|
भोजन
परिधान |
|
पुरुष
परिधान
स्री
परिधान
केश
- विन्यास
स्री
आभूषण
आमोद
- प्रमोद
|
|
|
|
जहाँ एक ओर किसी भी देश के निवासियों का रहन - सहन तत्क्षेत्रिय जलवायु तथा परम्परा से प्रभावित होता है, वहीं दूसरी ओर विभिन्न वर्गों में भी रहन - सहन, खान - पान, वेश -भूषा में येन - केन - प्रकारेण विवधता पाई जाती है। व्यवसाय एवं काम - काज की व्यस्तता से भी वसन , भोजन आदि में असमानता आती है। अभिजात्य वर्ग अपनी वेश - भूषा तथा खान - पान के विषय
में सतर्क रहता है, जबकि जन - साधारण इन पर विशेष धयान नहीं देता। उच्च वर्ग में अच्छा पहनावा और चटक - मटक के आभूषण प्रतिष्ठा - सूचक माने जाते हैं, इनमें अवसर के अनिरुप परिवर्तन तथा परिवर्धन अपेक्षित रहता है। समाज का जन मानस विशेषत: अपनी वेश - भूषा तथा खान - पान में एकरुपता रखता है। ऐसे थोड़े ही अवसर आते हैं जब हम उसके रहन - सहन में न्यूनाधिक अन्तर देखते हैं। अन्तत: जीवनक्रम में एक वर्ग से दूसरे वर्ग में परम्परा बन जाती है जो हमारी संस्कृति का एक अनूठा पक्ष हैं।
|
|
|
|
भोजन
प्राचीनकाल
में राजस्थानी भोजन प्राकृतिक वस्तुओं
पर आधारित थे, तब लोग आग के प्रयोग
से अनभिज्ञ थे। नित अपने अनुभवों के आधार
पर कन्द, मूल, फल, माँस तथा वन में
उपजने वाली अन्य वस्तुएँ, जो शरीर के
लिए अनुकूल पड़ती थीं; खाते थे। आज से पाँच
हजार वर्ष पूर्व भोज्य पदार्थों में
यव, गेहूँ, चावल, माँस, दूध आदि प्रचलित
हुए जिन्हें आमिष और निरामिष
भोजन
करने वाले प्रयोग में लाते थे। पशुओं
के माँस का प्रयोग भी खूब होता था,
जिसकी प्रमाणिकता प्राचीन खण्डहरों
से प्राप्त प्रस्तर देते हैं। समय के प्रवाह
के साथ - साथ आहारिक एवँ माँसादि पदार्थों
के बनाने की विधियों में विविधता आती
गयी। उत्पादन में भी अनेक प्रयोग किये
गये जिससे धान्य, दालें, पेय पदार्थ आदि
में वृद्धि होती रही। कालीबंगा, आहड़,
गिलूँड़, बैराठ, रंगमहल, साँभर आदि
स्थलों से प्राप्त भाण्डों की किस्मों के अनेक
स्वरुप भोजन के पदार्थों तथा उसकी
विशेष विधियों पर प्रकाश ड़ालते
हैं।
शिलालेखों
तथा साहित्यिक ग्रन्थों से प्राप्त प्रमाणों
के अनुसार भोजन के सम्बन्ध में लगभग
१०वीं शताब्दी तक राजस्थान का निवासी
सादा तथा मर्यादित था। साधारण वर्ग
तथा उच्च वर्ग के खाद्य तथा पेय पदार्थों के
स्तर में बहुत बड़ा अन्तर नहीं था। रोटी,
दाल, राब, तेल, दही, दूध, घी, लापसी,
मट्ठा, घाट, गुड़, घूघरी, खिचड़ी, आदि
सभी की भोज्य सामग्री थी।
माँसाहार भी प्रचलित था, परन्तु ज्यों
- ज्यों अन्नोत्पादन में वृद्धि होती गयी,
माँस का प्रयोग घटता गया। उच्च वर्ग तथा
वन में रहने वालों के अलावा कृषिजीवी
तथा नगर निवासियों में माँस भोजन
का उतना प्रचलन नहीं था। ब्राह्मणों और जैनों
में माँस का प्रयोग निषिद्ध था। इन्हें
भोजन की शुद्धता और निर्मलता पर अधिक
ध्यान देना होता था। उत्सवों तथा पर्वों?
पर अनेक मिष्ठान्नों का प्रयोग होता था।
हेमचन्द्र ने लिखा है जिनमें मोदक, पूये,
हलुवा, खीर, तिलकुट आदि मुख्य हैं।
पूड़ी, पापड़, दहीबड़े का जिक्र मानसोल्लास
में मिलता है जिससे खाद्य - पदार्थों
में रस और रुचि का संवर्धन होता था।
इन लेखकों के अनुसार व्यंजनों के
भी अनेक प्रकार बताये हैं जिन्हें तेल,
घी और लोंग एवं अनेक मसालों से
मिक्षित कर स्वादिष्ट बनाया जाता था।
उच्च वर्ग तथा मध्यम वर्ग के लोगों
में उनका अधिकाधिक उपयोग होता था।
मध्ययुग में
भी खान - पान की वही प्राचीन परम्परा
राजस्थान में प्रचलित थी और विशेष
रुप से साधारण स्तर के लोगों में
राब, रोटी, दाल, छाछ आदि का ही प्रचलन
होता था। परन्तु उच्च स्तर के समाज
में, जैसा कि अमरसार और राजविनोद
के लेखकों ने लिखा है, गेहूँ, चना और
दालों से अनेक खाद्य वस्तुएँ बनती थीं जिनमें
हलुवा, फैनी, घेवर खाजा तथा लड्डू
प्रमुख थे। मोदक के भी अनेक प्रकार थे
जो दूध, मावा, आदि से बनाते थे और
उनका नाम भी उनके अनुकूल होते थे। जैसे
दही से बनने वाले दधि - मोदक, केसर
के प्रयोग से बनने वाले केसर -
मोदक, बीजों से बनने वाले बीज -
मोदक आदि। सूरज प्रकाश के लेखक ने
अचारों का उल्लेख किया है जो फलों
व सब्जियों को कस कर बनाये जाते
थे। चावल को भी दाल, दूध, घी व शक्कर
के साथ खाया जाता था। इस प्रकार गेहूँ
व चावल से कई प्रकार के मिष्ठान्न बनते
थे जो विवाहोत्सव पर प्रचलित थे। पद्मिनी
चौपाई में उल्लेखित है कि राजस्थान
में भोजन के अन्त में मट्ठे का प्रयोग
प्राय: होता था जो आज भी प्रचलित
है।
मध्ययुग में
राजपूत समाज अग्रणी था, जिसमें आखेट
एक मनोरंजन का एक साधन बन चुका था।
इससे प्राप्त पशुओं के माँस को एक
शौर्य द्योतक प्रतीक माना जाता था जिसे
बड़े चाव से खाया जाता था। आखेट वर्णन
तथा अभय विलास जैसे काव्य ग्रन्थों
में सूअर, शेर, खरगोश और हिरणों
के शिकार का बड़ा रोचक वर्णन मिलता
है तथा ऐसे अवसरों में माँस को अनेक
प्रकार से तैयार कर दावतों के आयोजनों
का उल्लेख इन लेखकों ने किया है जिनमें
कबाब, पुलाव, कोरमा आदि प्रमुख
हैं। प्याज, अदरख, नींबू, लहसुन आदि प्रयुक्त
मसाले माँसाहारियों के चाव की चीज
होती थी जिन्हें साधारण स्तर के
माँसभोजी भी काम में लाते थे। अकबरी
जलेबी, खुरासानी खिचड़ी, बाबर बड़ी,
पकोड़ी और मूँगोड़ी का प्रचलन मुगली
प्रभाव से राजस्थान में खूब पनपा जिनका
प्रयोग माँसाहारी और शाकाहारी
बड़े चाव से करते थे। भोजन के
सम्बन्ध में समन्वय की प्रकिया राजस्थान
में खूब देखी जाती है।
राजस्थानी
समाज में भोजन की विधि में अत्यन्त पवित्रता,
शुद्धता और संयम का बड़ा महत्व
रहा है। भोजन के पूर्व स्नान करना
अथवा हाथ, मुँह व पैर धोना आवश्यक
था। ब्राह्मण तो भोजन के पूर्व स्नान कर
चौके में भोजन करते थे। अपने हाथ
से पकाया हुआ भोजन विशेष शुद्ध
माना जाता था। समृद्ध परिवारों में चाँदी
और सोने से मढ़े चौकटे भोजन परोसने
के लिए रखे जाते थे जिन पर चाँदी की
थाली व कटोरे होते थे। साधारण
लोग पत्तल, दोने व पीतल व काँसे के
थालों का प्रयोग करते थे। मिट्टी व
काठ के बर्तनों का प्रयोग भोजन में
एक बार ही माना गया है, परन्तु ग्रामीण
भोजन बनाने में मिट्टी के बर्तनों
का प्रयोग आज भी खूब करते हैं जो कि
यहाँ के प्राचीन परम्परा के अनुरुप
है।
मनुची के अनुसार,
भोजन के उपरान्त राजस्थान में समृद्ध
लोग पान चबाते हैं जिनमें खैर, चूना,
सुपारी के अतिरिक्त सुगंधित द्रव्य भी
मिलाते हैं। आगे उल्लेख मिलता है कि
पान को उपहार के रुप में देना सम्मानसूचक
है। देशीनाममाला में कहा गया है
कि ताँबूल तैयार करना और उनका
वितरण करना बहुधा दासियाँ करती
थीं। राजा - महाराजाओं तथा रानियों
के दरबारों में होली, दीपावली तथा
अन्य अवसरों पर पान के बीड़े वितरित
होते थे और उनके आगंतुकों को
सम्मानित किया जाता था। प्राचीन परम्परा
के अनुसार पान आज भी इतना व्यापक
है कि इसका प्रयोग साधारण से साधारण
व्यक्ति भी करता हैं।
|
|
|
|
परिधान
भोजन की
ही भाँति परिधान भी जीवन - क्रम का
एक अति महत्वपूर्ण अंग है। विभिन्न क्षेत्रों
के निवासियों की वेश - भूषा तत्क्षेत्रीय
जलवायु और उपलब्ध पदार्थों से
सम्बन्धित होती है। वह संस्कृति का
भी द्योतक है, क्योंकि उसमें एकरुपता और
मौलिकता के ऐसे तत्वों का
समावेश था जो कि विदेशी सम्पर्क
या आदान - प्रदान की प्रक्रिया की संभावना
बने रहने पर भी उसके मूल तत्व नष्ट
नहीं होते। या यूँ कहें कि उनके सुदृढ़
प्रारुप ने बाह्य प्रभावों को अपने रंग
में सराबोर कर दिया। राजस्थान की
वेश - भूषा का सांस्कृतिक पक्ष इतना
प्रबल है कि सदियों के गु जाने पर
और विदेशी प्रभाव होते रहने पर
भी यहाँ की वेश - भूषा अपनी
विशेषताओं को स्थिर रखने में
सफल रही है।
|
|
|
|
पुरुष
परिधान
कालीबंगा और
आहड़ सभ्यता के युग से ही राजस्थान
में सूती वस्रों का प्रयोग मिलता है।
रुई कातने के चक्र और तकली, जो उत्खनन
से प्राप्त हुए हैं; इस बात के प्रमाण
मिलते हैं कि उस युग के लोग रुई के
वस्रों का प्रयोग करते थे। बैराठ व
रंगमहल में भी इसके प्रमाण मिलते
हैं जिनसे स्पष्ट है कि साधारण लोग
अधोवस्र (धोती) तथा उत्तरीय वस्र, जो
कंधे के ऊपर से होकर दाहिने
हाथ के नीचे से जाता था, प्रयुक्त करते
थे। यहाँ के खिलौनों को देखने से
पता चलता है कि छोटे बच्चे प्राय: नग्न
रहते थे। जंगली जातियाँ बहुत कम
वस्रों का प्रयोग करती थीं। वे ठंड
से बचने के लिए पशुओं के चर्म का प्रयोग
करते थे। इसी का उपयोग साधुओं के
लिए भी होता था। इन वस्रों के उपयोग
की यह सारी परिपाटी आज भी राजस्थान
के प्रत्येक गाँव में देखी जा सकती है
जहाँ बहुधा धोती व ऊपर ओढ़ने के
"पछेवड़े" के सिवाय अन्य वस्रों का
प्रयोग कम किया जाता है। सर्दी में अंगरखी
का पहनना भी प्राचीन परम्परा के अनुकूल
है जिसमें कपड़े के बटन व आगे से
बंद करने की "कसें" होती हैं जो
बंधन का सीधा - सादा ढ़ंग है।
इस युग में
आगे बढ़ने पर मंदिरों की वेटिकाएँ
मिलती हैं जो गुप्तकाल से लेकर १५
वीं सदी तक की हैं, पुरुषों की
वेशभूषा पर प्रकाश ड़ालती हैं। गुप्तोत्तर
काल की कल्याणपुर की मूर्तियाँ तथा
चित्तौड़ के कीर्तीस्तम्भ की मूर्तियाँ
वेश - भूषा में अनेक परिवर्तन की कहानी
प्रस्तुत करती हैं। पुरुषों में छपे हुए
तथा काम वाले वस्रों को पहनने का
चाव था। सिर पर गोलाकार मोटी पगड़ी
पल्लों को लटका कर पहनी जाती थी। धोती
घुटने तक और अंगरखी जाँधों तक
होती थी। मूर्तियों में ऊनी वस्रों की
मोटाई से एवं बारीक कपड़ो को तथा
रेशमी वस्रों को बारीकि से बतलाया
गया है। विवध व्यवसाय करने
वालों के पहनावों में भेद भी था, जैसे
शिकारी केवल धोती पहने हुए हैं तो
किसान व श्रमिक केवल लंगोटी के ढ़ंग
की ऊँची बाँधवाली धोती और चादर
काम में लाते थे। व्यापारियों में धोती,
लंबा अंगरखा, पहनने का रिवाज था।
सैनिक जाँघिया या छोटी धोती, छोटी
पगड़ी और कमरबन्द का प्रयोग करते
थे। मल्ल केवल कच्छा पहनते थे तो सन्यासी
उत्तरीय और कौपीन।
समकालीन देवताओं
की मूर्तियों से संभ्रान्त परिवार एवं
राजा - महाराजाओं के पहनावे को जाना
जा सकता है। दिलवाड़ा के मंदिर अथवा
सास - बहू के मंदिर एवं कीर्तीस्तम्भ
की देवताओं की मूर्तियों में कामदार
धोती और दोनों किनारों से झूलता
हुआ बारीक दुपट्टे का अंकन है जो
राजपरिवार के परिधान के ढ़ंग का द्योतक
है। युद्ध में जाने वाले उच्च वर्ग के
लोग शरीर को लंबी अंगरक्षी से
सुशोभित करते थे और सिर पर चमकीली
मोटी और मुकुट वाली पगड़ी पहनते
थे। राजस्थान में चित्रित कई कल्पसूत्र
वहाँ के साधारण व्यक्ति से लेकर
राजा - महाराजाओं के परिधानों को
इंगित करते हैं। इनमें राजाओं के
मुकुट और पल्ले वाली पगड़ियाँ, दुपट्टे,
कसीदा की गई धोतियाँ और मोटे
अंगरखे बड़े रोचक प्रतीत होते हैं।
इन परिधानों
में विविधता एवं परिवर्तन मुगलों
के सम्पर्क से आया, विशेष रुप से उच्च
वर्ग में। कुछ साहित्य ग्रन्थों, परवानों
तथा चित्रित ग्रन्थों से इस बात का अच्छा
परिज्ञान
मिलता है। पगड़ियों में कई
शैलियो की पगड़ियाँ देखने को
मिलती हैं जिनमें अटपटी, अमरशाही,
उदेहशाही, खंजरशाही, शाहजहाँशाही
मुख्य हैं। विविध पेशे के लोगों में
पगड़ी के पेंच और आकार में परिवर्तन
आता जो प्रत्येत व्यक्ति की जाति का बोधक
होता था। सुनार आँटे वाली पगड़ी पहनते
थे तो बनजारे मोटी पट्टेदार पगड़ी
काम में लाते थे। ॠतु के अनुकूल रंगीन
पगड़ियाँ पहनने का रिवाज था। मोठड़े
की पगड़ी विवाहोत्सव पर पहनी जाती
थी तो लहरिया श्रावण में चाव से काम
में लाया जाता था। दशहरे के अवसर
पर मदील बाँधी जाती थी। फूल - पत्ती
की छपाई वाली पगड़ी होली पर काम
में लाते थे। पगड़ी को चमकीला बनाने
के लिए तुर्रे, सरपेच, बालाबन्दी , धुगधुगी,
गोसपेच, पछेवड़ी, लटकन, फतेपेच आदि
का प्रयोग होता था। ये पगड़ियाँ प्राय:
तंजेब, डोरिया और मलमल की
होती थीं। चीरा और फेंटा भी उच्च वर्ग
के लोग बाँधते थे। वस्रों में पगड़ी का
महत्वपूर्ण स्थान था। अपने गौरव की
रक्षा के लिए आज भी राजस्थान में यह कहावत
प्रचलित है कि "पगडी की लाज रखना"
इसी तरह पगड़ी को उतार कर फेंक देना
यहाँ अपमान का सूचक माना जाता है।
अत: आज भी प्राचीन संस्कृति के वाहक
नंगे सिर घर के बाहर कभी नहीं निकलते।
इसी तरह पगड़ी को ढ़ँग से बाँधकर
बाहर निकलना शिष्टता के अन्तर्गत आता
है। राजस्थान में इसका प्रयोग धूप - ताप
से सिर की रक्षा के साथ - साथ व्यक्ति की
सामाजिक स्थिति और धार्मिक भावना को
व्यक्त करने के लिए भी किया जाता है।
राजस्थानी नरेशों और मुगलों (शासकों)
के बीच होने वाले आदान - प्रदान में
पगड़ी का मुख्य स्थान था। आज भी राजस्थान
में पगड़ी द्वारा विवाहादि में सम्मान
देने की व्यवस्था है।
पगड़ी की
भाँति "अंगरक्षी" जो साधारण
लोग भी पहनते थे; में समयानुकूल
परिवर्तन आया और उसे विविध नामों
से पुकारा जाने लगा। यह परिवर्तन
भी मुगलों के दरबार से आदान - प्रदान
का ही परिणाम था। यहाँ के अनेक राजा,
महाराजा, राजकुमार, सैनिक अधिकारी
और साहूकार मुगल दरबार और
राज्य में जाते थे या इनकी छावनियों
में रहते थे, वे मुगल परिधानों का
प्रयोग करने लगे। इस अभिजात वर्ग की
वेश - भूषा को कुछ अंशों में साधारण
स्तर के व्यक्तियों ने भी अपना लिया,
क्योंकि
यह प्रतिष्ठासूचक मानी जाने लगी।
"अंगरक्षी" को विविध ढ़ंग से तथा
आकार से बनाया जाने लगा जिन्हें तनसुख,
दुतई, गाबा, गदर, मिरजाई, डोढी,
कानो, डगला आदि कहते थे। सर्दी के
मौसम में इनमें रुई भी डाली जाती
थी। इनको चमकीला बनाने के लिए इन
पर गोटा - किनारी व कसीदे तथा छपाई
का भी प्रयोग होता था। अनेक प्रकार के
रंगीन कपड़ों से इन्हें बनाया जाता था।
ये कुछ घुटने तक और कुछ घुटने के
नीचे तक घेरदार होते थे। कुछ वस्र
चुस्त और कुछ ढ़ीले सीये जाते थे।
इन वस्रों पर गोट लगाकर अलंकृत करने
की परम्परा थी। जाली के वस्र गर्मियों
में पहनते थे। मलमल की पोशाक
शरीर की झलक दिखाने में आकर्षक लगती
थी जिसे सम्पन्न व्यक्ति पहनते थे। वक्ष -
स्थल के कुछ भाग को खुला रखा जाता
था जो शिष्टाचार के विरुद्ध नहीं समझा
जाता था। रंग - बिरंगे फूँदनों से
इन परिधानों को बाँधना अच्छा समझा
जाता था। रुमाल भी रंग - बिरंगे तथा
कसीदे या छपाई वाले होते थे जिन्हें
गले में बाँधा जाता था। कटिबन्ध भी अनेक
प्रकार की लम्बाई - चौड़ाई के होते
थे जो लगभग २ फूट से लेकर १० हाथ
लम्बे एवं एक फूट चौड़े होते थे। इनमें
कटार, बरछा, तथा कभी - कभी खाद्य
सामग्री तथा रुपये - पैसे रख दिए जाते
थे। कंधों पर शरद ॠतु में खेस,
शाल, पामड़ी डाल दिये जाते थे। इन पर
भी कलावस्तुु एवं कसीदे का काम रहता
था। आभिजात्यवर्ग लंबी अंगरखी पर पाजामा
पहनते थे और साधारण मुसलमान
भी इसको दैनिक प्रयोग में लाते थे।
|
|
|
|
स्री परिधान
कालीबंगा
या आहड़ आदि स्थानों की
प्रागैतिहासिक
युग की वेश - भूषा, जिसका प्रयोग
स्रियाँ करती थीं; बड़ी साधारण थीं।
यहाँ की खुदाई से प्राप्त मिट्टी के
खिलौने, "जंतर" पर बनी मूर्तियों
से प्रमाणित होता है कि उस काल में
स्रियाँ केवल अधोभाग को ढ़ँकने के
लिए छोटी साड़ी का प्रयोग करती थीं। आर्यों
के राजस्थान प्रवेश ने इस प्रकार के पहनावे
में कुछ परिवर्तन किया जो शुंग - कालीन
तथा गुप्त तथा गुप्तोत्तर काल की मूर्तियों
से स्पष्ट है। इनमें स्रियाँ साड़ी को
कर्धनी से बाँधती थीं और ऊपर तक
सिर को ढ्ँकती थीं। स्तनों को कपड़े
से ढ़ँक कर उसे पीठ से बाँध लिया करती
थीं। कई यक्षी मूर्तियाँ स्री वेश -
भूषा को स्पष्ट करती हैं जिनमें ओढ़नी
से सिर ढ़ँका मिलता है और साड़ी घुटने
तक चली जाती है। आगे चलकर स्री परिधान
में साड़ी को नीचे तक लटकाकर ऊपर
कंधों तक ले जाया जाता था और स्तनों
को छोटी कंचुकी से ढ़ँका जाता था। प्रारम्भिक
मध्यकाल में स्रियाँ प्राय: लहँगे का प्रयोग
करने लगीं जो राजस्थान में "घाघरा"
के नाम से प्रसिद्ध है। स्रियों की वेश
- भूषा में अलंकरण, छपाई और कसीदे
का काम भी पूर्व मध्यकाल में प्रचलित
हो गया था। इसका स्वरुप आज भी हम
घुमक्कड़ जाति के स्रियों में और आदिवासियों
की महिलाओं में देखते हैं। यही ढ़ंग
हमें मथुरा से मिली मूर्तियों में देखने
को मिलती है, इनमें स्रियों के परिधान
में साड़ी, ओढनी, लहँगा तथा कंचुकी
या चोली सम्मिलित हैं। सांस्कृतिक दृष्टि
से यह काल बड़े महत्व का है। साड़ी
पहनने तथा सिर को ओढ़नी से ढ़ँकने
तथा कपड़ों की सजावट में मूल स्थानीय
तत्व हैं और बाह्य से कुछ विदेशी प्रभाव
भी हैं। इन परिधानों के सांस्कृतिक नाम
कुवलयमाला, धर्मबिन्दु, उपमितिभाव,
प्रपंचक तथा कथाकोष में भी मिलते
हैं।
विजय - स्तम्भ,
कुंभश्याम मंदिर, जगदीश मंदिर तथा
अनेक समकालीन साहित्य और इतिहास
के ग्रन्थ मध्यकालीन स्रियों के वेश -
भूषा के अध्ययन के अच्छे साधन हैं। तब
स्रियों के परिधानों में डिजायन एवं
भड़कीलापन अधिक था। विजयस्तम्भ की
मूर्तियों को देखने से लगता है कि कंचुकी
वैकल्पिक थी। कुछ मूर्तियाँ बिना कंचुकी
के भी हैं और कुछ में वक्षस्थल ढ़ँकने
के लिए एक लम्बे वस्र का प्रयोग हुआ
है। ज्यों - ज्यों समय बीतते जाता है,
कंचुकी तथा काँचली का स्वरुप बदल जाता
है और वह लम्बी आस्तीनों वाली उदर
के नीचे तक बढ़ जाती है जिसे कुर्ती कहते
हैं। इनमें तंजेब, कसीदा, गोटा - किनारी,
मगजी, गोट आदि का काम रहता है। कुछ
चमकीले वस्र की और कुछ छपाई व
रंगाई की कंचुकियाँ होती हैं। आज
भी मारवाड़ में ऐसी लंबी कुर्तियों
का खूब प्रचलन है। कल्पसूत्र के चित्रों
में स्रियों को अधोवस्र और ओढ़नी
से ढ़ँका बतलाया गया है। ओढ़नियों
के पल्लु कई डिजायन के बनते थे जिनको
दोनों ओर कंधे से लटकाया जाता था।
कुछ सती स्तम्भों में उत्कीर्ण मूर्तियाँ
एक लंबी साड़ी में देखी जाती हैं जो नीचे
से ऊपर तक शरीर को ढ़ँकती हैं। ऐसी साड़ियाँ घूँघट
निकालने में सुविधाजनक रहती हैं।
आज भी राजस्थान मे घूँघट का रिवाज
प्रचलित है। अधोवस्र प्रारम्भ में कमर
से लपेटा जाता था जो परिवर्किद्धत
होकर घाघरा तथा घेरदार कलियों
का घाघरा बन गया। इसका छोटा रुप
लहंगा कहलाता है। इन तीनों प्रकार
के परिधानों पर सुनहरी व रुपहरी
छपाई होती ती जिसे गोटा - किनारा
तथा सलमे के काम से आकर्षक बनाया
जाता था। राजस्थान में आज भी कपड़ों पर
इस प्रकार का काम बड़ी कारीगरी से
होता है। साड़ियों के विविध नाम प्रचलित
थे जिन्हें चोल, निचोल, पट, दुकूल, अंसुक,
वसन, चीर - पटोरी, चोरसो, ओड़नी,
चूँदड़ी, धोरीवाला, साड़ी आदि कहते
हैं।
कुछ चित्रित
ग्रन्थों
तथा मूर्तियों से साधारण स्तर की स्रियों
की वेश - भूषा का पता चलता है। विजयस्तम्भ
में शबरी केवल छोटी घघरी में उत्कीर्ण
है, अन्य वस्रों का प्रयोग नहीं है। ऐसा
ही रागिनी चित्र में भीलनी का अंकन
है। आर्षरामायण में शूपंनखा को भद्दी
व मोटी साड़ी और छोटे घाघरे में
चित्रित किया गया है। कादम्बरी में पत्रवाहक
स्री के केवल गागरा और कंचुकी में
तथा विधवा को भूरी साड़ी और काला
लहंगा एवं कत्थई चोसी में चित्रित किया
गया है। भक्तमाल में मीरा को पीली
भोती से चित्रित किया गया है। राजपूतों
के हरम में कुछ दासियां लम्बा कुरता
व सलवार व पाजामे का भी प्रयोग करती
थीं जो मुगलों का ही अनुकरण था।
स्रियों के परिधानों
के लिए प्रचलित कपड़ों में जामदानी, किमखाब,
टसर, छींट मलमल, मखमल, पारचा,
मसरु, चिक, इलायची, महमूदी चिक,
मीर - ए - बादला, नौरंगशाही, बहादुरशाही,
फरुखशाही छींट, बाफ्टा, मोमजामा, गंगाजली,
आदि प्रमुख थे। उच्चवर्गीय स्रियाँ अपने चयन
में इन कपड़ों को वरीयता देती थीं, परन्तु
साधारण वर्ग की स्रियाँ लट्ठे व छींट
के वस्रों से ही संतोष कर लेती थीं।
ॠतु और अवसरानुकूल रंग - बिरंगे
व चटकीले परिधानों के चाव स्रियों
में अवश्य था जो अपनी - अपनी हैसियत के अनुसार बढिया और
घटिया कि के कपड़े बनवाते थे। चूँदड़ी
और लहरिया राजस्थान की प्रमुख साड़ी
रही है जिसका प्रयोग हर स्तर की
स्रियाँ आज भी करती हैं - गोया उच्चवर्ग
में आधुनिक कपड़े अधिक
प्रिय हो रहे हैं।
|
|
|
|
केश
- विन्यास
जैसे अजन्ता, एलोरा
एवं खजुराहो के चित्रों और मूर्तियों
में केश - विन्यास के कई प्रकार मिलते
हैं, उसी प्रकार राजस्थान के रंगमहल,
देलवाड़ा, नागदा, जगत, चित्तौड़ एवं जगदीश
मंदिर की नारी - मूर्तियों से तथा चित्रित
ग्रन्थों में विवध केशविन्यास के अनेक
रुप निरुपित किये जा सकते हैं। केशों
को जूड़े व वेणियों द्वारा प्रसाधित किया
जाता था। इनमें पुष्प, पत्तियों एवं
मोतियों की लड़ी से सुसज्जित करना
शोभनीय माना जाता था। केशों की अग्रभाग
की पट्टियों को कड़ा रखने के लिए गोंद
और "घासा" नामक लेप का प्रयोग
होता था, जिससे उनमें एक चमक दिखाई
देती थी। अभिजातवर्ग की स्रियों के केश
विन्यास का काम सेविकाएँ करती थीं।
अन्त: पुर में ऐसी स्रियों को
विशेष रुप से रखा जाता था जो राज
- परिवार की स्रियों के केश विन्यास
का ध्यान रखती थीं। केशों को लम्बा बढ़ाना
अच्छा समझा जाता था और उनमें कई प्रकार
के सुगन्धित तेल ड़ालकर सुरभित किया
जाता था। जहाँ प्रसाधन की विशेष प्रकार
की सामग्री साधारण वर्ग की स्रियों के
लिए उपलब्ध नहीं थी वहाँ सादा वेणी
बनाना विवाहित स्रियों के लिए अनिवार्य
था, क्योंकी इसमें धार्मिक भावना निहित
रहती थी। राजस्थान में खुले केशों
से बाहर निकलना स्रियों के लिए अशोभनीय
माना जाता रहा है। नागदा की पार्वती
की मूर्ति, कुंभश्याम मंदिर की नर्तिकाओं
का दल तथा विजय स्तम्भ की अनेक देवी
व स्रियों की मूर्तियों के प्रदर्शन बेजोड़
हैं। केश विन्यास की विवधता का
मूलाधार तात्कालीन नागरिकों की
सुरुचि और कला - विलास का परिणाम
था।
|
|
|
|
स्री
आभूषण
राजस्थान का
प्राचीनकालीन मानव सौन्दर्य - प्रेमी
रहा है। शरीर को सुन्दर और आकर्षक
बनाने के लिए विशेष रुप से स्रियाँ
अनेक प्रकार आभूषणों को प्रयोग करती
थीं। कालीबंगा तथा आहड़ सभ्यता के
युग की स्रियाँ मृणमय तथा चमकीले
पत्थरों की मणियों के आभूषण पहनती
थीं। कुछ शुंगकालीन मिट्टी के खिलौनों
तथा फलकों से पता चलता है कि स्रियाँ
हाथों में चूड़ियाँ व कड़े, पैरों में
खड़वे और गले में लटकने वाले
हार पहनती थीं। स्रियाँ सोने, चाँदी,
मोती और रत्न के आभूषणों में रुचि
रखती थीं। साधारण स्तर की स्रियाँ काँसे,
पीतल, ताँबा, कौड़ी, सीप अथवा मूँगे
के गहनों से ही सन्तोष कर लेती थीं।
हाथी दाँत से बने गहनों का भी उपयोग
होता था। हमारे युग में भी आदिवासी
व घुमक्कड़ जाति की स्रियां इस प्रकार
के आभूषण पहनती हैं। पाँव में तो पीतल
की पिंजणियाँ एडी से लगाकर घुटने के
नीचे तक आदिवासी क्षेत्र में देखी जाती
हैं। समरादित्य कथा, कुवलयमाला आदि
साहित्यिक ग्रन्थों में सिर पर बाँधे
जाने वाले आभूषणों को चूड़ारत्न और
गले और छाती पर लटकने वाले आभूषणों
को दूसूरुल्लक, पत्रलता, मषीश्ना, कंठुका,
आमुक्तावली आदि कहा गया है। फ्यूमश्रीचरय्
में वर्णित है कि पद्मश्री को जब
विवाह के लिए सजाया गया तो पाँवों
में नूपुर, कानों में कुंडल और
सिर पर मुकुट से सजाया गया था। प्रसिद्ध
सरस्वती की मूर्ती जो दिल्ली म्यूजियम
में तथा बीकानेर में हैं ; ऊपर वर्णित
आभूषणों से अलंकृत है। इनके अतिरिक्त
वह दो व चार लड़ी की हार, जिन्हें
राजस्थान में हँसला कहते हैं तथा
बाजूबंद, कर्णकुंडल, कर्धनी (कंदोरा)
अंगूलयिका, मेखला, केयूर आदि
विविध आभूषणों से सुशोभित है।
इन आभूषणों का अंकन राजस्थान की पूर्व
मध्यकालीन मूर्तिकला में खूब देखने
को मिलता है।
मध्यकाल से
२०वीं सदी तक आकर अलंकारों के विविध
रुप विकसित हो गये। समकालीन
साहित्य, मूर्ति और चित्रकला में स्रियों
के आभूषणों का सुन्दर चित्रण हुआ है।
ओसियाँ, नागदा, देलवाड़ा क ुंभलगढ़
आदि स्थानों की मूर्तियों में कुंडल,
हार, बाजूबन्ध, कंकण, नुपूर, मुद्रिका
के अनेक रुप तथा आकार निर्धारित हैं।
विशलेषण करने पर एक - एक आभूषण की
पच्चीसों डिजाइनें मिलेंगी। आर्षरामायण,
सूरजप्रकाश, कल्पसूत्र आदि चित्रित ग्रन्थों
में भी इनके विविध रुपों का प्रतिपादन
हुआ है। ज्यों - ज्यों समय आगे बढ़ता
है, इन आभूषणों के रुप और नाम
भी स्थानीय विशेषता ले लेते हैं।
सिर में बाँधे जानेवाले जेवर को
बोर, शीशफूल ,रखड़ी और टिकड़ा नाम
पुरालेखों में अंकित हैं। उन्हीं में गले
तथा छाती के जेवरों में तुलसी, बजट्टी,
हालरो, हाँसली, तिमणियाँ, पोत,
चन्द्रहार, कंठमाला, हाँकर, चंपकली,
हंसहार, सरी, कंठी, झालरों के तोल
और मूल्यों का लेखा है। ये आभूषण
सोने, चाँदी, मोती के बनते थे और
अनेक रत्नजड़ित होते थे। कानों के आभूषणों
में कर्णफूल, पीपलपत्रा, फूलझुमका, तथा
अंगोट्या, झेला, लटकन आदि होते थे।
हाथों में कड़ा, कंकण, गरी, चाँट, गजरा,
चूड़ी तथा उंगलियों में बींटी, दामणा,
हथपान, छड़ा, वींछिया तथा पैरों में कड़ा,
लंगर पायल, पायजेब, नूपुर, घुँघरु
झाँझर, नेवरी आदि पहने जाते थे। नाक
को नथ, वारी, काँटा, चूनी, टोप आदि
से सुसज्जित किया जाता था। कमर में
कंदोरा और कर्धनी का प्रयोग होता
था। जूड़े में बहुमूल्य रत्न या चाँदी
- सोने की घूँघरियाँ लटकाई जाती
थीं।
इन सभी आभूषणों
को साधारण स्तर की स्रियाँ भी पहनती
थीं, केवल अंतर था तो धातु का। इनकी
विविधता शिल्प की दरबारी प्रभाव का
परिणाम था। मुगल -सम्पर्क से आभूषणों
में विलक्षणता का प्रवेश स्वाभाविक था।
अलंकारों का बाहुल्य उस समय की कला
की उत्कृष्ट स्थिती एवं उस समय के समाज
की सौन्दर्य रुचि पर प्रकाश डालता
है और आर्थिक वैभव का परिज्ञान उनके
द्वारा होता है। आज भी राजस्थान के ग्रामीण
अंचलों में आभूषणों के प्रति प्रेम है
जिसके कारण इनके शिल्पी सर्वत्र
फैले हुए हैं। इसी वर्ग के शिल्पी रत्नों
के जड़ने तथा बारीकी का काम करने
में नगरों में पाये जाते हैं। एक प्रकार
से राजस्थान की भौतिक संस्कृति को
आभूषणों के निर्माण- क्रम और वैविद्धय
द्वारा आँका जा सकता है।
|
|
|
|
आमोद
- प्रमोद
जिस प्रकार
भारतीय समाज में प्राचीनकाल से आमोद
- प्रमोद का विशिष्ट स्थान रहा है, उसी
प्रकार से राजस्थान में भी प्रत्येक युग
में उसका महत्व देखा गया है। कालीबंगा,
रंगमहल आदि के उत्खनन से पता चलता
है, मिट्टी के खिलौनें जैसे चकरी,
गाड़ी, गुड़िया गोलियाँ आदि बच्चों के
खेलने के साधन थे और इसलिए इस
युग में आखेट वैसे तो क्षुधापूर्ति
से सम्बन्धित था, परन्तु कौतुकवश
भी शिकार का आयोजन अवश्य मनोरंजन
का साधन रहा होगा। रेड की खुदाई
तथा रंगमहल के उत्खनन में हाथी, घोड़े,
पक्षी, काठी वाले ऊँट, पहिये और खिलौने
इस बात के प्रमाण हैं कि वे बच्चों के
मनोरंजन के साधन थे। आगे चलकर
मनोरंजन के सम्बन्ध में उपमितिभाव
प्रपमचकथा, रत्नावली आदि ग्रन्थों में कई
उत्सवों का उल्लेख है जो नाचना, गाना,
झूलना आदि मनोरंजन के अन्तर्गत आते
हैं। विविध आयोजनों में गीत - संगीत
को प्रधानता दी जाती थी जिनमें स्री - पुरुष
समान रुप से भाग लेते थे। मृगया के
लिए भी इस युग में कई लोग
सम्मिलित होते थे।
मध्यकाल तक
आते - आते समाज में अनेक प्रकार की मनोविनोद
सम्बन्धी क्रीडाओं का प्रचलन हो गया। उत्कीर्ण
कला के तथा चित्रकला के आदर्शों से पता
चलता है कि मल्लयुद्ध, मुक्केबाजी ,घुड़दौड़
आदि बड़े लोकप्रिय व्यायाम थे जिनको
स्री - पुरुष बड़ी संख्या में एकत्रित होकर
देखते थे। द्वन्द युद्ध और धनुष बाण चलाना
सार्वजनिक रुप से मनोरंजन के रुप
में देखा जाता था। कई खिलाड़ियों को
राजकीय रुप में सेवा में रखा जाता था
और जब उनकी कुश्ती या प्रदर्शन समाप्त
हो जाता था तो उन्हें पारितोषक द्वारा
सम्मानित करने की प्रथा थी। महाराणा
अमरसिंह और राजसिंह को ऐसे आयोजनों
में बड़ी रुचि थी। हाथियों की लड़ाई
तथा सूअर, चीता, और शेरों की लड़ाई
में राजा महाराजा बड़ी रुचि लेते थे
और उसको देखने के लिए नागरिकों की
भीड़ उमड़ पड़ती थीं। दशहरे पर भैंसे
को वेधने की दौड़ लोगों को बड़ी
रोचक लगती थी। नारद, वात्स्यायन,
बाण और डंडी ने जिस पशु युद्धों तथा
पक्षियों की लड़ाईयों का उल्लेख किया
है, उनका राजस्थानी दरबार में मध्य
युग में खूब प्रचलन था। कई युद्ध - प्रिय
व्यक्ति शेर का शिकार उसके सामने आकर
करते थे। बाघसिंह का स्मारक इसी
बात का प्रमाण है। अन्यथा वन्य पशुओं का
शिकार राजकीय क्रीडा थी जिसको राजपरिवार
के व्यक्ति ही कर सकता थे। शिकारियों
का डेरा कई दिनों तक लगा रहता था
जब शेर घेरे से निकल जाता था। शिकार
सम्पादन हो जाने पर बड़ी दावतें
होती थीं और बड़ा उल्लास मनाया जाता
था। इन राज्यों में शिकार की सम्पूर्ण
व्यवस्था दरोगा - ए - शिकार या अमीरे
- शिकार देखता था। कभी -कभी इसमें
रानियाँ भी भाग लेती थीं और इनके
मचान पर समुचित पर्दे का प्रबन्ध रहता
था।
मुगलों के
सम्पर्क में आकर कई क्रीडाओं का
समावेश स्थानीय क्रीडाओं में हुआ।
इनमें मौलिक रुप से मुगल दरबार
से उद्धृत की गई। इनमें से पट्टेबाजी,
कबूतरबाजी, मुंगेबाजी, बटेरबाजी,
तीतरबाजी, मेढ़ायुद्ध आदि में निम्नवर्ग
का समाज ज्यादा रुचि लेता था और उसी
वर्ग के लोग उन पशु - पक्षियों को पालते
थे व प्रशिक्षण देते थे। ये पशु और पक्षी
कभी - कभी ऐसे लड़ते थे कि वे खून
से लथपथ हो जाते थे। मेढे भी परस्पर
सर के टकराव से ऐसे लड़ते थे कि उनके
भिड़ने से बड़ा शोर होता था और कभी
- कभी उनकी खोपड़ियाँ फट जाया करती
थीं। इनको देखने के लिए सभी वर्ग और
आयु के लोग इकट्ठा हो जाया करते
थे। तैरना और झूलना भी सार्वजनिक
मनोरंजन थे जिनमें भाग लेकर या
देखकर बालक, वृद्ध, पुरुष और स्रियाँ
आनन्द का अनुभव करते थे। मतंगों को
दो सिरों से तेल में भिगोकर और
जलाकर करतब जिखाये जाते थे जिसका
आयोजन रात्रि को होता था। लट्टबाजी,
पट्टेबाजी, तलवारबाजी भी उत्तेजक खेल
होते थे जिनमें शहरी युवक भाग
लेते थे और दर्शक बड़े उल्लास से देखकर
उनका हौसला बढ़ाते थे। चोगन का खेल
राजपूत सरदारों में अधिक प्रचलित था।
पतंगबाजी
भी मध्यकाल से अति लोकप्रिय मनोरंजन
का साधन रहा है। दिल्ली में सम्भवत:
मुगल बादशाहों के समय से इसका
आरम्भ हुआ। शाह आलम प्रथम से इसको
लोकप्रियता प्राप्त हुई और पीछे लखनऊ
के नवाबों ने तथा वहाँ के निवासियों
ने इसमें बड़ी रुचि ली। राजस्थान में
पहले प्राय: "आकाश दीपकों" को
उड़ाने की प्रथा थी जो मनोरंजन का धार्मिक
एवं सामाजिक पक्ष था। मुगल सम्पर्क
से पतंग के उड़ाने में कई परिवर्तन
आये और जयपुर इस शौक का गढ़ बन
गया। अन्त: पुर में भी इसे उड़ाया जाता
था जिसमें केवल महिलाएँ भाग लेती
थीं। जयपुर में आज भी बालक से लेकर
बूढ़े तक पतंग उड़ाते हैं। राजस्थान के
अन्य क्षेत्रों में भी इसका महत्व है। पतंग
उड़ाने की धार्मिक परम्परा यह है कि जयपुर
में इसे संक्रान्ति के पर्व पर और उदयपुर
में निर्जला एकादशी पर उड़ाया जाता
है। नवविवाहित पति - पत्नी पतंग का
पूजन कर उड़ाते हैं और घर की प्रथम पतंग
पूजनोपरान्त घर का मुखिया उड़ाता
है। यह प्रथा जयपुर में व्यापक रुप
में देखी गई है।
व्यवसायी
लोग भी नगर - नगर और गांव - गाँव
घूमकर प्रजागण का मनोरंजन करते
हैं जिनमें सपेरे, मदारी, जादूगर, नट,
भाण्ड आदि मुख्य हैं। ये कहीं चौक या चौराहों
और गलियों में अपना तमाशा दिखाते
हैं और इनके इर्द - गिर्द आसपास के
बच्चे व स्रियाँ जमा हो जाते हैं और
इनके खेल को बड़ी रुचि से देखते
हैं। कौटिल्य ने तथा बाण ने ऐसे ही
मनोरंजनों का वर्णन किया है जो
राजस्थान में आज भी प्रचलित है। उनके
रुप और सज्जा में अवश्य भेद है।
जोधपुर के
भागवत पुराण के चित्रों में कृष्ण के
माध्यम से कई लौकिक खेलों का चित्रण
मिलता है। एक चित्र में कृष्ण और उनके
साथी इधर - उधर छिपते हैं और एक ग्वाला
उन्हें ढूँढ़ता है। दूसरे चित्र में एक ग्वाला
आँखें मुँदवाता है और दूसरे छिपते
हैं और फिर वह उन्हें ढूँढ़ता है। इसी
तरह एक चित्र में एक ग्वाला घोड़ा बनता
है और उस पर दूसरा बैठकर गेंद का
ठप्पा लगाता है और दूसरे गेंद को झेलते
हैं। इसी तरह एक में कई लड़के वृक्ष
की डाली को फेंककर ढूँढ़ने के लिए नीचे
छोड़ते हैं। ये खेल लौकिक भाषा
में क्रमश: लुका - छिपी, आँख - मिचौनी,
घोड़ा - दड़ी और डाल कुदावणी कहलाते
हैं। मारदड़ी भी बड़ा रोचक खेल है
जिसे बालक और स्रियाँ खेलती हैं।
लट्टू, चकरी और गोली फेंकने के खेल
बालकों में प्रचलित थे।
घर में या एक स्थान पर बैठकर खेले जाने
वाले खेलों में शतरंज अभिजात वर्ग
में अधिक लोकप्रिय था। पहले इसे
यूरोप में धर्मयोद्धा द्वारा और बाद
में मुस्लिम देशों में खेला जाने लगा।
छावनियों में सिपाही इसे बड़े चाव
से खेलते थे जब इनको विश्राम में
या शत्रु को ताक में एक मुकाम पर कई
दिनों पड़ा रहना पड़ता था। इसमें ऊँट,
घोड़े हाथी व प्यादे तथा बादशाह व
वजीर के मोहरों के माध्यम से
विविध खंडों पर दो व्यक्तियों से' चाल
'चलकर खेला जाता है। यह खेल
शाही अभिरुचि से सम्बन्धित होने
से तथा विपक्षी को कूटनीतिक चालों
से पराजित करने की भावना से खेलने
के कारण विचारकों एवं राजनीति में
रुचि लेने वाले खेलने लगे। राजस्थान
में इसे वजीर, मुसाहिब, सैन्य संचालक
विशेष रुप से खेलते थे।
चौपड़, चौसर आदि कपड़े के बने
बिसात पर खेला जाता रहा है जिसे
पति - पत्नी या कोई चार या दो व्यक्ति
खेलते हैं। इसमें पासों से या कौड़ियों
को फेंक कर गोटियों को पीटा जाता
है और इसी से हार - जीत का निर्णय
होता है। ताश, गंजीफा, चरभर, नार
- छारी और ज्ञान - चोपड़ भी लोकप्रिय
खेल हैं जिन्हें विश्राम में खेला जाता
है। खिलाड़ी बारी - बारी से अपना पत्ता
चलते हैं और ताश या गंजीफे में तुरप
से निर्णय होता है। चरभर, नार - छारी
और ज्ञान - चोपड़ कौड़ियों से या इमली
के बीजों की बित्तुओं से अथवा विविध
रंग के पत्थरों से खेला जाता है। ज्ञान
- चौपड़ की विशिष्ट बिसात होती है
और हार - जीत, पाप - पुण्य के कोष्ठकों
पर चाल चलकर तय की जाती है।
ये खेल मुक्त: मनोरंजन के साधन
हैं प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति को आपस में मिलने - जुलने
का अवसर मिलता है। खेल - कूद में जात
- पाँत का भेद - भाव नहीं रहता जो
समाज में सामञ्जस्य एवं सद्भाव उत्पन्न
करने का अच्छा अवसर प्रदान करता है।
ऊपर वर्णित कई खेल प्राचीनकाल से
चले आये हैं जिनमें एक विशुद्ध परम्परा
दिखाई पड़ती है। कई खेलों का
सम्बन्ध धार्मिक पर्वों? और उत्सवों के
साथ इतना जुड़ा है कि समाज में एक पीढ़ी
से दूसरी पीढ़ी तक सतत् उनका सांस्कृतिक
धरोहर के रुप में माना जाता है। कई
मनोरंजन के साधन राष्ट्रीय स्तर के
या सार्वजनिक होने से देश में
राष्ट्रीयता को बल देते हैं। ये खेल
- कूद के साधन अपने ढंग से जन -जीवन
को एकसूत्र में बाँधकर सांस्कृतिक जीवन
में रोचकता का संचार करते हैं। आमोद
- प्रमोद की विविधता धार्मिक और
सामाजिक विचारधारा में सम्नवय की
भावना को पुष्ट बनाती है। राजस्थान
में आज भी ऐसे खेल गाँवों में खेले
जाते हैं - जैसे, गेंद फेंकना या मारना,
झूलना, काठ की गुड़िया से खेलना आदि,
जिनका वर्णन वेदों में, पुराणों और
प्राचीन साहित्य के ग्रन्थों में मिलता
है। पशु - युद्ध, मल्ल - युद्ध तथा मृग्या
जैसे मनोरंजन के साधन राजस्थान
में प्राचीनकाल से प्रचलित रहे हैं जिनके
द्वारा एक युग से दूसरे युग में
शौर्य और पुरुषार्थ को बढ़ावा
मिला है। ये साधन समाज को कठिन परिश्रम
के उपरान्त विश्राम भी देते हैं और
व्यक्तियों को सर्वदा स्वस्थ और स्फूर्तिवान
बनाये रखते हैं। राजस्थान सरकार
इस दिशा में पूर्ण प्रयत्नशील
है जिससे लौकिक मनोरंजन के साधन
प्राणवान बने रहें।
|
|
|
|
|
विषय
सूची |