शहरपनाह
पुराना राजमहल
सज्जन निवास
जगदीश का मंदिर
पीछोला सरोवर व
टापू
धोला महल
जगमंदिर
एकलिंगगढ़
खास ओदी तथा सीसारमा
गाँव
सज्जनगढ़
सहेलियों की बाड़ी
आहाड़
एकलिंग जी
नागदा
श्रीनाथजी
कांकड़ोली
चारभुजा
रुपनारायण
कुंभलगढ़
जावर
चावंड
ॠषभदेव
|
मेवाड़ राज्य में अनेक ऐसे स्थान हैं जो
अपनी प्राचीनता व
ऐतिहासिकता के लिए जाने जाते हैं।
इनमें प्रमुख स्थानों का परिचय इस
प्रकार से है :-
उदयपुर
उदयपुर शहर को
महाराणा उदयसिंह ने सुरक्षा के
दृष्टिकोण से उचित मानते हुए
राजधानी के रुप में बसाया था। यह
शहर पीछोला तालाब के पूर्वी
किनारे के निकट स्थित पहाड़ी के
दोनों पार्श्व पर बसा हुआ है।
इसके पूर्व तथा उत्तर की ओर
समतल भूमि है जिस तरफ नगर का
विस्तार हाता गया। चूंकि शहर
प्राचीन है अतः जगह-जगह पर महल,
वाड़ियाँ व मंदिर देखे जा सकते
हैं अतः पूरी नगर-निर्माण योजना
में आधुनिकता का अभाव है। ज्यादातर
सड़कें व गलियाँ तंग हैं। यहाँ के
कुछ प्रमुख इमारतों का उल्लेख निम्न
प्रकार से है -
शहरपनाह
शहर के तीन तरफ पक्की
शहरपनाह है जिसमें स्थान-स्थान
पर बुजç बनी हुई हैं। नगर के
उत्तर तथा पूरब की शहरपनाह
पर्वतमाला से दूर है। कोट के
पास-पास चौड़ी खाई खोदी गई
है।
पुराना
राजमहल
शहर के दक्षिण की तरफ
पहाड़ी की उँचाई पर पीछोला झील
के किनारे पुराना राजमहल
अवस्थित है। यह बहुत ही सुन्दर
और प्राचीन शैली के हैं। छोटी
चित्रशाली, सूरज चौपाड़,
पीतमनिवास, मानिकमहल,
मोतीमहल, चीनी की चित्रशाली,
दिलखुशाल, बाड़ीमहल
(अमर-विलास) आदि इस महल की
मुख्य इमारतें हैं।
पुराने महलों के आगे
उपनिवेशवादी शैली से प्रभावित
शंभु निवास नाम का महल
बनाया गया है। उसी के निकट में
शिवनिवास नाम से भी एक अन्य भव्य
महल है। राजमहल शहर के
सबसे ऊँचे स्थान पर बनाये
जाने के कारण तथा नीचे की तरफ
विस्तीर्ण सरोवर होने से
यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता देखते
ही बनती है।
सज्जन निवास
राजमहलों के नीचे सज्जन
निवास नाम का बड़ा ही रमणीय
और विस्तृत बगीचा है। इसमें
कई फब्बारे लगे हुए हैं। बगीचे
के एक तरफ जगह-जगह पर विभिन्न
जंतुओं व पक्षियों के रहने के
स्थान निर्मित किये गये हैं। इसके
एक तरफ एक विशाल भवन खड़ा है।
इसे विक्टोरिया हॉल के नाम
से जाना जाता है। इस हॉल के
सामने महारानी विक्टोरिया की
पूरे कद की मूर्ति
खड़ी है। भवन में पुस्तकालय,
वाचनालय, संग्रहालय आदि बने
हैं। पुस्तकालय में ऐतिहासिक
पुस्तकों का महत्वपूर्ण संग्रह है
तथा संग्रहालय में पुराने
शिलालेख तथा प्राचीन मूर्तियाँ
यथेष्ट संख्या में रखी गई हैं।
जगदीश का
मंदिर
महाराणा जगतसिंह ने
सन् १६५२ ई. (विक्रम संवत् १७०९) में
इस भव्य मंदिर का निर्माण किया
था। मंदिर का निर्माण एक ऊँचे
स्थान पर हुआ है। बाह्य हिस्सों में
चारों तरफ से अत्यन्त सुन्दर
नक्काशी का काम किया गया है,
जिसमें गजथर, अश्वथर तथा
संसारथर को प्रदर्शित किया गया
है। गजथर के कई हाथी तथा
बाहरी द्वार के पास का कुछ भाग
औरंगजेब की चढ़ाई के समय
आक्रमणकारियों ने तोड़ डाला था,
जो फिर नया बनाया गया। खंडित
हाथियों की पंक्ति में भी नये हाथी
को यथास्थान लगा दिया।
पीछोला
सरोवर व टापू
नगर के पश्चिमी किनारे
पर पीछोला नामक विस्तीर्ण
सरोवर स्थित है। सरोवर में
कई छोटे-बड़े टापू है। इन
टापूओं पर भिन्न-भिन्न समय में
कई सुन्दर इमारतों का निर्माण
हुआ। राजमहलों के सामने ही
महाराणा जगत सिंह द्वितीय एक
टापू पर जगनिवास नामक महल का
निर्माण करवाया था। इनमें बने
बगीचे, हौज व फब्बारे दर्शनीय
हैं।
धोला महल
प्राचीन महलों में
संगमरमर का बना हुआ धोला
महल देखने योग्य है। इसके
सामने ही नहर का हौज बना हुआ
है, जिसके चारों तरफ
भूलभुलैया के रुप में बनी हुई
नालियाँ, पुष्पों की क्यारियाँ तथा
ताड़ के ऊँचे-उँचे वृक्ष लगे हुए
हैं, जिससे हरियाली की अच्छी छटा
बनी रहती है।
महाराणा शंभुसिंह तथा
सज्जनसिंह ने अपने-अपने नाम से
शंभुप्रकाश और सज्जन निवास
नामक महल बनवाये। सज्जन
निवास महल में तैरने के
लिए एक विशाल कुंड है, जिसके
दोनों तरफ बने दालानों में
बड़े-बड़े दपंण लगे हुए हैं। इसकी
दूसरी मंजिल पर तथा चौक के
निकट कई आखेट-संबंधी चित्रों का
मनोरंजक अंकन किया गया है। इस
महल के ऊपरी मंजिल में बाद
में एक नये महल का निर्माण
कराया गया है।
इन महलों के जल के मध्य
में बना हुआ होने के कारण यहाँ
उष्ण काल में बड़ी ठंढक रहती है।
महल की दूसरी मंजिल से
सरोवर, राजमहल एवं नगर का
दृश्य बड़ा रमणीय लगता है।
जगमंदिर
जगनिवास से करीब आधे
मील दक्षिण में एक दूसरे विशाल
टापू पर जगमंदिर नामक पुराने
महल बने हुए हैं। इस महल का
निर्माण कार्य महाराणा कर्णसिंह
ने किया था, जिसे उनके पुत्र
महाराणा जगत सिंह प्रथम ने
समाप्त किया। उन्हीं के नाम पर इस
महल का निर्माण जगमंदिर पड़ा।
जगमंदिर के बाहर
तालाब के किनारे एक पत्थर के
हाथियों की एक पंक्ति बनी हुई है।
जगमंदिर के मुख्य स्थान पर एक
गुंबदाकार छत वाला महल है,
जिसे गोल महल कहते हैं। कहा
जाता है कि शाहजादा खुर्रम
(बादशाह शाहजहाँ) अपने पिता
जहाँगीर से विद्रोह कर कुछ
समय के लिए यहीं गोल महल में
रहा था। कुछ लोगों के
मतानुसार इसे महाराणा
कर्णसिंह ने शाहजादा खुर्रम के
लिए बनवाया था। लेकिन कुछ
विद्वान यह मानते हैं कि जब
शाहजादा खुर्रम शाही फौज का
सेनापति बनकर उदयपुर प्रवास
में था तब उक्त महल का निर्माण
करवाया था।
गोल महल की वास्तुकला
तथा निर्माण-योजना मेवाड़ शैली
से अलग है। कुछ विद्वान आगरा के
प्रसिद्ध ताजमहल की निर्माण शैली
इस इमारत से ही प्रभावित
मानते हैं। इसके गुम्बद में पत्थर
की पच्चीकारी का काम है। महल के
सामने एक विशाल चौक है, जिसके
मध्य में एक बड़ा हौज बना हुआ है।
हौज के चारों किनारों पर एवं
चौक के मध्य में फब्बारों की
पंक्तियाँ बनी हुई हैं। बाद में
महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय ने
अपने समय में इसमें कई दालान
तथा अन्य हिस्सों का निर्माण
करवाया। एक बहुत बड़े बगीचे के
निर्माण हो जाने से इस महल की
खूबसूरती और भी बढ़ गई है।
गोल महल के पूर्व पार्श्व
में संगमरमर की केवल बारह
बड़ी-बड़ी शिलाओं से बना हुआ एक
महल है। इसी महल में
महाराणा स्वरुप सिंह ने सन् १८५७
(विक्रम संवत् १९१४) में हुए सिपाही
विद्रोह के समय नीमच के कई
अंग्रेज अफसरों को यहीं आश्रय दिया
था।
एकलिंगगढ़
पीछोले के बड़ीपाल नामक
बाँध के दक्षिणी किनारे से प्रारंभ
होकर तालाब के दक्षिणी तट के
पास-पास पहाड़ियों की एक श्रृंखला
है। बांध के समीप ही ऊँची
पहाड़ी माछला मगरा (मत्स्य-शैल)
कहलाती है। इसी पहाड़ी पर
एकलिंगगढ़ नाम का एक प्राचीन दुर्ग
बना हुआ है। यहाँ अभी भी कुछ
तोपें रखी हुई है। उदयपुर पर
मरहटों के आक्रमण के समय इस
दुर्ग ने नगर की रक्षा करने में
बहुत सहायता की थी। इसके दक्षिण
में अरावली पर्वतमाला की
श्यामवर्ण पहाड़ियाँ शोभायमान
हैं।
खास ओदी तथा
सीसारमा गाँव
बाँध के दक्षिणी तट पर खास
ओदी नामक स्थान है, जहाँ
सिंह-शूकर युद्ध के लिए चौकोर
मकान बना हुआ है। खास ओदी के
कुछ दूर, पश्चिम में सरोवर के
दक्षिणी सिरे के निकट सीसारमा
गाँव है, जहाँ वैद्यनाथ नामक
शिवालय देखने योग्य है। यह
शिवालय महाराणा संग्रामसिंह
द्वितीय की माता देवकुमारी ने
बनवाया था, जिसकी महाराणा ने
विक्रम संवत् १७७२ को प्रतिष्ठा की।
मंदिर में दो बड़ी-बड़ी शिलाओं
पर विक्रम संवत् १७७५ की खुदी हुई
प्रशस्ति लगी हुई है, जिसमें
देवालय के प्रतिष्ठा से संबद्ध
उत्सव का उल्लेख किया गया है।
सज्जनगढ़
उदयपुर के पश्चिम में एक
कोस की दूरी पर बांसदरा पहाड़
पर महाराणा सज्जनसिंह ने
सुंदर महल बनवाना आरंभ
किया था, जिसे उनके मृत्यु के बाद
पूरा किया जा सका। इसका नाम
सज्जनगढ़ रखा गया। महल की पहली
मंजिल में पत्थर की नक्काशी बहुत
ही सुंदरता से किया गया है।
ऊँचाई पर होने के कारण
यहाँ से पीछोला, राजमहल,
नगर, फतहसागर, दूर-दूर के
गाँव तथा कई पर्वतमालाओं का
दृश्य बड़ा ही मनभावन लगता है।
सहेलियों की
बाड़ी
नगर के हाथीपोल
दरवाजे के बाहर ही थोड़ी दूर
पर रेजिडेंसी का भवन बना हुआ
है। वहाँ से पश्चिम की तरफ जाने
पर फतहसागर बांध के नीचे ही
सहेलियों की बाड़ी नामक बाग
न आता है। यहाँ एक महल बना
हुआ है, जिसके आगे चौक में एक
बहुत बड़ा हौज बना हुआ है,
जिसमें फतहसागर से नलों द्वारा
जलापूर्कित्त की व्यवस्था है। इस बाड़ी
में महलों की अपेक्षा फव्वारों का
दृश्य बड़ा ही चित्ताकर्षक लगता है।
हौज के चारों तरफ फव्वारों की
पंक्तियाँ लगी हुई है, जिसमें एक
साथ सैकड़ों धाराओं के एक साथ
छूटने का प्रावधान किया गया है।
हौज के चारों किनारों पर बनी
हुई छत्रियों तथा उनके ऊपर
बनाये गये पक्षियों के चोचों से
चारों तरफ ऊँची धराएँ छूटती
है। विशाल अंडाकृति कुंड में
कमल-वन लगा हुआ है। कुंड के
चारों तरफ एक अंतराल पर
फव्वारों के छिद्र बने हैं। मध्य में
एक विशाल फब्बारा लगा हुआ है।
कुण्ड के आमने सामने एक-एक पत्थर के
बने हुए चार हाथी हैं। इन
हाथियों में बने हुए सूंडों में
भी फब्बारे के रुप में जल-प्रवाह
का प्रावधान किया गया है। सहस्र
फब्बारों के समूह की रचना
महाराणा ने अपनी व्यक्तिगत रुचि के
अनुसार किया था। बाग में फूलों
की कई क्यारियाँ है तथा
स्थान-स्थान पर कई फब्बारों को
इस प्रकार लगाया गया है कि
इसके सौंदर्य का अनुमान बिना
देखे लगाना कठिन है। श्रावण मास
की हरियाली अमावस्या के अवसर
पर इस बाड़ी में नगर निवासियों
का एक बड़ा मेला भी लगता है।
आहाड़
उदयपुर नगर से करीब
डेढ़ मील की दूरी पर ईशान कोण
में रेलवे स्टेशन के समीप आहाड़
नामक प्राचीन नगर के खंडहर हैं।
जैन ग्रंथों तथा कुछ शिलालेखों के
अनुसार इसे आघाटपुर या आटपुर
के नाम से जाना जाता है।
प्राचीन काल में आहाड़ एक
समृद्धशाली नगर था। नगर में कई
देवालय बने थे। मालवों के
परमार राजा मुंज (वाक्पतिराज,
अमोघवर्ष) ने विक्रम संवत् १०३० के
आसपास इस नगर पर आक्रमण कर
इसे बहुत हद तक नष्ट कर दिया।
इसके बावजूद भी यह नगर आबाद
रहा लेकिन संभवतः बाद में आये
भूकंप के कारण यह पूरी तरह
नष्ट हो गया। इन खंडहरों में
धूलकोट नामक एक ऊँचा स्थान है,
जहाँ की खुदाई में बड़ी-बड़ी
ईंटें, मूर्तियाँ व प्राचीन सिक्के
मिल जाते हैं। अब इस स्थान पर
प्राचीन नगर के स्थान पर इसी नाम
से नया गाँव बसा है। यहाँ
गंगोद्भेद (गंगोभेव) नामक एक
पुरातन तीर्थरुप चतुरस्र कुंड है।
उसके मध्य में एक प्राचीन छत्री बनी
हुई है जिसे लोग उज्जैनी के
प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य के पिता
गंधर्वसेन का स्मारक बतलाते हैं।
कुड बड़ा ही पवित्र माना जाता है
जिसमें सैकड़ों लोग स्नानार्थ आते
हैं। उदयपुर के भूतपर्व दीवान
कोठारी बलवंतसिंह जी ने इसका
जीर्णोद्धार किया। कुंड के दक्षिण में
शिवालय के सामने एक दूसरा
चतुरस्र कुड तथा तिवारियाँ बनी
हुई है। इन्हीं कुंडों के निकट
अहाते से घिरा हुआ महाराणाओं
का दाहस्थल है जो महासती के
नाम से जाना जाता है। महाराणा
प्रताप के बाद के राणाओं का
अंत्येष्टि संस्कार बहुधा यहीं
होता रहा। यहाँ अनेक
छोटी-छोटी छत्रियाँ बनी हुई हैं
जिसमें अमर सिंह (प्रथम) अमरसिंह
(द्वितीय) तथा संग्राम सिंह द्वितीय
की छत्रियाँ बड़ी भव्य बनी हुई
है।
यहाँ बने नये मंदिरों
में पुराने मंदिरों के बहुत से
पत्थरों का उपयोग किया गया है।
कई पुराने शिलालेख व
मूर्तियाँ भी लगा दिये गये हैं।
मेवाड़ के राजा भर्तृभट द्वितीय
के समय (विक्रम संवत् १०००) का एक
शिलालेख दूसरे कुंड की दीवार
पर देखा जा सकता है। बाद में
बनाये गये जैन मंदिर तथा
हस्तमाता के मंदिर की सीढियों
में भी शिलालेख वाले पत्थरों का
उपयोग किया गया था। राजा अल्लट
के समय (विक्रम संवत् १०१०) के
शिलालेख से सारणेश्वर के
मंदिर का छबना बनाया गया था।
राजा अल्लट के समय का लेख मूल
में वाराह मंदिर में लगा हुआ
है जो मेवाड़ के इतिहास में एक
महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
एकलिंग जी
उदयपुर से १३ मील उत्तर में
एकलिंग जी का प्रसिद्ध मंदिर है जो
पहाड़ियों के बीच में बना हुआ
है। इस गाँव का
नाम कैलाशपुरी है। लोग इसे
एकलिंगेश्वर की पुरी के रुप में भी
जानते हैं। एकलिंग जी की मूर्ति
चौमुखी है जिसकी प्रतिष्ठा
महाराणा रायमल ने की थी।
एकलिंग जी महाराणा के इष्टदेव
माने जाते रहे हैं। लोग मेवाड़
राज्य के मालिक के रुप में उनके
प्रति सम्मान व्यक्त करते थे और
महाराणा उनके दीवान कहलाते थे,
इसी वजह से महाराणा को
राजपूताने में दीवाणजी के रुप में
भी पुकारा जाता था।
एकलिंग जी का सुविशाल
मंदिर एक ऊँचे कोट से घिरा
हुआ है। इसके निर्माण कार्य के
बारे में तो ऐसा कोई लिखित
साक्ष्य उपलब्ध नहीं है लेकिन एक
जनश्रुति के अनुसार सर्वप्रथम इसे
राजा बापा (बापा रावल) ने
बनवाया था। फिर मुसलमानों के
आक्रमण से टूट जाने के कारण
महाराणा मोकल ने उसका
जीर्णोद्धार किया तथा एक कोट का
निर्माण करवाया। तदनन्तर
महाराणा रायमल ने नये सिरे
से वर्तमान मंदिर का निर्माण
किया। मंदिर के दक्षिणी द्वार के
सामने एक तारव में महाराणा
रायमल की १०० श्लोकों वाली एक
प्रशस्ति लगी हुई है जो मेवाड़
के इतिहास तथा मंदिर के सम्बन्ध
में संक्षिप्त वृत्तांत प्रस्तुत करती
है। इस मंदिर में पूजन प्रक्रिया एक
विशेष रुप से तैयार पद्धति के
अनुसार होती है। उक्त पद्धति के
अनुसार उत्तर के मुख को विष्णु का
सूचक मानकर विष्णु के भाव से
उसका पूजन किया जाता है।
इस मंदिर के अहाते में
कई और भी छोटे बड़े मंदिर
बने हुए हैं, जिनमें से एक
महाराणा कुम्भा (कुभकर्ण) का
बनवाया हुआ विष्णु का मंदिर
है। लोग इसे मीराबाई का
मंदिर के रुप में भी जानते हैं।
एकलिंग जी के मंदिर से दक्षिण में
कुछ ऊँचाई पर यहाँ के
मठाधिपति ने सन् ९७१ (विक्रम
संवत् १०२८) में लकुलीश का मंदिर
बनवाया था। इस मंदिर के कुछ
नीचे विंघ्यवासिनी देवी का
मंदिर है।
बापा का गुरुनाथ
हारीतराशि पहले एकलिंग जी
मंदिर के महंत थे और पूजा का
कार्य शिष्य-परंपरा के अन्तर्गत
चलता रहा। इन नाथों का पुराना
मठ अभी भी एकलिंग जी के मंदिर के
पश्चिम की तरफ देखा जा सकता है।
बाद में नाथों का आचरण गिड़ता
गया। वे स्रियाँ भी रखने लगे।
तभी से उन्हें अलग कर मठाधिपति के
रुप में एक सन्यासी को नियत किया
गया तभी से यहाँ के मठाधीश
सन्यासी ही होते रहे हैं। ये
सन्यासी गुसाईंजी (गोस्वामी जी)
कहलाते थे। गुसांईजी की अध्यक्षता
में तीन-चार ब्रम्हचारी रहते थे
जो वहाँ का पूजन कार्य सम्पादित
करते थे। पूजन की सामग्री आदि
पहुचाने वाले परिचायके टहलुए
कहे जाते हैं।
नागदा
एकलिंग जी के मंदिर से
थोड़े ही अन्तर पर मेवाड़ के
राजाओं की पुरानी राजधानी
नागदा नगर है जिसको संस्कृत
शिलालेखों में नागऋद के नाम से
उल्लेख किया गया था। पहले यह
बहुत बड़ा और समृद्धशाली नगर
था परन्तु अब उजाड़ पड़ा हुआ है।
प्राचीन काल में यहाँ अनेक
शिव, विष्णु तथा जैन मंदिर बने
हुए थे जिसमें कई अभी भी विद्यमान
हैं। जब दिल्ली के सुल्तान
शमसुद्दीन अल्तुतमिश ने अपनी
मेवाड़ की चढ़ाई में इस नगर को
नष्ट कर दिया, तभी से इसकी
अवनति होती गई। महाराणा
मोकल ने इसके निकट अपने भाई
बाघसिंह के नाम से बाघेला
तालाब बनवाया जिससे इस नगर
का भी कुछ अंश जल में डूब गया।
इस समय, जो मंदिर
यहाँ विद्यमान है, उसमें से दो
संगमरमर के बने हुए हैं। इन्हें
सास बहु का मंदिर कहा जाता है।
सास का मंदिर जिसका निर्माण
लगभग विक्रम संवत् ११ वीं शताब्दी
में हुआ था, में बहुत ही सुंदर
नक्काशी का कार्य होने का प्रमाण
है। एक विशाल जैन-मंदिर भी
टूटी-फेटी दशा में है, जिसको
खुंमाण रावल का देवरा कहते
हैं। इसमें भी नक्काशी का अच्छा काम
है। दूसरा जैन-मंदिर अदबद जी का
मंदिर कहलाता है। इसके भीतर ९
फुट ऊँची शान्तिनाथ जी की बैठी
हुई अवस्था में मूर्ति है। इस
मूर्ति के लेख से ज्ञात होता है कि
महाराणा कुंभकर्ण (कुंभा) के
शासनकाल, सन् १४३७ (विक्रम संवत्
१४९४) के दौरान ओसवाल सारंग ने
यह मूर्ति बनवाई थी। इस अद्भुत
मूर्ति के कारण ही इस मंदिर का
नामकरण अदबदजी (अद्भुत जी) के
रुप में हुआ।
नोटः लकुलीश या
लकुटीश शिव के १८ अवतारों में से
एक माना जाता है। प्राचीन काल के
विभिन्न पाशुपत (शैव) सम्प्रदायों
में यह सम्प्रदाय बहुत ही प्रसिद्ध
था। उन्हें ऊघ्र्वरता (जिसका वीर्य
कभी स्खलित न हुआ हो) माना जाता
है जिसका चिन्ह ऊघ्र्वलिंग के रुप
में है।
इन मंदिरों के अतिरिक्त भी
यहाँ कई छोटे-छोटे मंदिर
विद्यमान हैं: -
श्रीनाथजी
उदयपुर से ३० मील तथा
एकलिंग जी से १७ मील उत्तर में
नाथद्वारा नामक स्थान पर वल्लभ
संप्रदाय के वैष्णवों के मुख्य
उपास्य देवता श्रीनाथ जी का मंदिर
है। समस्त भारत के वैष्णव
नाथद्वारे को अपना पवित्र तीर्थ
मानकर यात्रार्थ यहाँ आते हैं। अन्य
मंदिरों से भिन्न, यहाँ
पुष्टिमार्ग के नियमानुसार ही
समय-समय पर श्रीनाथ जी की मूर्ति
के दर्शन कराये जाने का प्रावधान
है, इसे झाँकी कहते हैं। वल्लभ
संप्रदाय, जिसे शुद्धाद्वेैत संप्रदाय
भी कहते हैं, के संस्थापक तैलंग
जाति के श्री वल्लभाचार्य जी थे।
माना जाता है, उन्हें ही गोवर्धन
पर्वन पर श्रीनाथ जी की मूर्ति मिली
थी। समय के साथ इस सम्प्रदाय की
प्रसिद्धि बढ़ती गई। पहली बार
वल्लभाचार्य के द्वितीय पुत्र
विट्ठलनाथ जी को गुंसाई
(गोस्वामी) पदवी मिली तब से
उनकी संताने गुसांई कहलाने
लगीं। विट्ठलनाथ जी के कुल सात
पुत्रों की पूजन की मूर्तियाँ अलग -
अलग थीं। यह वैष्णवों में सात
स्वरुप के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनके
ज्येष्ठ पुत्र गिरिधर जी टिकायत
(तिलकायत) थे। इसी से उनके
वंशल नाथद्वारे के गुसांई जी
टिकायत महाराज कहलाने लगे।
श्रीनाथ जी की मूर्ति गिरिधर जी के
पूजन में रही।
जब बादशाह औरंगजेब
ने हिंदुओं की मूतियाँ तोड़ने की
आज्ञा दी, तब श्रीनाथ जी की भी मूर्ति
तोड़ दिये जाने के भय से
दामोदर जी (बड़े दाऊजी) जो
गिरिधर जी के पुत्र थे प्रतिमा
लेकर सन् १६६९ (विक्रम संवत १७२६) में
गुप्तरीति से गोवर्धन से निकल
गये तथा कई स्थानों पर जैसे
आगरा, बूंदी, कोटा, पुष्कर,
कृष्णगढ़ आदि होते हुए चांपासणी
गाँव (जोधपुर राज्य) में पहुंचे।
बाद में मेवाड़ के तत्कालीन
महाराणा राजसिंह की सहर्ष
सहमति से इसे सन् १६७१ (विक्रम
संवत् १७२८) को मेवाड़ ले आये
जहाँ बनास नदी के किनारे
सिहाड़ गाँव के पास वाले खेड़े
में लाकर उसकी प्रतिष्ठा कर दी गई।
धीरे-धीरे वहाँ एक नया गाँव
बसने लगा तथा एक अच्छे कस्बे में
बदल गया। बाद में उदयपुर के
महाराणा, राजपूताना तथा अन्य
बाहरी राज्यों के राजाओं व
सरदारों ने श्रीनाथजी को कई
गाँव व कुएँ उपहार स्वरुप भेंट
देते रहे।
कांकड़ोली
नाथद्वारे से १० मील उत्तर में
रासमुद्र के बांध के पास ही
कांकड़ोली गाँव बसा है। यहाँ
वल्लभ सम्प्रदाय का द्वारिकाधीश
(द्वारिकानाथजी) का मंदिर बना है।
यहाँ की मूर्ति सात स्वरुपों में से
एक होने के कारण यह भी
वैष्णवों का एक तीर्थ है और
नाथद्वारे आने वाले वैष्णवों में
से कई यहाँ भी दर्शनार्थ जाते
हैं। औरंगजेब के भय से ही यह
मूर्ति श्रीनाथजी से कुछ पहले
मेवाड़ में लाई जाकर स्थापित की
गई थी। यहाँ के गुंसाईजी
महाराणाओं के वैष्णव गुरु हैं।
चारभुजा
कांकड़ोली से अनुमानतः १०
मील पश्चिम के गड़वोर गाँव में
चारभुजा का प्रसिद्ध विष्णु-मंदिर
है। मेवाड़ तथा मारवाड़ आदि के
बहुत से लोग यात्रार्थ यहाँ आते
हैं और भाद्रपद सुदि ११ को यहाँ
बड़ा मेला होता है। चारभुजा का
मंदिर किसने बनवाया यह ज्ञात
नहीं हुआ, परन्तु प्राचीन देवालय
का जीर्णोद्धार कराकर वर्तमान
मंदिर वि. सं. १५०१ (ई. सं. १४४४) में
खरवड़ जाति के रा. (रावत या
राव) महीपाल, उसके पुत्र लखमण
(लक्ष्मण), उस लखमण (लक्ष्मण) की स्री
क्षीमिणी तथा उसके पुत्र झांझा, इन
चारों ने मिलकर बनवाया, ऐसा
वहाँ के शिलालेख से पाया जाता
है। उक्त लेख में इस गाँव का नाम
बदरी लिखा है और लोग
चारभुजा को बदरीनाथ का रुप
मानते हैं।
रुपनारायण
चारभुजा से करीब तीन
मील की दूरी पर सेवंत्री गांव
में रुपनारायण का प्रसिद्ध विष्णु
मंदिर है। इस मंदिर को वि. सं.
१७०९ (ई. सं. १६५२) में महाराणा जगत
सिंह (प्रथम) के राज्यकाल में
मड़तिया राठोड़ चांदा के पौत्र
और रामदास के पुत्र जगतसिंह ने
कोठारीकुंभा के सहयोग से
बनवाया था। पहले के मंदिर का
कुछ अंश नष्ट हो गया था, जिससे
उसी के स्थान पर यह नया मंदिर
बनवाया गया है।
कुंभलगढ़
नाथद्वारों से करीब २५ मील
उत्तर की ओर अरावली की एक ऊँची
श्रेणी पर कुंभलगढ़ का प्रसिद्ध किला
बना हुआ है। समुद्रतल से इसकी
ऊँचाई ३५६८ फुट है। इस किले का
निर्माण सन् १४५८ (विक्रम संवत् १५१५)
में महाराणा कुंभा (कुंभकर्ण) ने
कराया था अतः इसे कुंभलमेर
(कुभलमरु) या कुभलगढ़ का किला
कहते हैं। यह किला मुसलमानों
की कई बार चढ़ाइयों तथा
बड़ी-बड़ी लड़ाईयों के कारण एक
खास ऐतिहासिक महत्व रखता है।
इस सुन्दर दुर्ग के स्मरणार्थ
महाराणा कुभा ने सिक्के भी जारी
किये थे जिसपर इसका नाम अंकित
हुआ करता था।
केलवाड़े के कस्बे से
पश्चिम में कुछ दूरी पर ७०० फुट
ऊँची नाल चढ़ने पर किले का आरेठ
पोल नामक दरवाजा बना है।
यहाँ हमेशा राज्य की ओर से
पहरा हुआ करता था। इस स्थान से
करीब एक मील की दूरी पर हल्ला
पोल है जहाँ से थोड़ा और
आगे चलने पर हनुमान पोल
पर जाया जा सकता है। हनुमान
पोल के पास ही महाराणा कुंभा
द्वारा स्थापित हनुमान की मूर्ति है।
इसके बाद विजय पोल नामक
दरवाजा आता है जहाँ की कुछ
भूमि समतल तथा कुछ नीची है।
यहीं से प्रारम्भ होकर पहाड़ी की
एक चोटी बहुत ऊँचाई तक चली
गई है। उसी पर किले का सबसे
ऊँचा भाग बना हुआ है। इस स्थान
को कहारगढ़ कहते हैं। विजय
पोल से आगे बढ़ने पर क्रमशः भैरवपोल,
नींबू पोल, चौगान पोल, पागड़ा
पोल तथा गणेश पोल आती
है।
विजय पोल के पास की
समतल भूमि पर हिन्दुओं तथा
जैनों के कई मंदिर बने हैं।
यहाँ पर नीलकंठ महादेव का
बना मंदिर अपने ऊँचे-ऊँचे
सुन्दर स्तम्भों वाले बरामदा के
लिए जाना जाता है। इस तरह के
बरामदे वाले मंदिर प्रायः नहीं
मिलते। कर्नल टॉड जैसे
इतिहासकार मंदिर की इस शली
को ग्रीक (यूनानी) शैली बतलाते
हैं। लेकिन अधिकांशतः विद्वान
इससे सहमत नहीं हैं। यहाँ का
दूसरा उल्लेखनीय स्थान वेदी
है, जो शिल्पशास्र के ज्ञाता
महाराणा कुभा ने यज्ञादि के
उद्देश्य से शास्रोक्त रीति से
बनवाया था। राजपूताने में प्राचीन
काल के यज्ञ-स्थानों का यही एक
स्मारक शेष रह गया है। इसकी
इमारत एक दोमंजिले भवन के
रुप में है जिसके ऊपर बने
गुम्बद के नीचे वाले हिस्से से
जो चारों तरफ से खुला हुआ है,
धुँआ निकलने का प्रावधान है।
कुंभलगढ़ की प्रतिष्ठा का यज्ञ भी
इसी वेदी पर हुआ था। किले के
सर्वोच्च भाग पर भव्य महल बने
हुए हैं।
नीचे वाली भूमि में भाली
वान (बावड़ी) और मामादेव का
कुड है। इसी कुड पर बैठे
महाराणा कुभा अपने ज्येष्ठ पुत्र
उदयसिंह (ऊदा) के हाथों मारे
गये थे। कुंड के निकट ही मामावट
नामक स्थान पर महाराणा कुम्भा
ने कुभ स्वामी नामक
विष्णु-मंदिर बनवाया था जो अभी
टूटी-फूटी अवस्था में है। मंदिर के
बाहरी भाग में विष्णु के
अवतारों, देवियों, पृथ्वी,
पृथ्वीराज आदि की कई मूर्तियाँ
स्थापित की गई थीं। साथ-साथ राणा
ने पाँच शिलाओं पर प्रशस्तियाँ भी
खुदवाई थीं जिसमें उन्होंने
मेवाड़ के राजाओं की वंशावली,
उनमें से कुछ का संक्षिप्त परिचय
तथा अपने भिन्न-भिन्न विजयों का
विस्तृत-वर्णन करवाया था।
मामावट के निकट ही राणा
रायमल के प्रसिद्ध पुत्र वीरवर
पृथ्वीराज का दाहस्थान बना हुआ
है।
गणेश पोल के सामने
वाली समतल भूमि पर गुम्बदाकार
महल तथा देवी का स्थान है।
यहाँ से कुछ सीढियाँ और चढ़ने
पर महाराणा उदयसिंह की राणी
झाली का महल था जिसे झाली
का मालिया कहा जाता था। गणेश
पोल के सामने बना हुआ महल
अत्यन्त ही भव्य है। ऊँचाई पर
होने के कारण गर्मी के दिनों में
भी ठंडक बनी रहती है।
जावर
पर्वत-मालाओं के बीच
स्थित यह स्थान उदयपुर से
अनुमानतः २० मील दक्षिण में स्थित है।
एक ऊँची पहाड़ी के मध्य में जावर
माला नामक स्थान है जहाँ
महाराणा प्रताप अकबर के साथ
लड़ाईयों के दौरान कभी-कभी
रहा करते थे। महाराणा लाखा के
समय चाँदी और सीसे की खानों
में कार्य होने के कारण यहाँ की
आबादी अच्छी थी लेकिन बाद में खान
का कार्य बन्द हो जाने से
जनसंख्या भी कम होती गई।
वर्तमान में नया जावर क्षेत्र एक
छोटे से कस्बे के रुप में है जहाँ
अधिकांश जनसंख्या भीलों की है।
जावार में जावर माता नामक
देवी का मंदिर है। इसके अलावा
यहाँ कई जैन, शिव तथा विष्णु के
मंदिर हैं। महाराणा कुंभा की
राजकुमारी रमाबाई जिसका
विवाह गिरनार (जूनागढ़,
काठियावाड़) के राजा मंडीक
चतुर्थ के साथ हुआ था, अपने पति से
अनबन हो जाने पर अपने भाई
महाराणा रायमल के समय
गिरनार से वापस आकर जावर में
बस गई जहाँ उन्होंने रमाकुण्ड
नाम का एक विशाल जलाशय
खुदवाया। उसी के तट पर
रामस्वामी नामक एक सुन्दर
विष्णुमंदिर भी बनवाया। मंदिर
की दीवार पर लगे शिलालेख से
ज्ञात होता है कि इसका निर्माण
सन् १४९७ (विक्रम संवत् १५५४) में
कराया गया है। महाराणा
रायमल का राजतिलक जावर में
ही हुआ था।
चावंड
उदयपुर से खैरवाड़े जाने
वाली सड़क पर परसाद गाँव से
करीब ६ मील पूर्व की तरफ चावंड
नाम का पुराना गाँव है। यहाँ एक
जैन-मंदिर है। गाँव से अनुमानतः
आधे मील की दूरी पर, पहाड़ी पर
महाराणा प्रताप के महल बने हुए
हैं और उसके नीचे देवी का एक
मंदिर है। महाराणा प्रताप का
स्वर्गवास इन्हीं पहाड़ियों की
श्रेणी के बीच हुआ था। इस स्थान से
डेढ़ मील की दूरी पर बंडोली
गाँव के पास बहने वाले एक छोटे
से नाले के तट पर इनका अग्नि
संस्कार किया गया था।
स्मारक के रुप में वहाँ
श्वेत-पाषाण की आठ स्तम्भोंवाली एक
छोटी सी छत्री बनी है।
ॠषभदेव
उदयपुर से ३९ मील दक्षिण
में खैरवाड़े की सड़क के निकट
कोट से घिरे घूलेव गाँव में
ॠषभदेव का मंदिर है जो
मेवाड़ में जैनियों का सबसे बड़ा
तीर्थ स्थान के रुप में माना जाता
है। विष्णु के २४ अवतारों में से
आठवें अवतार के रुप में माने जाने
के कारण यह स्थान हिन्दुओं का भी
तीर्थ स्थल है। विभिन्न स्थानों से
आर्य श्रद्धालुगणों द्वारा यहाँ
केसर चढ़ाई जाती है अतः
ॠषभदेव की भव्य और तेजस्वी
प्रतिमा को केसरियानाथ के रुप
में भी जाना जाता है। यह प्रतिमा
डूंगरपुर राज्य की प्राचीन
राजधानी बड़ौदे (पटपद्रक) के जैन
मंदिर से लाकर जो नष्ट हो
चुका है, यहाँ स्थापित की गई है।
चूँकि प्रतिमा का पत्थर काले रंग
का है अतः स्थानीय भील इसे
कालाजी भी कहते हैं। मंदिर के
चारों ओर दूर तक बनी भीलों की
बस्ती के लोगों की इन पर अगाध
श्रद्धा है। कहा जाता है कि यहाँ
चढ़े केसर का पानी पीकर किसी भी
विपत्ति में झूठ नहीं बोलते।
कहा जाता है कि यह
मंदिर ईंटों का बना हुआ एक
जिनालय था जिसके टूट जाने पर
नया पत्थर का बना मंदिर बनाया
गया जिसमें भिन्न-भिन्न हिस्से
अलग-अलग समय में बनाये गये।
मंदिर का प्रथम द्वार
नक्कारखाने के रुप में है।
नक्कारखाने से प्रवेश करते ही
बाहरी परिक्रमा का चौक आता है।
वहीं पर दूसरा द्वार है जिसके
दोनों ओर काले पत्थर का एक-एक
हाथी खड़ा हुआ है। उत्तर की तरफ के
हाथी के पास एक हवनकुंड बना है
जहाँ नवरात्रि के दिनों में दुर्गा
का हवन होता है। उक्त द्वार के
दोनों ओर के ताखों में से एक में
ब्रम्हा की तथा दूसरे में शिव की
मूर्ति है। इस द्वार से सीढियों के
द्वारा मंदिर में जाने की व्यवस्था
है। सीढियों के ऊपर के मंडप
में मध्यम कद के हाथी पर बैठी
हुई मरुदेवी की मूर्ति है।
सीढियों से आगे बांयी तरफ
श्रीमदभागवत् का चबूतरा बना
है, जहाँ चौमासे में भागवत की
कथा होती है। मंडप में ९ स्तम्भों
के होने के कारण नौचौकी के रुप
में जाना जाता है। यहाँ से तीसरे
द्वार में प्रवेश किया जाता है। उक्त
द्वार के बाहर उत्तर के ताख में शिव
तथा दक्षिण के ताख में सरस्वती की
मूर्ति स्थापित है। वहाँ पर खुदे
अभिलेख इसे विक्रम संवत १६७६ में
बना बताते हैं। तीसरा द्वार खेला
मंडप (अंतराल) में पहुँचता है,
जिसके आगे निजमंदिर (गर्भगृह)
बना है। इसी में ॠषभदेव की
काले पत्थर की बनी प्रतिमा
विराजमान है। गर्भगृह के ऊपर
विशाल शिखर बना है, जहाँ
ध्वजादंड भी लगा है। खेला मंडप,
नौचौकी तथा मरुदेवी वाले
मंडप की छत गुंबदाकार बनी है।
मंदिर के उत्तरी, दक्षिणी तथा
पश्चिमी पार्श्व में देव-कुलिकाओं
की पंक्तियाँ हैं, जिनमें से प्रत्येक
के मध्य में मंडप सहित एक-एक
मंदिर बना है। इन तीनों
मंदिरों को वहाँ के पुजारी
लोग नेमिनाथ का मंदिर कहते
हैं, लेकिन शिलालेखों से यह
स्पष्ट है कि इनमें से एक ॠषभदेव
का ही मंदिर है। बांकी के दो
मंदिर किन तीथर्ंकरों के हैं, यह
अभिलेखों के नहीं होने के कारण
ज्ञात नहीं है। देवकुलिकाओं और
मंदिर के बीच भीतरी परिक्रमा
है।
यहाँ लगे शिलालेखों से
ज्ञात होता है कि निजमंदिर तथा
खेला मंडप विक्रम संवत् १४३१ में
बनाये गये, जबकि नौचौकी तथा
एक मंडप का निर्माण सन् १५१५ (विक्रम
संमत् १५७२) में हुआ। मंदिर के
चौतरफा बना पक्का कोट सन् १८०६
(वि. सं. १८६३) का है तथा नक्कारखाना
सन् १८३२ (वि. सं. १८८९) में बनाया गया।
देव कुलिकाओं का निर्माण इसके
बाद हुआ। इसके संबंध में उपलब्ध
शिलालेख नदी तट गच्छ की उत्पत्ति तथा
उक्त गच्छ के आचार्यों की क्रम परंपरा
का उल्लेख करती है। अतः जैन
इतिहास में इसका विशेष महत्व
है। यहाँ पर उपलब्ध शिलालेखों
के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता
है कि मंदिर तथा देवकुलिकाओं
का अधिकांश भाग काष्टासंघ के
भट्टारकों के उपदेश से उनके
दिगम्बरी अनुयायियों ने
बनवाया था।
ॠषभदेव की प्रतिमा के
गिर्द इंद्रादि देवता बने हैं।
दोनों पाश्वाç पर दो नग्न
काउसगिये (कायोत्सर्ग स्थिति वाले
पुरुष) खड़े हुए हैं। मूर्ति के चरणों
में, नीचे छोटी-छोटी नौ मूर्तियाँ
हैं, जिन्हें नवग्रह या नवनाथ
के रुप में जाना जाता है। नवग्रहों
के नीचे सोलह स्वप्न खुदे हैं।
इसके नीचे हाथी, सिंह, देवी आदि
की मूतियाँ हैं। सबसे नीचे दो
बैलों के बीच देवी की मूर्ति बनी
है। पश्चिम की देवकुलिकाओं में
से एक में ठोस पत्थर का बना एक
मंदिर सा रचना है, जिसपर
तीथर्ंकरों की बहुत सी
छोटी-छोटी मूतियाँ खुदी है।
लोग इसे गिरनारजी का बिंब
के रुप में जानते हैं। इस प्रकार
यहाँ
कुल मिलाकर तीथर्ंकरों
की २२ तथा देवकुलिकाओं की ५४
मूतियाँ विराजमान हैं। इन कुल
७६ मूतियों में ६२ में लेख उपलब्ध है,
जो बताते हैं कि ये मूर्तियाँ वि.
सं. १६११ से वि. सं. १८६३ के बीच बनाई
गई हैं। ये लेख जैनों के
इतिहास की जानकारी की दृष्टि से
विशेष महत्व के हैं।
नोटः- तीथर्ंकर की गर्भवती
माता ने जो स्वप्न देखा, वे जैन
धर्म बहुत पवित्र माने जाते हैं।
दिगंबर सोलह स्वप्न मानते हैं,
वहीं श्वेतांबरों में चौदह
स्वप्नों की मान्यता हैं।
नौचौकी के मंडप के
दक्षिणी किनारे पर पाषाण का एक
छोटा सा स्तम्भ खड़ा है, जिसके
चारों ओर तथा ऊपर नीचे
छोटे-छोटे १० ताखें खुदी हैं।
मुसलमान लोग इस स्तम्भ को
मस्जिद का चिंह मानकर अपनी श्रद्धा
व्यक्त करते हैं।
ॠषभदेव जी के मंदिर में
विष्णु के जन्माष्टमी, जलझूलनी
आदि उत्सव मनाये जाते हैं।
चौमासे में श्रीमद्भागवत की
कथा होती है। पहले तो अन्य
विष्णु-मंदिरों के समान यहाँ
भोग भी लगता था। भोग तैयार
होने के स्थान को रसोड़ा
कहते थे।
एक दिलचस्प बात महाराणा
के इस मंदिर में प्रवेश से जुड़ा
है। वे इस मंदिर में द्वितीय द्वार
से प्रवेश नहीं करते थे, बल्कि
बाहरी परिक्रमा के पिछले भाग
में बने हुए छोटे द्वार से प्रवेश
करते थे। दूसरे द्वार के ऊपर की
छत में पाँच शरीर और एक
सिरवाली एक मूर्ति खुदी हुई है,
जिसको लोग छत्रभंग कहते हैं।
इसके नीचे से प्रवेश करना
महाराणा के लिए उचित नहीं माना
जाता था।
नोट १:- चूंकि क्षेत्राधिकार
के बाद मुसलमान लोग मंदिरों
को नष्ट कर देते थे, अतः उस समय बने हुए
अनेक बड़े मंदिरो में जान-बूझकर
उनका कोई पवित्र चिंह बना दिया जाता
था, जिससे वे उसे तोड़ नहीं पायें।
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