जिले की इस खारे पानी की इस क्षील
से पहले नमक बनाया जाता था। परंतु
बाद में इसे बंद कर दिया गया। यह
लगभग छ: मील लंबी और दो मील चौड़ी
झील है, परंतु इसकी गहराई इतनी कम है कि उष्णकाल के प्रारंभ में ही बहुत कुछ
सूख जाती है।
४) लूणकरणसर -
बीकानेर से पचास
मील उत्तर-पूर्व में खारे पानी की यह दूसरी
झील है। यहां
भी पहले नमक बनता था, पर अब वह
बंद हो गया।
जलवायु -
यहां की जलवायु
सूखी, पंरतु अधिकतर अरोग्यप्रद है। गर्मी
में अधिक गर्मी और सर्दी में अधिक सर्दी पडना यहां की
विशेषता है। इसी कारण मई, जून और जुलाई
मास में यहां लू (गर्म हवा) बहुत जोरों
से चलती है, जिससे रेत के टीले उड़-उड़कर एक स्थान
से दूसरे स्थान पर बन जाते हैं। उन दिनों
सूर्य की धूप इतनी असह्महय हो जाती है कि यहां के निवासी दोपहर को घर
से बाहर निकलते हुए भी भय खाते हैं। कभी-कभी गर्मी
के बहुत
बढ़ने पर आक़ाल मृत्यु भी हो जाती है। बहुधा
लोग घरों के नीचे भाग में तहखाने
बनवा लेते हैं, जो ठंडे रहते है, और गर्मी की
विशेषता होने पर वे उनमें चले जाते हैं। कड़ी
भूमि की अपेक्षा रेत शीघ्रता से ठंड़ा हो जाता है। इसलिए गर्मी के दिनों
में भी रात के समय यहां ठंडक रहती है।
शीतकाल में यहां इतनी सर्दी पड़ती है कि पेड़ और पौधे बहुधा पाले के कारण नष्ट हो जाते है।
कुएं -
बीकानेर में
रेगिस्तान की अधिकता होने के कारण कुएँ का बहुत अधिक महत्व है। जहां कहीं कुआँ खोदने की
सुविधा हुई अथवा पानी जमा होने
का स्थान
मिला, आरंभ में वहां पर बस्ती बस गई। यही
कारण है कि बीकानेर के अधिकांश
स्थानों
में नामों के साथ सर जुड़ा हुआ है, जैसे कोडमदेसर, नौरंगदेसर,
लूणकरणसर आदि। इससे आशय यही है कि इस स्थान पर कुएं
अथवा तालाब हैं। कुएं के महत्व का एक कारण और भी है कि पहले जब
भी इस देश पर आक्रमण होता था, तो आक्रमणकारी कुओं के स्थानों पर अपना अधिकार जमाने का
सर्व प्रथम प्रयत्न करते थे। यहां के अधिकतर कुएं ३००
या उससे फुट गहरे हैं । इसका जल बहुधा
मीठा एंव स्वास्थ्यकर होता है।
वर्षा -
जैसलमेर को छोड़कर
राजपूताना के अन्य राज्यों की अपेक्षा बीकानेर
में सबसे कम वर्षा होती है। वर्षा के आभाव में नहरे कृषि सिंचाई का
मुख्य श्रोत है। वर्तमान में कुल २३७१२ हेक्टेयर
भूमि की सिंचाई नहरों द्वारा की जाती है।
कृषि -
राज्य का अधिकांश हिस्सा
अनुपजाऊँ एंव जलविहीन मरुभूमि का
एक अंश है। जगह-जगह
रेतीले टीलें हैं जो बहुत ऊँचे भी
हैं।
राजधानी बीकानेर का दक्षिण-पश्चिम में
मगरा नाम की पथरीली भूमि है जहां
अच्छी वर्षा हो जाने पर किसी प्रकार पैदावार हो जाती है।
उत्तर-पूर्व की भूमि का रंग कुछ पीलापन
लिए हुए है तथा उपजाऊ है।
यहां अधिकांश भागों में खरीफ फसल होती है।
ये मुख्यत: बाजरा, मोठ, ज्वार, तिल और रुई है।
रबी की फसल अर्थात गेंहु, जौ, सरसो, चना आदि केवल पूर्वी
भाग तक ही सीमित है। नहर से सींची जानेवाली
भूमि में अब गेंहु, मक्का, रुई, गन्ना इत्यादि पैदा होने
लगे है।
खरीफ की फसल यहां प्रमुख गिनी जाती है।
बाजरा यहां की मुख्य पैदावार है। यहां के प्रमुख फल तरबूज एवं ककड़ी हैं। यहां तरबूज की
अच्छी कि बहुतायत से होती है। अब नहरों के आ जाने के कारण नारंगी, नींबू,
अनार, अमरुद, केले आदि फल भी पैदा होने
लगे हैं। शाकों में मूली, गाजर, प्याज आदि
सरलता से उत्पन्न किए जाते है।
जंगल -
बीकानेर में कोई
सधन जंगल नहीं है और जल की कमी के कारण पेड़
भी यहां कम है। साधारण तथा यहां
'खेजड़ा (शमी)' के वृक्ष बहुतायत में हैं। उसकी
फलियां, छाल तथा पत्ते चौपाये खाते हैं। नीम,
शीशम और पीपल के पेड़ भी यहां
मिलते हैं। रेत के टीलों पर बबूल के पेड़ पाए जाते हैं।
थोड़ी सी वर्षा हो जाने पर यहां अच्छी घास हो जाती है। इन घासों
में प्रधानत: 'भूरट' नाम की चिपकने
वाली घास बहुतायत में उत्पन्न होती है।
पशु-पक्षी -
यहां पहाड़ व जंगल न होने के कारण
शेर, चीते आदि भयंकर जंतु तो नही पर जरख, नीलगाय आदि प्राय: मिल जाते है।
राज्य भर में घास अच्छी होती है, जिससे गाय,
बैल, भैंस, घोड़े, ऊँट, भेड़, बकरी आदि चौपाया जानवर सब जगह अधिकता
से पाले जाते हैं। ऊँट यहां बड़े काम का जानवर है तथा इसे
सवारी, बोझा ढोने, जल लाने, हल चलाने आदि
में उपयोग किया जाता है। पक्षियों में तीतर, बटेर, बटबड़
(Sandgrouse ), तिलोर
(Houvara ), आदि पाए जाते हैं।
खानें -
बीकानेर में रेतीले सतह के नीचे
पत्थरों के बड़े-बड़े टुकड़े, चूने के कंकड़ तथा कई प्रकार की मिट्टी मिल जाती है, जो मकान बनवाने में काम आती है। यहां पर मीठा चूना एवं मुल्तानी मिट्टी भी पाई जाती है। बीकानेर से १४ मील दक्षिण-पश्चिम में पालना में कोयला निकाला जाता है। बीकानेर से ४४ मील पूर्वोतर भाग में दुलमेरा नामक स्थान के निकट लाल रंग का अत्युत्तम पत्थर पाया जाता है जिसके मुलायम होने के कारण इस पर खुदाई का काम अच्छा होता है।
जनसंख्या -
१९९१ की जनगणना के अनुसार बीकानेर की कुल जनसंख्या १२१११४० है जिसमें ६४२५५० पुरुष तथा ५६८५९० महिलाएँ हैं। जिले की कुल ग्रामीण आबादी ७२९९९८ है। शहरों में रहने वालों की संख्या ४८११४२ है।
धर्म
-
राज्य में हिंदु एंव जैन धर्म को
मानने वाले लोग की संख्या सबसे अधिक है। सिख और इस्लाम धर्म को
मानने वाले भी अच्छी संख्या में है। यहां ईसाई एवं पारसी धर्म के
अनुयायी बहुत कम हैं।
हिंदुओं में वैष्णवों की संख्या अधिक है। जैन धर्म
में श्वेताबर, दिगंबर और थानकवासी
(ढूंढिया) आदि भेद हैं, जिनमें थानकवासियों की
संख्या अधिक है। मुसलमानों मे
सुन्नियों की
संख्या अधिक है। मुसलमानों में अधिकांश
राजपूतों के वंशज हैं, जो मुसलमान हो गए।
उनके यहां अब तक कई हिंदु रीति-रिवाज प्रचलित हैं। इसके अतिरिक्त यहां अलखगिरी
नाम का नवीन
मत भी प्रचलित है तथा बिसनोई नाम का दूसरा
मत भी हिंदुओं में विद्यमान है।
जातियाँ
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हिंदुओं में
ब्राह्मण, राजपूत, महाजन, कायस्थ, जाट, चारण,
भाट, सुनार, दरोगा, दर्जी, लुहार, खाती (बढ़ई), कुम्हार, तेली,
माली, नाई, धोबी, गूजर, अहीर, बैरागी, गोंसाई,
स्वामी, डाकोत, कलाल, लेखरा, छींपा,
सेवक, भगत, भड़भूंजा, रैगर, मोची, चमार आदि कई जातियाँ हैं।
ब्रह्मण, महाजन आदि कई जातियों की अनेक उपजातियाँ
भी बन गई है, जिनमें परस्पर विवाह
संबंध नही होता। आदिवासियों में
मीणा, बावरी, थोरी आदि हैं। ये लोग खेती और
मजदूरी करते हैं। मुसलमानों में
शेख, सैयद, मुगल, पठान, कायमख़ानी,
राठ, जोहिया, रंगरेज, भिश्ती और कुंजड़े आदि कई जातियाँ हैं।
यहां के अधिकांश
लोग खेती करते हैं। शेष व्यापार, नौकरी, दस्तकारी,
मजदूरी अथवा लेन-देन का कार्य करते हैं। पशु पालन यहां का
मुख्य पेशा है। परीज़ादे और राढ जाति के
मुसलमान इस धंधे में लिप्त है। व्यापार करनेवाली जातियों
में प्रधान महाजन हैं, जो दूर-दूर स्थानों
में जाकर व्यापार करते हैं और ये
वर्ग संपन्न वर्ग भी है। ब्राह्मण विशेषकर पूजा-पाठ तथा पुरोहिताई करते हैं, परंतु कोई-कोई
व्यापार, नौकरी तथा खेती भी करते हैं। कुछ महाजन कृषि
से भी अपना निर्वाह करते हैं। राजपूतें का
मुख्य पेशा सैनिक-सेवा है, किंतु कई खेती
भी करते है।
पोशाक -
शहरों में पुरुषों की पोशाक बहुधा
लंबा अंगरखा या कोट, धोती और पगड़ी है।
मुसलमान लोग बहुधा पाजामा, कुरता और पगड़ी,
साफा या टोपी पहनते हैं। संपन्न व्यक्ति अपनी पगड़ी का
विशेष रुप से ध्यान रखते हैं, परंतु धीरे-धीरे अब पगड़ी के स्थान पर साफे या टोपी का प्रचार
बढ़ता जा रहा है। ग्रामीण लोग अधिकतर
मोटे कपड़े की धोती, बगलबंदी और
फेंटा काम में लाते हैं। स्रियो की पोशाक लहंगा, चोली और दुपट्टा है।
मुसलमान औरतों की पोशाक चुस्त पाजामा,
लम्बा कुरता और दुपट्टा है उनमें
से कई तिलक भी पहनती है।
भाषा -
यहां के अधिकांश
लोगों की भाषा मारवाड़ी है, जो राजपूताने
में बोली जानेवाली भाषाओं में मुख्य है। यहां उसके
भेद थली, बागड़ी तथा शेखावटी की भाषाएं हैं।
उत्तरी भाग के लोग मिश्रित पंजाबी अथवा जाटों की भाषा
बोलते हैं। यहां की लिपि नागरी है, जो बहुधा घसीट
रुप में लिखी जाती है। राजकीय
दफ्तरों तथा कर्यालयों
में अंग्रेजी एवं हिन्दी का प्रचार है।
दस्तकारी -
भेड़ो की अधिकता के कारण यहां ऊन बहुत होता है, जिसके कबंल,
लाईयां आदि ऊनी समान बहुत अच्छे
बनते है। यहां के गलीचे एवं दरियां
भी प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त हाथी दांत की चूड़ियाँ,लाख की चूड़ियाँ तथा लाख से रंगी हुई
लकड़ी के खिलौने तथा पलंग के पाये,
सोने-चाँदी के ज़ेवर, ऊँट के चमड़े के
बने हुए सुनहरी काम के तरह-तरह के
सुन्दर कुप्पे, ऊँटो की काठियां, लाल मिट्टी के
बर्त्तन आदि यहां बहुत अच्छे बनाए जाते हैं।
बीकानेर शहर में बाहर से आने वाली
शक्कर से बहुत सुन्दर और स्वच्छ मिश्री तैयार की जाती है जो दूर-दूर तक
भेजी जाती है।
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