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नाम
सीमा
प्राकृतिक दशा
नदियाँ
झीलें
बांध
आबोहवा
वर्षा
पैदावार
जंगल
जानवर
खनिज पदार्थ
उद्योग व व्यवसाय
सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक विवरण
अन्य
विशिष्ट जातियाँ
धर्म
भाषा
कला
चित्रकला
संगीत कला
नृत्य कला
मेले एवं त्यौहार
शासन प्रबन्ध
जयपुर के ऐतिहासिक स्थान
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नाम
जयपुर राज्य राजपूताना के उत्तर पश्चिम व पूर्व में स्थित है। इसका नाम ई० सन् १७२८ में जयपुर नगर बसने पर अपनी राजधानी के नाम पर पड़ा। इसके पहले यह आमेर राज्य कहलाता था। इस नाम से यह नगर ई० सन् १२०० के लगभग काकिल देव ने बसाया। इससे भी पहले यह राज्य ढूंढ़ाड़ कहलाता था। कर्नल टॉड ने ढूंढ़ाड़ नाम जोबनेर के पास ढ़ूंढ़ नाम पहाड़ी के कारण बतलाया है। पृथ्वीसिंह मेहता ने यह नाम जयपुर के पास आमेर की पहाड़ियों से निकलने वाली धुन्ध नदी के नाम पर बतलाया है। धुन्ध नदी का नाम इस क्षेत्र में धुन्ध नामक किसी अत्याचारी पुरुष के नाम के कारण पड़ा, जो उस क्षेत्र में रहता था। जोबनेर के पास ढ़ूंढ़ नामक कोई पहाड़ी नहीं है अत: बहुत संभव है कि इस नदी से ही यह क्षेत्र ढूंढ़ाड़ कहलाया है।
महाभारत के समय यह मत्स्य प्रदेश का एक भाग था। उस वक्त इसकी राजधानी बैराठ (जयपुर नगर से ४८ मील) थी जो अब एक छोटा कस्बा है। यहाँ सम्राट अशोक के समय काएक शिलालेख मिला है। ई० सन् ६३४ में यहाँ चीनी यात्री ह्मवेनच्यांग आया था। उस समय यहाँ बौद्धों के ८ मठ थे। इस नगर को महमूद गजनवी ने काफी नष्ट कर दिया था।
मत्स्य प्रदेष के मत्स्यों ने राजा सुदाश से युद्ध किया
था। मनु ने इस प्रदेश को ब्रह्माॠषि देश के अन्तर्गत माना था।
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सीमा
जयपुर
राज्य राजपूताना के उत्तर पूर्वी भाग में स्थित है। इसके उत्तर में बीकानेर, लोहारु व पटियाला राज्य; पूर्व में पटियाला भरतपुर, अलवर करौली, धौलपुर व ग्वालियर राज्य; दक्षिण में ग्वालियर कोटा, बून्दी, टोंक व उदयपुर राज्य; तथा पश्चिम में मेरवाड़ा, किशनगढ़, जोधपुर व बीकानेर राज्य है। यह राज्य दक्षिण पूर्व में अधिक विस्तृत, बीच में बिल्कुल संकुचित और उत्तरी भाग बीच के भाग से कुछ अधिक चौड़ा है। इसकी अधिकतम लम्बाई पूर्व से पश्चिम तक १४० मील और चौड़ाई
१९६ मील है। कुल क्षेत्रफल, जैसा कि पहले बताया जा चुका है, १५, ६०१ वर्गमील है। यह राज्य सवाई
जयसिंह के समय में दिल्ली तक फैला हुआ था लेकिन उसकी मृत्यु (ई० सन् १७४३) के बाद शनै: शनै: कामा, दबोई व पहाड़ी भरतपुर राज्य ने तथा थानागाजी, उजीबगढ़, बहरोड़, मंजपुर, प्रतापगढ़ आदि अलवर राज्य ने, नारनोल, कांति आदि झझर राज्य ने फरीदाबाद बल्लभगढ़ राज्य ने टोंक व रामपुरा टोंक राज्य ने अंग्रेजों ने होडल, पलवल को अपने अन्तर्गत मिला लिया। अत: पिछले २०० वर्षों में इस राज्य की सीमा में काफी परिवर्तन हुए हैं। इस राज्य का कोट कासिम क्षेत्र नाभा, राज्य व
हरियाणा के गुड़गांव जिला की रेवाड़ी तहसील से लगता हुआ है। खेतड़ी के राजा को १८०३ -०४ के मरहटा युद्ध में खेतड़ी जागीरदार द्वारा अंग्रेजों को दी गई सहायता के फलस्वरुप लार्ड लैक ने कोटपुतली दियी था।
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प्राकृतिक दशा
यह तीन प्राकृतिक विभागों में विभक्त है
- १) पहाड़ी भाग, २) रेतीली भाग और
३) मैदानी भाग। इस राज्य के दःक्षिण - पश्चिम से उत्तर पूर्व की ओर पहाड़ी सिलसिला है जो अड़ावला पर्वत की शाखायें हैं। इस पहाड़ी सिलसिलों के बीच में नदियों के मैदानी भाग भी आ गये हैं। यहाँ का दक्षिणी पूर्वी भागअधिक पहाड़ी है। उत्तरी पहाड़ी सिलसिला सांभर झील के उत्तर से खेतड़ी के उत्तर में सिंघाना तक चला गया है। इस सिलसिले में सबसे ऊंची पहाड़ी रघुनाथ (शेखावटी प्रदेश) की है जो ३४५० फुट है। अन्य पहाड़ियों में हर्ष, मालकेतु व लोहर्गल की आती है। एक ओर पहाड़ी सिलसिला जयपुर राज्य के ठीक बीच में आमेर होता हुआ तोरावाटी तक चला गया है जिसमें नाहरगढ़, जयगढ़, अभयगढ़, रामगढ़ व बैराठ की पहाड़ियां आती है। तीसरा पहाड़ी सिलसिला मालपुरा के दक्षिण भाग में व
लालसोट होता हुआ हिण्डोन में टोडाभीम तक चला गया है । लालसोट से यह पहाड़ बहुत ऊचें हो गये
हैं तथा फैल भी गये हैं। चौथा पहाड़ी सिलसिला राज्य के दक्षिण पूर्वी भाग में सवाई माधोपुर के दक्षिण में गंगापुर व हिण्डोन होता हुआ आगे चला गया है। रेवणजा डूंगर, रणथम्भौर, खण्डार व कादिरपुर के पहाड़ इसी सिलसिले के ऊंचे पहाड़ हैं।
राज्य का उत्तर पश्चिमी भाग जो शेखावटी कहलाता है, रेतीला है। जयपुर नगर के पश्चिम की ओर
किशनगढ़ की सीमा तक भूमि ऊंची होती हुई चली गयी है। दक्षिण - पूर्व में बनास के पास की भूमि ढालु है तथा उपजाऊ है। राजमहल के पास जहाँ बनास नदी पहाड़ियों में से होकर गुजरती है, बड़ा ही रमणीय दृश्य बनता है।
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नदियाँ
इस राज्य की मुख्य नदियाँ बनास और बाणगंगा है। बनास नदी देवली की ओर से होकर मालपुर को सिंचती हुई मुड़कर चम्बल
नदी में जा मिलती है। यह राज्य में ११० मील बहती है। बाणगंगा नदी बैराठ की पहाड़ियों के दक्षिणी ढ़ाल से निकलकर कुछ दूर दक्षिण को बहकर रामगढ़ के बाँध में अपना पानी छोड़ती हुई पूर्व की ओर मुड़ गई है और आमेर, दौसा, व हिण्डोन होती हुई भरतपुर की ओर चली गयी है।
यह इस राज्य में ९० मील बहती है। सवाई माधोपुर की दक्षिणी सीमा पर चम्बल नदी भी बहती है लेकिन यह सीमा पर बहने के कारण राज्य के लिए विशेष लाभदायक नहीं है। ढ़ूंढ़ नदी आमेर में अचरोल की
पहाडियों से निकलकर दक्षिण की ओर बहती हुई जयपुर व चाकसू होती हुई मारेल
नदी में जा मिलती है। राज्य की अन्य नदियां है - खारी, बांडी, मासी, मोरेल, गंभीरी, सहाद्रा, मंढा, माधवबेणी, बसई, साबी, गालवा व काली। ये सभी नाहरगढ़ से एक
नालें में बहकर ढूंढ़ नदी में जयपुर से लगभग २ मील पर जाकर
मिलती है। इसके किनारे पर अमानी शाह नामक एक मुसलमान फकीर लगभग ८० वर्ष पहले रहा करता था। इससे यह अमानी शाह का नाला कहलाता है।
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झीलें
यहाँ की प्राकृतिक झील सांभर झील है जो, खारे पानी की है। यह जोधपुर व जयपुर राज्यों की सीमा पर है तथा दोनों राज्यों की सम्मिलित सम्पत्ति है। इसका क्षेत्रफल ९० वर्ग मील है। इसमें नमक बनता है जिसका प्रबन्धन केन्द्र सरकार के द्वारा होता है।
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बांध
इस राज्य में विभिन्न नदियों एवं नालोंका पानी रोककर कई बांध बनाये गये हैं। मुख्य बांध टोरड़ी सागर, छापड़वाड़ा, सागर बांध, मारासागर, गोपालपुरा, सेंथल बंध, किरवाल सागर बंघ, ढील नदीबंध, कालिख बंध, बुचरा बंध रामगढ़ बंध व नया सागर है। जयपुर नगर में पीने का पानी रामगढ़ बंध से आता है। सभी बांधों से सिंचाई होती है। इससे राज्य सरकार को राज की प्राप्ति होती है।
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आबोहवा
यहाँ का मौसम सूखा व गर्म है जो
आरोग्यर्द्धक है। ऊंची व रेतीली भूमि होने के कारण
बीमारियां कम होती है। गरमी के मौसम में शेखावटी व उत्तरी भागों में बहुत तेजी से लू चलती है और बालू रेत उड़ती है, लेकिन रात में काफी ठण्ड होती है। औसत तापमान ८७ डिग्री फैरनहाइट है। ज्याद से ज्यादा तापमान ११२ व कम से कम ३५ डिग्री फैरनहाइट होता है।
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वर्षा
इसकी औसत वर्षा २४ इंच है। यह जून में आरम्भ होकर सितम्बर के अन्त तक रहती है। सबसे ज्यादा वर्षा सवाई माधोपुर में और सबसे कम शेखावटी क्षेत्र में होती है।
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पैदावार
रेतीले भूमि की मुख्य फसल बाजरा, मूंघ एवं मोठ है। मैदानी क्षेत्र की पैदावार कपास, ज्वार,
मक्की, बाजरा, गेहूं चना, धनिया, अफीम आदि
है। सवाई माधोपुर की ओर ईख, चावल और मूंगफली भी होती है। नदियों के किनारे व आस पास के क्षेत्रों में खरबूज,
तरबूज ककड़ी आदि होती है। ज्यादातर काश्तकार वर्षा पर निर्भर रहते हैं।
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जंगल
राज्य के ३५० वर्गमील क्षेत्र में जंगल है जो कुल खालसा क्षेत्र का ८ प्रतिशत है। जंगल के नीचे बहुत ही कम क्षेत्र है। राज्य में घास के कई बीड़ है; जिनका कुल क्षेत्रफल १६ वर्गमील है। जंगल में निम्न पेड़ बहुतायत से पाये जाते हैं। इनमें प्रमुख हैं
- बबूल, डीक, खैर, शीशम, रोहीड़ा, बांस,
पीपल, नीम, महुआ, गूलर और बड़।
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जानवर
इस राज्य के जंगलों में काला हिरण, सूअर, चीता बघेरा, सांमर और जरख काफी मात्रा में पाये जाते हैं।
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खनिज पदार्थ
यहां कई प्रकार के खनिज पदार्थ पाये जाते हैं।
राज्य की ओर से अभी तक उद्योगपतियों को बहुत कम सुविधा दी गयी है तथा राज्य ने इस ओर बहुत कम ध्यान दिया है अन्यथा यह राज्य की आमदनी का एक बड़ा साधन हो सकता है। यहाँ पाये जाने वाले खनिजों में प्रमुख निम्लिखित हैं
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लोहा - लोहे
के भण्डार टाटेरि, सिंघाना, काली
पहाड़ी एवं बागोली सराय में
है।
ताम्बा - यह खेतड़ी, सिंघाना, खो
दरीबा, उदपुरवाटी मातसूला में
मिलता है। मुगलकाल में यहां
काफी मात्रा में ताम्बा निकाला जाता
था।
बारीलियम - इसका उपयोग
अणुशक्ति प्राप्त करने में तथा हवाई
जहाज आदि बनाने में किया जाता है।
यह बचूरा तथा मालपुरा में
मिलता है।
घीया भाटा - (सोप स्टोन) इसका
उपयोग सौन्दर्य प्रसाधनों के बनाने
में, कागज कपड़ा, रबड़, चमड़ा आदि के
निर्माण में उपयोग में लाया जाता
है। यह ज्यादातर विदेशों को भेजा
जाता है। यहाँ से सालाना लगभग
१०,०००टन निकलता है। यह डगोता झरना
(दौसै से २० मील उत्तर) निवाई,
हिण्डौन, नीम का थाना में मिलता है।
अभ्रक - इसकी खानें मालपुरा,
टोडा रायसिंह एवं दूनी में है। यह
लगभग सालाना ४००० मन निकलता है।
यह बिजली की मशीनों, रेडियों
हवाई जहाज आदि में काम में आता
है।
गाया भाटा - (केला साईट) यह
मावड़ा, खेतड़ी, पान व नीम का थाना
में मिलता है।
कांच बनाने का बालू - (सिलिका
सेण्ड) यह बांसको, धूला मानोता
आदि में मिलता है। यह चूड़ियां व
कांच बनाने के काम में आता है।
चूने का पत्थर - यह मांवडा,
पाटन, भेसलाना, नायला,
परसरामपुरा में मिलता है।
इसका सिमेन्ट बनाने में काफी
प्रयोग होता है। यों मकान बनाने
में भी इसका काफी उपयोग होता
है।
काला संगमरमर
- यह भैसलाना में मिलता है।
इमारती पत्थर - यह कोटरी, जसरापुर, आमेर, रघुनाथगढ़ व टोडा रायसिंह के आस पास के खानों में मिलता है।
यातायात की सुविधा न होने, आधुनिक मशीनों की कमी तथा धन की कमी के कारण खनिज पदार्थ यहां ज्यादा नहीं निकाले जाते हैं। जो
भी निकाले जाते हैं उनमें से अधिकांश कच्चे रुप में ही बाहर भेज दिये जाते हैं। खनिज उद्योग को प्रोत्साहन देने की ओर राज्य की ओर से अब ध्यान दिया जाता है।
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उद्योग व व्यवसाय
जयपुर राज्य के ओर विशेषकर यहाँ के शेखावटी क्षेत्र के निवासी भारत के प्रमुख उद्योगपतियों में गिने जाते हैं। इनके औद्योगिक संस्थान कलकत्ता, बम्बई, अहमदाबाद, कानपुर आदि में हैं। इसमें से कुछ उद्योगपतियों ने जयपुर में कुछ उद्योग धन्धे चालू किये हैं। बड़े पैमाने पर उद्योग धन्धों में यहाँ जयपुर मेटल एण्ड इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड, नेशनल बाल बीयकिंरग फैक्ट्री, जयपुर स्पीनिंग एन्ड विविंग मिल्स, मान इन्डस्ट्रियल कारपोरेशन आदि हैं। जयपुर मेटल एण्ड इलेक्ट्रिकल्स अलोय धातु का सामान बनाने का एक बहुत बड़ा कारखाना है। यहाँ बिजली के मीटरों का भी उत्पादन होता है। नेशनल बाल बीयकिंरग फैक्ट्री भारत ही नहीं बल्कि एशिया का सबसे बड़ा कारखाना है। यहाँ बाल बीयकिंरग प्रचूर मात्रा में तैयार होते हैं। मान इन्डस्ट्रियल कारपोरेशन इस्पात के दरवाजे, खिड़कियों के फ्रेम आदि बनाता है। भारत में अपने ढंग का यह पहला कारखाना है।
इसके अलावा जोरास्टर एण्ड कम्पनी औद्योगिक आधार पर फैल्ट हैट तैयार करती है।
यहाँ के छोटे पैमाने के उद्योगों में मुख्य हैं
- जवाहारात, मीनाकारी तथा जवाहारातों की जड़ाई, खादी व ग्राम उद्योग, हाथ का बना कागज, खिलौने, हाथी दांत, सांगानेरी छपाई, बंधेज व रंगाई का काम, लाख का काम, जूते बनाई, गोटा किनारी का काम। यहां के पीतल के नक्काशी करने वालों तथा मूर्ति कारों की कला सम्पूर्ण भारत में विख्यात है।
जयपुर के सिलावट कई वर्षों से हिन्दु देवी - देवताओं की मूर्तियों को बनाने के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। यहाँ की बनी मूर्तियाँ देश के प्रत्येक भाग के मंदिरों में मिल जाएगी। दिल्ली, आगरा, फतेहपुर सीकरी के भवनों के निर्माण में भी यहाँ के संगतराशों का मुख्य हाथ
रहा है। ये संगतराश ज्यादातर माण्डू, नारनौल व डीग से यहां मिर्जा राजा मानसिंह के समय में आये हुये हैं। इन्होंने पहले आमेर में अपना निवास स्थान बनाया लेकिन सवाई जयसिंह के समय जयपुर नगर में आ बसे। ये अपने काम में पूरे उस्ताद हैं। ये ज्यादातर मकराने का संगमरमर का पत्थर, अलवर का रायला का पत्थर व खेतड़ी के मैसलाना का काला पत्थर काम में लाते हैं। सारनाथ के नये बुद्ध मंदिर में स्थापित बुद्ध प्रतिमा यहाँ से बनाकर रखी गयी है।
जयपुर जवाहारातों का प्रमुख केन्द्र है। यहाँ रत्नों की कटाई, व बनाई बड़ी कुशलता से
की जाती है।
विशेषकर पन्ने की खरड़ के नगीने, मणिया, नीलम, मणाक आदि बनाने में यह स्थान विशेष प्रसिद्ध है।
यहाँ के हाथी दांत के खिलौने कला की दृष्टि से बहुत सुन्दर बनते हैं। हाथी दांत की यहां चूड़ियाँ भी बनाई जाती है। हाथी दाँत से बनी विभिन्न वस्तुऐं
- मूर्तियाँ, खिलौने, श्रृंगारदान, फूल पत्तियाँ आदि विदेशों को भी काफी जाती है। यहाँ के चाँदी, पीतल, चन्दन, लकड़ी व कुट्टी के खिलौने भी बहुत प्रसिद्ध है। इनमें रंग भराई भी बड़ी कुशलता से की जाती है।
जयपुर के निकट ही सांगानेर में कपड़ों की रंगाई, छपाई तथा बन्धेज प्राचीन काल से प्रसिद्ध चली आ रही है। यहां की छींटे गुजरात, व मध्य प्रदेश उत्तर प्रदेश में काफी लोकप्रिय है। सांगानेरी साफे और कीमाल राजपूताना में प्रत्येक व्यक्ति लेना चाहता है। यहां के छीपे लकड़ी के ठप्पों से कपड़े पर छपाई करते हैं। रंगाई व बन्धेज का काम ज्यादातर मुसलमान करते हैं। रंगाई पुरुष तो बन्धेज स्रियाँ ही करती हैं। बन्धेज के दो प्रकार है
- चूंदड़ी और लहरिया। दोनों का ही काम यहाँ बहुत अच्छा होता है।
इस प्रकार जयपुर में कई उद्योग - धन्धे चालू हो रहे हैं लेकिन इस ओर अभी तक यहाँ के निवासी उद्योगपतियों
- नवलगढ़ के सक्सरिया, जयपुरिया, पोद्दार, मुरारका तथा परसरामपुरिया, पिलानी के बिड़ला व लोयलका, चिड़ावा के दालमिया, मुकन्दगढ़ के कानोड़िया, डूमडलोद के गोयनका, बगड़ के र्रूंगटा आदि ने यहाँ उद्योग खोलने की ओर कम ही ध्यान दिया है।
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सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक विवरण
निवासी -
ई० सन् १९४१ की जनगणना के अनुसार यहाँ हिन्दुओं की संख्या २७, ५७, ६८१; मुसलमानों की संख्या २,४, २३२ व जैनों की संख्या ३१,८४२ थी। हिन्दुओं में कुल २०२ जातियाँ थीं जिनमें से २० अछूत जातियाँ बतलाई गईं। सबसे ज्यादा संख्या ब्राह्मणों की, उनसे
कम क्रम से जाट, मीणा, चमार, महाजन, गू व राजपूत बतलाये गए। ब्राह्मणों के समान ही जाट व चारण हैं जो लोगों के पूर्वजों की वंशावलियाँ रखकर व उनके गुणगान कर अपनी जीविका चलाते हैं।
जाट व गू - येदोनों जातियाँ अपना गुजारा खेती करके करती हैं। दोनों ही जातियाँ वीर व लड़ाकू जातियाँ रहीं हैं।
मीणा - मीणा एक वीर और मेहनती जाति है। उनका सामाजिक जीवन आदिवासियों की तरह रहा है परन्तु अब वे खेती करने लगे हैं, उनके
रीति-रिवाज तथा खानपान का ढ़ंग हिन्दुओं की तरह हो गया है। उनके सामाजिक विभाजन में दो जातियाँ हैं
- उजले और मैले। दोनों में विभिन्नता इस बात पर है कि उजले गाय, बैल आदि का माँस नहीं खाते हैं, लेकिन मैले इनका प्रयोग करते हैं। जयपुर व अलवर राज्य से अपने को जोड़ने वाले ये मीणा लोग अन्य राज्यों
- मेवाड़, कोटा, बून्दी आदि में बसने वाले मीणा लोगों अन्य मीणा से अपने आप को बढ़कर मानते हैं। ये इनसे न ही ब्याह - सम्बन्ध रखते हैं और न ही उनके साथ खाते पीते हैं। काश्तकार मीणा भी अपने को चौकीदार मीणों से बढ़कर मानते हैं और उनसे लड़की ब्याह के लिए लेते हैं, लेकिन देते नहीं है। राजपूतों को इन मीणों के हाथ के खाने पीने में कोई एतराज नहीं है। जयपुर राज्य के राजाओं का जब भी राजतिलक होता है तब एक मीणा के हाथ से ही तिलक किया जाता है। यों मीणा जाति को इस राज्य में मुजरिम पेशा जाति माना जाता है। इस कारण पुलिस द्वारा इन पर नाना प्रकार के अत्याचार किये जाते हैं। इनकी दशा को सुधारा जाना अत्यावश्यक है।
चमार - इस जाति को अब तक एक अछूत जाति माना जाता था। इनकी दशा बड़ी शोचनीय थी। राज्य की ओर से इनकी दशा सुधारने की ओर कम ही ध्यान दिया जाता था। गांवों में इनसे बैठ बेगार लिए जाने का काम आम रिवाज़ था। अब इनके सुधार की ओर ध्यान दिया जाने लगा है।
महाजन - यह एक व्यापारिक जाति है। भारत प्रसिद्ध उद्योगपति
- बिड़ला, डालमिया, गोयनका, सकसरिया आदि इसी जाति के हैं। इन लोगों ने जयपुर के बाहर कई बड़े उद्योग चालू कर रखे हैं लेकिन इस राज्य में उद्योग स्थापित करने की ओर कम ही ध्यान दिया है। अपनी जन्म भूमि की ओर ध्यान न देना एक विचारणीय बात है। यहाँ रहने वाले महाजन व्यापार धन्धे में लगे हुए हैं। गाँवों में परचूनी सामान, लेन - देन आदि में इनका मुख्य हाथ रहा है। ये लोग ज्यादातर पढ़े लिखे होते हैं। सरकारी नौकरियों में भी इनकी काफी संख्या है। महाजनों में ज्यादातर जैन धर्म को मानने वालों की संख्या है।
राजपूत - इस जाति की विभिन्न शाखाओं के लोग यहाँ मिलते हैं, लेकिन कछवाहौ की बहुतायत है। इनमें शेखावत राजपूत अपनी वीरता के लिए प्रसिद्ध है। कहा भी गया है
-
आम ज उमदा नीपजे गेंहू अर गुड़ ताड़।
नर नाहर तो नीपजे सेखा घर ढ़ूंढ़ाड़।।
राजपूतों के अधिकार की काफी भूमि जागीर में मिली हुई है। ज्यादातर भूमि जागीरदार ही भोगते हैं।
शेखावटी क्षेत्र में जागीर की भूमि उत्तराधिकारियों में बराबर बंटती रहती है। अत: प्रत्येक परिवार के पास नाममात्र की ही भूमि जागीर में रह गयी है। शेखावटी क्षेत्र के राजपूतों का मुख्य पेशा सेना में सेवा करना ही हो गया है।
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अन्य
विशिष्ट जातियाँ
जयपुर राज्य के उत्तरी भाग में कैमखानी व खानजादे काफी संख्या में मिलते हैं।
कैमखानी अब मुसलमान जाति हैं, लेकिन ये चौहानों राजपूतों के वंशज है। खानजादा सोलहवीं शताब्दी में मेवाड़ क्षेत्र के शासकों के वंशज है। बाबर के विरुद्ध ये लोग महाराणा सांगा की ओर से लड़े थे।
कैमखानी व खानजादा हिन्दू त्यौहारों को मानते हैं। राजपूतों की तरह इनकी स्रियाँ भी पर्दे में रहती हैं और उन्हें खेती व खेतों में काम नहीं करने देते हैं। पुरुष ज्यादातर सेना में सेवा करते हैं।
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धर्म
जयपुर में स्थित सैकड़ों मंदिरों को देखकर कोई तत्काल ही सोच सकता है कि वह बनारस, वृन्दावन जैसे धार्मिक स्थान पर आ गया है। वास्तव में यह हिन्दुओं का एक धार्मिक केन्द्र है। जयपुर राजाओं की सहिष्णुता के कारण यहाँ के मुसलमानों व इसाईयों के भी कई पूजन स्थल
- मस्जिदें व गिरजाघर दिखाई देते हैं।
हिन्दुओं में ज्यादातर वैष्णव हैं। उनके बाद क्रमश: शैव, शाक्त, जेन, दादूपंथी, आर्यसमाजी आदि आते हैं।
वैष्णव विष्णु तथा उसकी धर्मपत्नी लक्ष्मी की पूजा करते हैं। विष्णु के अवतार राम व कृष्ण की तथा उनकी धर्मपत्नियों
- सीता व राधा की भी पूजा की जाती है। जयपुर के महाराजा व कछवाहा राजपूत अपने को राम का वंषज मानते हैं तथा राम, सीता व राम के भाई लक्ष्मण एवं उनके सेवक हनुमान की पूजा ज्यादा ही की जाती है। वैष्णवियों के चार मुख्य सम्प्रदाय हैं
- रामानुज, निम्बार्क, माधव, गोकुलिया। रामानुज राम के उपासक हैं लेकिन शेष तीनों कृष्ण के
उपासक हैं।
शैव, शिव के उपासक हैं। ये लोग 'लिंग' के रुप में पूजा करते हैं। 'लिंग' स्थायी रुप से एक ही स्थान पर रहता है। इसे एक स्थान पर स्थापित करने के बाद हटाया नहीं जाता है। लिंग के चारों ओर पार्वती (महादेव की धर्मपत्नी), गणेश (स्मृद्धि का देवता व महादेव का पुत्र) कार्तिक (युद्ध का देवता व महादेव का दूसरा पुत्र), नन्दी (महादेव की सवारी),
सिंह (पार्वती की सवारी) की मूर्तियां रहती हैं।
शाक्त लोग शक्ति जो पार्वती का ही एक नाम है, की पूजा करता हैं। इसको काली या महाकाली भी कहते हैं। आमेर के किले में इसकी पूजा शीलामाता के नाम से की जाती है। यह सिंह पर सवार होती है तथा इसके ८ भुजायें होती हैं। प्रत्येक हिन्दू परिवार की एक कुल देवी होती है जिसकी वे पूजा करते हैं
- साल में कम से कम दो बार। कछवाहों की कुलदेवी जमवाय माता है जिसका पूजा स्थल जमवा रामगढ़ में है।
शैवों व शाक्तों की एक प्रशाखा बाममार्ग कहलाती है जो मुक्ति के लिए तंत्र, मंत्र, सुरा, मांस, मछली व स्री का होना आवश्यक समझते हैं।
गणपति की पूजा लगभग सभी हिन्दू करते हैं। कारण -इन्हें सफलता व समृद्धि का देवता माना जाता है। इसकी मूर्ती प्रत्येक घर में दरवाजे पर रहती है। गणेश की मूर्ति अपनी हाथी की सूंड व चार हाथों के कारण आसानी से पहचाने जाते हैं। इनकी वाहन चूहा होता है तथा इसकी दो सेविकायें
- ॠद्धि व सिद्धि होती हैं। जयपुर में मोती डेगरी पर गणेश का बड़ा मंदिर है।
जयपुर में दादू पंथी भी काफी हैं। दादू एक प्रसिद्ध सुधारक था जो मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करता था। वह जात पात में भी विश्वास नहीं करता था। उसने ५०० पदों की "वाणी' रचना की जो हिन्दी का एक
सिद्ध काव्य है। इसे दादू पंथी अपना धार्मिक ग्रन्थ मानते हैं। दादू पंथियों की जयपुर राज्य में सेना है। दादू के ५२ शिष्य थे जिन्होंने अलग - अलग थम्भे स्थापित किये। नागा लोग दादू के वरिष्ठ शिष्य सुन्दरदास के अनुचर हैम, जिनका
गुरुद्वारा घाटडा (अलवर राज्य) में है। दादू का सबसे छोटा शिष्य सुन्दरदास हिन्दी का एक प्रसिद्ध कवि हो गया है। इसने 'सुन्दर वाणी 'की रचना की थी।
इसके ग्रन्थ 'सुन्दर विलास' 'ज्ञान समुद्र' "सुन्दर काव्य" आदि प्रसिद्ध है। इसका जन्म धूसर जाति में दौसा में हुआ था तथा मृत्यु सांगानेर में हुई थी।
जयपुर में ज्यादातर ओसवाल व सरावगी जैन धर्मावलम्बी हैं। जैनों में दो शाखायें दिगम्बरी तथा श्वेताम्बरी हैं। ये २४ तीथर्ंकरों (अहर्तों) में विश्वास करते हैं। ये अहिंसा में ज्यादा विश्वास करते हैं । यों इनके रीति रिवाज ज्यादातर हिन्दुओं जैसे ही हैं।
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भाषा
इस राज्य की मुख्य भाषा राजस्थानी है। यों हिन्दी , अंग्रेजी व पंजाबी भाषा - भाषी भी काफी हैं। राजस्थानी
भाषा की दो शाखाओं का यहाँ ज्यादा प्रचलन है
- शेखावटी क्षेत्र में मारवाड़ी का व
शेष क्षेत्र में ढ़ूंढ़ाडी का। यों दोनों क्षेत्रों के निवासियों को एक दूसरे की भाषा समझने में कोई कठिनाई नहीं होती है। यही बात हिन्दी भाषा वालों के लिए भी है।
यहाँ की राजभाषा सन् १९४३ ई० से हिन्दी तथा उर्दू दोनों घोषित की गई है। इसके पहले यहाँ उर्दू का ही बोलबाला था।
जयपुर के नरेशों ने हिन्दी व संस्कृत साहित्य की वृद्धि में अपना अपूर्व योगदान दिया। उन्होंने साहित्य व विद्या प्रेमियों दोनो को ही उचित रुप से सम्मानित किया। इनके आश्रय में न केवल संस्कृत बल्कि हिन्दी, राजस्थानी तथा
अन्य कई भाषाओं के प्रकाण्ड विद्वान रहें हैं। जयपुर राज्य के नरेशों के कार्यकाल में कई महात्माओं
- अग्रदास, नाभदास, दादूदयाल, रज्जव, गरीबदास आदि ने भक्ति प्रधान साहित्य की रचना की।
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कला
जयपुर के राजा कला प्रेमी थे। युद्धों में लगे रहने के बावजूद बीच बीच में जब भी इन्हें मौका मिलता, कला व साहित्य की ओर ये ध्यान देते थे। अत: यहाँ शौर्य और कला का अपूर्व मिश्रण हुआ है। यहाँ के राजाओं ने कलाकारों को अपने दरबार में आश्रय दिया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यहाँ के नरेशों का मुगलों से अत्यधिक सम्पर्क रहने से यहाँ की कला पर भी काफी प्रभाव रहा लेकिन उसमें भी काफी लोकिकता है।
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चित्रकला
जयपुर की चित्रकला राजस्थान की चित्रकला में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। यहाँ के भवनों, मंदिरों, राजमहलों, व साधारण मकानों पर पाये जाने वाले भित्तिचित्रों की अपनी अलग शैली है जो जयपुर शैली के नाम से प्रसिद्ध है। भित्तिचित्र के अलावा कागजों व कपड़ों पर भी चित्र बनाये जाते रहे हैं। यहां के कलाकार रेखाओं के आरेखन में सबसे बढ़कर हैं।
इन चित्रों में हरे रंग का ज्यादा प्रयोग होता है। चित्रों के हाशियों में चांदी के रंग की पतली किनार और काले व लाल रंग का प्रयोग होता है। चित्रों में पीपल, बड़, घोड़ा और मोर काअधिक चित्रण किया हुआ है। नर नारी के चित्रण में चेहरा गोल व नेत्र मीनाकृति के होते हैं। अधिकाँश चित्र रागमाला, बारहमासा, कृष्ण चरित्र व नायिक भेद के होते हैं। ये चित्र, रंग को पिसकर और उनको कभी दूध और कभी गोंद में घोलकर बनाये जाते है। यहाँ के चित्रों के रंग चमकदार, घने, और देर तक टिकने वाले होते हैं।
यहाँ के प्रसिद्ध चित्रकार साहिबराम, लालचन्द, लछ्मणदास, हुकमचन्द, सालगराम, मन्नालाल,
रामचन्द, मुरली मनोहर, गंगा बख्स थे। जिन राजाओं ने चित्रकारों
को प्रोत्साहन दिया उनमें सवाई जयसिंह, ईश्वरी सिंह, प्रतापसिंह, रामसिंह व चोमू के रावल शिवसिंह उल्लेखनीय हैं। महाराजा रामसिंह व रावल शिवसिंह के समय के चित्रों में अंग्रेजी प्रभाव है। सवाई जयसिंह के पहले के बने चित्रों में मुगल शैली का प्रभाव है। जयपुर व अलवर के रास्ते में बैराठ के बाग के भवन, पोथीखाना में संग्रहित "रज्बनामा" स्पष्टत: मुगल शैली का है।
अठारहवीं शताब्दी में उणियारा ठिकाने ने भी कई चित्रकारों को प्रोत्साहित किया। इन चित्रों पर जयपुर व बून्दी शैली काप्रभाव है। जयपुर शैली का अलवर राज्य के चित्रों पर काफी प्रभाव पड़ा। यों अलवर पहले जयपुर राज्य का ही एक भाग था।
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संगीत कला
मिर्जा राजा जयसिंह के दरबार में कई कवि, कलाकार व संगीतज्ञ थे। बिहारीलाल ने अपनी सतसई की यहाँ रचना की थी। संगीत ग्रन्थ 'हस्ताकर रत्नावली'
'की रचना भी इसी समय में यहां हुई थी। इससे यहां संगीत विद्या के शास्रीय अध्ययन को बड़ी सहायता मिली। माधोसिंह प्रथम के दरबार में ब्रजलाल नामक एक सिद्धहस्त वीणावादक रहता था। इसे जागीर भी इनाम में दे दी गयी। सवाई प्रतापसिंह स्वयं एक कवि था और संगीताचार्य भी। उसके दरबार के संगीतज्ञ उस्ताद चांदखां ने 'स्वर सागर ग्रंथ' की रचना की थी। प्रतापसिंह ने उसे 'बुद्ध प्रकाश' की उपाधि दी थी। एक और संगीतज्ञ भ द्वारकानाथ को प्रतापसिंह ने' बानी', पृथ्वीसिंह ने 'भारती' और माधोसिंह प्रथम ने 'सुरसति'
की उपाधियां दी थी। इसने "राग चन्द्रिका" तैयार किया था। द्वारकानाथ के पुत्र देवर्षि भ ने 'राधागोविन्द संगीत सार 'ग्रन्थ की रचना की थी। इसे प्रतापसिंह ने बदखास की जागीर दी थी जो उसके वंशज अभी तक भोगते हैं। एक और संगीतज्ञ राधकृष्ण ने 'रागरत्नाकर 'की रचना का थी। प्रतापसिंह के दरबार में २२ कवियों, २२ ज्योतिषियों और २२ संगीतज्ञ भी थे। इनमें से अलीभगवान और श्रद्धारंग प्रसिद्ध स्वरकार थे।
सवाई मानसिंह के संरक्षण में 'संगीत रत्नाकर 'तथा 'संगीत कल्पद्रुम' नामक दो प्रामाणिक संगीत ग्रन्थों की रचनी की, हीरचन्द व्यास ने। एक दूसरे संगीतज्ञ मधुसूदन सरस्वती ने विभिन्न राग रागनियों का सचित्र ग्रन्थ राग - रागिनी संग्रह तैयार किया था। महाराजा रामसिंह ने जयपुर में रामप्रकाश नाट्यशाला भी बनवायी थी।
महाराजा ने अपने समय के प्रसिद्ध संगीतज्ञ बंशीधर भ तता हरिवल्लभाचार्य को जागीरें प्रदान की थी।
संगीतज्ञों में उस्ताद करामतखां ध्रुपद का अद्वितीय गायक है।
उणियारा ठिकाने में राधाकृष्ण द्वारा लिखित
'रागरत्नाकर' है।
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नृत्य कला
संगीत की
भांति कला भी जयपुर में खूब फली फूली।
नृत्य की कत्थक शैली के लिए जयपुर प्रसिद्ध है। यह शैली मुख्यत: भावात्मक है तथा इसकी
भाव भंगिमा और मुद्रायें देखने योग्य होती है।
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मेले एवं त्यौहार
जयपुर अपने मेले व त्यौहारों के लिए प्रसिद्ध है। घुड़ला, शीतलाष्टमी,
गणगौर, नृसिंह चतुर्दशी, श्रावणी तीज आदि के मेले मुख्य हैं। चाकसू में शीतलाष्टमी मेले पर हजारों व्यक्ति एकत्रित होते हैं। इस मेले में ज्यादातर जाट,
गू और मीणा लोग भाग लेते हैं। चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को हिन्डौन के पास
महावीरजी में मेला भरता है। इसमें भी लगभग १ लाख व्यक्ति इकक्ठे होते हैं। यह मेला तीन दिन तक चलता है। आमेर में आश्विन शुक्ला छटी को मेला भरता है। गणगौर व श्रावणी तीज जयपुर में बहुत धूमधाम से मनायी जाती है।
मुसलमानों में संत अमानीशाह का मेला अजमेरी दरवाजा के बाहर भरता है।
जयपुर में हिन्दुओं के मुरव्य त्यौहार बसन्त पंचमी, भानु सप्तमी, महाशिवरात्री, होली, शीतलाष्टमी, गणगौर, रामनवी, अक्षय तृतया, गंगा सप्तमी, बट सावित्री, अषाढ़ी दशहरा, गुरु पुर्णिमा,
नाग पंचमी, रक्षा बंधन, बड़ी तीज, जन्माष्टमी, गोगानवमी, जल झूलनी अमावश्या, दशहरा, क्षाद्ध पूनम दिवाली व मकर संक्रान्ती है। मुसलमानों में शब्बरात, ईद, मुहर्रम व बड़ाबफात जैसे मुख्य त्यौहार होते हैं।
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शासन प्रबन्ध
राज्य चिन्ह
- जयपुर का झण्डा पंचरंगा - नीला, पीला, लाल हरा और काला है। यह संख्या यह झण्डामिर्जा राजा मानसिंह ने काबुल में सन् १५७३ में पठानों के पांच सरदारों को हराकर
उनके झण्डों के रंगों के अनुसार अपना रंग बनाया। इससे पहले यहाँ का झण्डा सफेद था तथा उसके बीच कचनार का वृक्ष था। इस झण्डे के बीच सूर्य की आकृति है। यहाँ के राज्य चिन्ह में सबसे ऊपर राधागोविन्द का चित्र है। बीच में बैल, सूर्य कारथ, हाथी व दुर्ग के चित्र हैं। इनके नीचे एक जंजीर है। चित्रों के एक ओर सिंह व एक ओर घोड़ा है। नीचे के एक ओर राज्य का
मूलमंत्र 'यतोधम्र्य स्ततो जय:' लिखा है, जिसका अर्थ है धर्मऔर सत्य की सदा जय होती है।
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जयपुर के ऐतिहासिक स्थान
जयपुर राज्य अपने ऐतिहासिक व
रमणीक स्थलों के लिए सर्वत्र प्रसिद्ध है।
यहां के कई स्थल इतिहासकारों के लिए काफी महत्वपूर्ण है। ऐसे ही कुछ
स्थानों का विवरण नीचे दिया जा रहा है।
जयपुर - यह नगर भारत के अतिप्रसिद्ध दर्शनीय स्थलों में से हैं। यह राजस्थान की राजधानी है। इस नगर की
आधारशिला नरेश सवाई जयसिंह ने ई० सन् १७२७ को २५ नवम्बर को रखी थी। इसी कारण से यह नगर जयपुर या जयनगर कहलाता है। यों नगरों के ज्यादातर मकानो के बाहर से गेरुआं रंग से रंगे होने का कारण यह शहर गुलाबी शहर भी कहलाता है। अपनी लम्बी चौड़ी सड़कों के कारण यह भारत का पेरिस भी कहलाता है। अपने नगर निर्माण की विशिष्ट शैली के लिये यह इस देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी विख्यात है। सोमरसेट प्लेन ने लिखा है कि नगर कला के इतिहास में जयपुर का स्थान प्रथम आता है।
जयपुर मैदान में बसा हुआ नगर है। इसके तीन ओर, सिवाय दक्षिण के पहाड़ियां हैं। उत्तर पश्चिमी की पहाड़ी पर नाहरगढ़ का किला है। यह दिल्ली से २१० मील दक्षिण पश्चिम तथा बम्बई से ७२० उत्तर पश्चिम में स्थित है। नगर लगभग २० वर्गमील के क्षेत्र में फैला हुआ है। पुराना नगर चारदीवारी से घिरा हुआ है। ये दीवारें २० फुट उंची और ९ फुट मोटी हैं। पुराने नगर के चारों ओर आठ दरवाजे हैं। मुख्य दरवाजे - दक्षिण में अजमेरी और सांगानेरी, पश्चिम में चान्दपोल, तथा उत्तर पूर्व में घाट दरवाजा है। नगर की कुल आबादी ई० सन् १९६१की जनसंख्या के अनुसार
४,०२,७६० है। ई० सन् १९४१ में यहाँ की आबादी केवल १,७५,८१० थी। इतनी आबादी की वृद्धि राजस्थान राज्य के राजधानी होने के बाद ही बढ़ी है।
इस नगर की सुनियमित और सुनियोजित ढ़ंग से बसाने में सवाई जयसिंह का प्रमुख सलाहकार विद्याद्यर भट्टाचार्य थे। सवाई
जयसिंह ने नगर निर्माण में रुचि रखने के कारण अपने समय के कई पाश्चात्य नगरों के नक्शे मंगवाये और उनका अध्ययन किया। फिर इस नगर को बनाने व बसाने की योजना बड़ी बखूबी ढ़ंग से की।आज भी नगर निर्माण कला में इस शहर को एक आदर्श के रुप में जाना जाता है। प्रसिद्ध कला मर्मज्ञ हैवेल ने इसके लिए लिखा है
- 'यह भारतीय नगर उन नगरों में से है जो अनियमित रुप से शनै: - शनै: नहीं बसा है। इसकी नींव ही
हिन्दू नगरनिर्माताओम की परम्पराओं और उनके शिल्प शास्रों के निर्देशों के अनुसार एक ही वैज्ञानिक योजना के आधार पर रखी गयी है।
जयपुर नगर की सड़कें अपनी चैड़ाई व लम्बाई के लिए सर्वत्र प्रसिद्ध है।
मुख्य बाजार की सड़कें ११ फुट चौड़ी हैं और
एक ओर इससे निकले हुए हैं ६ छोटे बाजार। ५५फिट चौड़े हैं। इन बाजारों से निकली गलियाँ पूर्व से पश्चिम का प्रधान मार्ग लगभग २ मील लम्बा है। नगर के कुल
क्षेत्रफल का लगभग सांतवा भाग यहाँ के राजमहल घेरे हुए है। इसमें प्रवेश करने को सात दरवाजे हैं। मुख्य द्वार सिरं ड्योढी द्वारा पूर्व में व त्रिपोलियो द्वार दक्षिण की ओर है। गजपोल होकर राजमहलों के
दीवाने आम में जाया जा सकता है। यहाँ पहले राजदरबार लगता था। इस भवन की जयपुर की सोने की कलम का काम रंगीन चित्रकारी बहुत आकर्षक है। यह तीन ओर से खुला है लेकिन चौथी ओर दो खण्डी गिलेरी है, जिसमें जालियां लगी है। इसके खम्बे संगमरमर के हैं। दीवाने आम से एक ओर एक छोटे से द्वार में होकर दीवानं खास में पहुंचा जाता है। यह एक बड़ा खुला चौकोर कमरा है। इसमें भी सोने की कलम का काम है। इसके खम्बे भी संगमरमर के हैं। दीवाने खास के पार्श्व में राजपूत शैली पर बना सात मंजिला चन्द्रमहल है, इसमें बहुत ही सुन्दर भित्तिचित्र, बेल बूंटों के नमूने व शीशे का काम है। इसके भिन्न भिन्न भागों के नाम हैं
- प्रियतम निवास, शोभा निवास, सुख निवास, छवि निवास, शीश महल तथा मुकुट महल। इस महल को ऐसे ढ़ंग से बनाया गया है कि जब तक हम इसके निकट नहीं पहुंचते तब तक इसकी विशालता का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इस महल के सामने का होज बड़ी सुन्दरता से सजाया गया है।
चन्द्रमहल के सामने राजकीय गोविन्दजी का मंदिर है जो बड़ी ही सुन्दरता से अलंकृत है। यह मंदिर ई० सन् १७३४ में बना था। गोविन्दजी की मूर्ति वृन्दावन से लायी गई थी।
त्रिपोलिया दरवाजे में घुसते ही सामने की ओर जयपुरी संगमरमर के काम से अलंकृत मुबारक महल की शानदार इमारत है। यह महल हिन्दू स्थापत्य कला पर महाराजा माधवसिंह जी द्वितीय ने विशिष्ट महमानों को ठहराने के लिए बनवाया था। कलात्मक रुप से अलंकृत जालियां, तोरण द्वार आदि से इसका बहुत अच्छा परिचय मिलता है।
मुबारक महल के निकट ही पोथीखाना है जिसमें कई प्राचीन अप्राप्य हस्तलिखित संस्कृत तथा फारसी के ग्रन्थ हैं। इन ग्रम्थों में मुख्य
अबुलफजल द्वारा फारसी में महाभारत का सचित्र अनुवाद 'रज्मनामा',
गीता तथा लिंगपुराण की बहुत ही बारीक अक्षरों में लिखी हुई प्रतियां आदि हैं। चित्रों में जयपुर के महाराजाओं के आदम कद
चित्र रासमण्डल तथा गोवर्धनधारण आदि के चित्र, भारतीय चित्रकला के सुन्दरतम नमूने हैं। बादशाह जहांगीर व शाहजहां के समय के कुछ बढिया कालीन भी यहाँ संग्रहित हैं। इसके निकट ही सिलहखाना (शस्रागार) है जिसमें प्राचीन काल के कई प्रकार के अस्र - शस्रों का संग्रह है। मुबारक महल के बाहर की ओर चन्द्रमहल से पूर्व की ओर सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित ज्योतिष संग्रहालय है जो जन्तर मन्तर के नाम से साधारण जनता में प्रसिद्ध है। जयसिंह ने अपने राज्यकाल में देश में ५ वेधशालायें
- दिल्ली, मथुरा, बनारस, उज्जैन तथा जयपुर में बनवायी थी। यहां की यह वेधशाला सबसे बड़ी वअपने आप में सम्पूर्ण है। इसे ई० सन् १७३४ के लगभग बनवाया गया था। इसमें १२ प्रमुख यंत्र हैं जिनकी सहायता से प्रतिदिन ज्योतिर्मण्डल की गतिविधियां देखी जा सकती है।
यहाँ के 'सम्राट यन्त्र' से एक सैकण्ड के दसवें हिस्से तक का ठीक समय जाना जा सकता है। इन यन्त्रों की सहायता से प्रतिवर्ष एक प्रमाणिक जयपुर पंचांग तैयार किया जाता है।
सिर ड्योढी की ओर हवामहल नामक नौ मंजिला गुलाबी महल है। बाहर से
देखने पर यह पांच मंजिला ही जान पड़ता है। यह छोटी ६५ खिड़कियों व १०० छज्जों का
कलापूर्ण महल महाराजा प्रतापसिंह द्वारा सन्
१७९२ में बनवाया गया था। यह तत्कालीन स्थापत्य कला की दृष्टि से बहुत ही रोचक तथा अपूर्व इमारत है जो अपने प्रकार की एक ही इमारत है तथा जो दर्शकों को विस्मय मुग्ध कर देती है।
हवा महल से लगभग १५० गज की दूरी पर टाउन हाल है। यहां राजस्थान विधानसभा की बैठक होती है तथा यहीं विधानसभा का सचिवालय है।
नगर के बाहर त्रिपोलिया के सामने की ओर की सड़क (मानसिंह राजपथ) पर रामनिवास नामक विशाल बाग है जिसमें चिड़ियाघर तथा अजायबघर
है। इस बाग की नींव १४ जनवरी १८५६ के दिन रखी गई तथा इसका नंगला २६
दिसम्बर १८७१ को हुआ। चिड़ियाघर में कई प्रकार के जंगली पशु पक्षी हैं जिनके रहने के लिए आवास गृह बनाये गये है। बाग पूण्र्तया हरा भरा है व नाना प्रकार के पुष्पों व वृक्षों से सुसज्जित है । इसको देखकर कोई दर्शक नहीं कह सकता कि वह राजस्थान के मरुस्थल में आया हुआ है। गर्मी के मौसम में यहां हजारों व्यक्ति शीतल विश्रांति का आन्नद उठाने आते हैं। बाग के मध्य में अजायबघर की भारतीय व फारसी शेली में बनी भव्य इमारत है। इसके भवन का नाम अलबर्ट हॉल है। इसकी नींव ई० सन् १८७६ में प्रिंस अलबर्ट (बाद में एडवर्ड सप्तम के नाम से प्रसिद्द बादशाह) ने रखी थी। यहां पर प्रदर्शित
वस्तुओं को देखकर दर्शक राजस्थान की एक झांकी पा सकते हैं। यों यह राजस्थान का केन्द्रिय संग्रहालय है।
अजायबघर में कई भित्ति चित्र हैं, जो भारत तथा विदेशों -
मिश्र, चीन जापान, इंग्लैण्ड आदि की उत्कृष्ड कला
के सुन्दर नमूने, प्रतिकृतियों के रुप में प्रस्तुत करते हैं। अबुल फजल द्वारा फारसी में महाभारत के अनुवादित ग्रन्थ के चित्रों की नकलें भी यहां की दीवारों पर देखी जा सकती है।
इस भवन के बरामदों में आमेर, नलिया,
सांभर, पेशावर, वाराणासी आदि स्थानों से मिली प्राचीन मूर्तियां प्रदर्शित की गई है। इन में सबसे प्राचीन मूर्ति बनारस से प्राप्त एक पक्षी है। कला की दृष्टि से आमेर की रासलीली सम्बन्धी मूर्तियां, सांभर से मिली विष्णु और नटराज की प्रतिमायें बड़ी ही सुन्दर एवं महत्वपूर्ण हैं।
यहां लगभग २३०० वर्ष पुराना एक सुरक्षित शव भी है जो
मिस्र देश का है। कई देशों
- फारस, चीन, मिस्र आदि की कारिगरी के नमूने भी यहाँ प्रदर्शित हैं। राजस्थान के प्रसिद्ध कलाकारों द्वारा बनायी गयी मूर्तियां -कलाकृतियां भी यहाँ संग्रहित है। राजस्थानी चित्रकला की विभिन्न शैलियों के चित्र भी यहाँ देखने को मिलते हैं। बच्चों के कक्ष में राजस्थानी संस्कृति की झांकी के साथ - साथ विभिन्न प्रांतों, देशों के गुड्डे, गुड्डियों खिलौने भी यहां देखने
को मिलते हैं।
ं] यहाँ के विशेष आकर्षणों में एक फारस का ३००
साल पुराना गलीचा, जयपुर व प्रतापगढ़ का मीनाकारी का काम, जयपुर के पीतल का काम,
थाल व ढानें, बीकानेर के की खाल का काम, जयपुर तथा बीकानेर के
मिट्टी तथा चीनी ते बर्तन, उदयपुर व ऊरतपुर का हाथी दांत का कुटा का काम, काशमीर का काम, पीतल के लैम्पों पर पुरानी ईरानी काम, आदि विशेष उल्लेखनीय है।
गेटोर - जयपुर नगर से उत्तर पूर्व में आमेर जाने वाली सड़क पर गेटोर नामक स्थान है जहाँ जयपुर के स्वर्गीय राजाओं को जयसिंह द्वितीय से माधोसिंह द्वितीय तक की छतरियां हैं। केवल ईश्वरीसिंह की यहाँ छतरी नहीं है क्योंकी उनका दाहकर्म राजमहल के बाग में हुआ था। अत: उनकी छतरी वहीं है। यह संगमरमर की बनी हुई है। इनकी पच्चीकार देखने योग्य है। इन पर विभिन्न देवी देवताओं विशेषकर कृष्ण जीवन की लीलायें खुदी हुई हैं। सबसे सुन्दर छतरी सवाई जयसिंह की है।
ईश्वर लाट
- त्रिपोलिया से चांदपोल की ओर जाने वाली सड़क पर, त्रिपोलिया से लगभग २०० गज की दूरी पर ईश्वरलाट नामक सात मंजिली अठकोणी इमारत है। इसे सर्गाशुली भी कहते हैं। कुछ लोग इसे जयस्तम्भ भी कहते हैं। जयस्तम्भ बताने वालों का कहना है कि महाराजा ईश्वरीसिंह ने इसे अपने सौतेले भाई माधोसिंह पर विजय प्राप्त करने पर
यादःगार स्वरुप बनवाया था। कुछ का यह भी कहना है कि ईश्वरीसिंह ने अपने मंत्री हरगोविन्द नारायणी की पुत्री को अपनी प्रेमिका बना रखा था। उसको प्रतिदिन देखने के लिए इस लाट को बनाया गया था।
गलता - नगर से पूर्व की ओर सूरज पोल का बाहर पहाड़ी पर गलता का पवित्र
कुण्ड है। जनश्रुति के अनुसार यहां गालव ॠषि ने तपस्या की थी। यहाँ कई सुन्दर मंदिर व कुण्ड हैं। यहाँ का सूर्य मंदिर भी दर्शनीय है। इस मंदिर को राव कृपाराम जैन ने सवाई जयसिंह के राज्यकाल में बनवाया था। गलता रामानन्दी वैष्णवों का मुख्य तीर्थ स्थल है। प्रसिद्ध भक्त पृथ्वीराज की रानी बालाबाई के गुरु कृष्णदास पय हारी की भी यहीं धूनी है।
नाहरगढ़ - जयपुर नगर के उत्तर पश्चिम की ओर पहाड़ी पर नाहरगढ़ का किला है। यह किली जयसिंह द्वितीय ने ई० सन् १७३४ में लगभग ३ लाख रुपये खर्च करके बनवाया था। माधोसिंह द्वितीय ने यहाँ अपनी पासवानों के नाम पर ७ महल बनवाये। यहाँ जगतसिंह की पासवान रसकपूर भी कुछ समय के लिए इस गढ़ में कैद रही थी। इस गढ़ के महलों के प्रवेश द्वार, चतुष्कोणी चौक, घुमावदार गुम्बज व झुके हुए छज्जे, जयपुर के स्थापत्य कला के सुन्दर नमुने हैं।
गढ़ के प्रवेश द्वार के निकट ही नाहरसिंह भोमिया की छत्री है। इस भोमिया की प्रसिद्धी के कारण यह गढ़ नाहरगड़ कहलाता है। यों इस गढ़ का वास्तविक नाम सुदर्शन है,
गढ़ में सुदर्शन कृष्ण का मंदिर भी है। नाहरसिंह भोमिया के प्रेत होने तथा इस गढ़ को बनने नहीं देने आदि की कई किवदंतियां प्रचलित है जो मानने योग्य नहीं है। यह गढ़ ई० सन् १९५७ तक सामान्य जनता के लिए खुला हुआ नहीं था अब यहाँ दर्शक जा सकते हैं।
रामबाग महल - यह महल महाराजा रामसिंह ने नगर के बाहर राज्य परिवार के रहने के लिए बनवाया था। अब यह महल एक पर्यटक होटल के रुप में परिवर्तित कर दिया गया है।
पुराना घाट - जयपुर से आगरा जाने वाली सड़क पर जयपुर नगर से निकलते ही पुराना घाट है जहां का प्राकृतिक सौन्दर्य देखने योग्य है। यहाँ कई मंदिर, सिसोदियाजी का मंदिर व महल, भवानीराम बोहरा का मंदिर, झूथाराम संघी का मंदिर, जेन मंदिर (नसीयां)
- व बाग, रामनिवास बाग आदि हैं। ये मंदिर व बाग अठारहवीं शताब्दी के हैं। सिसोदियाजी महारानी का महल सवाई मानसिंह द्वितीय की रानी ने ई० सन् १७७२ में बनवाया था। इसमें मुगल शैली की ज्यादा झलक है। सिसोदिया रानी का मंदिर विष्णु
(रुप चतुर्भुजजी) का है। इसे ई० सन् १७७४ में सवाई माधोसिंह की रानी चुण्डावती ने बनवाया था। भवानीराय बोहरा
का मंदिर हिन्दू शैली का है। यह शिव मंदिर है। इसमें कई चित्र बने हुए हैं। जैन मंदिर (नसीयां) की सुनहरी चित्रकला देखने योग्य है। यह अठारहवीं शताब्दी का बना हुआ है। यह स्थापत्यकला का भी एक सुन्दर नमुना है। विद्याधर
जयसिंह द्वितीय का शिल्पज्ञ था। जयपुर नगर का नक्शा उसने ही तैयार किया था। उसीने यहां का बाग भी तैयार किया था। इसमें सवई रामसिंह ने कई परिवर्तन व परिवर्द्धन किए। इसके पास ही ई० सन् १८२९ में रुपा बठारण के
लिए भटियाणीजी ने रामनिवास बाग की नींव डाली थी। इसमें
महल तालाब आदि बने हुए हैं।
आधुनिक भवन - जयपुर नगर के आधुनिक भवनों में विभिन्न शिक्षण संस्थाओं के भवन यथा
- विश्विद्यालय, मेडिकल कॉलेज, महाराजा कॉलेज, अस्पताल भवन, सचिवीलय महालेखापाल कार्यालय भवन आदि है।
जयपुर के स्थापत्य में फारसी शैली का काफी पुट है। यहां के भवनों के खम्भे, चबुतरे, तथा जालियां अपनी ही विशेषता लिए हुए है। ज्यादातर इमारतें बाहर की ओर गुलाबी रंग से पुती हुई है।
जयपुर नगर के ये भवन किसी भी देशी या विदेशी यात्री को जयपुर खींच लाते हैं।
आमेर - आमेर जयपुर से ७ मील उत्तर पूर्व में दिल्ली से जयपुर जाने वाली
सड़क पर स्थित है। यह जयपुर के बसने के पहले जयपुर (ढ़ूंढ़ांड़) राज्य की राजधानी थी।
कछवाहों के पहले यहाँ सुसावत मीणों का राज्य था।
प्राचीन काल में यह अम्बावती तथा अंबिकापुर कहलाता था। यह कस्बा पहाड़ी पर बसा है। कस्बे के चारों ओर परकोटा है। कस्बे में कई महल , मंदिर छत्रियें आदि हैं।
आमेर के राजपूत शैली पर बने हुए महल भारत भर में प्रसिद्ध है। यहां के पहाड़ पर महल सबसे पहले भारमल ने ई० सन् १५५५ में बनाई थी। इनको बनवाने में मानसिंह प्रथम, जयसिंह प्रथम व द्वितीय का विशेष हाथ रहा है। मानसिंह द्वारा बनवाये गये महल पूर्णतया हिन्दू शैली के हैं लेकिन पश्चातवर्ती राजाओं द्वारा बनाये गये महलों में फारसी शैली का
मिश्रण है, ये महल एक छोटी पहाड़ी पर बने हुए हैं। इसके ऊपर की ओर जयगढ़ का सुदृढ़ किला है। जयगढ़ के विस्तार में ही ये महल बने हैं। यहाँ प्रत्येक व्यक्ति को जाने नहीं
दिया जाता है।
महल में जाने के लिए यात्री को मावटा नामक झील के किनारे स्थित दिलाराम बाग में होकर जाना पड़ता है। दिलाराम बाग ई० सन् १६६४ में जयसिंह ने बनवाया था। दिलाराम बाग में कई एतिहासिक मृण मूर्तियों, शिला पट्टों,
सिक्कों, गहनों, शिलालेखों आदि का प्रदर्शन किया गया है। इन
मूर्तियों में आबानेरी से प्राप्त मूर्तियाँ, महिषासुर मर्दिनी, सूर्य, नागदेवता आदि बहुत ही सुन्दर हैं। ये भारती की
अमुल्य कलानिधियों में मानी जाती है। महलों के मुख्य द्वार के बाहर ही शीतलामाता का मंदिर है। शीतलामाता जयपुर के राजाओं की कुल देवी है। शीतलामाता की मूर्ति को मानसिंह प्रथम ने बंगाल की खाड़ी से लाया था। यह मंदिर संगमरमर का बना हुआ है। इसके द्वार आदि पर चांदी का काम है।
महल के मुख्य द्वार में घुसते ही ४० खम्भों का राजपूत शैली का बना हुआ
दीवान-ऐ-आम है जो सफेद रंग के संगमरमर और लाल पत्थर का बना हुआ है। यह जयसिंह द्वारा ई० सन् १६६४ में बनवाया गया था। इसकी छत सरद पूनम की चांदनी कहलाती है। इसकी छत महल के जनाना भाग से मिली हुई है।
दीवान-ऐ-आम के दक्षिण की ओर दो खण्डा महराबदार दालान है जिसमें प्रवेश एक अत्यन्त आकर्षक द्वार
- गणेश पोल में होकर जाता है। इसके पूर्व में दीवान-ऐ-खास है जो जय मंदिर या शीशमहल कहलाता है। इसकी दीवारों में संगमरमर पत्थर जुड़े हुए हैं तथा छत में शीशे का काम है। प्रकाश किये जाने पर यह आज भी जगमगा उठता है। अत: जब यह नया होगा तब यह कितना जगमगाता होगा इसकी तो कल्पना ही की जा सकती है।
दीवान-ऐ-खास के सामने की ओर सुख मंदिर है। इसमें जालियां लगी हुई है व सामने की ओर बाग भी है। इसमें एक नहर बनी हुई है। नहर की फर्श में काले एवं सफेद संगमरमर के टुकड़े लहर डालते
हुए लगे हैं। यहाँ सम्भवत: राजाओं का गर्मी के मौसम में निवास, रहा करता होगा। इस महल के पुराने दरवाजे चन्दन की लकड़ी के हैं जिनमें हाथी दांत का काम किया हुआ है। यहां भोजनशाला में भारत के ६८ तीर्थ स्थलों के
भित्तिचित्र हैं।
दीवान-ऐ-खास के ऊपर जसमंदिर तथा गणेश पोल के ऊपर सोहाग मंदिर है। सोहाग मंदिर में
संगमरमर की जालियाँ लगी हुई हैं जिनमें रानियाँ दीवाने-ऐ-खास में होनेवाली कार्यवाहियाँ देख सकती थीं।
महल के उत्तर पश्चिम में जगत
शिरोमणी का मंदिर है। यह मंदिर मिर्जा राजा मानसिंह के ज्येष्ठ पुत्र जगतसिंह की याद में बनवाया गया था। यह मंदिर हिन्दू स्थापत्य कला पर बना हुआ है। इसके तोरण व पत्थर की नक्काशी देखने याग्य है। इस मंदिर की कृष्ण की काले पत्थर की मूर्ति के लिए कहा जाता है कि चित्तोड़ से लाई गई थी। इसकी पूजा मीराबाई किया करती थी।
इस मंदिर के पास ही नरसिंह का मंदिर है। इसमें सफेद संगमरमर का
तोरण है जहाँ जयपुर राजाओं का तिलक किया जाता था।
आमेर की पहाड़ियों के नीचे ही जयपुर नगर को जाने वाली सड़क के बायें किनारे पर जलमहल है जो ऊंचे चबूतरे पर बना हुआ है। इसके चारों ओर जब पानी भर जाता है जब दृश्य बहुत ही सुहावना लगता है। जलमहल के सामने ही ४० फुट लम्बा यज्ञ स्तम्भ है जो सवाई जयसिंह द्वारा
किये गए अश्वमेध यज्ञ की याद दिलाता है।
यहाँ अकबर द्वारा ई० सन् १५६८ में बनायी गई मस्जिद भी है। आमेर की घाटी को एक सुगम रास्ते का रुप माधोसिंह प्रथम ने दिया था।
सांगानेर - जयपुर के दक्षिण की ओर सात मील दूर सांगानेर कस्बा है। यहाँ आमेर के पृथ्वीराज के पुत्र सांगा ने सोलहवीं शताब्दी में इस कस्बे को अपने नाम से प्रसिद्ध कर यहाँ सांगेश्वर महादेव का मंदिर बनवाया था। इस मंदिर के पास ही सांगाबाबा का मंदिर
है। जिसमें सांगा के चित्र की पूजा होती है,
यहां जैन सरावगियों का भी एक मंदिर है जो सेघीजी का मंदिर कहलाता है। यह मंदिर सोलहवीं शताब्दी का बना हुआ है। इसकी स्थापत्य कला देखने योग्य है। संगमरमर व लाल पत्थर पर बहुत अच्छी खुदाई की गई है।
सांगानेर की कपड़े की छींटों की छपाई तथा रंगाई प्रसिद्ध है। यहाँ
हाथ का कागज भी बहुतायत से मिलता है।
रामगढ़ - यह जयपुर से २० मील दूर है। यह भी आमेर के पहले कछवाहों की राजधानी रह चुका है। यहाँ का दुर्ग वि० सं० १६६९ में मिर्जा राजा मानसिंह ने बनवाया था। यहाँ से मिले शिलालेख में मानसिंह के पिता का नाम भगवन्त दास लिखा गया है। यहाँ के बन्धे से जयपुर को पानी नल द्वारा जाता है।
इस बन्धे के पास कई पत्थर के स्तम्भ आदि मिले हैं जो दसवीं शताब्दी के प्रतीत होते हैं।
चाटसू - यह जयपुर से २५ मील दक्षिण में जयपुर - सवाई मोधोपुर रेलवे लाईन पर स्थित है।
इसका प्राचीन नाम ताम्बावती व चम्पावती भी कहा जाता है। यहां के गोलेलाव तालाब के घाट पर लगे शिलालेख से ज्ञात होता है कि यहाँ दसवीं शताब्दी में गुहिल वंशियों का राजीय था। कुछ विद्वान इसके स्थान का सम्बन्ध विक्रम संवत के प्रवर्तक
विक्रमादित्य से स्थापित करते हैं। वि० सं० १६४० के शिलालेखों से, जो यहां से लक्ष्मीनारायण मंदिर के कीर्ती स्तम्भ पर अंकित है, इस नगरी को चात्सु नाम दिया गया है। प्राचीन काल में यहाँ ५२ मंदिर थे लेकिन अब उनके केवल भग्नावशेष ही रह गये हैं। यों यहाँ से सरस्वती, दुर्गा आदि की कई प्रतिमाऐं प्राप्त हुई हैं। मुगल काल की कई इमारतें भी यहाँ है। यहां के चारभूजा का मंदिर
वि० सं० १६७७ व लक्ष्मीनारायण का मंदिर वि० सं० १६६० में
बनवाये गए थे। यों सत्रहवीं शताब्दी का यहाँ एक मंदिर भी है जो जैन धर्मावलम्बियों का है।
यहाँ की जनसंख्या १९६१ की जनगणना के अनुसार ८०६३ है।
दौसा - यह कस्बा जयपुर से ३४ मील पूर्वमें स्थित है। कछवाहों ने सबसे पहले यहीं अपनी राजधानी बनायी थी।
कस्बे के पूर्व में ऊंची पहाड़ियों पर एक किला है जो बड़गूजरों को बनवाया कहा जाता है। बड़गूजरों के सरदार ने ही अपनी पुत्री का दूल्हराय से विवाह कर यह क्षेत्र उसको दे दिया था जिसके बाद में ढ़ूंढ़ांड़ राज्य को स्थापित किया गया। यहाँ पहाड़ी पर नीलकंठ महादेव का मंदिर है। पहले यहां शिव - मंदिर था जिसकी लगभग ५० विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियां यहाँ से मिली है। यहां के माताजी के मंदिर से भी कुछ मूर्तियां मिली हैं जो १२वीं शताब्दी की हैं। यहां की जनसंख्या १९६१ की जनगणना के अनुसार १४,६०२ है।
बसवा - यह जयपुर से दिल्ली जानेवाली रेल लाईन पर उत्तर पूर्व में स्थित है।
यहां एक टूटी फूटी दशा में छोटा सा किला
भी है। यहाँ अप्रैल मास में मुसलमानों का एक मेला भरता है।
डिग्गी - यहां के कल्याणजी का मंदिर बहुत प्रसिद्ध है। इस मंदिर में मेवाड़के राजा संग्रामसिंह के समय का वि० सं० १५८४ का एक शिलालेख मिला है।
फतहपुर - यह जयपुर से ९५ मील उत्तर पश्चिम में है। यह सीकर ठिकाने का एक प्रसिद्ध कस्बा है। यहाँ के निवासी महाजन अन्त प्रान्तों में व्यापार करने जाते हैं एवं काफी धनमान्य लोग हैं।
कस्बे के नयी व पुराने ढ़ंग के निवास के भवन इसके साक्ष्य हैं। यहाँ
पहले कायमखानी मुसलमानों का राज्य था। यहां की जनसंख्या १९६१ की जनगणना के अनुसार २७,०२६ है।
रेठ - यह जयपुर नगर से ५४ मील दक्षिण में है। यहाँ की गयी खुदाई से कई बौद्ध संस्कृति
अवशेष मिले हैं। यहां द्वितीय शताब्दी ई० पूर्व ३२६ के चांदी के सिक्के मिले हैं। यहां से मालवों
के भी कई सिक्के मिले हैं जो कि ये बताते हैं कि २००० वर्ष पहले यहाँ लोहा का उत्पादन और कारखाना रहा होगा।
हिण्डोन - यह जयपुर नगर से ७८ मील दूर दक्षिण पूर्व में है मराठों के पहले यह काफी समृद्ध था, परनतु अठारहवीं शती में मराठों ने इसे उजाड़ दिया। यहाँ लोहे व लाल सफेद पत्थर मिले हैं।
१९६१ की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या २०२३३ है।
लालसोट - दौसा के निकट ही लालसोट है।
यहाँ के प्राचीन काल के बौद्ध स्तूप भी मिले हैं। ये स्तम्भ
नीचे और ऊपर चोकौर तथा बीच में आठ पहलू हैं।
झून्झनू - यह जयपुर नगर से अजमेर जाने वाली सड़क पर ९० मील उत्तर में है।
कयामखानियों के पीर कमरुद्दीन शाह की दरगाह और
एक प्राचीन जैन मंदिर यहाँ के धार्मिक अवशेषों में हैं। यहाँ के सेठ बहुत ही समृद्ध हैं, जिनका व्यापार कलकत्ता और बम्बई में होता है।
यह एक जिला मुख्यालय है, १९६१ जनगणना यहाँ की आबादी २४०६४ दर्शाती है।
नगर - यह मालवों द्वारा लगभग २००० वर्ष पूर्व बसाया गया था। यहाँ से लगभग ६००० तांबे के सिक्के मिले हैं, खुदाई में सैकड़ों बर्तनें भी
मिले है।
नराण - दादूपंथियों का मुख्य स्थान है। इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक दादू की मृत्यु सन् १६०३ में हुई थी। दादूपंथियों को जयपुर
सेना में नागा के नाम से भर्ती की जाती थी। यहाँ के गौरीशंकर जनाना तालाब में फारसी के दो लेख खुदे मिले हैं। हिन्दू धर्म से परिवर्तित मुसलमान सरदार वजीहल मुल्क के पोते मुजहीदखां ने इस तालाब को बनवाया था और इसका नाम मस्तफासर रखा। उसने राजा मोकल से लड़कर डीजवाना सांभर व नराण जीते थे।
रणथम्भौर
- यह स्थान सवाई माधोपुर से ६ कि० मी० दूर है। पहाड़ी पर स्थित दुर्गम किले प्रसिद्ध हैं। इसकी ऊंचाई
समुद्रतल से १५७८ फुट है। किला सगभग ७ मील के घेरे में है। इसमें जंगल तथा पहाड़ियाँ है। यह किला चौहान रण थम्भन का बनवाया कहा जाता है। इसका राज्य काल अंधकार में था लेकिन
पृथ्वीराज प्रथम ने यहाँ पर बने एक जैन मंदिर में स्वर्ण कलश चढ़ाये थे।
वनस्थली - यह स्थान यहाँ के बालिका विद्या पीठ के कारण काफी प्रसिद्ध है। जयपुर से ४५ मील दक्षिण में निवाई रेलवे स्टेशन से ५ मील दूर है। यहाँ लड़कियों को शिशु शिक्षा से लेकर एम ० ए० तक शिक्षा दी जाती हैं।
टोडा रायसिंह - यह कस्बा जयपुर नगर से ६८ मील दक्षिण पश्चिम में बनास नदी के तट पर स्थित है। यह पहले नागवंशियों का निवास था। बाद में मुगलों ने (शाहजहां) चौहानो और सोलंकियों से
कब्जे में कर लिया। इसे रायसिंह राणावत को जागीर के रुप में दे
दिया गया। कुछ वर्षों तक राणावत के अधिकार में रहने के बाद इस पर सवाई जयसिंह ने कब्जा कर लिया। तब से यह जयपुर राज्य के अन्तर्गत आता है। टोडा के पास ही राजमहल है जहाँ राणावतों के बनवायें कई
दर्शनीय महल है।
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