मेवाड़ का सामाजिक ढाँचा परम्परागत
रुप से ऊँच-नीच पद-प्रतिष्ठा तथा वंशोत्पन्न जातियो के आधार पर
संगठित था। सामाजिक संगठन में प्रत्येक जाति का महत्व उस जाति की
वंशोत्पन्नि तथा उसके द्वारा अंगीकृत
व्यवसाय पर निर्भर थी। जाति-व्यवस्था का स्थायित्व प्रदान करने तथा अस्तित्व का
अक्षुण्ण बनाये रखने में जाति पंचायतों की
भूमिका महत्वपूर्ण रही। जाति पंचायते अपनी जातियों का
व्यवास्थित रुप से संचालित करते हुए खान पान, शादी-विवाह एव
रीति -रिवाजों से सम्बांधित समय-समय पर नियम
बनाती थी और अपनी जाति के लोगों
से जातीय विभागों एवं मर्यादाओं का पालन करवाती थी। इस कार्य
में जाति-पंचायतों को राजकीय संरक्षण प्राप्त था।
सामान्यत: राज्य जाति पंचायतों के कार्यो
में हस्तक्षेप नहीं करता था। वस्तुत:
मेवाड़ के महाराणाओं ने भी परम्परागत
सामाजिक ढ़ाचे को बनाये रखनें में काफी
योगदान दिया। जाति पंचायतों के नियमों को
भंग करने वाले व्यक्तियों को दण्ड देने की
व्यवस्था थी। सबसे कड़ा दण्ड जाति से बहिष्कृत करना था।
समाज परम्परागत रुप से चार भागों
में विभक्त था - ब्राह्मण, क्षत्रिय (राजपूत)
वैश्य(महाजन) व क्षूद्र। जैन अपना स्वतंत्र आथित्व
रखते हुए भी स्वंय को हिन्दू समाज के
वैश्य वर्ग का ही मानते थे। ब्राह्मण, राजपूत, महाजन आदि जातियों को
राज्य द्वारा जो परम्परागत सुविधाएँ प्राप्त थी,
शासक का कर्तव्य था कि वह उन्हे शाश्वत
रुप से प्रचलित रखे। इस प्रकार १८ वीं
शताब्दी तक मेवाड़ में जाति प्रथा पर आधारित परम्परागत
सामाजिक ढ़ाचे का अस्तित्व बना रहा।
१८ वी शाताब्दी के पूर्वार्द्ध से ब्रिटिश
संरक्षण की स्थापना तक अन्तरराज्यीय
युद्धों, उत्तराधिकार-संघर्ष महाराणा और उसके
सामन्तों के पारस्परिक संघर्षों तथा
मराठा व पिडांलियों कि लुटमार के परिणामस्वरुप
राज्य की आर्थिक स्थिति अस्त-व्यस्त हो गयी और अब परम्परागत जातीय
व्यवस्थाओं का पालन करने की पहले जैसी
मर्यादा नहीं रही आंग्ल मेवाड़ साधि(१८१८ ई.) के
बाद राज्य पर ब्रिटिश नियंत्रण, सामन्तों की चाकरी को नकद
रकम की अदायगी में परिवर्तन, जिसके
फलस्वरुप सामन्तों की सेनाओं का विघटन, आधुनिक
शिक्षा का प्रसार, प्रशासनिक संस्थाओं का अंग्रेजीकरण,
भूमि-बन्दोवस्त, यातायात के नये
साधन आदि ने लोगों को अपने जीवन-यापन हेतु अपने परम्परागत जातिगत
व्यवसाय को अतिरिक्त कुछ अन्य व्यवसायों का अपनाने के
लिए प्रोत्साहित किया।
जब इन आलोच्यकालीन मेवाड़ के सामाजिक
संरचना के स्वरुप का विश्लेषण करते है तो पाते है कि
सामाजिक रचना में वर्ण-व्यवस्था केवल
भावात्मक रुप में विद्यमान रह गई थी। जाति और धर्म ही इस काल के
वर्ग तथा व्यवसाय को प्रभावित किये हुए था।
१८ वी शताब्दी तक का मेवाड़ी समाज धर्म के आधार पर दो
भागों हिन्दू तथा मुस्लिम में वर्गीकृत था। हिन्दू
समुदाय में वैदिक, जैन तथा आत्मवादी
(जनजाति के लोग) माने जा सकते है वही
मुस्लिम समुदाय में शिया तथा सुन्नी दो उपभाग विद्यमान थे। पुन: धार्मिक विभेदों के
अनुसार वैदिक शैव, शाक्त तथा वैष्णव
में तथा जैन श्वेताम्बरी व दिगम्बरी
में उप विभाजित थी। आत्मवादी शुद्ध प्रकृति उपासक और
वैदिक प्रभावालिप्त ईश्वरवादी के
मतमतान्नरों मे विभाजित थे। शैवों
में सन्यासी, नाथ, गोसाई, आचार्य आदि
रुपों में कई प्रकार के भेद व्याप्त रहे है। वैष्णवों
में रामावत नीमावत, माधवाचार्य तथा विष्णुस्वामी नामक चार
सम्प्रदाय थे और फिर रामस्नेही, दादूपंथी, कबीरपंथी, नारायणपंथी आदि
अनेक शाखाओं में फैले हुए थे, जिनके आचारों विचारों
में उपासना की दृष्टि से काफी अन्तर था।
शाम्तों में वाममार्गी, तांत्रिक तथा दक्षिणायन
वैदिक उपासक लोग थे। इसी प्रकार जैन
मतावलम्बी भी मूर्तिपूजक और अमूर्तिपूजक
में विभाजित थे मूर्तिपूजक वर्ग में
समेगी और महात्मा धर्मगुरु होते थे वही अमूर्तिपूजक धर्म गुरु ढूढिया
साधु हुआ करते थे। मुस्लिम सम्प्रदाय
में भी मुसलमान और दोहरा मुसलमान
मतावलम्बी विद्यमान थे।
१९ वी शताब्दी के उत्तरार्ध में मेवाड़ी समाज
में ईसाइयों का प्रवेश भी हो चुका था। यह
समुदाय स्थान भेद के अनुसार शुद्ध इसाई तथा एंग्लो-इण्डियन की
श्रेणियों में वर्गीकृत था। राणा सज्जनसिंह (१८७४-१८८४ ई.) के
शासन-काल में हिन्दू समुदाय के अंत्तर्गत सिक्ख आर्य
समाजियों के मतावलम्बी भी सम्मिलित होने
लगे थे। इन सभी धार्मिक समुदायों का जन
संख्यात्मक प्रतिशत १९ वीं शती के अन्त तक निम्न रहा
था।
समुदाय
|
मतावलम्ब
|
प्रतिशत
|
हिन्दु |
शैव,
शाक्त व वैष्णव |
७३.४८ऽ |
|
आत्मवादी
(आदिवासी) |
१३.३४ऽ |
|
जैन |
९.२५ऽ |
|
सिख |
०.०१ऽ |
|
आर्य |
०.०१ऽ |
मुस्लिम |
सुन्नी |
३.०५ऽ |
|
शिया |
.४०ऽ |
ईसाई |
कैथोलिक तथा
प्रोटोस्टण्ट |
०.०२ऽ |
ऐतिहासिक मेवाड़ समाज : एक धर्म सहिष्णु समाज
समाज में विभिन्न धर्मावलम्बियों के एक साथ होने के बावजुद भी व्यवहारिक तौर पर कोई धार्मिक भेदभाव नहीं था। प्रत्येक धर्मावलम्बी व्यक्ति दूसरे धर्म को उतना ही आदर की दृष्टि से देखता था जितना कि अपने धर्म को। यहाँ तक कि यहाँ के राणाओं ने भी धार्मिक भावनाओं व मान्यताओं का सम्मान कर धर्मों के प्रति अपनी सहिष्णुता व तटस्थता को दिखाया है। राणा जनत सिंह द्वितीय ने रामला, कटड़ी, अर्णेटा और कान्या गाँवों को अजमेर की दरगाह को भेट किये थे। जैन मतावलम्बी जो एक स्वतंत्र अस्तित्व रखती थी लिंगजी, लक्ष्मीजी, कालिका देवी आदि हिन्दू प्रतीकों में श्रद्धा रखते थे। राज्य में जनता द्वारा बनाये गये वर्तमान हिन्दू जैन मर्जिंन्दरइसके उदाहरण हैं। आत्मवादी लोग एक कलिंग (शिव) कालिका देवी (शक्त), श्रीनाथ जी (वैष्णव) तथा कालिया जी (ॠषभदेव) की पूजा में विश्वास रखते थे। शिव रात्रि पर्व पर भील लोगों का एकलिंगजी के दर्शन करने आना उनके लोकनृत्य गवरी में राई (पार्वती), और बुडया (शिव) की उपस्थिति, दीपावली के दिनों में श्रीनाथ जी के चावल लूटना तथा धुलेव धाम के ॠषभदेव को अपना इष्ट मानता इसका प्रमाण है। मुस्लिम समुदाय तथा हिन्दू समुदाय में पारस्परिक धार्मिक भावना का आदर
किया जाता था। मुस्लिम लोग हिन्दुओं के सामाजिक-धार्मिक उत्सवों में बगैर भेद-भाव भाग लेते थे। होली के अवसर पर गले मिलना, गुलाल लगाना, जादू-टोनो में विश्वास करना, झाड़ फूक, नज़र आदि में श्रद्धा रखना आदि इस्लाम विरुद्ध कार्य होते हुए भी इन्हें अपनाये हुए थे। इसी प्रकार हिन्दुओं द्वारा मुहर्रम के ताजियों के नीचे से बच्चों को निकालना, मुस्लिम पीरों में विश्वास करना आदि हिन्दू-मुस्लिम धार्मिक सहिष्णुता को दर्शाता है।
यद्यपि मेवाड़ी समाज के ईसाई समुदाय अपना धर्म-सहिष्णु स्थान नहीं बना पाया था और अपने धार्मिक प्रचार द्वारा जनजाति के कुछ लोगों को इसाई धर्मानुयायी बनाने में सफल हो गया था, फिर भी जनता द्वारा इसका कोई तीव्र विरोध नहीं किया गया। अत: मेवाड़ी समाज में ईसाइयों के प्रति भी कोई द्वेष नही था और समाज धर्मसहिष्णु व साम्प्रदायिक भावना-मुक्त था।
भारत में वर्ग स्तरण वंशानुक्रमण पर आधारित पैतृक और जन्मगत है, जिसे जाति के रुप में जाना जाता है। आलेच्यकाल में वर्गस्वरण जाति समाज, जातियों का स्थिति उनका सामाजिक अन्तराल तथा पैतृक परम्परागत व्यवसायों के
आधार पर वर्गीकृत था।
ब्राह्मण
वर्ण की जातियाँ
जाति की संरचना को विस्तृत स्वरुप
में वर्ण व्यवस्था के साथ जोड़ा जा सकता है। परम्परागत
सामाजिक ढ़ाचे में सर्वोच्च स्थान ब्राम्हण जातियों को प्राप्त था परन्तु
ब्राह्मण जातियां भी विभिन्न उपजातियों
में विभाजित थी। १८ वीं शताब्दी के पूर्व
अनेक ब्राम्हण उपजातियाँ मेवाड़ में विद्यमान थी, तथापि १९
वीं शताब्दी में अनेक ब्राह्मण परिवार जीविका की खोज
में अन्य राज्यों व प्रान्तों से आकर मेवाड़
में बस गये थे। इसमें बागड़ से बागड़िया, जोधपुर
से जोधपुरिया, सिरोही से सिरोहिया आदि
मुख्य रहे थे। इसके अतिरिक्त मेवाड़ के महाराणाओं ने
भी अनेक ब्राम्हण परिवारों को उनके
व्यवसायात्मक कौशल व सामाजिक धार्मिक कर्म कराने हेतु आमंत्रित कर
मेवाड़ में बसाया था। गुजरात राज्य
से पारख और भ मेवाड़ा ब्राम्हण,
उत्तर प्रदेश से कन्नौजिया, सास्वत गौड़,
श्री गौड़ आदि इनके उदाहरण हैं। ब्राह्मणों की इन उपजातियों
में पारख, भट्ट, कन्नौजिया, सास्वत, गौड़,
मेनारिया, पालीवाल आदि मुख्य मानी जाती थी। यह
सभी उपजातियाँ मूल में ब्राम्हण जाति होते हुए
भी उनके खान-पान तथा वैवाहिक सम्बन्ध न
रखने के कारण अलग-अलग जातियाँ कहलाती थी। इन
सभी ब्राम्हण जातियां में पारस्परिक खान-पान
सम्बन्ध कच्चे और पक्के भोजन झ्र१ करने
वाली जातियों की श्रेणी में विभक्त था। पक्का
भोजन करने वाले ब्राह्मणों की श्रेणी
उच्च मानी जाती थी। पक्के पाकी ब्राह्मण अन्य जातियाँ के यहाँ
बना भोजन नहीं खाते थे और कच्चा भोजन करने
वाले ठघन्याती ब्राह्मण' द्विज जातियों (
ब्राह्मण, राजपूत तथा वैश्य-महाजन) के यहाँ
बना हुआ भोजन ग्रहण कर सकते थे।
ब्राह्मण जातियों में मांस-मदिरा सेवन करने
वाले जाति-भ्रष्ट माने जाते थे किन्तु इनकी
संख्या नगण्य रही थी। ब्राह्मण जाति की आन्तरिक
रचना अवंटक, गौत्र तथा प्रवरों में विभक्त थी। वैवाहिक
सम्बन्धों के लिए जाति के अन्दर भी गौत्र एवं प्रवर का ध्यान
रखा जाता था। एक ही गौत्र व प्रवर के स्री-पुरुष पारस्परिक विवाह नहीं कर
सकते थे। किन्तु धीरे-धीरे ब्राह्मणों के आचार-व्यवहारों
में विकृतियां आने लगी। खंडित व्यवहारों के कारण
सामाजिक राजनीतिक शक्ति को प्राप्त करने
मैं यह जाति असमर्थ रही अथवा उनकी
अन्तर्नियंत्रण प्रणाली ने सामाजिक नेतृत्व
में पछाड़ दिया। फिर भी समाज में प्रतिष्ठा और
सम्मान की दृष्टि से ब्राह्मणों का महत्व था।
अध्ययन-अध्यापन, पौरोहित्य, धार्मिक कर्मकाण्डों का
सम्पादन, पूजा-पाठ, ज्योतिष कार्य इत्यादि
व्यवसाय ब्राम्हणों की परम्परागत वृत्तियाँ
मानी जाती थी। शिक्षा का काम करने वाले
ब्राह्मणों को सामान्यत: राज्य से वेतन
अथवा भूमि दी जाती थी। अधिकांश ब्राम्हणों की
अजीविका का मुख्य साधन मंदिरों में देवार्चन व पूजा-पाठ का परम्परागत
व्यवसाय था। अधिकांश मंदिरों के साथ,
राज्य अथवा सामन्तों द्वारा प्रदान की गई। जागीर
अथवा भूमि जुड़ी हुई थीं, जिसका उपयोग ब्राम्हण पुजारी करते थे। इसके अतिरिक्त उन्हे
राज्य तथा जनता से नकद चढ़ावा भी
मिलता रहता था। वेदाभ्यासी व शास्रपाठी
ब्राह्मण सम्पूर्ण राज्य में गिने-चुने रहे थे। ज्यादातर ब्राम्हण निरक्षर
श्रेणी में थे और व्यवहारों व नियमों
में रुढिवादी थे। समाज के सामाजिक और धार्मिक
संस्कारों का सम्पादन कराने के लिए प्रत्येक जाति और कुटुम्ब के पुरोहित हुआ करते थे।
बख्शीखाना के ठनाम-बहियों ' से ज्ञात होता है कि
ये पुरोहित लोग अपने यजमानों
से भेंट; द्रव्य तथा वार्षिक यजमानी प्राप्त करते थे।
राज्य अथवा राज्य के सभी ठिकानों के पुरोहित ठबड़ा पालीवाल'
ब्राह्मण रहे थे जिन्हें राज्य अथवा ठिकाने की ओर से भूमि का
अनुदान मिलता रहता था। महाराणा के पुरोहित
राज्य में बड़े पुरोहित कहलाते थे, जिन्हे धार्मिक स्तर पर
उच्च एवं प्रथम श्रेणी के सामन्तो के समान प्रतिष्ठा प्राप्त थी।
ब्राह्मणों की एक अन्य श्रेणी मृतक संस्कार और क्रिया-कर्म करवाती थी जिन्हे
मेवाड़ में ठकर्मान्त्री ब्राह्मण' कहा जाता था। कर्मान्त्री
ब्राह्मण, पुरोहितों की श्रेणी से निम्न
माने जाते थे। औदिच्य, भट्ट, आमेटा आदि
ब्राह्मण ज्योतिष और कथा-वाचक का कार्य करते थे।
राज्य द्वारा इस कार्य के लिए द्रव्य और भूमि के
साथ-साथ राजज्योतिष, कथा-भट्ट, कथा-व्यास आदि का
सम्मान भी दिया जाता था। इसके पश्चात् तृतीय
श्रेणी पुजारी और पंचागपाठी
ब्राह्मणों की रही हैं। राज्य के प्रत्येक
मंदिर का पुजारी ब्राह्मण होता था। पंचागपाठी
ब्राह्मण ग्रमांण बस्तियों व शहरों में
बस्ती-कार्य (कणिका-भिक्षा) करते थे। आचार्य
लोग वैद्यक का कार्य करते थे।
राजकीय सेवाओं में भी ब्राह्मणों की नियुक्ति होती थी।
मेवाड़ में पाणेरी ब्राम्हण महाराजाओं के धर्मकोष,
रसोड़े (पाकशाला) तथा आंगिया री ओवरी
(कपड़ा विभाग) में कार्य करते थे। राज्य पत्रों को
संस्कृत में लिखवाने तथा राजनीतिक कार्यों के
लिए भ व नागर जाति के ब्राह्मण नियुक्त किये जाते थे। उदाहरण के
लिए महाराणा अरिसिंह के प्रधान अमरचन्द
बड़वा (सना ब्राह्मण) महाराजा हमीरसिंह के
अर्द्धशासन काल तक राज्य की महत्वपूर्ण
सेवाओं में रहा। राज्य परिवार के
सदस्यों को शिक्षा देने के लिए भी ब्राह्मण नियुक्त किये जाते है जिनको
राज्य द्वारा वेतन अथवा भूमि प्रदान की जाती थी। जनाती ड्योढ़ी पर चौबिसा जाति के ड्योढ़ीदार तथा आमेरा जाति के
लोग कामदार (लिपिक) का कार्य करते है।
सामान्यत: सैनिक सेवा के लिए ब्राह्मणों की नियुक्ति नही की जाती थी, फिर
भी अनेक कुलीन वर्ग के ब्राह्मण सेनाधिकारी के पदों पर पैतृक परम्परा के
रुप में सेवा करते थे।
मेवाड़ के कुछ ब्राह्मणों में व्यापार-वाणिज्य को पैतृक
व्यवसाय के रुप में अपना रखा था।
सामान्यत: श्रीमाली ब्राम्हण दुध बेचने तथा
हलवाई का धन्धा करते थे तथा पारख व नागर
ब्राह्मण हीरे-जवाहरात परखने व गोटा किनारी
बेचने का काम करते थे। भीलवाड़ा के खण्डेलवाल
ब्राह्मण व उदयपुर में नागर, पारख व श्रीमालियों के
अनेक परिवार अभी भी अपना पैतृक कार्य करते थे। किन्तु
वर्त्तमान शताब्दी के प्रथम दो-तीन दशकों तक
ब्राह्मणों द्वारा व्यापार-वाणिज्य का कार्य
उत्तम नही माना जाता था। ग्रामीण ब्राह्मण कृषि-व्यवसाय को
भी अपना चुके थे। धार्मिक और राज्य सेवा के
बदले भूमि दी जाती थी, उस भूमि को प्राप्त कर कालान्तर
में ये ब्राह्मण लघु कृषक बन जाते थे। कृषि करने
वाले ब्राह्मणों को भूमि-कर के मामले
में सुविधाएँ प्रदान की जाती थी।
सेवक तथा काटिया नामक दो जातियाँ ब्राम्हणों में अन्य जाति की सेवा तथा अशौच भोजन करनेवाली निम्न जातियाँ मानी जाती रही थीं। सेवक जाति जो जैन मंदिरों में अपनी सेवा देते थे उन्हे कहीं कहीं भोजाक भी कहा जाता था।
१९ वीं शताब्दी में ब्राह्मणों द्वारा विभिन्न व्यवसाय अपना लेने के बावजूद वे प्राचीन परम्पराओं को बनाये रखने पर जोर देते रहे। समाज में ब्राह्मणों को सम्मान प्राप्त था। राजकीय सम्मान के रुप में उन्हें महाराज, विप्रराज, गुसाई आदि सम्बोधनों से सम्बोधित किया जाता था। मेवाड़ के महाराणा ब्राम्हणों को हिन्दू-संस्कृति का संरक्षक और स्वंय को उसका पोषक मानते थे तथा सामन्त भी उन्हे पर्याप्त सम्मान देते थे। विपरांगत ब्राह्मणों को तो बाहर से आमंत्रित कर राज्य में बसाया जाता था।
१९ वीं शताब्दी के अंतिम काल में आधुनिक शिक्षा के प्रसार, नये माध्यम वर्ग का अभ्युदय, प्रशासनिक नियुक्तियों की नीति में परिवर्त्तन तथा अंग्रेजी नियमों के प्रचलन के फलस्वरुप ब्राम्हणों की सामाजिक स्थिति आन्तरिक परिवर्त्तन प्रारम्भ होने लगा तथा ब्राम्हणों के नेतृत्व को चुनौती उत्पन्न हो गयी किन्तु बाह्य रुप में ब्राह्मणों का सामाजिक-धार्मिक प्रतिष्ठा में कोई अन्तर नहीं
आया।
राजपूत : कुल तथा
अन्तर्जातीय विवाह व्यवस्था
सामन्ती व्यवस्था पर आधारित समाज
में राजपूत जाति का एक विशिष्ट स्थान था।
राज परिवार तथा शासक जाति से
सम्बंधित होने के कारण ब्राम्हणों के
बाद समाज में राजपूतों का काफी वर्च था।
राजपूत अपने को तीन वंश में से किसी एक
से सम्बंधित करता था :
१. अयोध्या के राजा राम से उत्पन्न सूर्य
वंश
२. द्वारिका के राजा श्रीकृष्ण से उत्पन्न चन्द्र
वंश
३. वशिष्ट ॠषि द्वारा आबू यज्ञ से उत्पन्न अग्निवंश
इन्ही तीन वंशों में, जिससे १६ कुल सुर्यवशीय, १६ कुल चन्द्रवंशीय औप ४ अग्निवशीय थे ;
सम्पूर्ण जाति वर्गीकृत थी। सामुहिक
रुप से ये छत्तीस-कुल कहलाते थे। लेकिन
मेवाड़ में केवल १३ कुल ही विद्यमान थे। यह कुल
व्यवस्था पुन: खापों और खापों से पैतृक जागीर के
मुखिया के नाम पर उप-खापों में विभाजित थी।
मेवाड़ के महाराणा के सिसोदिया कुल
सदस्य होने के कारण राजपूत जातियों
में सिसोदिया कुल का विशेष महत्व था।
यदि कही राजपूत-जातीयता का संशय
उत्पन्न हो जाता तो राणा (मेवाड़ का
शासक) के निर्णय को अंतिम मान लिया जाता था।
राज्य के शेष राजपूत कुलों की प्रतिष्ठा का स्तर
उनकी जागीरों तथा महाराणा द्वारा दिये जाने
वाले सम्मान द्वारा निर्धारित होता था।
विवाह सम्बन्ध की दृष्टि से उच्चोच परम्परा विद्यमान थी। एक ही वंश के
राजपूत-कुल परम्पर विवाह का सकते थे। अग्निवंशीय
राजपूत का पुत्र सूर्य और चन्द्र की कन्या
से विवाह नहीं कर सकता था जबकि
सूर्य वंशीय राजपूत पुत्र के लिए अन्य दोनो
वंश से सम्बन्ध हो सकते थे। खान-पान व्यवहार
में वंश भेद व्याप्त नहीं था।
दासया चाकर राजपूतों का स्थान
राजपूत जाति श्रेणी में दास अथवा चाकर
राजपूतों की इकाई आलोच्य कालीन
समाज में एक स्थान रखती थी। राजपूतों द्वारा
अन्य जाति का स्रियों को रखैल (उपपत्नी)
रखने की प्रथा और निर्धन बच्चे-बच्चियों का
क्रम-विक्रम के रिवाज ने भी इस जाति के
उद्भव तथा विकास में योगदान दिया। गोला
राजपूतों को उच्चतर राजपूत कन्याओं के विवाह में दहेज के
रुप में भेजा जाता था। इस पर राजपूत का प्रतिष्ठा निर्भर करती थी कि उसने कन्या-विवाह
में कितने दास-दासी (दावड़े-दावड़ी) प्रदान किये है। इन दास-दासियों का प्रयोग
शासक, जागीरदार तथा सम्पन्न राजपूत अपने प्रशासकीय,
व्यवस्थापकीय तथा काम-तृप्ति के लिए करते थे। दास-दासियों के विवाह की एक औपचारिकता पुरी कर दी जाती थी जिससे
स्वामी से उत्पन्न पुत्र का पिता मात्र विवाहित पति कहलाता रहे।
राजपूत लोग इस जाति का स्रियों के
साथ खान-पान में छूत नही मानते थे जबकि पुरुषों के
साथ खान-पान व्यवहार की स्थिति भिन्न थी। दास-राजपूतों की
सामाजिक प्रतिष्ठा और स्तरीकरण शासक
अथवा स्वामी से उसके व्यक्तिगत सम्बन्धों की दूरी और
समीपता पर निर्भर रहता था। यह
सम्बन्ध ही दासों की आर्थिक स्थिति को
व्यक्त करते थे। कई दास राजपूत अपनी
योग्यता और स्वामीकृपा के द्वारा जावि
में उपेक्षित होते हुए भी अपना सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव और
सम्मान रखते थे।
राजपूतों के सीमित व्यवसाय तथा उसके परिणाम
सामान्यत: राजकीय सेवा अथवा सामन्ती
सेवा के अतिरिक्त अन्य किसी भी व्यवसाय को अपनाना
राजपूत अपने कुल की प्रतिष्ठा के विरुद्ध
समझते थे। अत: प्रशासकीय कार्य और
सैनिक सेवा इनके जीविकोपार्जन
का मुख्य साधन था। १८ वीं शताब्धी के पूर्वार्द्ध तक
मेवाड़ी राजपूतों ने अपनी मातृभूमि की
अखण्डता तथा सार्वभौमिकता के लिए मुगलों तथा
मराठों के दाँत खट्टे किये तथा अपने प्राणों का आहुति देकर आदर्श प्रस्तुत किये।
किन्तु १८ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से निरन्तर
युद्धों पारस्परिक ईर्ष्या और आर्थिक विपन्नता ने
राजपूतों के राजनीतिक संगठन में विघटन उप्पन्न कर दिया अपनी गौरवशाली परम्पराओं को
भूलकर कुल वैमनस्य और विद्वेष के
अन्धकार में डूबने लगे। अधिकांश समय
वे घृणित संगति अथवा देव-दासियों की चापलूसी
में नष्ट करते थे। मद्य व अफीम के अति-सेवन के परिणामस्वरुप
उनमें कई दुर्गुण उत्पन्न होते गये थे। अपनी झूठी और दम्भपूर्ण प्रवृत्ति एवं जीर्ण गौरव निर्वाह हेतु
वे कुछ भी करने को तैयार थे।
अंग्ल-मेवाड़ संधि के बाद राजपूतों के
लिए सैनिक सेवा का व्यापक क्षेत्र संकुचित तथा
सीमित हो गया। प्रशासकीय सेवाओं
में अन्य जातियों का प्रभाव बढ़ जाने के कारण अब
राजपूतों की स्थिति में परिवर्तन आने
लगा। व्यापार-वाणिज्य तथा धन-सम्पत्ति अर्जित करने के
अन्य व्यवसायों में रुचि न होने के कारण अब
राजपूतों को कृषि-कार्य अपनाने पर
विवश होना पड़ा। ब्रिटिश संरक्षण के पूर्व अधिकांश जागीरदार
राजपूत थे और उनकी भूमि पर अन्य काश्तकार खेति करते थे।
लेकिन अब इन कृषिकरनी
जागीरदारों की तीन आर्थिक श्रेणियाँ हो गई थी -
१. दूसरों से खेती कराने वाले बड़े जागीरदार
२. स्वयं और दूसरों काश्तकारों के साथ खेती करने
वाले मध्यम जागीरदार तथा
३. अपनी भूमि पर स्वयं खेती करने वाले जागीरदार
महाराणा और सामन्तों ने कृषि-कार्य करने
वाले राजपूतों को भूमिकर से
सम्बंधित अनेक रियायतें दी। अन्य जाति के किसानों की अपेक्षा
उनसे भूमि कर कम लिया जाता था तथा
अन्य करों में भी छूट दी गई थी। प्रथम
श्रेणी के जागीरदारों की आर्थिक स्थिति
में कोई परिवर्त्तन नहीं हुआ था किन्तु
अन्य दो श्रेणीयों की स्थिति पहले जैसी नहीं रह गयी।
खाण्डा करने की प्रथा : राजपूतों का वीरात्मक प्रदर्शन
१९ वीं शताब्दी के युद्धविहीन शान्तिकाल
में राजपूत जाति की वीरात्मक गतिविर्धयाँ कुछ प्रदर्शनों व प्रतीकों द्वारा अभिव्यक्त होती थी। इनमें
से एक नवरात्रि उत्सव पर ठखाण्डा' करने की प्रथा थी। नवमी को
यदि कोई राजपूत एक ही समय में तलवार
से भैंसे की गर्दन काटने में असफल हो जाता तो उसे उदयपुर के राज्य दरबार और महलों में प्रवेश से वर्जित कर दिया जाता था। वह जाति पंचायत में उठ-बैठनहीं सकता था जब तक कि वह उसी वर्ष पुन: नवरात्रि पर अपने बल को प्रतिष्ठित नहीं कर देता था। उनके ये क्रियाकलाप उनके विरासती -गुणों की झलक मानी जा
सकती है।
समाज में कायस्थों का स्थान
९ वीं शताब्दी के लगभग कायस्थ जाति ने हिन्दू समुदाय में वर्णविहीन स्थान बना लिया था। अपनी उत्पति के साथ ही यह जाति आभिजात वर्ग से सम्वंधित रही थी। मेवाड़ में इस जाति का माथुर शाखा विद्यमान
थी। इनमें पुन: प्रशाखा के रुप में भटनागर की श्रेणी प्राप्त हेती है जो पंजाब के भटनेर क्षेत्र से देशाटन करने वाले थे। श्रीवास्तव, कटारिया, निगम, सक्सेना आदि कायस्थों की प्रशाखाएँ थी। विवाह-सम्बन्धों का
प्रचलन सिर्फ अन्तर्शाखा और प्रशाखा से तक ही सीमित था।
महाराण द्वारा स्वीकृत पट्टों, परवानों व आदेशों पर ठसही' का निशान लगाने वाले ठसहीवाला' और राजकीय-मंत्रालय का काम करने वाले ठबख्शी' कहलाते थे। प्राचीन कालीन पंचकूल (पंचायती निर्णय) की समिति का घराना ठपंचोली' कायस्थ कहलाने लगे थे। प्रकार्यात्मक दृष्टि से यह जाति विद्ववा में ब्राह्मण-गुणों, राज व्यवस्था में वैश्व-गुणों एवं वीसा में राजपूत-गुणों से युक्त रही थी। अपने इस वंशानुगत गुणों के कारण ये मेवाड़ राज्य की सैनिक और असैनिक सेवा करते रहे थे। कामदार, कुशल कुटनीतिक, प्रशासक, राज अधिकारी, कानून विशेषज्ञ, महासहानी, लेखापाल, रोकड़िया तथा लिपिक के रुप में उनका एक विशेष स्थान था। महाराणा व सामन्तों से निकट सम्पर्क में रहने के कारण इन्हे इनाम तथा जीविकोपार्जन के लिए भूमि आदि प्राप्त होती रहती थी। इस प्रकार भू-ग्रहिता कायस्थ स्वत: कृषकों की श्रेणी में आ जाते थे किन्तु इनकी भूमि पर कृषि-कार्य इनके घरेलू दास अथवा गाँव के अन्य कृषकों के द्वारा किया जाता था।
मांस-सदिरा के प्रयोग के सम्बन्ध में इस जाति में कोई प्रतिबन्ध नहीं था। अत: इसे विचलित-ब्राम्हण के रुप में भी माना जाता था। सामाजिक-आर्थिक प्रतिष्ठा में यह जाति राजपूतों व वैश्यों के समान स्तर पर रही।
वैश्य -महाजन जातियाँ तथा
समाज पर उनका प्रभाव
वैश्य प्रथवा महाजन जाति को सामान्यत:
बनिया, बोहरा और सेठ कहा जाता था। जैन धर्म की धार्मिक-सहिष्णुता
से प्रभावित होकर राजपूतों तथा कई
समाजोपाक्षित जातियों के लोगों ने जैन धर्म को अंगीकार किया था। धीरे-धीरे जाति-मिश्रण प्रक्रिया के परिणामस्वरुप इनमें
शाखा, प्रशाखा, गौत्र आदि के भेद
उत्पन्न हो गये। जाति-वादी अलगाव की
भावना प्रबल होती गई। श्रीमाल, ओसवाल,
अग्रवाल, माहेश्वरी, पोखाल, बीजावर्गी आदि
मेवाड़ में वैश्य-महाजन जाति की शाखाएँ थी। महाजनों
में एक अर्द्ध-जाति भी विद्यमान थी। महाजनों द्वारा
अन्य जाति की स्रियों से उत्पन्न सदस्य अर्द्ध-जाति के होते थे जिन्हे पंचाल
या पांचड़ा कहा जाता था। महाजनों की
सभी जातियाँ अन्तर्विवाही थी। गौत्र और प्रशाखा के
अनुसार वहिर्विवाही सम्बन्ध प्रचलित था। ऊँच-नीच का
सामाजिक भेद-विभेद विवाह सम्बन्धों
में मापा जाता था।
वाणिज्य-व्यापार तथा
लेन-देन महाजनों का पारम्परागत
व्यवसाय था। व्यापार के अलावा उधोगों पर
भी उनका एकाधिपत्य था। अलग-अलग व्यवसाय के
अनुसार आड़त का धंधा करने वाले आड़तिया,
सोने-चाँदी का धंधा करने वाले शर्राफ,
मण्डी में क्रय-विक्रय का मध्यस्थता करने
वाले ठदलाल, कोड़ी का धंधा करने वाले कोड़ियात् कपड़े के
व्यापारी को बजाज तथा औषधि विक्रेता महाजन पंसारी कहलाते रहे थे। महाजन जातियों
में ऐसा कोई वाणिज्य-व्यापार नहीं था जो
वैश्य समाज की प्रतिष्ठा और सम्मान के प्रतिकूल
माना जाता हो। राज्य तथा जागीरों की प्रशासनिक
व्यवस्था से सम्बंधित महाजनों को
वेतन के बदले भूमि दी जाती थी। ऐसे महाजन
स्वयं खेती न करके हिजारियों से खेती करवाते थे।
राज्य एवं जागीर की प्रशासनिक सेवाओं
में मुख्य रुप से लेखा-व्यवस्था, न्याय-व्यवस्था,
अधीनस्थ सेवा तथा सैन्य सेवा प्रमुख
थी। प्रशासन और सैन्य व्यवस्थापन के
उच्च पदों पर इस जाति के मेहता, कोठारी, गाँधी गलूंडया आदि घराने के
लोगों ने अधिक कार्य किया।
वैश्यों की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। जागीरों की प्रशासन-व्यवस्था चलाने,
सामन्तों को ॠण आदि प्रदान करने, ब्रिटिश
सरकार को खिराज चुकाने तथा राजपूतों को अपनी
सामाजिक रुढियों एवं गौरव का निर्वाह करने हेतु
समय-समय पर सेठ-साहकारों की
शरण लेनी पड़ती थी। इस प्रकार धीरे-धीरे
वैश्य-महाजन वर्ग ने अपना राजनीतिक, आर्थिक और
सामाजिक प्रभाव बढ़ा लिया था।
चारण -भाट जाति का
सामाजिक महत्व
यद्यपि चारण एवं भाट को अलग-अलग जाति
में वर्गीकृत किया जा सकता है किन्तु दोनों
वर्गो के सामाजिक अन्तर को देखते हुए उन्हे एक ही जाति की दो उप-जातियाँ कहा जा
सकता है। चारण जाति में हमे ब्राह्मण और
राजपूत जाति के गुणों का सामन्जस्य
मिलता है। पठन-पाठन तथा साहित्यिक
रचनायों के कारण उनकी तुलना ब्राह्मणों
से की जाती है। चारण लोग राजपूत जाति तथा
राजकुत से सम्बन्धित थे तथा वे शिक्षित होते थे। अपने
शैक्षिक ज्ञान की अधिकता के कारण वे राजस्थानी
वात, ख्यात, रासो और साहित्य के लेखक रहे थे वही
भाट लोग जनसाधारण से सम्बंधित थे, अधिकतर पढ़े-लिखे नहीं थे।
लालसायुक्त याचक-प्रवृति ने उनकी प्रतिष्ठा को धुमिल किया।
शिक्षा की कमी के कारण वे चारणों से अलग पीढ़ीनामा,
वंशावली तथा कुर्सीनामा के संग्रहकर्त्ता थे।
लेकिन फिर भी समाज में दोनों की प्रतिष्ठा
बराबर की रही है।
चारण तथा भाटों को अपनी सेवा के बदले
राज्य अथवा जागीरों से कर मुक्त भूमि, गाँव आदि प्राप्त होते थे।
भूमि धारक चारण कृषि कार्य भी करते थे।
युद्ध में भाग लेने व शान्ति की उपासना
में यह जाति राजपूत जाति के निकट थी। १८
वीं शताब्दी में मराठों के विरुद्ध तथा १९वीं
शताब्दी में आन्तरिक उपद्रवों को दबाने
में इस जाति के लोगों ने सफल सैनिक कार्यवाहियों
में भाग लिया। महाराणा अमरसिंह के काल
में कुछ चारणों तथा भाटों ने अपने पैतृक
व्यवसाय के साथ-साथ व्यापारिक सामान
भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने व
बेचने का कार्य आरम्भ किया। ऐसे लोगों को
बनजारा कहा जाता था।
चारणों का स्वामिभक्ति सदैव उल्लेखनीय रही थी।
संकटकाल में भी वह अपने स्वामी के
साथ रहता था। उनका घर संकटकाल में
राजपूत स्रियों के लिए सर्वाधिक सुरक्षित
माना जाता था। महाराणा के राज्याभिषेक पर आशीर्वाद देने तथा
शरणें १. का विशेषाधिकार चारणों को प्राप्त था।
मेवाड़ की कृषि व्यवसायी जातियाँ
मेवाड़ में कुछ जातियाँ ऐसी थी जो पूर्णतया कृषि-कर्मी
मानी जाती थी जैसे जाट माली, डाँगी धाकड़ और जणवा
मेवाड़ की जनसंख्या में इनका प्रतिनिधित्व १७ऽ था।
यद्यपि ये सभी जातियाँ अपने स्वजाति नियमों
से आबद्ध थीं, फिर भी इनमें ऊँच-नीच का
भेदभाव नहीं था। सामाजिक-आर्थिक पद-स्तर पर
सभी किसान अपने को ठकरसा' कहलाने
में गर्व समझते थे। विवाह स्वजाति
में ही होता था पर विवाह के नियम कठोर नहीं थे। विधवा-विवाह, पुनर्विवाह तथा विवाह-विच्छेद
सुगमतापूर्वक रित और नाता की परम्परानुसार हो जाते थे। इसीलिए
समाज में उन्हे नातायती जातियाँ कहा जाता था।
कृषक समूह से सम्बंधित होने के कारण इन जातियों
से पटेलों का निर्वाचन किया जाता था। यह निर्वाचन
शासक और जागीरदार की इच्छा पर निर्भर था
अन्यथा मनोनीत भी कर लिया जाता था।
बाद में यह पद पैतृक तथा परम्परागत हो गया। पटेलों का प्रमुख कार्य
भूमि-कर की वसूली, राज्यादेश का जन-प्रचार,
बटाई या मुकाते में राज्यांश नियत करना आदि था। इसके एवज
में पटेलों को कर-मुक्त भूमि और
राज वसूली का १/४० हिस्सा दिया जाता था।
नोट : १. अपराधी को संरक्षण देने का अधिकार
सामन्तवादी व्यवस्था में कृषि-कर्मी
वर्ग का सामाजिक-आर्थिक स्तर अन्यन्त निम्न था
लेकिन १९२२ ई.के बिजोलिया आन्दोलन
में पुरे कृषि-कर्मी वर्ग में एक नयी चेतना का
संचार कर दिया।
मेवाड़ की पशु-पालक जातियाँ
अहीर, गर्जर, गायरी तथा रेबारी आदि
मेवाड़ की मुख्य पशु-पालक जातियाँ थी। गुर्जर प्राय: गाय-भैंस पालते थे, गायरी
भेड़-बकरी पालक जाति थी वही रेवाड़ी ऊँट का पालन करते थे।
राज्य की जनसंख्या में इन जातियों का जनप्रतिनिधित्व ६ऽ था।
ये मुलत: कृषक थे तथा साथ ही साथ दूध-दही, धृत, पशु क्रय-विक्रय तथा पशुओं के ऊन
से बने वस्रों का व्यापार करते थे। गायरी जाति के
लोग ग्राम्य-जन के पशुओं के गोचर का कार्य
भी करते थे जिसके बदले फसल-कटाई पर प्रति पशु नेग
मिलता था।
पशुपालक जातियों का सामाजिक-आर्थिक स्तर
मूल कृषक-जातियों से अच्छा था। गुर्जर जाति के कई परिवार
राजघरानों तथा ठिकानों से सम्बंधित रहे थे। गुर्जर स्रियों द्वारा
राजपूत के बच्चों को दूध पिलाने के रिवाज
समाज ने इनका महत्व बढ़ा दिया था। धीरे-धीरे इन धाय
भाई गुर्जरों का अलग वर्ग धाबाई-जाति के
रुप में प्रतिस्थापित हो गया।
राजपूत -प्रथा का परिणाम : धाबाई जाति
वैसी गुर्जर स्रियाँ जो राजपूत के पुत्रों को कुछ पिलाती थी धाय माँ कहलाती थी तथा पुत्र धाय भाई या धाबाई कहे जाते थे।
धाबाई जाति के सदस्य राजपूतों से सम्बंधित होने के कारण सामाजिक आर्थिक दृष्टि से प्रतिष्ठित और सम्मानित रहे थे। राज्य द्वारा इन्हे जागीर-भूमि, प्रशासनिक तथा सैनिक पद प्रदान किये जाते थे। १९वीं शताब्दी में धाबाई जाति के सदस्य राज्य की अधीनस्थ सेवा में नियुक्त किये जाने लगे। इन सेवाओं में प्रमुख रुप से शिकार विभाग से जुड़ी सेवाएँ व यात्राओं की सुरक्षा थी।
मेवाड़ की शिल्प तथा दस्तकार जातियाँ
इस वर्ग की जातियों में चतारा, सुनार, छीपा, सिकलीगर, पटवा, उस्ता, खेरादी, महीदोज, कसारा, जड़िया,
मोची, गाँधी, लुहार, कुम्हार एवं बलाई मुख्य जातियाँ थी। इन सभी का सामाजिक सम्बन्ध तथा व्यवहार जाति के अन्दर ही रहा था। विवाह सम्बन्ध में कठोरता नहीं थी। भोजन-व्यवहार में जाति-दूरी का भेद सभी जातियाँ
मे व्याप्त था।
चतारा, सुनार, कसारा, पटवा, सिकलीगर
आदि का शिल्पी जातियों की अन्तर्श्रेणी में प्रथम स्तर था। यह जातियाँ अभिजात एंव सम्पन्न वर्ग से सम्बंधित थी। जाति समाज की श्रेणीबद्धता में यह सभी जातियाँ ठकारु' कहलाती थी। कारु (कारीगर) जातियों का सामाजिक स्तरण द्विज जातियों से निम्न तथा मुद्र जातियों से उच्च था। लुहार, सुथार छीपा, गाँधी और कुम्हार जातियों का स्तर जातिअन्तर्श्रेणी में द्वितीय
तथा मेची, बलाई आदि तृतीय स्तर पर थी। उस्ता नामक शिल्पी मुस्लिम समुदाय से जुड़ा था। द्वितीय तथा
तृतीय वर्ग स्तर का शिल्पी जातियाँ जनसाधारण से अभिजात वर्ग तक के लोगों से सम्बंधित रहती
थी।
ग्राम्य शिल्पी ग्राम्य-जनों की न्यून आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। इसके अलावा कई शिल्पी राज्य सेवा में भी दैनिक, माहवारी अथवा वंशानुगत कार्य करते थे। ऐसे शिल्पियों को राज्य का ओर से कपड़ा, अन्न का नामा राशि अथवा जमीन-जायदाद प्रदान की जाती थी। इन शिल्पी जातियाँ के उपवर्ग व्यवसाय के आधार पर भी बंटे थे। राज सेवा करने वाले राजा भोई थे तो वही बलाई नामक जाति रेजा (कपड़ा) बुनने का कार्य करते थे तथा साथ साथ दूसरों के खेतों में मजदूरी करते थे। ग्रामीण-राज्य सेवा के पद पर इसी जाति के लोगों से गाँव-बलाई की नियुक्ति और निर्वाचन किया जाता था जो बाद में पटेलों की तरह वंशानुगत हो गया।
मेवाड़ की सेवक जातियाँ
इस वर्ग की जातियों में कन्दोई, तम्बोली, तेली, नाई, बारी, पिंजारा (मुसलमान), खटीक, कलाल, धोबी, ढ़ोली इत्यादि प्रमुख रही थीं। इन जातियों का पारस्परिक जाति-भेद कार्य की विशेषता एवं उसके प्रकार पर
निर्भर करता था जैसे मिठाई बनाने वाले कन्दोई, पान लगाने वाले तम्बोली, तेल निकालने वाले तेली, बाल काटने व साफ करने वाले नाई, पत्तल-दोना बनाने वाले वारी, मांस-विक्रेता खटीक, शराब विक्रेता कलाल, कपड़े धोने वाले धोबी, उत्सव गायन-वादन करने वाले ढोली कहलाते थे। सामाजिक-धार्मिक कार्यों में नाई, बारी, तम्बोली आदि महत्वपूर्ण सेवक जातियाँ थी। यह सभी जातियाँ यजमानी पर अपना निर्वाह करती थीं।
मेवाड़ की निम्न तथा उपेक्षित जातियाँ
हिन्दुओं की विकृत जाति-व्यवस्था से मेवाड़ भी अभिशप्त था। भंगी तथा चमार जातियों को निम्न जाति का दर्जा प्राप्त था। चमार जाति का उपजातियों में मृत पशु का चमड़ा सफाई व पकाने वाले बोला, ग्राम्य चर्मकारी करने वाले रेगर तथा सूअर पालने वाले भांबी मुख्य जातियाँ थी। हेय कृषक श्रेणी में कीर नामक जाति के लोग नदी के किनारे तरबूज तथा खरबूज की खेती करते थे। मुस्लिम चर्मकारों को कसाई कहा जाता था।
निम्न जातियों की बस्तियाँ प्राय: शहर से बाहर बनायी जाती थी। सार्वजनिक कुओं व तालाबों का प्रयोग वर्जित था। ये जातियाँ भी अन्तर्जाति विवाह मानती थी।
उपरोक्त निम्न जातियों के अलावा हम अन्य उपेक्षित जातियों को तीन वर्गा में बाँट सकते हैं -
१. धुमक्कड़-व्यवसायी जातियाँ
- गडोलिया लुहार, बालदिया एवं बनजारा
२. अपराध-कमी व लोकानुरंजनी जातियाँ
- कंजर, सांसी, थोरी बावरी तथा
कालबेलिया, नट, रखत, मेर आदि।
३. आत्मवादी अथवा आदिवासी जातियाँ
- भील, मीणा, ग्रासिया,
१. धुमक्कड.-व्यवसायी जातियाँ - गाड़ोलिया लुहार मूलत: लुहार नामक शिल्पी जाति की एक शाखा रहे हैं। इनका कार्य मुख्यत: लौह-धातु के कृषि उपकरणों का निर्माण रहा है। ये लोग पारिवारिक समूहों में बैलगाड़ियाँ पर देशाटन करते रहते थे। एक ही समूह के लोग अन्तर्समूह विवाह नहीं करते थे। कन्याओं की कमी के कारण वधू-मूल्य लेने की प्रथा का प्रचलन था।
बनजारा जाति, मेवाड़ के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में बालदिया (बैल रखने वाले) भी कहलाते थे। इनमें हैवासी, गवारिया और नट नामक तीन उपजाति भेंद थे। १८वीं शताब्दी के बाद इस जाति का आर्थिक स्थिति लगातार खराब होती गई परिणामत: इन्होने दूसरे व्यवसाय तथा असमाजिक कार्यों में अपने आप को संलग्न कर लिया।
२. अपराधकर्मी तथा लोकागुंजनी जातियाँ - अपराधकर्मी तथा लोकानुरंजनी जातियों के विवाह सम्बन्ध अन्तर्जाति समूह में होते थे। रक्त सम्बन्धों के अतिरिक्त इन में कोई विवाह प्रतिबंध नहीं था। कं जाति का परम्परागत व्यवसाय मीणा तथा चारण जाति की वंशावली विरुद गायकी था। कालबेलिया जाति सांप का खेल दिरवाता था तथा आटा पीसने की चक्का तथा खरल-बट्टा बनाने का कार्य करता था। वागरिया झाड़ू, चटाई आदि बनाने का लघु उद्योग कर जीविका चलाते थे। सरगड़ा जाति गाने-बजाने तथा रावल लोग रमत (नाटक) द्वारा मनोरंजन का काम करते थे। नट खेल-तमाश दिखाकर अपना पेट पालता था।
मेर व रावत नामक जातियाँ मेवाड़ के उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र के वन्य-प्रान्तों में रहती थी। मुस्लिम आक्रमणों के प्रभाव से उन्होने इस्लाम धर्म को अपना लिया था लेकिन अभी भी हिन्दु रीति-रिवाजों को वे भूल नहीं पाये थे। इन जाति के लोग सम्पन्न व्यक्तियों के यहाँ घरेलू दास बन कर अपना गुजारा करते थे। मेरों की आर्थिक स्थिति का अनुमान उनकी पैतृक दासत्व प्रवृत्ति से लगाया जा
सकता है।
३. आत्मवादी
अथवा आदिवासी जातियाँ -
मेवाड़ राज्य के भोमट, मगरा, छप्पन,खेराड़ व ऊपरमाल के जंगलों में भील, ग्रासिया और मीणा जातियाँ रहती थी। इनमें विवाह सम्बन्धों में भाई-बहन के रक्त-सम्बन्धों को छोड़कर शेष पर प्रतिबन्ध नहीं था। इनमें अधिकतर नाता तथा दापा (वधु का मूल्य देकर विवाह करना) की प्रथा प्रचलित थी।
इन जातियों ने मेवाड़ राज्य की महत्वपूर्ण सेवाएँ की हैं। प्राचीन काल से ही राज्य के प्रति अन्धभक्ति रखनेवाले भीलों ने युद्ध के समय महत्वपूर्ण सेवाएँ दी। इसलिए मेवाड़ के दरवार में इनका बड़ा सम्मान था। मेवाड़ में स्वच्छन्द सामान्तिक प्रवृत्तियों के कारण यह जाति कालान्तर में लूटमार और चोरी द्वारा अपनी जीविका चलाने लगी। राज्य प्रशासन ने इस पर नियंत्रण के लिए उन्हे ठबोलाई एवं रखवाली' नामक शुल्क वसूल करने का भी अधिकार दे दिया फिर भी इनकी लुटेरी प्रवृत्ति पर नियंत्रण स्थापित नहीं हो सका। अन्तत इनकी घनी बस्तियों वाले केन्द्र-खेरवाड़ा, कोटड़ा तथा देवली में छावनियाँ बनाकर इन्हें सैनिक कार्यो में लगाने का निश्चय किया गया तथा ठमेवाड़ भील कोर' का स्थापना की गई। १८८१ ई. मे राणा सज्जन सिंह के शासन द्वारा इनके जाति-नियमों, परम्पराई आर्थिक अधिकारों में अधिकारिक हस्तक्षेप के कारण सम्पूर्ण भील जाति ने राज्य का प्रबल विरोध किया। अन्तत: जाति नियमों व अधिकारों को यथावत रखा गया।
इन आदिवासी जातियों का मुख्य व्यवसाय खेती करना तथा जंगली वस्तुओं को एकत्र कर नगर तथा कस्बे में बेचना था। ग्रामीण बास्तियों के आस पास रहने वाले आदिवासी गाँवों में बेगार करके अपना जीवन-निर्वाह करते थे। उसके बदले में ग्रामीण उन्हे आनाज के रुप में भत्ता देते थे।
ओरणा, पानरवा और जवास के भील अपने को राजपूत तथा भीलों की मिश्रित सन्तान मानते थे। इनकी शाखा - प्रशाखा राजपूतों से मिलती-जुलती रही थी । इन्हे ग्रासिया अथवा मोमिया भील कहा जाता था। सामाजिक स्तरण में ये अन्य भीलों से उच्च माने जाते थे लेकिन खान-पान और विवाह सम्बन्धों में ये अन्य भीलों के समान ही थे।
मेवाड़ की मुस्लिम धर्म समुदाय
मुसलमानों का मेवाड़ में स्वतंत्र अस्तित्व रहा। जनसंख्या की दृष्टि से हिन्दू समुदाय के बाद इनका दूसरा स्थान था। हिन्दू जाति-व्यवस्था से प्रभावित मुस्लिम समुदाय भी विभिन्न वर्गों में बँटा था।
१. सैयद, शेख एवं पठान मुसलमान जिसे अशरफ समुह कहा जाता था।
२. परिवर्तित मुसलमान जिन में कायमारवानी, मेवाती अथवा मेव थे।
३. पाक (पवित्र) व्यवसायी जातियाँ जिस में जुलाहे, दर्जी, कसाई, हज्जाम, कुंजड़ा, धुनिया, धोबी,
फकीर, महावत आदि आते थे।
४. नापाक (अपवित्र) जातियाँ जैसे मेहतर (रेला) आदि।
इन स्तरों का प्रभाव उनके विवाह सम्बन्धों व सामाजिक व्यवहारों पर भी दिखाई देता था अर्थात् - उच्च स्तर का पुरुष निम्न स्तर की कन्या से विवाह कर सकता था, लेकिन निम्न स्तर के पुरुष का उच्च स्तर की कन्या से विवाह नहीं हो सकता था। धर्मपरिवर्तित मुसलमानों के अनेक रीति-रिवाज हिन्दुओं के समान ही प्रचलित थे।
मेवाड़ के मुस्लिम समुदाय का मुख्य कार्य सैनिक सेवा था। आलोच्य काल में मराठों के विरुद्ध उनकी प्रशंसनीय सेवाओं के कारण अनेक मुस्लिम परिवारों को भूमि अथवा जागीर प्रदान कर दी गई थी। अनेक मुस्लिम परिवार राज्य के लिए तोप, बन्दूक व बारुद बनाने का काम करते थे। किन्तु आंग्ल-मेवाड़ सन्धि के बाद सैनिक आवश्यकता न होने के कारण इनमें से अधिकांश मुस्लिम परिवार कृषि कार्य करने लग गये थे। जिन मुसलमानों का मुख्य व्यवसाय कृषि था, उन्हे कुंजड़ा जाति से जाना जाता था। अन्य व्यवसायी मुसलमानों में कपड़ा रंगने वाले रंगरेज, चूड़ियाँ बनाने वाले चूड़ीगर, आस्र-शस्र बनाने वाले सिकलीगर, रुई धुनने वाले पिंजारा, कपड़े बुनने वाले जुलाहा के साथ-साथ हज्जाम, कसाई, मिश्ती, हेला (मेहतर) आदि मुख्य थे।
राज्य की असैनिक सेवा करने वाले मुसलमानों में फीलखाना (हस्तीशाला) के महावत, नाव के कारखाने के नाविक (नावडया), अस्तबल के साईस, पायगादार, हाथियों को प्रशिक्षण देने वाले जलेबदार, राज्य सवारी में छड़ी लेकर चलने वाले छड़ीदार, पत्थर गढ़ने वाले सलावट, चुनाई करने वाले मिस्री ; नक्काशी करने वाले नक्काश आदि मुख्य थे। धर्माधिकरियों के अन्य वर्गों में काजी तथा मौलवी लोग थे। इनकी जीविका धर्मार्थ भूमि या दान पर चलती थी।
मेवाड़ में बोहरा - मुस्लिम समुदाय
ये शिया मताबलम्बी थे तथा आर्थिक रुप से सम्पन्न थे। बोहरा व्यापारियों का सर्वप्रथम उल्लेख महाराणा शम्भूसिंह के काल में मिलता है। संभवत : व्यापारिक सुविधाओं से प्रेरित होकर ये मेवाड़ आये थे। ये लोग व्याज पर ॠणा देने, साड़ियों पर जड़ी का काम करने, मोतियों का माला आदि बनाने तथा कपड़ा व मणिहारी की बिक्री हेतु फेरी का धन्धा भी करते थे। १९ वीं शती के उत्तरोत्तर में लौह - व्यवसाय के थोक - व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया। राज्य सेवाओं में नियुक्त अनेक बोहरा मुसलमान मेवाड़ के आदिवासी क्षेत्रों में रुपयों का लेन-देन तथा व्यापार भी करते थे।
मेवाड़ में इसाई समुदाय का अस्तित्व
यह समुदाय मेवाड़ समाज में १८१८ ई. की मेवाड़-ईस्ट इंडिया कम्पनी समझोते के पश्चात् बसने लगा। एजेन्सी के ब्रिटिश कर्मचारी, धर्म प्रचारक पादरी सैनिक कर्मचारी तथा धर्म परिवर्तित ईसाई इस समुदाय में सम्मिलित थे। मेवाड़ में इनकी संख्या सीमित ही थी।
१९ वीं शती के अंतिम वर्षों में मेवाड़ी समाज में सिक्ख तथा आर्य समाजी लोगो का प्रवेश हुआ।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि यहाँ सभी जातियो में शाखा -प्रशाखा विद्यमान थी और उनमें ऊँच-नीच का सामाजिक दूरी भी व्याप्त थी। लेकिन ऊँच-नीच की परम्परा के बावजुद लोग एक-दूसरे की जाति की मान-मर्यादा का आदर करते थे तथा आर्थिक सम्बन्धों में एक-दूसरे पर आश्रित थे। विभिन्न सम्प्रदायों में धार्मिक सहिष्णुता एवं सहयोग की भावना यहाँ के समाज की मुख्य विशेषता थी।
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