बीकानेर
नदर की स्थापना
राव बीका ने १४८८ ई० में की। राव
बीका महाराजा जोधा के चौदह पुत्रों
में से एक था। राज्य का मुख्य नगर 'बीकानेर'
राज्य के दक्षिण-पश्चिमी हिस्से में कुछ ऊँची
भूमि पर समुद्र की सतह से ७३६ फुट की ऊँचाई पर
बसा है। कुछ स्थानों से देखने पर यह नगर बहुत
भव्य तथा विशाल दिखाई पड़ता है। नहर के चारों ओर शहर पनाह चारदिवारी, जो धेरे
में साढ़े चार मील है और पत्थर की
बनी है। इसकी चौड़ाई ६ फुट तथा ऊँचाई अधिक
से अधिक ३० फुट है। इसमें पाँच दरवाजे हैं, जिनके नाम क्रमश: कोट, जस्सूसर, नत्थूसर,
सीतला और गोगा है और आठ खिड़कियाँ
भी बनी हैं। शहर पनाह का उत्तरी हिस्सा १९०० ई०
में बना है।
यह शहर पारंपरिक ढंग
से बसा हुआ है। नगर के भीतर बहुत
सी भव्य इमारतें हैं, जो बहुधा लाल पत्थरों
से बनी है। इन पत्थरों पर खुदाई का काम उत्कृष्ट है।
नगर के
मध्य में एक जैन मंदिर है जिसके मध्य
से पाँच मार्ग निकले हैं, जो अन्य सड़कों
से मिलते हुए शहरपनाह के किसी एक दरवाजे
से जा मिलते हैं। कोट दरवाजे के बाहर
अलखगिरि
मतानुयायी लच्छीराम का बनवाया हुआ 'अलखसागर' नाम का प्रसिद्ध कुआं है, जो
बीकानेर के सबसे अच्छे कुओं में से एक माना जाता हैं।
अन्य कुओं की संख्या १४ है, जो बहुधा बहुत गहरे हैं। इन कुओं
में अधिकांश जल सुस्वादु तथा पीने योग्य है। महाराजा अनूपसिंह का
बनवाया हुआ 'अनोपसागर' कुआं भी उल्लेखनीय है। नगर के बाहर के तालाबों
में महाराजा सूरसिंह का बनवाया हुआ 'सूरसागर'
सबसे अच्छा माना जाता है।
जैन मंदिर -
यहां के जैन
मंदिरों में भांड़ासर का मंदिर बहुत प्राचीन गिना जाता है। कहते है कि इसे
भांड़ा नामक एक ओसवाल महाजन ने १४११ ई० के
लगभग बनवाया था। यह बहुत ऊँचा है, जिसके ऊपर चढ़कर
सारे नगर का मनोरम दृश्य दीख पड़ता है। इसके
बाद नेमीनाथ के मंदिर का नाम लिया जाता है, जो
भांड़ा के भाई का बनवाया हुआ है, काफी प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त और भी कई जैन
मंदिर हैं, पर वे उतने महत्वपूर्ण नही हैं। यहां के जैन उपासरों
में संस्कृत आदि की प्राचीन पुस्तकों का
बड़ा अच्छा संग्रह है, जो अधिकतर जैन धर्म
से संबंध रखती है।
वैष्णव
मंदिर
वैष्णव
मंदिर में लक्ष्मीनारायण जी का
मंदिर प्रमुख गिना जाता है। इस मंदिर का निर्माण
राव लूणकर्ण ने करवाया था। इसके अतिरिक्त
बल्लभ मतानुयायियों के रतन बिहारी और
रसिक शिरोमणि के मंदिर भी उल्लेखनीय हैं। इनके चारों ओर अब
सुंदर बगीचे हैं। रत्न-बिहारी का
मंदिर राजा रत्नसिंह के समय में
बना था। धूनीनाथ का मंदिर इसी नाम के
योगी ने १८०८ ई० में बनवाया था, जो नगर के पूर्वी द्वार के पास स्थित है। इसमें
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य और गणेश की
मूर्तियां स्थापित हैं। नगर से एक मील दक्षिण-पूर्व
में एक टीले पर नागणेची का मंदिर
बना है। अपनी मृत्यु से पूर्व ही महिषासुर
मर्दिनी का यह अट्टारह भुजावाली
मूर्ति राव बीका ने जोधपुर से यहां
लाकर स्थापित की थी।
नगर में कई
मस्जिदें भी हैं, पर वे वस्तुकला की दृष्टि
से महत्वपूर्ण नही हैं।
नगर बसाने
से तीन वर्ष पूर्व बनवाया हुआ राव
बीका का प्राचीन किला शहरपनाह या नगर की चारदिवारी के
भीतर दक्षिण-पश्चिम में एक ऊँची चट्टान पर विद्यमान है। इसके पास ही बाहर की तरफ
राव बीका, नरा और लूणकरण की स्मारक छतरियां है।
राव बीका की छतरी पहले लाल पत्थर की
बनी हुई थी, परंतु बाद में इसे संगमरमर का
बना दिया गया।
किला -
बड़ा किला अधिक नवीन है तथा इसका निर्माण महाराजा रायसिंह (१५८९-९४
AD ) के
समय हुआ था और शहरपनाह के कोट दरवाजे
से लगभग ३०० गज की दूरी पर है। इसकी परिधि १०७८ गज है।
भीतर प्रवेश करने के लिए दो प्रधान द्वार हैं, जिनके
बाद फिर तीन या चार दरवाजे हैं। कोट
में स्थान-स्थान पर प्राय: ४० फुट ऊँची
बुर्जे हैं और चारों ओर खाई बनी हुई है, जो ऊपर ३०
फुट चौड़ी होकर नीचे तंग होती गई है। इस खाई की गहराई २०
से ५० फुट तक है। प्रसिद्ध है कि इस किले पर कई
बार आक्रमण हुए पर शत्रु बल पूर्वक इस पर कभी अधिकार न कर पाए।
किले का प्रवेश द्वार
'कर्णपोल' है। इसके आगे के दरवाजों
में एक सूरज पोल है, जिसके दोनों पार्श्वो पर
विशालकाय हाथी पर बैठी हुई दो
मूर्तियां हैं, जो प्रसिद्ध वीर जयमल
मेड़तिया (राठौड़) और पत्ता चूंड़ावत (सीसोदिया) की
(जो चितौड़गढ़ में बादशाह अकबर के
मुकाबले में वीरतापूर्वक लड़कर
मारे गए थे) बतलाई जाती हैं। आगे बहुत
बड़ा चौक है, जिसमें एक तरफ पंक्ति
बद्ध मरदाने और जनाने महल हैं। ये महल
बड़े भव्य एवं सुंदर बने हुए हैं। इन
महलों के भीतर कई जगह कांच की पच्चीकारी और सुनहरी कलम आदि का बहुत
सुन्दर काम है, जो भारतीय कला का
उत्तम नमूना है। इन राजमहलो की दीवारों पर
रंगीन पलस्तर किया हुआ है, जिससे
उनका सौंदर्य बढ़ गया है। राजमहलों के निर्माण
में बहुधा अब तक के प्राय: सभी महाराजाओं का हाथ रहा है। पहले के
राजाओं के बनवाए हुए स्थानों में महाराजा रायसिंह का चौबारा, महाराजा गजसिंह का
फूलमहल, चन्द्रमहल, गजमंदिर तथा कचहरी, महाराजा सूरतसिंह का अनुपमहल, महाराजा
सरदार सिंह का बनवाया हुआ रत्नमंदिर और महाराजा डूंगर सिंह का छत्रमहल, चीनी
बुर्ज, गनपत निवास, लाल निवास, सरदार निवास, गंगा निवास, सोहन
भुर्ज (बुर्ज), सुनहरी भुर्ज (बुर्ज) तथा कोढ़ी
शक्त निवास है। बाद के राजाओं ने भी
समय समय पर नवीन भवन बनवाकर
उनकी शोभा बढ़ा दी है। इन महलों
में दलेल निवास और गंगा निवास नामक
विशाल कक्ष मुख्य है। गंगा निवास में
लाल रंग के खुदाई के काम हुए पत्थर
लगे हैं। छत की लकड़ी पर भी खुदाई का काम है। इसका
फर्श संगमरमर का बना है। किले के
भीतर फारसी, संस्कृत, प्राकृत और
राजस्थानी भाषा की हस्तलिखित पुस्तकों का एक
बड़ा पुस्तकालय है। इस पुस्तकालय
में संस्कृत पुस्तकों का बड़ा भारी संग्रह है, जिनमें
से कई तो ऐसी हैं जो अन्यत्र नही हीं
मिल सकतीं। मेवाड़ के महाराजा कुंभा
(कुंभकर्ण) के संगीत ग्रन्थ का पूरा संग्रह
भारत वर्ष के केवल इसी पुस्तकालय
में है। किले के भीतर का शस्रागार
भी देखने योग्य है। इसमें प्राचीन अस्र-शस्रों का
अच्छा संग्रह है। वहीं एक कमरे में कई पीतल की
मूर्तियां रक्खी हुई हैं, जो तैंतीस करोड़ देवता के नाम
से पूजी जाती हैं। ये मूर्तियां महाराजा अनूपसिंह ने दक्षिण
में रहते समय मुसलमानों के हाथ
से बचाकर यहां पहुँचाई थी।
किले के एक हिस्से
में बीकानेर राज्य के उत्तरी भाग के
रंगमहल,
बड़ोपल आदि गांवों से प्राप्त पकी हुई मिट्टी की
बनी बहुत प्राचीन वस्तुओं का बड़ा संग्रह है, जिसका
श्रेय डाँ० टैसिटोरी को है। इस सामग्री को दो
भागों में विभाजित किया जा सकता है:-
१) खुदाई के काम की ईंटे तथा पकी हुई मिट्टी के
बने हुए स्तंभ आदि।
२) पकी हुई मिट्टी की सादी और उभरी हुई
मूर्तियां आदि।
खुदाई के काम की ईंटों में हड़जोरा
(Acanthus ) की बहुत ही सुंदर पत्तियां बनी है। इसके अतिरिक्त
उनपर मथुरा शैली और किसी-किसी पर गंधार
शैली की छाप स्पष्ट प्रतीत होती है। इनमें
से एक में बैठे हुए दो बैलों की आकृतियां
बनी हुई है। दूसरे में एक राक्षस का सिर हड़जोरा की पत्तियों के
मध्य बना हुआ है। इण्ड़ोपर्सिपोलिटन
शैली के शिरस्तंभों में हाथी और गरुड़ तथा सिंह की
सम्मिलित आकृतियां है। पकी हुई मिट्टी के सिरे
बनावट से बहुत प्राचीन दिखते है। इनमें तथा
अन्य आकृतियों में मथुरा शैली का अनुकरण
मिलता है। इनमें कुछ वैष्णव मूर्तियों का
भी संग्रह मिलता है। महिषासुरमर्दिनी
की चार भुजावाली मूर्ति के अतिरिक्त विष्णु के
वामनावतार और रुद की अजैकपाद की
मूर्तियां उल्लेखनीय हैं। उभरी हुई खुदाई के काम की
मूर्तियों में कृष्ण की गोवर्धन लीला, नागलीला और
राधा कृष्ण की मूर्तियां भी महत्वपूर्ण है।
ये मूर्तियां अब वहीं पर निर्मित एक संग्रहालय
में सुरक्षित है।
किले के भीतर एक घंटा घर, दो बगीचे और चार कुएँ हैं, जो प्राय: ३६०
फुट गहरे हैं। इनमें एक का जल बीकानेर
में सर्वोत्कृष्ट माना जाता है। किले के कर्ण पोल के
सामने सूरसागर के निकट विशाल और मनोहर गंगानिवास पब्लिक
उद्यान है। इस उद्यान का उद्घाटन तात्कालीन
वायसराय लार्ड हार्किंडग के हाथ से १९१५ ई० के नबंबर माह
में हुआ। इसके प्रधान प्रवेश द्वार का नाम क्वीन एम्प्रेस
मेरी गेट है। किले के सामने के एक किनारे पर महाराजा डूंगर सिंह की
संगमरमर की मूर्ति लगी है, जिसके ऊपर
संगमरमर का शिखर बना हुआ है। इसी
उद्यान में एक तरफ एजर्टन ट्ैंक बना है जिसके निकट ही इस
दौर के महाराजा साहब की
अश्वारुढ़ कांसे की प्रतिमा
भी लगी है।
लालगढ़ महल -
नगर के बाहर की इमारतों
में लालगढ़ महल बड़ा भव्य है। इस महल का निर्माण महाराजा गंगा सिंह ने अपने पिता महाराजा
लालसिंह की स्मृति में बनवाया था।
सारा का सारा महल लाल पत्थर का
बना है, जिसपर खुदाई का बड़ा उत्कृष्ट काम है।
भीतर के फर्श बहुधा संगमरमर के हैं। महल काफी
विशाल है तथा इसमें सौ से अधिक
भव्य कमरे हैं। महल के अहाते में मनोहर
उद्यान बने हैं, जिनमें कहीं सघन वृक्षों, कहीं
लताओं और कहीं रंग-बिरंगे फूलों
से भरी हुई हरियाली की घटा दर्शनीय है। इस महल
में महाराजा लालसिंह की सुन्दर प्रस्तर-मूर्ति खड़ी है। महल के एक
भाग में तरणताल है। इस महल के
भीतर एक पुस्तकालय है जिसमें कई हस्तलिखित पुस्तकों का संग्रह है। इस महल के दीवारों पर
सुंदर चित्रकारी है।
देवीकुंड -
नगर के पांच
मील पूर्व में देवीकुंड है। यहां
राव कल्याणसिंह से लेकर महाराजा डूंगरसिंह तक के
राजाओं और उनकी रानियों और कुंवरों आदि की
स्मारक छत्रियाँ बनी है जिनमें से कुछ तो
बड़ी सुन्दर है। पहले के राजाओं आदि की छत्रियां दुलमेरा
से लाए हुए लाल पत्थरों की बनीं है, जिनके
बीच में लगे हुए मकराना के
संगमरमरों पर
लेख खुदे हैं। बाद की छत्रियां पूरी
संगमरमर की बनी हैं। कुछ छत्रियों की
मध्य शिलाओं पर अश्वारुढ़ राजाओं की
मूर्तियां खुदी है, जिनके आगे कतार
में क्रमानुसार उनके साथ सती होनेवाली
राणियों की आकृतियां बनी है। नीचे गद्य और पद्य
में उनकी प्रशंसा के लिए लेख खुदे हैं जिनसे कुछ-कुछ
हाल के अतिरिक्त उनके स्वर्गवास का निश्चित
समय ज्ञात होता है। इसमें महाराजा राजसिंह की छत्री उल्लेखनीय है क्योंकि
उनके साथ जल मरने वाले संग्रामसिंह नामक एक
व्यक्ति का उल्लेख है। इसी स्थान पर सती होने
वाली अंतिम महिला का नाम दीपकुंवारी था, जो महाराजा
सूरत सिंह के दूसरे पूत्र मोती सिंह की स्री थी तथा अपने पति की
मृत्यु पर १८२५ ई० में सती हुईं थी। उसकी
स्मृति में अब भी प्रतिवर्ष भादों के महीने
में यहां मेला लगता है। उसके बाद और कोई
महिला सती नही हुई, क्योंकि सरकार के प्रयत्न
से यह प्रथा खत्म हुई। राजपरिवार के
लोगों के ठहरने के लिए तालाब के निकट ही एक
उद्यान और कुछ महल बने हुए हैं।
देवीकुंड और नगर के
मध्य में, मुख्य सड़क के दक्षिण भाग में महाराजा डूंगरसिंह का
बनवाया हुआ शिव मंदिर है। इसके निकट ही एक तालाब,
उद्यान और महल है। इस मंदिर का शिवलिंग ठीक
मेवाड़ के प्रसिद्ध एक लिंग जी की मूर्ति के सदृष्य है।
यहाँ प्रतिवर्ष
श्रावण मास में भारी मेला लगता है। इस स्थान को
शिववाड़ी कहते हैं।
नाल -
बीकानेर से ८
मील पश्चिम में इसी नाम के रेलवे स्टेशन के निकट यह गांव है। इसके चारो ओर झाड़ियों और
वृक्षों से अच्छादित सात-आठ छोटे-छोटे तालाब हैं। इसमें
से एक तालाब के किनारे, जिसे केशोलय कहते हैं, एक
लाल पत्थर का कीर्तिस्तंभ लगा है। यह १७वीं
शताब्दी का ज्ञात होता है। इसके लेख
से यह ज्ञात होता है कि इसका निर्माण प्रतिहार केशव ने
बनवाया था। दूसरा उल्लेखनीय लेख यहां के
बाघोड़ा जागीरदार के निवास स्थान के द्वार पर
लगा हुआ है ज़ो ६ मई १७०५ ई० रविवार का है। इसमें
उक्त वंश के इन्द्रभाण की मृत्यु तथा उसकी स्री अमृतदे के
सती होने का पता चलता है।
नाल से दो
मील दक्षिण में एक स्थान है, जिसे नाल का कुआं कहते हैं। यहां
सात लेख हैं जिनमें ६ तो १६वीं शताब्दी तथा एक १७वीं
शताब्दी का हैं। उल्लेखनीय स्थलों में यहां के
मंदिरों, दो कुओं और एक तालाब का नाम
लिया जाता है। मंदिर सब एक ही स्थान
में एक दीवार से घिरे हैं, जिनमें पार्श्वनाथ और दादूजी के
मंदिर उल्लेखनीय है। दोनों लाल पत्थर के
बने हुए है। पार्श्वनाथ की मूर्ति संगमरमर की है तथा नीचे एक
लेख खुदा है। ये मंदिर १७वीं शताब्दी के
बने है। इनके सामने जैसलमेर के पीले पत्थर की
बनी हुई दो देवलियां है, जिनमें
से एक पर अश्वारुढ़ व्यक्ति और सती की आकृतियां
बनी हैं। इससे कुछ दूर चारदीवारी के पास एक
सादे लाल पत्थर का कीर्तिस्तंभ लगा हुआ है।
कोड़मदेसर -
बीकानेर से १५
मील पश्चिम में एक छोटा सा गांव है, जो इसी नाम के तालाब और
उसके किनारे स्थापित
भैरव की मूर्ति के लिए प्रसिद्ध है। भैरव की
मूर्ति जांगलू में बसने के समय स्वंय
राव बीका ने मंड़ोर से लाकर यहां स्थापित की थी। यहां पर १६वीं तथा १७वीं
शताब्दी के चार लेख हैं। इनमें से
सबसे प्राचीन लेख तालाब के पूर्व की ओर भैरव की
मूर्ति के निकट के कीर्तिस्तंभ की दो ओर खुदा है। यह कीर्तिस्तंभ
लाल पत्थर का है तथा इसके चारों ओर देवी-देवताओं की
मूर्तियां खुदी है। इस लेख से पाया जाता है कि १४५९ ई०
में भाद्रपद सुदि को राव रिणमल के पुत्र
राव जोधा ने यह तालाब खुदवाया और अपनी
माता कोड़मदे के निमित्त कीर्तिस्तंभ स्थापित करवाया।
गजनेर -
यह बीकानेर
से लगभग २० मील दक्षिण-पश्चिम में बसा है। यह महाराजा गजसिंह के
समय आबाद हुआ था और बीकानेर
राज्य के प्रसिद्ध तालाब गजनेर के नाम पर ही इसकी प्रसिद्धि है। यहां पर डूंगर निवास,
लाल निवास, शक्त निवास और सरदार निवास नामक
सुन्दर महल हैं। शीतकाल में बत्तखों,
भड़तीतरों आदि के आ जाने के कारण कुछ दिनों के
लिए यह उत्तम शिकारगाह बन जाता है। गजनेर के
उद्यान में नारंगी और अनार के वृक्ष बहुतायत
से हैं तथा कई प्रकार की सुंदर लताएं आदि
भी हैं। तालाब का जल आरोग्यप्रद न होने के कारण इसका व्यवहार कम होता है। यहां पर निर्मित झील काफी
सुंदर है। यह स्थल पूरे बीकानेर के
सबसे सुंदर स्थलों में से एक है।
श्रीकोलायत जी -
यह बीकानेर
से करीब ३० मील दक्षिण-पश्चिम में इसी नामके
रेलवे स्टेशन के निकट बसा है। यहां इसी नाम
से प्रसिद्ध एक तालाब है, जिसके किनारे कपिल
मुनि का आश्रम माना जाता है। प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा के दिन यहां
मेला लगता है जिसमें लोग कपिल
मुनि के आश्रम के दर्शनाथ आते हैं। पास ही धुनी नाथ का एक
अन्य मंदिर है। पुष्कर के समान यहां के तालाब के किनारे बहुत
से घाट और मंदिर बने हुए है, जो
सघन पीपल के वृक्षों की शीतल छाया
से आच्छादित हैं। यहां पर कई धर्मशालाएँ एवं देव
मंदिर भी विद्यमान हैं।
देशणोक -
बीकानेर से १६
मील दक्षिण में इसी नाम के रेलवे स्टेशन के पास
बसा हुआ यह स्थान बीकानेर के महाराजाओं के
लिए बड़ा पूज्य है। यहां पर राठौड़ों की पूज्य
देवी करणी जी का
मंदिर है। ऐसी प्रसिद्धि है कि करणी जी की कृपा और सहायता
से ही राठौड़ों का अधिकार स्थापित हुआ था। यहां पर चारणों की
बस्ती है और वे ही करणी जी के पुजारी हैं।
पलाणा -
बीकानेर से १४
मील दक्षिण में इसी नाम के रेलवे स्टेशन के पास
बसा हुआ यह स्थान कोयले की खान के
लिए प्रसिद्ध है। यहां पर १४८२ ई० की एक
देवली (स्मारक) उल्लेखनीय है, जिससे जांगल देश
में प्रथम अधिकार करने वाले राठौड़ों
में से राव बीका के चाचा रिणमल के पुत्र
मांड़ण की मृत्यु का पता चलता है।
वासी -वरसिंहसर -
यह गांव बीकानेर
से १५ मील दक्षिण में है। यहां पर एक कीर्तिस्तंभ है, जिसपर पैंतीस पंक्तियों का एक महत्वपूर्ण
लेख है। इससे पाया जाता है कि जंगलकूप के
स्वामी शंखुकुल के कुमारसिंह की पुत्री जैसलमेर के
राजा कर्ण की स्री दूलह देवी ने यहां १३२४ ई०
में एक तालाब खुदवाया था।
जेगला -
यह स्थान बीकानेर
से २० मील दक्षिण में स्थित है। यहां पर उल्लेख
योग्य गोगली सरदारों की दो देवलियां हैं। इनमें
से अधिक प्राचीन ११ सिंतबर १५९० ई० की है तथा गोगली
सरदार 'संसार' से संबध रखती है। 'संसार' के विषय में ऐसा प्रसिद्ध है कि वह
बीकानेर के महाराजा रायसिंह तथा पृथ्वीराज की
सेवा में रहा था। बादशाह के समक्ष एक
लड़ाई में सिर काटे जाने पर भी उसका धड़ बहुत देर तक
लड़ता रहा था। गोगली वंश के व्यक्ति अब
भी जेगला में हैं।
पाखा -
यह स्थान बीकानेर
से लगभग २० मील दक्षिण में जेगला से करीब ४
मील पूर्व में है। यहां एक उल्लेखनीय छत्री है, जिसपर
बीकानेर के राव जैतसी के एक पूत्र
राठौड़ मानसिंह की मृत्यु और उसके
साथ उसकी स्री कछवाही पूनिमादे के
सती होने के विषय में १९ जून १५९६ ई० का
लेख खुदा है। छत्री की बनावट साधारण है तथा उसका छज्जा और गुम्बद बहुत जीर्ण अवस्था
में हैं।
जांगलू
-
सांखलों का यह महान किला जांगलू नामक प्रदेश
में बीकानेर से २४ मील दक्षिण में है। ऐसा कहते हैं कि चौहान
सम्राट पृथ्वीराज की रानी अजयदेवी
दहियाणी ने यह स्थान
बसाया था। सर्व प्रथम सांखले महिपाल का पुत्र
रायसी रुण को छोड़कर यहां आया और गुढ़ा
बांधकर रहने लगा और कुछ समय
बाद यहां के स्वामी दहियों की छल
से हत्या कर उसने यहां अधिकार जमा
लिया। बाद में जांगलू का यह इलाका
राव बीका के आधीन आ गया। यहां के
सांखले राठौड़ों के विश्वास पात्र बन गए।
यहां के प्राचीन स्थानों
में पुराना किला, केशोलय और महादेव के
मंदिर उल्लेखनीय हैं। पुराना किला
वर्तमान गांव के निकट बना हुआ था जिसके अब कुछ
भग्नावशेष विद्यमान है। चारों ओर चार दरवाजे के
चिह्म अब
भी पाए जाते हैं। बीच में ऊँचे उठे हुए घेरे के दक्षिण-पूर्व की ओर जांगलू के
तीसरे
सांखले खींवसी के सम्मान में एक देवली (स्मारक)
बनी है, जो देखने में नवीन जान पड़ती है।
किले के पूर्व में
केशोलय तालाब है। इसके विषय में ऐसी प्रसिद्धि है कि दहियों के केशव नामक उपाध्याय
ब्राह्मण ने यह तालाब खुदवाया था। तालाब के किनारे
लगे पत्थर में केशव नाम खुदा है। तालाब के निकट ही
अन्य पाँच देवलियां हैं।
पुराने किले की तरफ गांव के बाहर महादेव
मंदिर है, जो नवीन बना हुआ है। इसके
भीतर एक किनारे पर प्राचीन शिवलिंग की जलेरी पड़ी है।
मंदिर के अंदर ही दीवार पर संगमरमर का एक
लेख खुदा है जिससे पता चलता है कि इस
मंदिर का नाम पहले श्री भवानी शंकर प्रसाद था और इसे
राव बीका ने बनवाया था तथा १८४४ ई०
में महाराजा रत्नसिंह ने इसका जीणाçधार करवाया। जंगालू
में तीन और मंदिर है।
मोरखाणा -
यह स्थान बीकानेर
से २८ मील दक्षिण-पूर्व में है। यहां का
सुसाणीदेवी का मंदिर उल्लेखनीय है। यह
मंदिर एक ऊँचे टीले पर बना है तथा इसमें एक तहखाना, खुला हुआ प्रांगण एवं
बरामदा है। यह सारा जैसलमेरी पत्थरों का
बना है और इसके तहखाने की बाहरी
चाहरदीवारों पर देवताओं और नर्तकियों की आकृतियां खुदी है। इसी प्रकार द्वार
भाग भी खुदाई के काम से भरा हुआ है। तहखाने के चारों तरफ एक नीची दीवार
बनी है। प्रागंण पर छत है जो १६ खंभों पर स्थित है, जिनमें १२ तो चारों ओर घेरे
में लगे हैं। शेष ४ मध्य में हैं। मध्य के चारों स्तंभ और तहखाने के
सामने के दो स्तंभ घटपल्लभ शैली
में बने हैं। घेरे में लगे हुए स्तंभ
श्रीधर शैली के हैं। मध्य के स्तंभों
में से एक पर बैठे हुए मनुष्य की
आकृति खुदी है।
तहखाने के
सामने दांई तरफ के स्तंभ पर दो
लेख खुदे हैं। एक तरफ का लेख स्पष्ट नही है तथा दूसरी तरफ का
लेख ११७२ ई० का है तथा इसके ऊपरी भाग
में एक स्री की आकृति बनी हुई है।
पांचु -
बीकानेर से ३६
मील दूर दक्षिण में बसा यह गांव ऐतिहासिक दृष्टि
से महत्वपूर्ण है। यहां राव बीका के तीसरे चाचा ऊधा रिणमलोत के दो पुत्रों पंचायण तथा
सांगा की देवलियां हैं, जो क्रमश: १५११ और १५२४ ई० की हैं।
अनुमानत: पंचायण ने यह गांव बसाया था और उसी के नाम
से इसकी प्रसिद्धि है।
छापर
-
यह बीकानेर
से ७० मील पूर्व में बसा है और ऐतिहासिक दृष्टि
से बड़े महत्व का है। यह मोहिलों की दो
राजधानियों में से एक थी। उनकी राजधानी द्रोणपुर थी। मोहिल, चौहानों की ही एक
शाखा है, जिसके स्वामियों ने राणा का
विरुद्ध धारण कर उक्त स्थानों के आस-पास के प्रदेश पर १५वीं
शताब्दी तक राज्य किया। छापर में
मोहिलों की बहुत सी देवलियाँ है जो १४वीं
शताब्दी के पूर्वाध की हैं। यहां छापर नामक एक खारे पानी की झील
भी है, जिससे पहले नमक बनाया जाता था।
सुजानगढ़ -
यह बीकानेर
से ७२ मील पूर्व-दक्षिण में मारवाड़ की
सीमा से मिला हुआ बसा है। इस स्थान का पुराना नाम
'खरबू जी का' कोट था। महाराजा सूरत सिंह ने १८३५ ई०
में इस क्षेत्र को अधिकार में लेकर इसका नाम सुजानसिंह के नाम पर
सुजानगढ़ रखा। यहां पुराना किला अब
भी विद्यमान है। यहां २७ मंदिरें, दो
मस्जिदें और कई धर्मशालएं है।
सूजानगढ़ से ६
मील पूर्वोत्तर में गोपालपुरा गांव है, जिसके आस-पास पर्वत
श्रेणियां हैं। राज्य भर में यहीं ऐसा स्थल है जहां पर्वत
श्रेणियां दिखलाई देती हैं।
सालासर -
यह बीकानेर
से ८७ मील पूर्व-दक्षिण में जयपुर की
सीमा के निकट बसा है। यहां का हनुमान
मंदिर उल्लेखनीय है। यहां वर्ष भर में दो
बार, कार्तिक और वैशाख पूर्णिमा के दिन
मेले लगते है।
रतनगढ़ -
यह बीकानेर
से ८० मील पूर्व में बसा है। सर्वप्रथम यहां महाराजा सूरतसिंह ने कौलासर नाम का एक
मजरा बसाया था। महाराजा रत्नसिंह ने इसे
वर्तमान रुप दिया। नगर में और इसके आस-पास १० तालाब व २० कुएं हैं, जिनमें अधिकांश
बड़े सुन्दर है तथा उनमें छतरियां
भी बनी हैं। चारों ओर
चाहरदिवारी
भी है और दो छोटे-छोटे किले भी विद्यमान हैं। यहां का प्रमुख
मंदिर जैनों का है। इसके अतिरिक्त कई विष्णु एवं
शिव के मंदिर है।
चूरु -
यह नगर बीकानेर
से १०० मील पूर्व में कुछ उत्तर की तरफ
बसा है। ऐसी प्रसिद्धि है कि चूहरु नाम के एक जाट ने १६२० ई० के आस-पास इसे
बसाया था, जिससे इसका नाम चूरु पड़ा। कहा जाता है कि यहां का किला
मालदे नामक व्यक्ति के उत्तराधिकारी खुशहाल सिंह ने १७३९ ई०
में बनवाया था। यहां के विशाल भवन और कुएँ
अति सुंदर हैं। इस नगर में कई छत्रियाँ एवं
मकबरें हैं।
सरदार
शहर -
यह बीकानेर
से ८५ मील पूर्वोत्तर में बसा है। महाराजा
सरदार सिंह ने सिंहासनारुढ़ होने के पूर्व ही यहां पर एक किला
बनवाया था। शहर के चारों तरफ टीलें हैं, जिससे इसका
सौंदर्य बहुत बढ़ गया है। ऐतिहासिक दृष्टि
से महत्व रखने वाली एक छत्री भी है।
रिणी -
यह बीकानेर
से १२० मील पूर्वोत्तर में है। कहते हैं कि इसे
राजा रिणीपाल ने कई हजार वर्ष पूर्व बसाया था
उनमें अंतिम वंशधर जसवंतसिंह के
समय में कई बार अकाल पड़ने के कारण यह नगर नष्ट हो गया तो चायल
राजपूतों ने इस पर और आस-पास के गांवों पर अधिकार कर
लिया। १६वीं शताब्दी में राव बीका ने इन्हें
भगाकर अपना अधिकार कर लिया। महाराजा गज सिंह का जन्म यहीं पर होने के कारण गजसिंहोत
बीका इसे बड़ा शुभ स्थान मानते है। इस नगर के चारों तरफ
सुरक्षा के लिए चारदिवारी है। यहां पर एक किला
सूरत सिंह ने बनवाया था। यहां की
कुछ प्राचीन छत्रियां एवं जैन
मंदिर उल्लेखनीय है।
राजगढ़ -
बीकानेर से १३५
मील पूर्वोत्तर में बसा हुआ यह नगर १७६६ ई०
में महाराजा गजसिंह ने अपने पुत्र राजसिंह के नाम पर बसाया था। यहां का किला महाराजा की आज्ञा
से उसके मंत्री महता बख्तावरसिंह ने
बनवाया था।
नौहर -
यह बीकानेर
से ११८ मील उत्तर-पूर्व में बसा है। यहां एक जीर्ण-शीर्ण किले के चिह्म अभी तक विद्यमान है। इस स्थान
से १६ मील पूर्व में गोगामेड़ी नामक स्थान पर गोगासिद्ध की
स्मृति में भाद्रपद के कृष्णपक्ष में मेला
लगता है।
हनुमानगढ़ -
यह बीकानेर
से १४४ मील उत्तर-पूर्व में बसा है। यहां एक प्राचीन किला है, जिसका पुराना नाम
भटनेर था। भटनेर भट्टीनगर का अपभ्रंश है, जिसका
अर्थ भट्टी अथवा भाटियों का नगर है।
बीकानेर राज्य के दो प्रमुख किलों
में से हनुमानगढ़ दूसरा है। यह किला
लगभग ५२ बीघे भूमि में फैला हुआ है और ईंटों
से सुद्दुृढ़ बना है। चारों ओर की दीवारों पर
बुर्जियां बने हैं। किले का एक द्वार कुछ अधिक पुराना प्रतीत होता है। प्रधान प्रवेश द्वार पर
संगमरमर के काम के चिह्म अब तक विद्यमान है। कहा जाता है कि इस किले
में कई गुम्बदाकार इमारतें बनी थी पर अब वह नहीं है। किले के एक द्वार के पत्थर पर १६२० ई० खुदी है। उसके नीचे
राजा का नाम व ६ राणियों की आकृतियां
भी बनी है जो अब स्पष्ट नही हैं।
किले के भीतर का जैन उपासरा प्राचीन है। किले
में एक लेख फ़ारसी लिपि में लगा है, जिससे
बताया जाता है कि यह बादशाह की आज्ञा
से कद्दवाहा राय मनोहर ने संवत् १६६५ (१६०८ ई०)
में वहां मनोहर पोल नाम का दरवाजा
बनवाया।
हनुमानगढ़ किसने
बसाया है, इसका ठीक से पता नही चलता। पहले यह
भाटियों के कब्जे में था तथा १५२७ ई० में
बीकानेर के चौथे शासक राव जैतसिंह ने यहां
राठौड़ों का अधिपत्य स्थापित कर दिया। ११ वर्ष के
बाद बाबर के पुत्र कामरां ने इसे जीता। फिर कुछ दिनों तक चायलों का अधिकार रहा, जिनसे पुन:
राठौड़ों ने इसे जीत लिया। फिर बाद
में यह मुगल कब्जे में चला गया। बीच
में कई बार अधिकारियों में परिवर्तन हुए। अंत
में सूरत सिंह के समय १८०५ ई० में ५ माह के विकट घेरे के
बाद राठौड़ों ने इसे ज़ाबता खाँ भट्टी
से छीना और यहां बीकानेर राज्य का एकाधिकार हुआ।
मंगलवार के दिन अधिकार होने के कारण इस किले
में एक छोटा सा हनुमान जी का मंदिर
बनवाया गया तथा उसी दिन से उसका नाम हनुमानगढ़
रखा गया।
धग्घर के आस-पास का प्रदेश होने के कारण यह
बीकानेर का संपन्न भाग था तथा यहां शिल्पकला
एवं हस्तकला का काफी विकास हुआ। यहां पकी हुई मिट्टियों की
बड़ी सुन्दर मुर्तियां बनाई जाती हैं।
गंगानगर -
यह बीकानेर
से १३६ मील उत्तर में बसा है। पहले यहां कोई आबादी नही थी तथा यह प्रदेश ऊजड़
या 'दुले की मार' के नाम से प्रसिद्ध था। गंगानहर के आ जाने के कारण यह क्षेत्र काफी आबाद हुआ तथा कृषि कार्यों
में वृद्धि के कारण संपन्नता आई। वर्तमान
में यह शहर के रुप में विकसित है। इसकी
सड़के चौड़ी है। यहां कई भव्य मकान
भी है जो सुंदर प्रतीत होते है।
लाखासर -
यह बीकानेर
से ११० मील उत्तर में कुछ पूर्व की तरफ
बसा है। कहतें है कि हरराज ने अपने पिता के नाम पर इसे
बसाया था। ऐतिहासिक दृष्टि से यह स्थान दो देवलियों के
लिए प्रसिद्ध है। एक देवली १५४६ ई० की जो
संभवत: राव बीका के चाचा लाखा
रणमलोत की है। इसके निकट ही हरराज के पौत्र
सुरसाण की १५९३ ई० में बनी देवली है।
सूरतगढ़ -
यह बीकानेर
से ११३ मील उत्तर में कुछ पूर्व की तरफ
बसा है। यहां एक किला भी है। ई०१८०५
में महाराजा सूरत सिंह ने यहां नया किला
बनवाया और इसका नाम 'सूरतगढ़'
रखा। पूरा किला ईंटों का बना है जिसमें कुछ महत्व की
वस्तुएं अब बीकानेर के किले में सुरक्षित है। इनमें हड़जोरा की पत्तियां, गरुड़, हाथी,
राक्षस आदि की आकृतियां बनी है।
इसी स्थान
से शिव पार्वती, कृष्ण की गोवर्धन
लीला तथा एक पुरुष एंव स्री की पकी हुई मिट्टी की
बनी हुई मूर्तियां मिली हैं जो अब
बीकानेर संग्रहालय में है।
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