अन्य राजपूताना रियासतों की तरह मेवाड़ भी चित्रकला के क्षेत्र में एक विशेष योगदान रखता था। वास्तव में यहाँ की शैली को उस पुरे क्षेत्र की पहली शैली के रुप में सम्मान प्राप्त है। हिन्दु तथा मुस्लिम दोनों चित्रकारों को उचित सम्मान तथा प्रतिष्ठा दी जाती थी। काम के बँटवारे की कोई निश्चित नीति नही थी लेकिन वे प्राय : बहुआयायी प्रतिभा के होते थे। राणाओं द्वारा चित्रकारों को इनाम के तौर पर गाँव तथा सम्मान के लिए उत्तराणी नछरावल का रुपीया (चाँदी के खास सिक्के) देते थे। राज्य के अन्य विभागों की तरह चित्रकला का भी एक विभाग होता था जिसे चितारों का कारखाना कहते थे। ठदरोगा' जो एक प्रधान चित्रकार होता था वह इस पर नियंत्रण करते थे।
कुछ विश्वसनीय साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि रियासत में कम-से-कम चार तरह के चित्रकार काम करते थे।
१. ओदेदार चित्रकार (जांगिड ब्राह्मण) - ये सरकारी चित्रकार होते थे तथा रियासत से वेतन लेते थे। उन्हे गोदान से प्रतिदिन राशन भी मिलता था।
२. नन-ओदेदार चित्रकार (ब्राह्मण या बढईयों के लडडानी समुदाय) - ये वैसे स्वतंत्र पेशेवर चित्रकार थे जो किसी विशेष अवसर पर नियुक्त किये जाते थे तथा हर तरह के कार्य जैसे आन्तरिक सज्जा, तथा कल्पनात्मक विषयों पर मिनिएचर चित्रकारी करते थे।
३. नन-ओदेदार चित्रकार (भाटी गोत्र के मुस्लिम जो हिन्दु परिवारों में भी व्याहे गये थे)
- स्वतंत्र पेशेवर चित्रकार थे जो सुक्ष्म सज्जा कार्य जैसे घरों, दरवाजो, पालकी, तोरण, तामझाम, गनगौर चित्र आदि पर चित्रकारी करते थे।
४. गजाधर या सुत्रधर (ज्यादातर जांगिड ब्राह्मण या लढ़ाणी सुतारे (बढ़ई) - इस श्रेणी में वास्तुविद् अभियंता तथा मिस्री आते थे। ये चित्रकार समय-समय पर चित्रों तथा सज्जाओं के स्थानान्तरण का जिम्मेवारी लेते थे। इन चित्रकारों ने साधारण जनता की जरुरतों को भी पुरा किया।
ठतसवीरों का कारखाना' के दरोगा को रियासत से प्रतिमाह वेतन दिया जाता है। महारणा शभ्भू सिंह (१८६१-१८७४ ई.) के समय मुसबीर पस्शराम जी गौड शर्मा तसवीरों का कारखाना के दरोगा थे।
नन ओदेदार चित्रकारों में जो हिन्दु तथा मुस्लिम दोनों थे, ने ज्यादा काम महल से बाहर अपने घर पर ही किया। महल में वे छोटी-मोटी चित्रकारी व गृह-सज्जा कार्य जैसे घरो/हवेलियों, दरवाजे तथा रिवड़कियों पर पुष्पाकृति का कार्य, दीवारों पर शिकार दृश्य, पालकी, तामझाम व गणगौर के चित्र बनाते थे। इस श्रेणी के चित्रकार राजसी शिकार यात्राओं पर जाते थे तथा राणा के पहुँचने के पहले जंगल में सारी तैयारियाँ पुरी करते थे।
तीसरी श्रेणी सुत्रधर और गजधरों की थी जो वास्तव में मकान बनाने ठेकेदार तथा अभियंता थे। इस श्रेणी का भी एक सम्मानजनक स्थान था।
कलाकारों का एक श्रेणी का प्रादुर्भाव लड़डानी समुदाय से हुआ। १८५० ई. से १९०० इ. के बीच बहुत से चित्रकार नाथद्वारा से उदयपुर भी आकर बस गये थे। उन्हे लड्डाणी सुतारे (बढ़ई) कहा गया। इस श्रेणी के बारे में अलग से कोई खास जानकारी नहीं है।
तसवीरों का कारखाना के चित्र प्राय: राणा की तस्वीर, कल्पनात्मक विषयों पर चित्र समेत हस्तलिपि, शिकार तथा उत्सव के दृश्य तथा रियासत से जुड़ी हुई खास घटनाओ से सम्बद्ध चित्र होते थे। यहाँ कम महत्व के कार्य जैसे लकड़ी के सामान, दरवाजे और पालकियों पर चित्रकारी का रिवाज नही था। ये कार्य बाहर के स्वतंत्र पेशवेर कलाकार कर दिया करते थे।
वर्त्तमान में कुछ चित्रकारों की अगली पीढियाँ अभी तक अपने पेशे को संरक्षण दे रही है। उनमें छगनलाल जी गौड़ शर्मा लीलाधर जी ; श्री तुलसी नाथ जी धायभाई, चिरांजी लाल, शामसुद्दीन आदि प्रमुख
है। चित्रकला को पहले की तरह तो सरकार का प्रश्रय नहीं प्राप्त है पर ये चित्रकार अपनी कला को अभी तक जीवित रखने के प्रयास में संघर्षरत है। वे वैसे ही मिनिएचर जो उसी समय के विषय-वस्तु से सम्बद्ध रहती है, बनाकर बेचते है तथा जीवकोपार्जन करते है।
चित्रकार शामशुद्दीन जो रियासत के मुस्लिम चित्रकारों के वंशज हैं अपने आप को ठचिताराम' कहते है। इसका अर्थ वे बताते है चितअराम उ चित्राम (चिताराम) यानि चित्त (मन) लगाकर कार्य करने से राम मिलेगे। वास्तव में इस तरह की अवधारणा सामान्य लगने के बावजुद महत्वपूर्ण है। यह हिन्दु तथा मुस्लिम चित्रकारों के एक दूसरे के प्रति आदर भाव को दिखाती है।
चित्रकारों द्वारा सोने का वरख तथा अन्य रंग बनाने की विधि
हींगलू
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लाल रंग जिसका इस्तेमाल किनारों पर चमक बढ़ावे के लिए होता है। हरामाटा (सेलू) - यह बा से उपलब्ध हो जाते थे।
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नील
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माठ की नील। लोहे की वस्तुओं को बरतन में डाल कर उसके मुँह को गाय के गोबर से बन्द करके जमीन में कई दिनों के लिए गाढ़ कर तैयार किया जाता था। यह रंग कपड़ो के गाढ़े नीले रंग में रंगने में काम आता था।
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कज्जली
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लैम्प की कलिख जिसे गोंद में मिलाकर काला रंग बनाया जाता है।
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गौ
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गोली - गाय के मुत्र से तैयार किया गया चमकीला पीला रंग
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प्यावडी
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गेरुआ पीला। पीले पत्थरों को पीस कर उसमें गोंद मिलाया जाता है।
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सिन्दूर
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साधारण लाल शीशा को बारीकी से कुटा जाता था। परीक्षण के लिए उसमें थोड़ा गुड़ मिला देने पर यह नारंगी रंग का हो जाता है।
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नीली
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आकाश के समान नीला यह बाज़ार में उपलब्ध है।
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